Book Title: Acharang Sutram Part 03
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आचाङ्ग सूत्रम् श्री राजेन्द्र सुबोधनी "आहोरी" हिन्दी टीका AIIM RK Joshi ot 3 “आहोरी" टीका लेखक ज्योतिषाचार्य मालवरत्न मुनिराज श्री जयप्रभ विजयजी श्रमण ____ सम्पादक :- पं. रमेशचन्द्र लीलाधर हरिया व्याकरण . काव्य * न्याय . साहित्यतीर्थ Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ PERIPEREFERENSERIERRES HDHDHDHDHD Peecc לסססססס श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन पुष्प-३ ...श्री आचारागसूत्रम... श्री शीलाङ्काचार्य विरचित वृत्ति की श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी हिन्दी टीका KOLOKOLOKOLC श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-६,(७),८,९ . भाग-३ आहोरी टीका लेखक परम पूज्य व्याख्यान वाचस्पति जैनाचार्य श्रीमद् विजय यतीन्द्रसूरीश्वरजी महाराज के शिष्यरत्न ___ज्योतिषाचार्य, मालवरत्न / शासनदीपक, ज्योतिषसमाशिरोमणी मुनिराज श्री जयप्रभविजयजी महाराज "श्रमण" 125525252525252525258585959559825959555552525252525255252525252525 LOKO KORKONKOKOK KKKKKKO सम्पादक: पण्डितवर्य श्री रमेशचन्द्र लीलाधर हरिया व्याकरण, काव्य, न्याय, साहित्याचार्य अहमदाबाद. RRRRRRRRRRRRRRRRRRR Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - -: ग्रंथ : श्री आचाराङ्गसूत्र राजेन्द्र सुबोधनी 'आहोरी' हिन्दी टीका -: आहोरी टीका लेखक :. ज्योतिषाचार्य मालवरत्न मुनिराज श्री जयप्रभविजयजी “श्रमण" -: सम्पादक :पण्डितवर्य श्री रमेशचन्द्र लीलाधर हरिया -: सहयोगी सम्पादक : मालवकेशरी मुनिराज श्री हितेशचन्द्रविजयजी "श्रेयस" मुनिराज श्री दिव्यचन्द्रविजयजी "सुमन" -: प्रकाशक एवं प्राप्तिस्थान : श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन (1) श्री भूपेन्द्रसूरि साहित्य समिति मंत्री शान्तिलाल वक्तावरमलजी मुथा, देरासर सेरी, पो. आहोर, जि. जालोर (राज.) फोन : 02978-222866 राजेन्द्र प्रवचन कार्यालय पो.ओ. मोहनखेडा तीर्थ, वाया राजगढ, जि. धार, (मध्यप्रदेश) फोन : 07296-232225 (3) पं. रमेशचंद्र लीलाधर हरिया 3/11, वीतराग सोसायटी, पी. टी. कोलेज रोड, पालडी, अमदावाद-3८०००७. फोन : 26602176 मूल्य : अमूल्य पंचाचार उपासना -: मुद्रक : -: कम्प्यु टर :दीप ओफसेट AM मून कम्प्युटर पाटण (उ.गु.) (मो.) 9824059319 K e पाटण (उ.गु.). फोन : 02766 - 224766 फोन : 98259 23008 // - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री गोडी पाश्र्वनाथ भगवान "आहोर" बावन जिनालय मन्दिरजी के मूलनायकजी Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री. आहार श्री गोडापा रिजा श्री धनचन्द्र सूरीश्वर श्री माह नावजय राजेन्द्र सूरावरजी म. सो दादागुरु श्री राजे श्री भूपेन्द्र सूरिजी म श्री यतीन्द्र सूरिजी जयजी म. श्री हर्ष विजयजी उपा. श्री गला विद्याचन्द सूरिजी श्री हेमेन्द्र सूरिजाम श्री विद्याल "श्रमण श्री जयप्रभाव श्री हितेशचन्द्र विजयजी म. “श्रेयस" श्री दिव्यचन्द्र विजयजी म. “समन" Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परम पूज्य व्याख्यान वाचस्पति अभिधान राजेन्द्र कोष के सम्पादक आगम भास्कर पिताम्बर विजेता श्रीमद्विजय यतीन्द्रसूरीश्वरजी महाराज के शिष्य रत्न ज्योतिषाचार्य शासन दीपक पूज्य श्रीजयप्रभविजयजी "श्रमण" महाराज दीक्षा जन्म वि.सं. 1993 पोष वदि 10 स्थल-जावरा वि.सं. 2010 माघ सुदी 4 स्थलसियाणा ज्योतिषाचार्य पद प्रदान वाराणसी में काशी पण्डित सभा द्वारा दि. 5-11-89 को मानद उपाधी शासन दीपक पद प्रदान मनावर श्री संघ द्वारा कार्तिक सुदि 11 दि. 24-11-93 विभूषित किये वि.सं. 2046 कार्तिक सुदी 5 मालवरत्न पद प्रदान श्री संघ जावरा द्वारा दि.१८-२-०० विनय शील स्वाध्याय सुधाकरः प्रति भारत सद्धर्म धुरिण / जप तप संयम व्रत परिपालक गुरु चरणाश्रित सेवा लीन // धर्म प्रचारक "श्रमण” सुधारक सुविचारक सुहृदय गुणवान / जयतु जयतु विजय श्री भूषित जयप्रभविजय महामतिमान् // Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परम पूज्य शासन प्रभावक कविरत्न जैनाचार्य श्री श्री श्री 1008 श्रीमद्विजय विद्याचन्द्र सूरीश्वरजी महाराज के पट्ट प्रभावक ___परम पूज्य राष्ट्र सन्त शिरोमणि गच्छाधिपति श्रीमद विजय हेमेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना - अनन्त उपकारी चरम तीर्थंकर श्रमण भगवान महावीरस्वामीजीने जब घातीकर्मो का क्षय करके केवलज्ञान की दिव्य ज्योती को प्राप्त की तब देवविरचित समवसरण में गणधरों के प्रश्नोत्तर में परमात्मा ने त्रिपदी का दान दिया... उत्पाद, व्यय एवं धुव... श्री हितशचद्रविजयजी म. आचारांगसत्र की रचना गणधरो ने की एवं शीलांकाचार्यजी ने संस्कृत टीका (व्याख्या) लिखी। किन्तु वर्तमानकालीन मुमुक्षु साधु-साध्वी भगवंतो को यह गहनग्रंथ दुर्गम होने से पठन पाठनादि में हुइ अल्पता को देखते हुए पूज्य गुरुदेव श्री जयप्रभविजयजी म.