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________________ 65. पंन्यास श्रीमद् जिन विजय जी गणि खुशहाल खुशाल बने जिनविजय जी, उत्तम रचनाकार । निर्मल संयम जीवन धनी, नित् वंदन बारम्बार ॥ क्रोध - मान-माया - लोभ रूपी कषायों को जीतने वाले पंन्यास जिन विजय जी भगवान महावीर की क्रमिक पाट परम्परा के 65वें पाट पर शोभायमान हुए। अपने जीवन काल में अनेकानेक तीर्थों की यात्रा कर गुरुदेवों की सेवा - वैयावृत्य कर प्रभु भक्ति व गुरु भक्ति का अनुमोदनीय परिचय दिया । जन्म एवं दीक्षा : · राजनगर ( अहमदाबाद) में श्रीमाली शा. धर्मदास नामक श्रावक रहता था। लाडकुंवर बाई नाम की उसकी पत्नी भी अत्यंत संस्कारशील थी। उनके सद्गार्हस्थ्य के प्रभाव से वि.सं. 1752 के आसपास एक पुत्र का जन्म हुआ। माता - पिता ने उसकी मुखाकृति खुशनुमा देख शिशु का 'खुशाल' रख दिया। नाम - खुशाल अपने व्यावहारिक शिक्षण में प्रखर था। जब उसकी उम्र 16 वर्ष की हुई तब पन्यास क्षमा विजय जी विहार करते-करते अहमदाबाद आए । उस समय शामलदास की पोल में रायचंद भाई नाम के गुरुभक्त श्रावक रहते थे। वे देश विदेश में जाते थे किंतु पैरों में जूता नहीं पहनते थे। हमेशा गरम पानी पीते थे। खुशाल ने यतिवर्ग की परिग्रह आसक्ति देखी थी। अतः उसे धर्म में इतनी रुचि नहीं आई। किंतु एक बार रामचंद भाई के कहने से खुशाल उनके साथ क्षमा विजय जी के पास आया । उनकी निष्परिग्रह वृत्ति, प्रवचन प्रभावना एवं मुख पर संयम का तेज देख उसका हृदय परिवर्तन हो गया। संसार की असारता को जान उसने दीक्षा लेने का प्रण लिया। माता-पिता की आज्ञा लेकर कार्तिक वदि 6 बुधवार वि.सं. 1770 के दिन उसकी दीक्षा सम्पन्न हुई एवं नाम मुनि जिन विजय रखा गया। - शासन प्रभावना : जिन विजय जी ने गुरु के समीप रहकर शास्त्रों का अध्ययन किया तथा सेवा शुश्रूषा महावीर पाट परम्परा 245
SR No.002464
Book TitleMahavir Pat Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChidanandvijay
PublisherVijayvallabh Sadhna Kendra
Publication Year2016
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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