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________________ 61. आचार्य श्रीमद् विजय सिंह सूरीश्वर जी अल्पायु कार्य उत्तुंग, शुभ भावना क्रियोद्धार। स्थापत्य सहयोगी सिंह सूरि जी, नित् वंदन बारम्बार॥ __विजय देव सूरि जी द्वारा अपने उत्तराधिकारी के रूप में नियुक्त भगवान् महावीर स्वामी जी की 61वीं पाट पर आए विजयसिंह सूरि जी ने अपने अल्प आयुष्य में भी उत्तम चारित्र पालकर जिनशासन की अपूर्व प्रभावना की किंतु संपूर्ण संघ में वृद्धि को प्राप्त शिथिलाचार के निरोध के लिए क्रियोद्धार की उनकी भावना अपूर्ण रह गई। जन्म एवं दीक्षाः मारवाड़ में मेदिनीपुर (मेड़ता) में नथमल सेठ नामक श्रावक रहता था जिसकी भार्या का नाम नायका देवी था। उनके घर 5 पुत्रों का जन्म हुआ- जेठमल, जसराज, केशवलाल, कर्मचन्द और कपूरचंद। चौथे पुत्र कर्मचन्द का जन्म फाल्गुन सुदि 2 वि.सं. 1644 में हुआ था। उस नगर में विचरते-विचरते हीरसूरि जी के पट्टधर विजय सेन सूरि जी पधारे। भव्य उपदेश से संपूर्ण परिवार को दीक्षा की भावना जागृत हुई। जेठमल और जसराज ने घर में रहने का विचार किया। अहमदाबाद के अकमीपुरा में माता-पिता तथा तीन पुत्रों ने माघ सुदि 2 को वि.सं. 1654 में विजयसेन सूरि जी के पास दीक्षा ग्रहण की। नथमल सेठ मुनि नेमिविजय बने, केशवलाल कांतिविजय बने. कर्मचन्द कनक विजय करे. कपरचन्द कबेरविजय बने एवं माता नायका देवी-साध्वी न्यायश्री बने। मुनि कनक विजय जी आचार्य देव सूरि जी के शिष्य बने। कनक विजय जी की बुद्धि प्रखर थी। अतः वे शीघ्र ही शास्त्रों के मर्मज्ञ बने। शासन प्रभावनाः । संवत् 1670 में पाटण में इन्हें पंन्यास पदवी दी गई और खंभात में वि.सं. 1673 में खंभात में वाचक (उपाध्याय) पद प्रदान किया गया। अन्यमतानुसार पाटण में पौष वदि 5, वि.सं. 1673 के शुभ दिन श्री आदिनाथ परमात्मा की स्फटिक प्रतिमा के परिकर प्रतिष्ठा महोत्सव में महोत्सव दरम्यान ही उन्हें चतुर्विध संघ की साक्षी में उपाध्याय पदवी देव सूरि जी ने प्रदान की। विजय महावीर पाट परम्परा 229
SR No.002464
Book TitleMahavir Pat Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChidanandvijay
PublisherVijayvallabh Sadhna Kendra
Publication Year2016
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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