SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 68
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 7. आचार्य श्रीमद् स्थूलिभद्र स्वामी जी कामविजेता-नामविजेता, विस्मित विजित विकार। सप्तम पट्टे स्थूलिभद्र जी, नित् वंदन बारम्बार॥ 84 चौबीसी तक जिनका अमर रहेगा, ऐसे कन्दर्प विजेता एवं दर्प विजेता भगवान महावीर के सातवें पट्टप्रभावक बने। सूत्र की अपेक्षा से वे अंतिम श्रुतकेवली थे। मंगलं भगवान् वीरो, मंगलं गौतमप्रभु। मंगलं स्थूलिभद्राद्या, जैनधर्मोस्तु मंगल। जन्म एवं दीक्षा : मगध की राजधानी पाटलिपुत्र में नवमें नन्द राजा के महामात्य का नाम शकडाल था। उसकी धर्मपत्नी का नाम लक्ष्मी था। गौतम गौत्रीय ब्राह्मण होने पर भी उनकी जिनधर्म पर पूरी आस्था थी। वी.नि. 116 (ईस्वी पूर्व 411) में उन्होंने सद्गार्हस्थ्य से स्थूलिभद्र जैसे पुत्ररत्न का जन्म हुआ। तत्पश्चात् श्रीयक नामक पुत्र भी हुआ। यक्षा, यक्षदिन्ना, भूता, भूतदिन्ना, सेणा, वेणा, रेणा - ये 7 पुत्रियाँ भी थीं। पूर्वभव के पुण्योदय से यक्षा को एक बार सुनने पर, दूसरी पुत्री को दो बार सुनने पर, इस प्रकार क्रमशः सातवीं पुत्री को सात बार सुनने पर वह ज्यों का त्यों कंठस्थ (याद) हो जाता था। सकल विद्याओं में पारंगत होने के उपरान्त भी मेधासंपन्न युवक स्थूलिभद्र भोग मार्ग से अनभिज्ञ थे। अतः संसार से विरक्त स्थूलिभद्र को कामकला का प्रशिक्षण देने के लिए मंत्री शकडाल ने उसे कोशा गणिका (वेश्या) के पास भेजा। वह अत्यंत रूपसंपन्न एवं चतुर थी। मगध का युवावर्ग उसकी शोभा की कृपा पाने के लिए लालायित रहता था। कामकला से अनभिज्ञ स्थूलिभद्र कोशा के द्वार पर पहुँचकर पुनः घर नहीं लौटा। उसका भावुक मन कोशा के अनुपम रूप पर मुग्ध हो गया। एक वर्ष, दो वर्ष, तीन वर्ष क्या ... 12 वर्षों तक कोशा वेश्या के सौंदर्य भोग में रमण करते स्थूलिभद्र को मानो अब उसके अलावा कुछ सूझता नहीं था। मंत्री महावीर पाट परम्परा 34
SR No.002464
Book TitleMahavir Pat Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChidanandvijay
PublisherVijayvallabh Sadhna Kendra
Publication Year2016
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy