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मंगल आशीर्वचन
जैन धर्म, दर्शन एवं संस्कृति अपनी मौलिकता के कारण अपने अस्तित्व को एक शाश्वत धर्म के रूप में अभिव्यक्ति दे रही है। चरमतीर्थपति, शासननायक, विश्ववंद्यविभूति भगवान् श्री महावीर स्वामी जी ने जनमानस पर अपार करुणा की अमीवर्षा करते हुए साधु-साध्वी, श्रावक-श्राविका रूपी चतुर्विध धर्मसंघ की स्थापना की। तीर्थंकर परमात्मा की अनुपस्थिति में आचार्य भगवन्त ही संघ संचालन के महत्त्वपूर्ण दायित्व का निर्वहण करते हैं। तब से लेकर अब तक अनेकों आचार्यों तथा आचार्यतुल्य गुरुदेवों ने भगवान् महावीर की पाट परम्परा को अक्षुण्ण रखा है एवं अपने विशिष्ट सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र एवं नेतृत्त्व बल से जिनशासन के संरक्षण एवं संवध न में महती भूमिका निभाई है। उन्होंने अपनी प्रत्येक श्वास से, प्रस्वेद की प्रत्येक बूंद से, रक्त के प्रत्येक कण से इस जिनशासन को सींचा है, जिसके फलस्वरूप ही हमें परमात्म-शासन सम्यक् . रूप में मिला है। मेरे लिए वे सदा ही प्रेरणा और आदर्श के अखंड स्रोत रहे हैं।
किसी भी संस्कृति का इतिहास उसके भविष्य को परिलक्षित करता है। श्रमण भगवान् महावीर की उत्तरकालीन पाट परम्परा का जाज्वल्यमान गौरवपूर्ण इतिहास रहा है। जिनशासन की जड़ों से जुड़ना है, तो इतिहास का अध्ययन आवश्यक है। प्रभु वीर की पाट परम्परा का क्रमिक इतिहास स्वयं ही अनेक प्रश्नों के समाधान को अनावरित कर देता है। एक वृक्ष की शाखा-प्रशाखाओं की भाँति धर्मसंघ में भी अनेक परम्पराओं का उद्भव हुआ। तपागच्छ पट्टावली में गुरु आत्म-वल्लभ की पाट परम्परा अमिट इतिहास का द्योतक है। मुझे प्रसन्नता है कि मेरे ज्येष्ठ शिष्य, पंन्यासप्रवर श्री चिदानन्द विजय जी म. ने 'महावीर पाट परम्परा' पुस्तक का सुंदर लेखन किया है। संकीर्णता के व्यामोह से मुक्त होकर भगवान् महावीर की पाट परम्परा का इतिवृत्त इसमें सुयोग्य रूप से हुआ है। इसका उद्देश्य किचित्, मात्र भी किसी विवाद को जन्म देना नहीं है, बल्कि पाठकों में गुरु पाट परम्परा के सम्यक् ज्ञान के संवाद को जन्म देना है।
इस पुस्तक के माध्यम से हम संयमविभूतियों के निर्मल-निरतिचार संयम धर्म की अनुमोदन करते-करते संयमपथानुरागी बनने का भाव रखें, यही मंगल भावना.......
- विजय नित्यानंद सूरि
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