सा. "श्रमण" के अंतःकरण में चिंतन चला कि- यदि जिनागमों को मातृभाषा में अनुवादित किया जाए तो मुमुक्षु आत्माओ को शास्त्राज्ञा समझने में एवं पंचाचार की परिपालना में सुगमता रहेगी। अंतःकरण की भावना को साकार रूप में परिवर्तित करने के लिए वर्तमानाचार्य गच्छाधिपति श्रीमद् विजय हेमेन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. से बात-विचारणा वार्तालाप के द्वारा अनुमति प्राप्त करके विक्रम संवत्त 2056 आसो सुदी-१० (विजयादशमी) के शुभ दिन शत्रुजयावतार श्री मोहनखेडा तीर्थ की पावनकारी पूण्य भूमि में देवगुरु की असीम कृपा से राष्ट्रभाषा हिन्दी में सटीक आचारांगसूत्र के भावानुवाद का लेखनकार्य प्रारंभ किया। भावानुवाद का लेखनकार्य निर्विघ्नता से चलता रहा। यद्यपि पूज्य गुरुदेवश्री का स्वास्थ्य प्रतिकूल रहता था तो भी भावानुवाद का लेखनकार्य अविरत क्रमशः चलता रहा। पूज्य दादा गुरुदेव प्रभु श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. कि पावन कृपासे सत्ताईश (27) महिनो में सटीक आचारांगसूत्र का भावानुवाद स्वरूप लेखनकार्य परिपूर्ण हुआ। पूज्य गुरुदेव श्री जयप्रभविजयजी म.सा. दृढ संकल्पी थे। जो समुचित कार्य एकबार सोच लेते वह कार्य परिपूर्ण करके हि विश्राम लेते थे। उस कार्य में चाहे कैसी भी कठिनाइयाँ आ जाए प्रत्येक कठिनाइयों का सहर्ष स्वागत करते थे एवं देवगुरु की कृपा से विघ्नों का उन्मूलन करके उस कार्य को पूर्ण करके हि रहते थे। सटीक आचारांग सूत्र के भावानुवाद का लेखनकार्य जब पूर्ण हुआ तब प्रकाशन के लिए विचार विमर्ष प्रारंभ हुआ। पूज्यश्री ने गंभीरता से विचारकर अपने निकटवर्ती परम गुरु उपासक आहोर (राज.) निवासी श्री शांतिलालजी वक्तावरमलजी मुथा को पत्रव्यवहार द्वारा अपनी आंतरिक भावना अवगत कराई। _श्री शांतिलालजी ने भी इस आगमशास्त्र संबंधित श्रेष्ठ कार्य की अनुमोदना करते हुए Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशन हेतु आहोर नगर के श्रमणोंपासको से बातचीत कर ग्रंथ प्रकाशन के कार्य की अनुमति प्रदान करने की विनंती की। आहोर नगर के निवासीओं के आर्थिक सहयोग से यह कार्य परिपूर्ण हो सका है अतः सर्व संमति से इस भावानुवाद टीकाग्रंथ का "आहोरी' हिन्दी टीका नाम निर्धारित किया गया। ___ग्रंथमुद्रण का कार्य तत्काल प्रारंभ हुआ। करिबन अठारहसौ (1800) पृष्ठ के विशालकाय आहोरी टीकायुक्त आचारांग सूत्र को तीन भाग में विभक्त करके प्रकाशित करने का निर्णय लिया गया। प्रथम श्रुतस्कंध के प्रथम अध्ययन स्वरूप प्रथम भाग का संपादन कार्य परिपूर्ण होने पर व्यंथ का विमोचन आहोर नगर में वि.सं. 2059 में पूज्य गुरुदेव श्री जयप्रभविजयजी म.सा. की निश्रा में कु. निर्मला के दिक्षा महोत्सव के पावन प्रसंग में किया गया। प्रथम श्रुतस्कंध के शेष भाग को द्वितीय विभाग में संपादित करने की विचारणा चल . रही थी किन्तु अचानक दिनांक 31 दिसम्बर, 2002 के दिन पूज्य गुरुदेव श्री के शरीर में अस्वस्थताने भीषण रूप ले लिया। पूज्य गुरुदेव श्री अपने आयुष्य की अंतिम क्षण तक समाधि भावमें रहते हुए नश्वर देह का परित्याग करके स्वर्गलोक पधार गए। - इस विषम परिस्थिति में ग्रंथ प्रकाशन के कार्य में थोडा विलंब हुआ किन्तु शेष कार्य को पूर्ण करने के लिए परम पूज्य उपाध्याय श्री सौभाग्य विजयजी.म.सा. की पावनकारी प्रेरणा 'ने हमारे उत्साह की अभिवृध्धि की। ग्रंथ प्रकाशन कार्य को गतिप्रदान करने के लिए श्री शांतिलालजी मुथा का सहयोग व मार्गदर्शन प्रशंसनीय है तथा श्री आदिनाथ राजेन्द्र जैन श्वेतांबर पेढी (ट्रस्ट), श्री मोहनखेडा तीर्थ का सहयोग भी अनुमोदनीय रहा एवं इस महाग्रंथ को मूर्त रूप प्रदान करने में विद्वद्वर्य आगमज्ञ पंडितवर्य श्री रमेशचंद्र लीलाधर हरिया का सहयोग अनुमोदनीय रहा। उन्ही के अथक प्रयास से यह कार्य परिपूर्ण हो पाया है। प्रस्तुत आचारांग सूत्र के प्रथम अध्ययन स्वरूप प्रथम विभाग एवं 2,3,4,5 अध्ययन स्वरूप द्वितीय विभाग प्रकाशित हो चुका है। अभी यह प्रस्तुत विभाग में प्रथम श्रुतस्कंध के अवशिष्ट E,(7),8,9 अध्ययन प्रकाशित हो रहे है। अतः परं इस आचारांग सूत्र के द्वितीय श्रुतस्कंध के प्रकाशन का आयोजन थोडे ही दिनो में किया जायेगा। इस ग्रंथ संथ संपादन कार्य में सावधानी रखी गई है तो भी यदि कोइ क्षति रह गइ हो तब सुज्ञ वाचकवर्ग सुधार ले एवं हमें निवेदित करें... सुज्ञेषु किं बहुना ? मोहनखेडा तीर्थ (म.