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12) दृष्टिवाद - इसमें 5 विभाग थे - परिकर्म, सूत्र, पूर्वगत, अनुयोग और चूलिका। पूर्वगत
में सुविशाल 14 पूर्व समाहित थे, जो अनंत ज्ञान के स्रोत थे। किंतु धीरे-धीरे यह पूर्णरूप से विलुप्त हो गया। अतः आज उपलब्ध नहीं है। इसके आधार पर विविध अन्य आगम ग्रन्थ रचे गए।
जो अंग आगम गणधर श्री सुधर्म स्वामी जी ने रचे थे एवं जो अंग आगम वर्तमान में प्राप्त होते हैं, उनमें अनेक अंतर हैं। पहले आगमों का लेखन नहीं होता था, सुयोग्य मुनियों की स्मरणशक्ति अच्छी होने से वे परंपरा से श्रुत रूप में प्राप्त होते थे। किंतु काल के प्रभाव से कई पाठ छोटे कर दिए गए, कई मंत्रों से भरे पाठों को भण्डारस्थ कर दिया गया, कई पाठ भुला दिए गए। इस कारण से अंग आगमों का स्वरूप प्रक्षिप्त हो गया। भगवान् महावीर की वाणी ही आगमों में लिपिबद्ध होती आई है।
शत्रुजय माहात्म्य नामक ग्रंथ में कहा गया है कि भगवान् महावीर के मुख से शत्रुजय तीर्थ की महिमा सुनकर सुधर्म स्वामी जी ने दस हजार श्लोक प्रमाण शत्रुजय माहात्म्य की रचना की थी किंतु काल के दुष्प्रभाव से वह भी प्रक्षिप्त (छोटा) कर दिया गया। कालधर्म : ___ 12 वर्ष तक जिनशासन का सम्यक् संचालन करते हुए आचार्य सुधर्म स्वामी जी को 92 वर्ष की आयु में वी.नि.12 (वि.पू.458) में केवल ज्ञान - केवल दर्शन की आत्म संपदा को प्राप्त हुए। उसी क्षण जंबू स्वामी जी ने पाट परम्परा का वहन किया। 8 वर्षों तक सर्वज्ञ रूप में विचरण कर 100 वर्ष की आयु में वैभारगिरि पर्वत पर मासिक अनशन के साथ वी.नि. 20 में मोक्ष पद को प्राप्त हुए।
गणधर सुधर्म स्वामी जी भगवान् महावीर स्वामी जी के प्रथम पट्टधर थे। उनके शरीर पर 5 शंख की आकृतियाँ (चिन्ह) थे। सद्गुरू की साक्षी में की गई क्रिया के भावों की शुद्धि भी अधिक होती है। अतः इस परंपरा से आज भी प्रत्येक साधु-साध्वी जी सुधर्म स्वामी जी के प्रतीक स्वरूप 5 शंख युक्त स्थापनाचार्य के आगे ही गुरुसाक्षी से हर क्रिया करते हैं।
महावीर पाट परम्परा