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49. आचार्य श्रीमद् देवसुन्दर सूरीश्वर जी
ज्ञानगुणभूषण भविष्यदर्शी संरक्षण शास्त्रभंडार । सुंदरतम आचार्य देवसुंदर जी, नित् वंदन बारम्बार ॥
अपने काल में में विनष्ट होते जा रहे आगम इत्यादि शास्त्रों की प्राचीन प्रतियों की प्रतिलिपि कराने वाले भगवान् महावीर स्वामी के 49वें पट्टधर आचार्य देवसुंदर सूरि जी ने अनेकों ग्रंथ भण्डारों का जीर्णोद्धार कराया जिसके लिए वर्तमान में भी सब इनके ऋणी हैं।
जन्म एवं दीक्षा :
वि.सं. 1396 में प.पू. देवसुंदर सूरि जी का जन्म हुआ । आठ वर्ष की आयु में पूज्य सोमतिलक सूरि जी के प्रवचनों से प्रेरित होकर वैराग्य की भावना जगी । अतः वि.सं. 1404. में महेश्वर गाँव (महेसाणा ) में उनके करकमलों से दीक्षा ग्रहण की एवं उनके शिष्य बने । उनके शरीर पर उत्तम लक्षण एवं चिन्ह थे जिससे सभी प्रभावित होते थे और वो इनकी भव्यता का संकेत बना।
शासन प्रभावना :
इनकी शासन प्रभावना की योग्यता देखते हुए आचार्य सोमतिलक सूरि जी ने चैत्र सुदि 10 वि.सं. 1420 पाटण में सिंहाक पल्लीवाल द्वारा आयोजित अतिभव्य उत्सव में आचार्य पद प्रदान किया तथा नाम आचार्य देवसुदंर सूरि रखा। अंबिका देवी के संकेत से उन्होंने देवसुंदर सूरि जी को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया।
पहले शास्त्रों को ताड़पत्रों पर लिखवाने की प्रथा थी किंतु देवसुंदर सूरि जी के समय इस प्रथा में फेरफार हुआ । ताड़पत्रों की प्राप्ति दुर्लभ होती गई एवं कागजों की प्रवृत्ति बढ़ती गई। ताड़पत्रों का स्थान कागज लेने लगे एवं पुराने ग्रंथों का नाश होने लगा। अतः अपने पट्टशिष्य सोमसुंदर सूरि जी के साथ मिलकर देवसुंदर सूरि जी ने खंभात व पाटण के ग्रंथों की प्रतिलिपियां कागज पर करवाई। उनके हृदय में बस एक ही भाव था कि मेरे आने वाली पीढ़ियों को जिनवाणी के अनमोल ग्रंथों का अभाव न हो। अनेक श्रावक-श्राविकाओं को भी उन्होंने इस कार्य में
महावीर पाट परम्परा
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