प्र.) दिनांक : 16-1-2005 गुरुसप्तमी विक्रम संवत 2061 निवेदक मुनि हितेशचंद्रविजय Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पादनवेलायाम्... पं. श्री लीलाधरात्मजः रमेशचन्द्रः हरिया अयि / शृण्वन्तु हंहो / तत्रभवन्तः भवन्तः प्रेक्षावन्तः भोः भोः सज्जनाः ! अनादिनिधनस्थितिकेऽस्मिन् संसारसागरे नैके असुमन्तः प्राणिनः स्वस्वकृतकर्म-परवशीभूय निमज्जनोन्मज्जनं कुर्वन्तः विद्यमानाः सन्ति। नाग सदैव सर्वेषां जीवानां एकैव आकाक्षा अस्ति, यत्-सकल दुःखानां परिहारेण सर्वथा सुखीभवामः, किन्तु संसारस्थजीवानां यादृशी आकाङ्क्षा अस्ति, तदनुरूपः पुरुषार्थस्तु नास्ति... यतः साध्यानुरूपो हि पुरुषार्थः साध्यसिद्धि प्रति समर्थीभवति। जीवानां साध्यं अस्ति निराबाधं अक्षयं अनन्तं आत्मसुखम्, किन्तु तैः तदनुरूपः पुरुषार्थस्तु न अङ्गीकृतः... निराबाधसुखस्य साधनं अस्ति सम्यक्चारित्रम्... तत् च सर्वसावधनिवृत्तिस्वरूपं T / पञ्चचारात्मकं चरणं, सावद्यं नाम पापाचरणम्... पापाचरणं नाम जगज्जन्तूनां त्रिविधत्रिविधपीडोद्भावनम्... अतः पापाचरणस्य परिहारः हि निराबाधसुखस्य असाधारण-हेतुः अस्ति इति अवगन्तव्यम्। परहितकरणेनैव स्वहितं स्यात्, नाऽन्यथा। परपीडा-विधानेन तु आत्मपीडैव सम्भवेत् इति वार्ता निश्चितं विज्ञेया। यः कोऽपि परेभ्यः यत् यत् कामयते, तत् तत् परेभ्यः प्रथमं दातव्यं भवति... यथा आमबीजवपनेन एव आमफलं लभ्यते, नाऽन्यथा इति तु जानीते आबालगोपालः / वर्तमानसमये ये ये जीवाः दुःखिनः सन्ति, तैः पूर्वस्मिन् काले परेभ्यः दुःखं दत्तं स्यात्, अन्यथा ते कदापि दुःखिनः न स्युः इति मन्ये। ये केऽपि प्रेक्षावन्तः सज्जनाः चेद् गम्भीरीभूय ते चिन्तयेयुः तदा जगज्जीवानां दुःखनिदानं किं अस्ति, तत् सम्यग् जानीयुः / यद्यपि कोऽपि जीवः कस्मैचिदपि दुःखं दातुं नेच्छति, तथापि आहारसंज्ञादिहेतुतः मिथ्यामोहान्धचित्तत्वेन कर्मपरवशीभूय जीवः तथा तथा प्रवृत्तिं करोति यथा नैके पृथ्वीकायादि जीवाः दुस्सहं कष्टं प्राप्नुवन्ति, इति एवं प्रकारेण अविरतः जीवः संसारस्थैः अनन्तैः जीवैः सह वैरानुबन्धभावं वर्धयति / फलतः सः अविरतः जीवः अपारसंसारसागरे पुनः पुनः जन्ममरणात्मकं निमज्जनोमज्जनं कुर्वन् संसारे वर्तते, इतीयं वार्ता मिथ्या न, किन्तु सत्या एव। यदि केषाञ्चित् चेतसि अत्र सन्देहः स्यात् तर्हि पृच्छन्तु ते प्रेक्षावद्भ्यः सज्जनेभ्यः, श्रूयतां च तैः दत्तं Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाचनाओं का आधार मिलता है। 45 आगमों का वर्गीकरण इस प्रकार है। आगम अंग उपांग 1- 2 आचार सूत्रकृत स्थान औपपातिक राजप्रश्नीय जीवाभिगम समवाय भगवती ज्ञातधर्मकथा उपासक दशा अन्तकृत दशा अनुत्तरोपपातिक दशा प्रश्न व्याकरण विपाक दृष्टिवाद : विलुप्त : प्रज्ञापना सूर्य प्रज्ञप्ति चंद्र प्रज्ञाप्ति जंबूद्वीप प्रज्ञप्ति कल्पिका कल्पावतंसिका पुष्पिका पुष्पं चुलिका वृष्णि दशा 2 मूल छेद दशवैकालिक निशिथ उत्तराध्ययन महानिशिथ 3 आवश्यक बृहत्कल्प 4 व्यवहार पिण्ड नियुक्ति अथवा ओघ नियुक्ति 5 दशाश्रुतस्कंध पंचकल्प प्रकीर्णक 1- चतुःशरण चन्द्र वैध्य 2- आतुर प्रत्याख्यान 7- देवेन्द्र स्तव . Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3 भक्त परिज्ञा गणि विद्या 4- संम्तारक 9- महा प्रत्याख्यान 5- तन्दुल वैचारिक 10- वीर स्तव चूलिका 1- नन्दीसूत्र 2- अनुयोगद्वार सूत्र इस प्रकार जावरा में भगवती सूत्र का स्वाध्याय करते हुए मन में विचार आया कि:क्यों न इनका : ऐसे ज्ञान गर्भित सूत्रों का : राष्ट्र भाषा हिन्दी में अनुवाद किया जावे। विचारों को पूर्ण साकार रूप देने के पूर्व गंभीर चिन्तन किया। क्योंकि- आगमों का अध्ययन सुलभ नहीं है। और योग क्रिया पूर्व वाचने का अधिकार भी नहीं है। किन्तु चिन्तन इस निर्णय पर रहा है कि ___ अभी तपागच्छीय मुनिराज द्वारा गुजराती में 45 आगम निकाले गये है। स्थानक वासी के 32. आगम हिन्दी अंग्रेजी और सचित्र छप गये है तेरापंथी समाज के भी 32 आगम हिन्दी में छप गये है और अंग्रेजी में छप जाने से पाश्चात्य विद्वान भी उदाहरण दे रहे है तो क्यों न हिन्दी में भी अनुवाद हो ? कुछ आगम के ज्ञाता आचार्य वर्यो से विचार किया, विचारों का सार यही रहा कि- विवादित गुढ़ रहस्य ग्रन्थ को न छूकर अन्य उपयोगी ग्रन्थों का ही विचार करें। विचार भावना को कार्य रूप में परिणत करने के विचार से मुंबई में अध्यापन कार्यरत पंडितवर्य श्री रमेशभाइ हरिया से संपर्क