SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 330
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ परिचय के परिलेख में पंन्यास श्री चिदानन्द विजयजी धर्मपरायण संस्कृति से परिपूर्ण विश्वगुरु भारत में एक ओर जहाँ भौतिकता का तांडव हो रहा है, वहीं दूसरी ओर अहिरंत वाणी को क्रियात्मक रूप देने वाली अनेक विभूतियाँ आज भी इस धरा को आलोकित कर रही हैं। प्रखर प्रवचनकार, तत्वचिंतक पंन्यासप्रवर श्री चिदानंद विजयजी म. भी अपने सम्यक् साधुत्व से स्व-पर कल्याण में अग्रसर हैं। पंन्यास श्री जी का जन्म शिवपुरी नगर (म.प्र.) निवासी सुश्रावक श्री खजांचीलालजी लिगा की धर्म पत्नी श्रीमती कश्मीरावंतीजी की पावन कुक्षि से हुआ। बाल्यकाल से ही वे रचनात्मक और क्रियात्मक कलाओं में निष्णात रहे। चौबीस वर्ष की युवावस्था में उनके वैराग्य भाव को सर्वविरति धर्म का आश्रय मिला। ईस्वी सन 1984 में बडौदा (गुजरात) की धन्यधरा पर आचार्य विजय इन्द्रदिन्न सूरीश्वरजी म. के वरदहस्त से दीक्षा ग्रहण की। शिवपुरी के कपिलकुमार को मुनि चिदानन्द विजय नाम प्रदान किया गया एवं वे आचार्य विजय नित्यानंद सरीश्वरजी के प्रथम शिष्य बने / स्वाध्याय, सेवा और साधना ही उनके संयम जीवन के अध्याय हैं। आचार्य विजय धर्मधुरंधर सूरीश्वरजी के सानिध्य में रहकर उन्होंने विविध भाषाओं का अधिकार प्राप्त किया एवं आगम, न्याय, दर्शन आदि का तलस्पर्शी अध्ययन किया। आचार्य विजय जनकचंद्र सूरीश्वरजी म. के अन्तेवासी के रुप में अध्यात्म ध्यान साधना के नूतन आयाम देते हुए आचार्य विजय नित्यानंद सूरीश्वरजी ने चतुर्विध संघ की साक्षी में जैतपुरा (राज.) में उन्हें 'पंन्यास' पदवी से अलंकृत किया। पंन्यास श्री जी की विवेचना शक्ति अद्भुत है, कठिन विषयों को भी वे सरलता से समझाने की प्रतिभा रखते हैं। ज्ञानयोग की गंभीरता उनके मुखमंडल पर देदीप्यमान होती है। भारत के विभिन्न क्षेत्रों में विचरण कर जिनशासन की महती प्रभावना उन्होंने की है। ऐसी विरल-विमल-विभूति के चरणों में.... ......कोटिशः कोटिशः नमन।
SR No.002464
Book TitleMahavir Pat Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChidanandvijay
PublisherVijayvallabh Sadhna Kendra
Publication Year2016
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy