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तीर्थंकर भगवान् श्री महावीर स्वामी जी
वर्तमान अवसर्पिणी काल में स्व- पर कल्याण में अनुरक्त, धर्मधुरासंवाहक, अतिशयवंत पुण्यविभूतियों की श्रृंखला में श्री ऋषभदेव जी, अजितनाथ जी आदि 24 तीर्थंकरों ने धर्मतीर्थ की स्थापना कर मानव जाति पर अनन्य उपकार किया है। चौबीसवें तीर्थंकर शासननायक भगवान् श्री महावीर स्वामी जी का जीवन शून्य से पूर्णता की ओर महाप्रयाण का अविरल उदाहरण है।
■ च्यवन :
नयसार के भव से सम्यक्त्व प्राप्त कर एवं नन्दन मुनि के भव में तीर्थंकर नाम कर्म उपार्जित कर भवयात्रा की पूर्णाहुति करते हुए आषाढ़ शुक्ला 6 के दिन प्राणत देवलोक से च्यवित होकर एक दिव्यात्मा का ब्राह्मणकुंड नगर निवासी ऋषभदत्त ब्राह्मण की पत्नी देवानंदा ब्राह्मणी की कुक्षि में अवतरण हुआ । गर्भाधान के समय देवानन्दा ने 14 महास्वप्न देखे । दम्पती को एक विशिष्ट विलक्षण पुत्र की संभावना प्रबल हुई।
तीर्थंकर का जन्म कभी विप्र ( ब्राह्मण) कुल में नहीं होता । देवलोक के शक्रेन्द्र की आज्ञा से हरिणैगमैषी देव ने देवानंदा के कुक्षिधारण की 83वीं रात्रि को देवानंदा का गर्भ अतिकुशलतापूर्वक तरीके से क्षत्रियकुंड नगर के राजा सिद्धार्थ की पत्नी रानी त्रिशला के गर्भ में प्रस्थापित किया। उस रात देवानंदा ब्राह्मणी ने 14 शुभ स्वप्नों को मुँह से बाहर जाते देखा और त्रिशला देवी ने अर्धनिद्रित अवस्था में हाथी, वृषभ, सिंह, लक्ष्मी, पुष्पमाला, चंद्र, सूर्य, ध्वजा, कुंभ, पद्मसरोवर, समुद्र, देवविमान, रत्नराशि एवं निर्धूम अग्नि इन 14 स्वप्नों को अपने मुख में प्रवेश करते हुए देखा। स्वप्न पाठकों ने इन उत्तमोत्तम स्वप्नों का सुफल बताते हुए कहा कि महारानी के गर्भ से लक्षण व्यंजन युक्त युगप्रवर्तक धर्मचक्रवर्ती पुत्र का जन्म होगा। राजा सिद्धार्थ-रानी त्रिशला अत्यंत हर्षित हुए ।
जन्म :
नौ मास साढ़े सात दिन की गर्भावस्था पूर्ण कर त्रिशला क्षत्रियाणी ने एक तेजस्वी पुत्र को जन्म दिया। छप्पन दिक्कुमारी देवियों ने सूतिका कर्म करके जन्मोत्सव मनाया। देवलोक के अनेकानेक देवी देवता भी उस बालक का जन्मोत्सव मनाने मध्यलोक आए। शक्रेन्द्र ने भगवान्
महावीर पाट परम्परा
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