किया, पंडितजी मेरे विचारों की अनुमोदना करते हुए सभी प्रकार से पूर्ण सहयोग देने का विश्वास दिलाया एवं संपादन कार्य करने की स्वीकृति प्रदान की। आगम की द्वादशांगी के प्रथम अंगसूत्र आचारांग सूत्र है एतदर्थ सर्व प्रथम आचारांग सूत्र की श्री शीलांकाचार्य विरचित वृत्ति का कार्य प्रारंभ किया जावे। इस आचारांग सूत्र का सर्व प्रथम महत्त्व यह है कि-दशवैकालिकसूत्र की रचना होने के पूर्वकाल में नवदीक्षित साधु एवं साध्वीजी म. को आचासंग सूत्र का प्रथम अध्ययन, सूत्रअर्थ एवं तदुभय (आचरणा) से देकर हि उपस्थापना याने बडी दीक्षा दी जाती थी... किंतु श्री शय्यंभवसूरिजी ने मनक मुनी का अल्पायु जानकर, अल्पकाल में आत्महित कैसे हो ? इस प्रश्न की विचारणा में दशवैकालिक सूत्रकी संकलना की अर्थात् रचना की, तब से नवदीक्षित मुनि एवं साध्वीजी म. को दशवै. सूत्र के चार अध्ययन सूत्र-अर्थ एवं तदुभय से देने के बाद बडी दीक्षा होती है... Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेखन कार्य श्रम पूर्ण होने पर प्रकाशन कार्य भी कम श्रम पूर्ण नहीं है। इसके लिये सर्व प्रथम गुणानुरागी श्रुतोपासक श्रेष्ठिवर्य श्री शांतिलालजी मुथाजी, कि- जो भूपेन्द्रसूरि साहित्य समिति के मंत्री है। उन्हों से पत्राचार प्रारंभ हुआ पत्राचारों से विचार उद्भव हुए कि- हिन्दी टीका में आहोर का नाम जुड जावे तो यह प्रकाशन कार्य सुलभ हो जावे। अतः श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन और राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी हिन्दी टीका नामकरण किया गया। आचारांग सूत्र तीन भाग में प्रकाशित हो रहा है। तीनों भागों का प्रकाशन व्यय आहोर के निवासी गुरू भक्त श्री शांतिलालजी मुथा के प्रयत्न से आहोर निवासी श्रृतोपासक श्रेष्ठीवर्य गुरू भक्त वहन कर रहे है। अतः आहोर के श्रुत दाता गुरुभक्त साधुवाद के पात्र है। भविष्य में इसी प्रकार ज्ञानोपासना के कार्य में अपनी लक्ष्मी का सदुपयोग करके श्रुत भक्ति का परिचय देते रहे यही मंगल कामना। बंबई निवासी डा. रमणभाई सी. शाह ने अपना अमूल्य समय निकालकर अनुवाद को आद्यंत पढकर श्रुत आराधना का लाभ लिया, एतदर्थ धन्यवाद एवं आशा करते है कि- भविष्य में भी इसी प्रकार सहयोग कर हमारी ज्ञान उपासना में अभिवृद्धि करते रहेंगे। यही मंगल कामना। शिष्यद्वय मुनि श्री हितेशचन्द्रविजय एवं मुनि श्री दिव्यचन्द्रविजयजी ने भी श्रुत भक्ति का सहयोग पूर्ण परिचय दिया यह श्रुत भक्ति शिष्यद्वय के जीवन में सदा बनी रहे यही आर्शीवाद सह शुभकामना / सौधर्मबृहत्तपोगच्छीय वयोवृद्ध शुद्ध साध्वाचार पालक गच्छ शिरोमणी शासन दीपिका प्रवर्तिनी मुक्तिश्रीजी की समय - समय पर श्रुतोपासना की प्रेरणा मिलती रहती है एवं प्रत्येक गच्छीय उन्नति के कार्यों में पूर्ण सहयोग रहता है यह मेरे लिये गौरव पूर्ण बात है इन्हीं प्ररेणाओं से प्रेरित होकर के श्रुतोपासना की भावना बनी रहती है एवं भविष्य में भी मेरे श्रेष्ठकायों में इनकी प्रेरणा प्राप्त होती रहे इसी श्वास के साथ / अंत में संपादन कार्य करते हुए पंडितवर्य श्री रमेशभाइ एल. हरिया ने प्रेस मेटर व प्रुफ संशोधन में पूर्णतः श्रम किया है एवं पाटण निवासी 'दीप' आफसेट के मालिक श्री हितेशभाई, व मुन कम्प्युटर के स्वामी श्री मनोजभाई का श्रम भी नहीं भुलाया जा सकता है। इस प्रकार आचारांगसूत्र की 'आहोरी' हिंदी टीका स्वरूप इस ग्रंथ-प्रकाशन में प्रत्यक्ष एवं परोक्ष रूप से सहयोग कर्ता सभी धन्यवाद के पात्र है। श्रीमोहनखेडातीर्थ ज्योतिषाचार्य वि.सं. 2058 जयप्रभविजय 'श्रमण' माघ शुक्ल 4 शनिवार दीक्षा के 49 वें वर्ष प्रवेश स्मृति Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पादनवेलायाम्... पं. श्री लीलाधरात्मजः रमेशचन्द्रः हरिया अयि / शृण्वन्तु हहो / तत्रभवन्तः भवन्तः प्रेक्षावन्तः भोः भोः सज्जनाः ! अनादिनिधनस्थितिकेऽस्मिन् संसारसागरे नैके असुमन्तः प्राणिनः स्वस्वकृतकर्म-परवशीभूय निमज्जनोन्मज्जनं कुर्वन्तः विद्यमानाः सन्ति। नाग सदैव सर्वेषां जीवानां एकैव आकाक्षा अस्ति, यत्-सकल दुःखानां परिहारेण सर्वथा सुखीभवामः, किन्तु संसारस्थजीवानां यादृशी आकाङ्क्षा अस्ति, तदनुरूपः पुरुषार्थस्तु नास्ति... यतः साध्यानुरूपो हि पुरुषार्थः साध्यसिद्धि प्रति समर्थीभवति। जीवानां साध्यं अस्ति निराबाधं अक्षयं अनन्तं आत्मसुखम्, किन्तु तैः तदनुरूपः पुरुषार्थस्तु न अङ्गीकृतः... निराबाधसुखस्य साधनं अस्ति सम्यक्चारित्रम्... तत् च सर्वसावधनिवृत्तिस्वरूपं T / पञ्चचारात्मकं चरणं, सावद्यं नाम पापाचरणम्... पापाचरणं नाम जगज्जन्तूनां त्रिविध त्रिविधपीडोद्भावनम्... अतः पापाचरणस्य परिहारः हि निराबाधसुखस्य असाधारण-हेतुः अस्ति इति अवगन्तव्यम्। ___ परहितकरणेनैव स्वहितं स्यात्, नाऽन्यथा। परपीडा-विधानेन तु आत्मपीडैव सम्भवेत् इति वार्ता निश्चितं विज्ञेया। __ यः कोऽपि परेभ्यः यत् यत् कामयते, तत् तत् परेभ्यः प्रथमं दातव्यं भवति... यथा आमबीजवपनेन एव आमफलं लभ्यते, नाऽन्यथा इति तु जानीते आबालगोपालः / वर्तमानसमये ये ये जीवाः दुःखिनः सन्ति, तैः पूर्वस्मिन् काले परेभ्यः दुःखं दत्तं स्यात्, अन्यथा ते कदापि दुःखिनः न स्युः इति मन्ये। ये केऽपि प्रेक्षावन्तः सज्जनाः चेद् गम्भीरीभूय ते चिन्तयेयुः तदा जगज्जीवानां दुःखनिदानं किं अस्ति, तत् सम्यग् जानीयुः / यद्यपि कोऽपि जीवः कस्मैचिदपि दुःखं दातुं नेच्छति, तथापि आहारसंज्ञादिहेतुतः मिथ्यामोहान्धचित्तत्वेन कर्मपरवशीभूय जीवः तथा तथा प्रवृत्तिं करोति यथा नैके पृथ्वीकायादि जीवाः दुस्सहं कष्टं प्राप्नुवन्ति, इति एवं प्रकारेण अविरतः जीवः संसारस्थैः अनन्तेः जीवैः सह वैरानुबन्धभावं वर्धयति / फलतः सः अविरतः जीवः अपारसंसारसागरे पुनः पुनः जन्ममरणात्मकं निमज्जनोमज्जनं कुर्वन् संसारे वर्तते, इतीयं वार्ता मिथ्या न, किन्तु सत्या एव / यदि केषाश्चित् चेतसि अत्र सन्देहः स्यात् तर्हि पृच्छन्तु ते प्रेक्षावद्भ्यः सज्जनेभ्यः, श्रूयतां च तैः दत्तं Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यग् उत्तरम्। केवलज्ञानालोके विश्वविश्वं करामलकवद् अधिगच्छन्ति जिनेश्वराः / चातुर्गतिकजीवानां' भवभमणकारणं सनिदानं ज्ञातमस्ति परोपकारिभिः तैः सर्वज्ञैः जिनेश्वरैः तैः दृष्टं यत्विषयकषायाभिभूताः हि कर्मबहुलाः चातुर्गतिकाः जीवाः उदयागतकर्मविपाकानुसारेणैव भवभमणं कुर्वन्ति / यथा कण्डरीकादयः सागरश्रेष्ठ्यादयश्च, ते हि विषयकषायानुभावतः एवं भवे भ्रान्ताः भमन्ति भमिष्यन्ति च। तथा च ये गजसुकुमालादयः पुण्डरीकादयश्च लघुकर्माणः जीवाः, ये विषयकषायेभ्यः / विरम्य आत्मगुणाभिमुखाः सञ्जाताः, सावद्यारम्भ-परिग्रहतश्च विरताः सन्ति, ते एव निराबाधं आत्मसुखं सम्प्राप्ताः सन्ति, प्राप्नुवन्ति प्राप्स्यन्ति च, नाऽत्र सन्देहः / अतः एव अतीतकालीनाः वर्तमानकालीनाः अनागतकालीनाश्च विश्वविश्वोपकारिणः विगत राग-द्वेषमोहाः जितेन्द्रियाः पञ्चाचारमयाः पञ्चसमितिभिः समिताः त्रिगुप्तिभिः गुप्ताः / विनष्टकर्मक्लेषाः केवलिनः सर्वज्ञाः जिनेश्वराः देवविरचित-समवसरणे द्वादशविधपर्षदि एवं भाषितवन्तः भाषन्ते भाषिष्यन्ते च, यत्-विश्वविश्वेऽस्मिन् संसारे ये केऽपि जीवाः सन्ति, ते कैश्चिदपि मुमुक्षुभिः न हन्तव्याः न पीडनीयाः न परितापनीयाः न उपद्रवितव्याः इति. एतद्भावप्रकाशकं सूत्रं (सूत्राक-१३९) सकलद्वादशाङ्ग्याः सारभूतेऽस्मिन् प्रथमे आचाराङ्गाभिधे ग्रन्थे प्रथमश्रुतस्कन्धस्य चतुर्थाध्ययने गणधरैः उल्लिखितं अस्ति... चतुर्दशपूर्वगर्भितेयं द्वादशाङ्गी अर्थतः उपदिष्टाऽस्ति जिनेश्वरैः, सूत्रतश्च व्यथिताऽस्ति गणधरैः / सर्वेऽपि जिनेश्वराः क्षायिकभावात्मक-सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रमयाः सन्ति, गणधराश्च निर्मल क्षायोपशमिकभावात्मकसम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रसम्पन्नाः सन्ति / तेषां समेषां दृष्टिः लक्ष्यबिन्दुः वा एकस्मिन्नेव शुद्धात्मनि अस्ति... आत्मविशुद्ध्यर्थमेव तेषां समेषां सर्वथा पुरुषार्थः अस्ति, तथा च आत्मना मनसा वचसा वपुषा वा ते सर्वेऽपि तथाविधं उद्यमं स्वयं कुर्वन्ति, अन्यैः कारयन्ति तथा च तथाविधं उद्यमं कुवाणान् अन्यान् प्रशंसन्ते च, यथा आत्मविशुद्धिः भवेत् / विश्वविश्वेऽस्मिन् ये केऽपि जन्तवः सन्ति, ते सर्वेऽपि जीवात्मानः असङ्ख्य-प्रदेशिनः सन्ति, तथा चाऽत्र प्रतिप्रदेशे अनन्तज्ञानादिगुणाः सहजाः एव... सर्वेऽपि जीवाः अक्षयाः अजराः अमराः निराबाधसुखमयाश्च सन्ति, किन्तु चातुर्गतिकेऽस्मिन् संसारे ये के ऽपि जीवाः परिभम्यमाणाः नैकविधसातासातादिजन्यसुखदुःखाभितप्ताश्च दरीदश्यन्ते तत्र एकमेव पापाचरणं कारणमस्ति... मिथ्यात्वादिबन्धहेतुभिः सेविताष्टादशपापस्थानकाः समेऽपि संसारिणः जीवाः यद्यपि जन्म . नेच्छन्ति तथाऽपि बद्धाष्टविधकर्मविपाकोदयेन जन्म लभन्ते, पीडां नेच्छन्ति तथाऽपि पीडां प्राप्नुवन्ति, वार्धक्यं नेच्छन्ति तथाऽपि वृद्धभावमनुभवन्ति... मरणं नेच्छन्ति तथाऽपि मियन्ते च / Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अतः एव परमकरुणालुभिः जगज्जन्तुजननीकल्पैः जिनेश्वरैः परमवात्सल्यभावेन सकलजीवेभ्यः निराबाधात्मसुखानुभवं प्रकटयितुं पधाचारमयः मोक्षमागः प्रदर्शितः अस्ति... गणधरैश्च अयं पञ्चाचारः आचाराङ्गाभिधे आगमयन्थे उल्लिखितः