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43. आचार्य श्रीमद् सोमप्रभ सूरीश्वर जी आचार्य श्रीमद् मणिरत्न सूरीश्वर जी
साहित्य जगत् के उज्ज्वल सूर्य, सूरि सोमप्रभ ज्ञान दातार । विनयविभूति श्री मणिरत्न सूरि, नित् वंदन बारम्बार ॥
शासननायक तीर्थंकर महावीर स्वामी की बड़गच्छीय 43वीं पाट पर सिंह सूरि जी के शिष्यद्वय आचार्य सोमप्रभ सूरि जी एवं आचार्य मणिरत्न सूरि जी विराजमान हुए। इस समय साधु-साध्वी जी का आचार धीरे-धीरे अनियोजित रूप से शिथिल होता जा रहा किन्तु दोनों ने शक्ति अनुसार चतुर्विध संघ का कुशल संवहन किया ।
जन्म एवं दीक्षा :
सोमप्रभ सूरि जी का जन्म वैश्य वंश के प्राग्वाट् (पोरवाल) परिवार में हुआ था। उनके दादा का नाम महामंत्री जिनदेव था, जो हमेशा जिनपूजा करते थे एवं पिता का नाम सर्वदेव श्रेष्ठ था। सांसारिक अवस्था में उनका नाम - सोमदेव था । परिवार के धर्म के प्रति आस्थाशील होने के कारण बालक सोमदेव को धर्म के संस्कार सहज रूप से प्राप्त हुए । आचार्य सिंह सूरि जी की वाणी से ओजस्वी प्रवचनों को सुन, तेजस्वी रूप को देख तथा यशस्वी संयम को देख बालक सोमदेव ने कुमारावस्था में दीक्षा की भावना अभिव्यक्त की। बालक का अद्भुत योग देखकर सिंह सूरि जी ने दीक्षा प्रदान की एवं नाम मुनि सोमप्रभ रखा गया।
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आघाटपुर नगर में उद्योतन सूरि जी के शिष्य प्रद्योतन सूरि जी ने दुग्गड़ वंश की स्थापना की थी। उस वंश के परिवार में पाल्हण (पूर्णदेव) श्रेष्ठी के 3 पुत्र थे। उसमें से एक पुत्र ने बाल्य अवस्था में ही आचार्य सिंह सूरि जी के पास दीक्षा ग्रहण कर मुनि मणिरत्न नाम
पाया था।
शासन प्रभावना :
सिंह सूरि जी कुशल अध्यापक एवं उनके शिष्यद्वय कुशल विद्यार्थी थे। सोमप्रभ सूरि जी गुरु चरणों में रहकर आगम शास्त्रों का गहन अध्ययन किया तथा विशेष रूप से वे न्यायशास्त्र,
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महावीर पाट परम्परा
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