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. समकालीन प्रभावक आचार्य . आचार्य मल्लवादी जी :
अनंत प्रज्ञा के धनी एवं वादकुशल आचार्य मल्लवादी सूरि जी शासन प्रभावक गुरुदेव हुए। इनका जन्म वल्लभीपुर में हुआ। इनका बाल्यकाल का नाम - मल्ल था एवं अपनी माता दुर्लभदेवी के साथ उन्होंने आचार्य जिनानंद सृरि जी के पास दीक्षा ली एवं मल्लमुनि के नाम से जाने गए। एक बार गुरु आज्ञा के बिना ज्ञानप्रवाद नामक पूर्व में से उद्धृत 'नयचक्र' नामक ग्रंथ पढ़ने पर शासन देवी ने रूष्ट होकर उनसे ग्रंथ छीन लिया। किंतु इनकी तपस्या एवं बुद्धिबल से प्रसन्न होकर देव ने ग्रंथ की पुनर्रचना का रहस्योद्घाटन किया। मल्ल मुनि ने 10,000 श्लोक परिमाण नयचक्र नामक ग्रंथ का निर्माण किया। इसके 12 अध्यायों में नय तथा अनेकांत दर्शन का विस्तृत वर्णन होने से यह द्वादशारनयचक्र के नाम से प्रसिद्ध है। _ वि.सं. 1334 के आसपास यह अमूल्य ग्रंथ विलुप्त हो गया था। किंतु यशोविजय जी जंबुविजय जी आदि विद्वान गुरुभगवंतों ने समय-समय पर इसका संकलन व संपादन किया। वल्लभी में आचार्य जिनानंद सूरि जी ने मल्ल मुनि को सर्वथा योग्य जान आचार्य पद पर आरूढ़ किया। मल्लमुनि की दीक्षा से पहले भरूच में आचार्य जिनानंद सूरि जी का बौद्ध भिक्षु नंद के साथ शास्त्रार्थ हुआ, जिसमें जिनानंद सूरि जी की हार हुई। इसके कारण वहाँ जिनशासन की क्षति हुई एवं उनका निष्कासन हो गया।
स्थविर मुनिजनों से जब यह वृत्तान्त मल्ल सूरि जी को पता लगा तो उन्हें गुरु की पराजय का एवं जिनशासन की अवहेलना का असह्य दुःख हुआ। भरूच पहुँचकर उन्होंने बौद्ध भिक्षु नंद से राजसभा में शास्त्रार्थ किया। वह 6 महीने तक चला और अन्ततः वाक्पटु आचार्य मल्लविजयी हुए। वि.सं. 414 में हुए इस शास्त्रार्थ में राजा ने प्रसन्न होकर आचार्य मल्ल सूरि को 'वादी' का बिरुद दिया। तभी से वे आचार्य मल्लवादी के नाम से प्रसिद्ध हुए। अपने गुरु आ. जिनानंद सूरि जी का भरूच में प्रवेश कराकर उन्होंने आदर्श शिष्य एवं आदर्श लेखक के रूप में शासन की अमूल्य सेवा की।
महावीर पाट परम्परा
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