अस्ति. & कालादिभेदभिन्नाष्टविधज्ञानाचार : निःशङ्कितादिभेदभिन्नाष्टविधदर्शनाचारः ईर्यासमित्यादिभेदभिन्नाष्टविधचारित्राचारः अनशनादिभेदभिन्नद्वादशविधतपआचारः यथाविधित्रियोगपराक्रमभेदभिन्नवीर्याचारः ल - 7 ज्ञान-दर्शन-चारित्र-तपो-वीर्याचारात्मकः अयं पञ्चाचारः सर्वेषां जीवानां आत्मविशुद्धयर्थं असाधारणं हेतुः अस्ति... यतः तदेव साधनं साधनं स्यात्, यत् साध्यं अवश्यमेव साधयति... अद्ययावत् ये केऽपि जीवाः मोक्षं प्राप्ताः सन्ति, ते सर्वेऽपि पञ्चाचारेणैव, नाऽन्यथा... यैः यैः पञ्चाचारः आराधितः ते सर्वेऽपि मोक्षगतिं प्राप्ताः सन्ति, तथा यैः जीवैः अयं पञ्चाचारः न आदृतः, आदृतो वा न आराधितः, ते सर्वे जीवाः चातुर्गतिकेऽस्मिन् संसारे परिभमन्ति... यत्र यत्र साधनं तत्र तत्र साध्यम् इति अन्वयः। यत्र यत्र साध्याभावः तत्र तत्र साधनाभावः इति व्यतिरेकः / अर्थात् यत्र यत्र पञ्चाचारः तत्र तत्र मोक्षः / इति अन्वयः तथा यत्र यत्र मोक्षाभावः तत्र तत्र पञ्चाचाराभावः। इति व्यतिरेकः अतः एव सज्जनशिरोमणिभिः सुधर्मस्वाम्यादि-सूरिपुरन्दरैः पुनः पुनः निवेद्यते, यत् - हे भव्याः ! सावधानीभूय सेव्यतामयं पञ्चाचारः, अनुभूयतां च निराबाधात्मसुखम् / आचाराङ्गाभिधमिदं आगमशास्त्रं गणधरैः अर्धमागधीप्राकृतभाषायां निबद्धमस्ति... चतुर्दशपूर्वधर श्रीभद्रबाहुस्वामिभिः प्राकृतभाषायां नियुक्तिः निबद्धा अस्ति... तथा वृत्तिकारश्रीमत् शीला काचार्यैः संस्कृतभाषायां वृत्ति-व्याख्या विहिता अस्ति... किन्तु वर्तमानकालीनमन्दमतिमुमुक्षुभिः इदं आचाराङ्गसूत्रम्, इयं नियुक्तिः, वृत्ति-व्याख्या च दुरधिगम्या, अतः एतादृशी परिस्थितिः सजाताः यत् प्रभूततराः साधवः साध्व्यश्च विहितयोगविधयः अपि, आचाराङ्गसूत्रार्थस्य जिज्ञासवः अपि न श्रवणं लभन्ते, न च पठितुं शक्नुवन्ति, ततः यत् तत् किमपि पठनं श्रवणं च कुर्वन्तः सन्तः आर्तध्यानात्मात -चेतसध्य ते दुर्लभं नरजन्मक्षणं मुधा गमयन्ति, अतः एवम्भूतानां मन्दमतीनां मुमुक्षूणां हितकाम्यया इयं राजेन्द्र सुबोधनी “आहोरी" हिन्दी टीका-व्याख्या विहिता, अभिधान-राजेन्द्र-कोषकार-श्रीमद्-विजय राजेन्द्रसूरीश्वराणामन्तेवासि शिष्यरत्न व्याख्यानवाचस्पति विद्वद्वरेण्य श्रीमद् यतीन्द्रसूरीश्वराणां Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विनेय शिष्यरत्नज्योतिषाचार्य-श्रीमद् जयप्रभविजयैः गुरुबन्धुश्री सौभाग्यविजयादीनां सत्प्रेरणया तथा च विनेय शिष्यरत्न हितेशचन्द्रविजयदिव्यचन्द्रविजयादीनां नमनिवेदनेन... ग्रन्थसम्पादनकर्म तु प्रचुरश्रमसाध्यं अस्ति, अतः आचाराङ्गाभिधस्याऽस्य ग्रन्थस्य सम्पादनकर्मणि मालवकेशरी व्याख्यानकार मुनिपुंगव श्री हितेशचन्द्रविजयजित् “श्रेयस'' तथा मुनिराज श्री दिव्यचन्द्रविजयजित् "सुमन'' इत्यादिभिः एभिः मुनिवर्यैः आत्मीयभावेन प्रचुरमात्रायां सहयोगः प्रदत्तः अस्ति, अतः तेषां श्रुतज्ञानभक्तिः अनुमोदनीया अस्ति... राजेन्द्र सुबोधनी “आहोरी' हिन्दी टीकाऽन्वितस्य अस्य आचाराङ्गयन्थस्य प्रभूततराणि पत्राणि सञ्जातानि, अतः प्रथमश्रुतस्कन्धस्य प्रथमाध्ययन स्वरूपः प्रथमः विभागः प्रकाशितः अस्ति, ततः परं द्वितीय-तृतीय-चतुर्थ-पञ्चमाध्ययनानां यानि पत्राणि सन्ति तेषां सङ्ग्रहः द्वितीय-भागे पुस्तके कृतः, अस्ति... - प्रथम-श्रुतस्कन्धस्य शेषाणि 6,(7),8,9 अध्ययनानि प्रस्तुतेऽस्मिन् तृतीयभागे .. तत्रभवतां भवतां करकमले प्रस्तुतीकृत्य हर्षानन्दः अनुभूयते तथा च द्वितीयश्रुतस्कन्धात्मकः चतुर्थभागः भविष्यति... एवं सम्पूर्णः आचाराश-ग्रन्थः अस्माभिः पुस्तकचतुष्टये सम्पादितोऽस्ति। ग्रन्थमुद्रणविधौ तु अणहिलपुर-पाटण-नगरस्थ दीप ओफसेट स्वामी श्री हितेशभाइ परीख एवं मून कम्प्युटर स्वामी श्री मनोजभाइ ठक्कर इत्यादि सज्जनानां सहयोगः अविस्मरणीयः अस्ति। ग्रन्थसम्पादनकर्मणि प्रेसमेटर एवं प्रुफ आदि संशोधनकर्मणि विदुषी साधनादेवी, निमेष-ऋषभ-अभयम् इत्यादि सर्वेषां असाधारणसहयोगः प्रशंसनीयः अस्ति / अन्येऽपि ये केऽपि सज्जनाः अस्मिन् ग्रन्थसम्पादनकर्मणि उपकृतवन्तः तेषां समेषां सहकारं कृतज्ञभावेन स्मरामि इति... ___-: निवेदयति : लीलाधरात्मज रमेशचंद्र हरिया... संस्कृत-प्राकृत व्याकरण काव्य न्याय साहित्याचार्य. __-: अध्यापक :वि.सं.२०६१ गुरु-सप्तमी गुरू राजेन्द्र विद्या शोध संस्थान दिनांक : 16-1-2005 मोहनखेड़ा तीर्थ (राजगढ़) मोहनखेडा तीर्थ (म.