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31. आचार्य श्रीमद् यशोदेव सूरीश्वर जी
युगप्रहरी सूरि यशोदेव जी, ब्रहम तेज संचार।
सरस्वती के साधना पात्र, नित् वंदन बारम्बार॥ शासनपति भगवान् महावीर के 31वें पट्टविभूषक आचार्य श्रीमद् यशोदेव सूरि जी विक्रम की आठवीं सदी के उत्तरार्ध के समर्थ आचार्य हुए। आचार्य मुनिसुंदर सूरि जी ने उनका परिचय देते हुए लिखा -
अजनि-रजनिजानि रब्राह्मणानां विपुलकुलपयोधौ श्रीयशोदेवसूरिः।
प्रबरचरणचारी भारतीकण्ठनिष्का भरणबिरूदधारी शासनोद्योतकारी॥ सांसारिक अवस्था में वे ब्राह्मण-जाति के विद्वान थे किन्तु जिनधर्म का मूल समझकर वे जैनधर्म में दीक्षित हुए। आगमों व आगमोत्तर-षड्दर्शन के पारगामी विद्वान एवं उत्तम प्रतिबोध क होने के कारण उन्हें श्री 'सरस्वती कण्ठाभरण' का बिरूद् प्राप्त था। उन्होंने जिनशासन की महती प्रभावना की।
इनके समय में थराद नगर से नया थारापद्रगच्छ निकला। आ. हरिभद्र सूरि, आ. शीलगुण सूरि, आ. देवचन्द्र सूरि, वनराज चावड़ा जैसी ऐतिहासिक विभूतियाँ इनके साम्राज्यकाल में हुई।
• समकालीन प्रभावक आचार्य . आचार्य हरिभद्र सूरीश्वर जी :
जैनाचार्य हरिभद्र' सूरि जी जैन परम्परा के इतिहास के अति विद्वान एवं उच्च कोटि के साहित्यकार हुए। वे 1444 ग्रंथों के रचनाकार माने जाते हैं। उनका जन्म चित्रकूट (चित्तौड़) निवासी ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उनकी माता का नाम गंगा और पिता का नाम शंकरभट्ट था। पंडित हरिभद्र 14 विद्याओं में निपुण था। पांडित्य के अभिमान से वे स्वयं को शास्त्रार्थ में अजेय मानते थे। जैन धर्म के वे कट्टर द्वेषी थे। 'हस्तिना ताड्यमानोऽपि न गच्छेत् जैनमन्दिरम्' अर्थात् हाथी मारने आए फिर भी जैन मंदिर में नहीं जाना चाहिए, इस प्रकार की सोच थी।
महावीर पाट परम्परा
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