________________
हों, बाल-वृद्ध-ग्लान साधु के संयम को प्रवर्ताने में कुराल हो, गंभीर हों, .... इत्यादि गुणों से युक्त गुरु ही गण एवं गच्छ के भार को स्थापन करने के योग्य हैं अन्यथा हे गौतम! आज्ञा का भंग होता है। इसी प्रकार गण, गच्छ आदि पर स्थापित करने योग्य गुरुओं की योग्यता का भी आगम-ग्रंथों में उल्लेख है। प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से यह पट्टधर विषयक गुणों व योग्यताओं की भी पुष्टि करता है।
जिस तरह एक प्रतिष्ठित जिनमंदिर अथवा तीर्थ में वर्षों के अंतराल के बाद उसका ढाँचा कमजोर पड़ जाता है। कभी उसे सामान्य मरम्मत से ठीक करना पड़ता है एवं कभी पूरा जीर्ण-शीर्ण होने पर जीर्णोद्धार कराना पड़ता है, उसी प्रकार द्रव्य-क्षेत्र-भाव के कारण साधु-साध्वी जी के आचार में भी परिवर्तन आने की संभावनाएं होती हैं। उनके ढीले अथवा आगम-प्रतिकूल आचार को शिथिलाचार कहा जाता है। पट्टधर गुरु भगवन्तों का यह दायित्व होता है कि समूचे संघ में दर्शन-ज्ञान-चारित्र का सम्यक् पालन रखें। साधु-साध्वी जी में शिथिलाचार प्रवेश करने पर जो असुविहित प्रवृत्तियों का त्याग कर सुविहित मार्ग पर चलते हैं एवं वैसा ही पालन अपने आज्ञानुवर्ती साधु-साध्वी समुदाय में हो, ऐसा सुनिश्चित करते हैं, उस क्रिया को 'क्रियोद्धार' की संज्ञा से अभिहित किया गया है।
पट्टधर गुरु भगवंतों द्वारा यह संघ-संरक्षण, जिनाज्ञा पालन एवं दायित्व पूर्ति का ही सारणा-वारणा आदि का विस्तृत रूप रहा है। प्रभु वीर की परम्परा में कई बार शिथिलाचार व्याप्त हुआ जैसे - साधुओं द्वारा धन संग्रह करना, निष्कारण एकाकी विहार, आगम विरुद्ध प्ररुपणा, साध्वी द्वारा लाए आहार का साधु द्वारा ग्रहण करना इत्यादि जिसका समय-समय पर क्रियोद्धार हमारे पूर्वगुरुदेवों ने किया है।
आज जो चतुर्विध संघ का महिमावंत स्वरूप दिखता है, जिनप्रतिमा - जिनमंदिर-जिनागम आदि क्षेत्र पोषित दिखते हैं, यह सब हमारे गुरुदेवों का पुरुषार्थ हैं जिन्होंने संयम धर्म की मर्यादा में रहकर जिनधर्म-जिनशासन की महती प्रभावना की। - तपागच्छ एवं 84 गच्छ
भगवान् महावीर के प्रथम पट्टधर आचार्य सुधर्म स्वामी जी के समय में संपूर्ण श्रमण समुदाय की प्रसिद्धि 'निर्ग्रन्थ गच्छ अथवा सुधर्म गच्छ' के नाम से थी। कालान्तर में शाखाओं-प्रशाखाओं से अनेकों गच्छ प्रसिद्ध हुए। कई जगह 84 गच्छ होने की बात कही जाती
xiv