प्र.) जि. धार, मध्यप्रदेश फोन : 07296-232225 Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __ प्रासंगिकम् पं. श्री लीलाधरात्मजः रमेशचन्द्रः हरिया सटीक आचारांग सूत्र के भावानुवाद स्वरूप राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी हिन्दी टीका के शिल्पी है अभिधान राजेन्द्र कोश महाग्रंथ के निर्माता भट्टारक परम पूज्य आचार्य देव श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी म. सा. के शिष्यरत्न विद्वद्वरेण्य व्याख्यानवाचस्पति पू. आ. देव श्रीमद् विजययतीन्द्रसूरीश्वरजी म. सा. के शिष्यरत्न आगममर्मज्ञ मालवरत्न ज्योतिषाचार्य श्रीमद् जयप्रभविजयजी म. सा. "श्रमण" / __ इस महान ग्रंथ के निर्माण एवं संपादन कार्य में सहयोग प्राप्त हुआ है वयः संयमस्थविर श्री सौभाग्यविजयजी म. सा. प्रवचनकार श्री हितेशचंद्र विजयजी म. सा. श्री दिव्यचंद्र विजयजी म. सा. तथा प्रवर्तिनी पू. गुरुणीजी श्री मुक्तिश्रीजी म. सा. पू.साध्वीजी जयंतश्रीजी म. पू. साध्वीश्री संघवणश्रीजी म. पू. साध्वीश्री मणिप्रभाश्रीजी म. पू. साध्वीश्री तत्त्वलोचनाश्रीजी म. तथा हमारे बेन मा'राज साध्वीश्री सूर्योदयाश्रीजी म. सा. के शिष्या पू. साध्वीश्री रत्नज्योतिश्रीजी म. श्री मोक्षज्योतिश्रीजी म. श्री अक्षयज्योतिश्री म., माँ माराज श्री धर्मज्योतिश्रीजी म. आगमज्योतिश्रीजी म. आदि... ___ इस ग्रंथ में (1) अर्ध मागधी-प्राकृत भाषामें मूलसूत्र... (2) मूलसूत्र की संस्कृत छाया... (3) मूलसूत्र के भावार्थ... (4) श्री शीलांकाचार्यजीकी टीका का भावानुवाद... तथा (5) सूत्रसार का संकलन कीया गया है... इस ग्रंथ के प्रत्येक पेइज के उपर की और 1-1-1-1 ऐसा जो क्रमांक लिखा गया है, उसका तात्पर्य - 1 याने प्रथम श्रुतस्कंध... 6 याने प्रथम अध्ययन... 1 याने प्रथम उद्देशक... 1 याने पहला सूत्र... ___ इस ग्रंथ के भावानुवाद के लिये मुख्य आधार ग्रंथ मुनिराज श्री दीपरत्नसागरजी म. सा. के द्वारा प्रकाशित सटीक 45 आगम ग्रंथ का प्रथम भाग श्री आचारांग सूत्र... सटीक... इस प्रकाशनमें दीये गये सूत्र क्रमांक 1 से 552 पर्यंत संपूर्ण... यह हि क्रमांक इस प्रस्तुत प्रकाशन में लिये गये है... अतः प्रथम श्रुतस्कंध के षष्ठ अध्ययनके प्रथम उद्देशक प्रथम सूत्र क्रमांक में हमने उद्देशकके सूत्र क्रमांक के साथ साथ सलंग सूत्र क्रमांक भी दीये है... जैसे कि- जहां 1-6-1-1 (186) लिखा गया है Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वहां प्रथम का 1 अंक प्रथम श्रुतस्कंध का सूचक है... द्वितीय स्थानमें 6 अंक षष्ठ अध्ययन का सूचक है... तृतीय स्थानमें 1 अंक प्रथम उद्देशकका सूचक है, एवं चतुर्थ स्थानमें 1 अंक प्रथम उद्देशक के प्रथम सूत्र का सूचक है..., तथा (186) अंक सूत्र का अविभक्त सलंग क्रमांक है... . इस प्रकार प्रथम श्रुतस्कंध के षष्ठ अध्ययन में पांच उद्देशक है... पांचवे उद्देशक का अंतिम सूत्र क्रमांक 209 है... अतः हमने 1-6-5-3 (209) लिखा है. प्रत्येक पेइज के उपर लिखे गये 1-6-1-1 (186) इत्यादि क्रमांक को देखने से यह पता चलेगा कि- यह आहोरी हिन्दी टीकानुवाद या सूत्रसार कौन से श्रुतस्कंध के कौन से अध्ययन के किस उद्देशक के कौन से सूत्र का प्रस्तुत है... इस आहोरी हिंदी टीका ग्रंथ का सही सही उपयोग इस प्रकार देखा गया है, कि- / ' जो साधु या साध्वीजी म. सटीक आचारांग व्यंथ पढना चाहते हैं... और उन्हें अध्ययन में कठीनाइयां आती है इस परिस्थिति में यह अनुवाद व्यंथ उन्हें उपयुक्त सहायक बनेगा ऐसा हमारा मानना है... अतः हमारा नम्र निवेदन है कि- आप इस ग्रंथ का सहयोग लेकर सटीक .. आचारांग ग्रंथ का हि अध्ययन करें... गणधर विरचित मूलसूत्र में एवं शीलांकाचार्य विरचित संस्कृत टीका में जो भाव-रहस्य है वह भावरहस्य अनुवाद में कहां ? जैसे कि- गोरस दुध में जो रस है वह छास में कहां ? तो भी असक्त मनुष्य को मंद पाचन शक्ति की परिस्थिति में दूध की जगह छास हि उपकारक होती है क्योंकि- दोनों गोरस तो है हि... ठीक इसी प्रकार मंद मेधावाले मुमुक्षु साधुसाध्वीजीओं को यह भावानुवाद-ग्रंथ अवश्य उपकारक होगा हि... गणधर विरचित श्री आचारांग सूत्र का अध्ययन आत्म विशुद्धि के लिये हि होना चाहिये... आत्म प्रदेशों में क्षीरनीरवत् मीले हुए कर्मदल का पृथक्करण करके आत्म प्रदेशों को सुविशुद्ध करना, यह हि इस महान् ग्रंथ के अध्ययन का सारभूत रहस्य है, अतः इस महान् ग्रंथ के प्रत्येक पद-पदार्थ को आत्मसात् करना अनिवार्य है... कथाग्रंथ की तरह एक साथ पांच दश पेइज पढने के बजाय प्रत्येक पेइज के प्रत्येक पेराव्याफ (फकरे) को चबाते चबाते चर्वण पद्धति से पढना चाहिये... अर्थात् चिन्तन-मनन अनुप्रेक्षा के द्वारा आत्मप्रदेशों से संबंध बनाना चाहिये... __ आत्म प्रदेशों में निहित ज्ञानादि गुण-धन का भंडार अखुट अनंत अमेय एवं अविनाशी . है... कि- जो गुणधन कभी भी