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________________ अनुज्ञा सौंप कर वज्रस्वामी जी काल कवलित हो गए । दुष्काल की भयंकरता ने जनता में त्राहि-त्राहि मचा दी थी। इतना सूखा पड़ा कि अन्न का दाना भी मिलना दुर्लभ हो गया। कई लोगों ने विष भक्षण कर दुष्काल से पीछा छुड़ाया। बहुत कम क्षेत्र थे जहाँ पर सुकाल था । उस समय साधु-साध्वियों के लिए भिक्षा का काम भी बहुत कठिन था किंतु कतिपय श्रावक लोगों की इतनी भक्ति थी कि उनको थोड़ा बहुत भोजन मिलता तो भी पहले साधुओं को वोहराकर ही स्वयं खाते थे, नहीं तो साधु भगवंत भी क्षुधा वेदनीय का उदय समझकर तपस्या करते थे। वि.सं. 122 (ईस्वी सन् 65 ) में मुनिवृंदों से परिवृत्त आचार्य वज्रसेन सूरि जी का पदार्पण कुकुंण देश के सोपारक नगर में हुआ। दुष्काल इस समय समाप्ति पर था । वहाँ का धनी श्रेष्ठी जिनदत्त निर्ग्रन्थ धर्म का उपासक था। उसकी पत्नी का नाम ईश्वरी एवं पुत्रों के नाम- नागेन्द्र, निवृत्ति, चन्द्र एवं विद्याधर था । विपुल संपत्ति का स्वामी होते हुए भी दुष्काल के उग्र प्रकोप से विक्षुब्ध हो उठा। वे खाने के लिए एक-एक दाने के मोहताज हो गए। श्राविका ईश्वरी भी जीवन की आशा खो चुकी थी । पारिवारिक जनों ने परस्पर परामर्शपूर्वक बचे भोजन में जहर खाकर प्राणान्त करने की सोची। सेठानी ईश्वरी ने 1 लाख स्वर्ण मुद्रा मूल्य के शालि पकाए। वह भोजन में विष मिलाने का प्रयत्न कर रही थी। तभी आचार्य वज्रसेन सूरि जी आदि मुनिवृंद जिनदत्त के घर पधारे एवं धर्मलाभ का आशीर्वाद दिया । शर्म के मारे सेठानी ने अपना मुँह नीचे कर लिया। कारण- -मुनियों को दान देने के लिए उनके पास कुछ नहीं था। ईश्वरी की आँखों से अश्रुधारा बहने लगी । ईश्वरी ने कहा कि आप जैसे कल्पवृक्ष हमारे घर पधारे परंतु दुःख इस बात का है कि हम स्वयं विष मिलाकर यह भोजन करने वाले हैं। विष से भरे पात्र को भोजन से दूर रख लाख मूल्य के शालि ( चावल ) गुरुदेव को विशुद्ध भाव से वोहराए एवं समस्त वृत्तांत कह सुनाया। आचार्य वज्रसेन सूरि जी को 10 पूर्वधर वज्रस्वामी जी के कथन का स्मरण हो आया। उन्होंने जिनदत्त श्रेष्ठी के समूचे परिवार को आश्वासन देते हुए कहा कि भोजन में जहर मत मिलाओ। अब यह अधिक कष्ट का समय नहीं है | दुष्काल अपनी चरम सीमा पर पहुँच गया है। आचार्य वज्रसेन के वचनों को सुनकर परिवार को आत्मसंतोष एवं आशा का अनुभव हुआ। सारा परिवार सुकाल की प्रतीक्षा में समता से कालयापन करने लगा। दूसरे ही दिन समुद्रमार्ग से बहुत से अनाज की जहाजें आ पहुँची एवं नगर में प्रचुरता के साथ अनाज मिलने लग महावीर पाट परम्परा 63
SR No.002464
Book TitleMahavir Pat Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChidanandvijay
PublisherVijayvallabh Sadhna Kendra
Publication Year2016
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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