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3. श्रुतकेवली आचार्य श्री प्रभव स्वामी जी
चौर्यकर्म की दक्षविभूति, आत्मचौर्य संस्कार । परिव्राट् पुंगव प्रभव स्वामी जी, नित् वंदन बारम्बार ॥
सर्वज्ञत्व संपदा विच्छेद होने के बाद श्रुतधरों की परम्परा प्रारंभ हुई। बारह अंगों जैसे अनंत सुविशाल श्रुतज्ञान के धनी श्रुतकेवली हुए। भगवान् महावीर के तृतीय पट्टप्रभावक आचार्य प्रभव स्वामी जी ने इस श्रुतज्ञान की परम्परा का संवहन किया । दीर्घायु में चतुर्विध संघ का कुशल नेतृत्त्व कर धर्म की महती प्रभावना की ।
जन्म एवं दीक्षा :
विन्ध्यांचल की तलहटी में स्थित जयपुर नामक राज्य में गुरुकात्यायन गौत्र के महाराज विन्ध्य राज्य करते थे। वीर निर्वाण पूर्व 30 ( ईसा पूर्व 557 ) में प्रभव नामक पुत्र का जन्म उनके यहाँ हुआ। प्रभव के छोटे भाई का नाम सुप्रभ (विनयंधर) था। प्रभव के पास दो प्रमुख विद्याएं थीं अवस्वापिनी (जिसके बल से वह सभी को निद्राधीन कर सकता था) और तालोद्घाटिनी ( जिसके बल से वह मजबूत तालों को भी खोल सकता था ) ।
जब राजकुमार प्रभव युवा हुआ, तब किसी कारण से उसके पिता उस पर कुपित हुए । आवेश में आकर पिता ने प्रभव को राज्याधिकार से वंचित कर छोटे बेटे सुप्रभ को अपना उत्तराधिकारी घोषित किया। इसका प्रभव पर मानसिक आघात पहुँचा। क्रोधित होकर वह राजमहल को त्यागकर विन्ध्य पर्वत के भयानक जंगलों में रहने लगा। वहाँ के लुटेरों ने उससे संपर्क स्थापित किया और उसके विद्या बल से चोरी और लूट करने लगे। वह बुद्धि का स्वामी और शारीरिक शक्ति से सम्पन्न था। अपनी विद्याओं के द्वारा वह चोरों की पल्ली में जनसमूह को लूटता हुआ विन्ध्याचल की घाटियों में शेर की तरह निर्भीक दहाड़ता हुआ, धीरे - धीरे 500 चोरों का नेता बन गया ।
एक बार डाकू सरदार प्रभव को सूचना मिली कि राजगृह में ऋषभदत्त श्रेष्ठी के पुत्र जंबू कुमार के विवाह पर 99 करोड़ मुद्राओं का दहेज आने वाला है। वह सभी 500 साथियों के
महावीर पाट परम्परा
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