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का द्रव्य लेना, और निरपराधी पशु-पक्षियों की कैद- इन सभी बातों पर रोक लगी।
जब उन्हें अपने गुरु हीर सूरि जी की अस्वस्थता के समाचार मिले, तभी उन्होंने लाहौर से विहार चालू किया। मार्ग लंबा होने से एक चातुर्मास उन्हें सादड़ी करना पड़ा और उसी चातुर्मास में हीर सूरि की कालधर्म हो गया। गच्छ का संपूर्ण दायित्व इन पर आया। विजय सेन सूरि जी से प्रभावित हो बादशाह अकबर ने उन्हें 'सवाई सूरि' की उपाधि दी। आचार्य विजय सेन सूरि जी वाद विद्या में भी बहुत निपुण थे। हीर सूरि जी से प्रभावित हो जो स्थानकवासी मत के मेधजी ऋषि आदि साधु ने संवेगी दीक्षा ली, उसका श्रेय भी इन्हें ही जाता है। अकबर की सभा में ब्राह्मण विद्वानों के साथ उन्होंने कई शास्त्रार्थ किए और वे सफल रहे। शास्त्रार्थ जय के प्रसंग पर अकबर बादशाह ने स्वयं इन्हें उसी समय- 'काली सरस्वती' की उपाधि प्रदान की थी।
वि.सं. 1632 में सूरत बंदर में श्रीमिश्र चिन्तामणि प्रमुख विद्वानों की साक्षी में विजय सेन सूरि जी ने शास्त्रार्थ में भूषण नामक दिगम्बर भट्टारक को जीता। गुजरात, मारवाड़ आदि में अनेकानेक क्षेत्रों लोगों में जिनवाणी की सिंहगर्जना करते हुए उन्होंने जिनशासन की महती प्रभावना की।
साहित्य रचनाः विजय सेन सूरि जी विद्वत्ता के धनी थे। योगशास्त्र के प्रथम श्लोक
नमो दुर्वार-रागादि, वैरिवार-निवारिणे।
अर्हते योगिनाथाय, महावीराय तायिने॥" इस एक श्लोक के 700 अर्थ उन्होंने किए जो उनकी भाषा पर आधिपत्य का प्रतीक है। इसके अलावा उनके द्वारा रचित कुछ ग्रंथ जैसे सूक्तावलि, सुमित्ररास इत्यादि ग्रंथ यत्र-तत्र प्राप्त होते हैं। संघ व्यवस्थाः
2000 साधु-साध्वियों का 20 वर्ष तक कुशल नेतृत्व किया। विजय सेन सूरि जी ने 8 साधुओं को वाचक (उपाध्याय) पद दिया एवं 150 साधुओं को पंडित पद प्रदान किया। अन्य मत के कई साधु उनसे प्रभावित होकर जिनधर्म में दीक्षित हुए। विजय सेन सूरि जी शिथिलाचार
महावीर पाट परम्परा
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