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अनुसार वैशाख सुदि 3 वि.सं. 1490 में प्रतिष्ठित) 9) अजितनाथ जिनालय, सिरोही में प्राप्त आदिनाथ जी की पंचतीर्थी प्रतिमा (लेख के
अनुसार माघ सुदि 5, वि.सं. 1495 में प्रतिष्ठित) त्रैलोक्य दीपक प्रासाद, राणकपुर तो सर्वप्रसिद्ध ही है। इनके अलावा अहमदाबाद, आबू, अजमेर, भैंसरोगढ़, खेरालु, रतलाम, देलवाड़ा, चवेली, मेड़ता, पाटड़ी, खंभात, ईडर, जयपुर, बडोदरा, तारंगा, भरूच, मद्रास, पाटण, नाडोल, सांडेसर, करेड़ा, थराद, कोटा इत्यादि अनेकों-अनेकों जगह उनके द्वारा उस समय की प्रतिष्ठित जिनप्रतिमाएं आज भी प्राप्त होती हैं और पूजी जाती हैं। कालधर्म :
सोमसुंदर सूरि जी के विशुद्ध श्रमणाचार की कीर्ति चारों ओर प्रसारित हो गई। इससे शिथिलाचारी यति वर्ग के मन में उनके प्रति विद्वेषाग्नि प्रज्वलित हुई। यति वर्ग ने अपने विश्वस्त . उपासक से एक हिंसक प्रकृति के पुरुष को 500 टके (द्रव्य) का लालच देकर रात्रि के समय सोमसुंदर सूरि जी का प्राणान्त कर देने के लिए भेजा। वह व्यक्ति रात्रि में उपाश्रय में प्रविष्ट हुआ। एकान्त में सोए हुए आचार्यश्री जी पर शस्त्र से प्रहार करने के लिए जैसे ही आगे बढ़ा, उसी समय निद्रा में करवट बदलते हुए सोमसुंदर सूरि जी ने अपने रजोहरण से अपने शरीर क़ा एवं पास की जगह का प्रमार्जन किया और करवट बदलकर सो गए। चंद्रमा के प्रकाश में यह अद्भुत दृश्य देखते ही वह पुरुष स्तब्ध रह गया। उसके मन में सहसा विचार आया - “जो महापुरुष निद्रित अवस्था में भी सूक्ष्म-अतिसूक्ष्म जीव जंतुओं पर करुणा कर उन्हें रजोहरण से बचाने का प्रयत्न करता है, ऐसे करुणानिधान महान् संत का वध कर मैं निश्चित रूप से अनंतकाल तक दारुण दुःख भोगता रहूँगा। धिक्कार है मुझे!" __ आत्मग्लानि के भाव से भरकर वह पुरुष आचार्य श्री सोमसुंदर सूरि जी के चरणों में गिर गया। व्यक्ति का स्पर्श अनुभव कर आचार्यश्री जी जागे। व्यक्ति ने संपूर्ण वृत्तांत सुनाया और क्षमा माँगी। सूरिवर ने शांत, मधुर शब्दों में उस पुरुष को आश्वस्त कर सम्यक्त्व का बोध दिया।
आचार्य श्री जी का संयमी जीवन एक आदर्श उदाहरण बना। अपने गच्छ में आगमोक्त चारित्र की यथासंभव परिपालना करवाते हुए नाडोल में वि.सं. 1499 (वि.सं. 1501) के चातुर्मास दररम्यान में आयुष्य कर्म के प्रभाव से कालधर्म को प्राप्त हुए।
महावीर पाट परम्परा
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