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________________ 27. आचार्य श्रीमद् मानदेव सूरीश्वर जी सूरिमंत्र समाराधक, तपयोगी भण्डार। सूरिपुरंदर मानदेव जी, नित् वंदन बारम्बार॥ आचार्य मानदेव सूरि जी (द्वितीय) भगवान् महावीर की 27वीं पाट पर विराजित अत्यंत प्रतिभासंपन्न आचार्य रहे। अनेक गाँवों-नगरों में विहार कर जैनधर्म की खूब प्रभावना की। वि. सं. 582 में समुद्र सूरि जी ने अपने इस शिष्य की योग्यता जानकर सूरि पद पर स्थापित किया एवं आचार्य मानदेव सूरि नाम प्रदान किया। वि.सं. 582 में आचार्य पदवी ग्रहण के अवसर पर उन्हें गुरु परम्परा में चन्द्रकुल का सूरिमंत्र प्राप्त हुआ। तत्पश्चात् विद्याधर शाखा के अपने मित्र आचार्य हरिभद्र से उन्हें दूसरा सूरि मंत्र भी मिला। मंत्रपदों की समानता, दारूण दुष्काल, लोकमरण एवं बीमारी - ये चार कारणों से वे 'सूरिमंत्र' भूल गए। सूरिमंत्र शासन की अमूल्य संपदा है एवं उसके विस्मृत हो जाने का उन्हें बहुत दुःख हुआ। वे पश्चाताप की भावना में जलने लगे। अतः पुनः सूरिमंत्र की प्राप्ति के लिए उन्होंने श्री गिरनार तीर्थ पर पधारकर चौविहार उपवास की तपश्चर्या करना आरंभ किया। तप करते-करते उन्हें पूरे 2 महीने व्यतीत हो गए। उनका देह पहले से अधिक कृश हो गया किन्तु उनकी भावना अत्यंत तीव्र थी। संघ भी उनके प्रयोजन की पूर्ति हेतु छोटे-बड़े अनुष्ठान करने लगा। अंततः उनके तप के तेज से प्रभावित होकर वहाँ की अधिष्ठायिका देवी अम्बिका प्रकट हुई। उसने आचार्य मानदेव सूरीश्वर जी से तपस्या का कारण पूछा। आचार्यश्री ने सब वृत्तांत बताया। एक मान्यता अनुसार अंबिका देवी महाविदेह क्षेत्र में विराजित श्री सीमंधर स्वामी परमात्मा से सूरिमंत्र लेकर आई एवं मानदेव सूरि जी को प्रदान किया। द्वितीय मान्यतानुसार अंबिका देवी ने देवी विजया से संपर्क किया एवं आ. मानदेव सूरि जी को सूरिमंत्र की स्मृति कराई। बृहद्गच्छ की सूरिविद्यापाठ की प्रशस्ति-पुष्पिका में भी मानदेव सूरि जी (द्वितीय) एवं सूरिमंत्र का वृत्तांत विस्तृत रूप से लिखा है। वीर संवत् 1000 के आसपास वे विद्यमान थे। महावीर पाट परम्परा
SR No.002464
Book TitleMahavir Pat Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChidanandvijay
PublisherVijayvallabh Sadhna Kendra
Publication Year2016
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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