क्षीण नहि होता... और न कोइ चोर लुट शकता... और न कभी शोक-संताप का हेतु बनता, किंतु सदैव सर्वथा आत्महितकर हि होता है... अतः ज्ञान Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धन हि आत्मा का सच्चा धन-ऐश्वर्य है... - श्री आचारांग सूत्र के अध्ययन से उपलब्ध हुआ पंचाचार स्वरूप गुण-धन निश्चित हि प्रज्वलित दीपक की तरह अनेक बुझे हुए दीपकों को प्रज्वलित करता है... अर्थात् अनेक भव्य जीवों में पंचाचार-गुण-धन के प्रदान के द्वारा अनंतानंत जीवों को अव्याबाध अविचल आत्मिक सुख का हेतु बनता है... इस ग्रंथ के निर्माण एवं संपादन में अतीव सावधानी रखी गइ है, तो भी जहां कहिं अपूर्णता प्रतीत हो वहां क्षमाशील सज्जन साधु-संत परिपूर्णता करे यह हि हमारी नम प्रार्थना है.. .क्योंकि- सज्जन लोग सदा गुणत्याही होतें है एवं शुभ पुरुषार्थ के प्रशंसक होते हैं... इस ग्रंथ का मुद्रण कार्य उत्तर गुजरात के पाटण नगरमें दीप ओफसेट के मालिक परीख हितेशभाइ ने पूर्ण सावधानी से कीया है... एवं कम्प्युटर लिपि मून कम्प्युटर के मालिक मनोजभाइ ठक्कर ने बहोत हि परिश्रम के साथ प्रस्तुत की है... अतः हम उन दोनों महानुभावों के श्रम को नहि भूल पाएंगे.... इस ग्रंथ के निर्माण एवं संपादन कार्य में पाटण खेतरवसी श्री भुवनचंद्रसूरि ज्ञानमंदिर के व्यवस्थापक ट्रस्टी श्री विनोदभाइ झवेरी एवं पं. श्री रमणीकभाइ ने उपयुक्त पुस्तक प्रत इत्यादि सहर्ष प्रदान कर अपूर्व सहयोग दीया है... ___ इस महान् ग्रंथ के संपादन कार्य में अनेक सज्जनों का सहयोग प्राप्त हुआ है, उनमें से भी प्रेस मेटर एवं प्रुफ संशोधनादि कार्यों में विदुषी साधनादेवी आर. हरिया तथा चि. पुत्र निमेष, ऋषभ एवं अभयम् का सहयोग सराहनीय है... - अंत मे श्री श्रमण संघ से करबद्ध नम्र निवेदन है कि- इस महान ग्रंथरत्न का आत्म विशुद्धि के लिये उपयोग करें एवं संपूर्ण विश्व के सकल जीव पंचाचार की सुवास को प्राप्त करें ऐसा मंगलमय आशीर्वाद देने की कृपा करें... दिनांक : 30-12-2004 गुरुवार पाटण (उ.गु.) -: निवेदक :लीलाधरात्मज. रमेशचंद्र हरिया... संस्कृत-प्राकृत व्याकरण काव्य न्याय साहित्याचार्य. 3/11, वीतराग सोसायटी, पी. टी. कोलेज रोड, पालडी, अमदावाद-3८०००७ फोन : (079) 26602176 Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ / श्री सौधर्म बृहत्तापगच्छीय पट्टावली / शासनपति - त्रिशलानंदन श्री महावीरस्वामीजी (1) श्री सुधर्मस्वामीजी (27) श्री मानदेवसूरिजी (53) श्री लक्ष्मीसागरसूरिजी (2) श्री जम्बू स्वामीजी (28) श्री विबुधप्रभसूरिजी (54) श्री सुमतिसाधुसूरिजी (3) श्री प्रभवस्वामीजी (29) श्री जयानन्दसूरिजी (55) श्री हेमविमलसूरिजी श्री शय्यंभवसूरिजी (30) श्री रविप्रभसूरिजी (56) श्री आनंदविमलसूरिजी (5) श्री यशोभद्रसूरिजी (31) श्री यशोदेवसूरिजी (57) श्री विजयदानसूरिजी (6) श्री संभूतिविजयजी (32) श्री प्रद्युम्न सूरिजी (58) श्री विजयहीरसूरिजी श्री भद्रबाहुस्वामीजी (33) श्री मानदेवसरिजी (59) श्री विजयसेनसूरिजी श्री स्थूलभद्रसूरिजी (34) श्री विमलचन्द्रसूरिजी (60) विजयदेवसूरिजी (8) श्री आर्य महागिरिजी (35) श्री उद्योतनसूरिजी श्री विजयसिंहसुरिजी श्री आर्यसुहस्तिसूरिजी (36) श्री सर्वदेवसूरिजी (61) श्री विजयप्रभसूरिजी (9) श्री सुस्थितसूरिजी (39) श्री देवसूरिजी (62) श्री विजयरत्नसूरिजी श्री सुप्रतिबद्धसूरिजी (38) श्री सर्वदेवसूरिजी (3) श्री वृद्धक्षमासूरिजी। (10) श्री इन्द्रदिन्नसूरिजी (39) श्री यशोभद्रसरिजी (64) श्री विजयदेवेन्द्रसूरिजी (11) श्री दिन्नसूरिजी श्री नेमिचन्द्रसूरिजी (65) श्री विजयकल्याणसूरिजी (12) श्री सिंहगिरिसूरिजी (40) श्री मुनिचन्द्रसूरिजी (66) श्री विजयप्रमोदसूरिजी (13) श्री वजस्वामीजी (41) श्री अजितदेवसरिजी (67) श्री विजयराजेन्द्रसूरिजी म. (14) श्री वज्रसेनसूरिजी (42) श्री विजयसिंह सुरिजी (68) श्री धनचन्द्रसूरिजी (15) श्री चन्द्रसूरिजी (43) श्री सोमप्रभसूरिजी (69) श्री भूपेन्द्रसूरिजी (16) श्री समन्तभद्रसूरिजी श्री मणिरत्नसूरिजी (70) श्री यतीन्द्रसूरिजी (17) श्री वृद्धदेवसूरिजी (44) श्री जगच्चन्द्रसरिजी (71) श्री विद्याचन्द्रसूरिजी (18) श्री प्रद्योतनसूरिजी (45) श्री देवेन्द्रसूरिजी (72) श्री हेमेन्द्रसूरिजी (19) श्री मानदेवसूरिजी श्री विद्यानन्द्रसरिजी इत्यादि अनक स्थावर आच रिजी इत्यादि अनेक स्थविर आचार्यो के (20) श्री मानतुंगसूरिजी . द्वारा जिनागम-प्रवचन की पवित्र (46) श्री धर्मघोषसूरिजी / परिपाटी आज हमें उपलब्ध हो रही (21) श्री वीरसूरिजी (47) श्री सोमप्रभसूरिजी है... गुरुपर्वक्रम से उपलब्ध यह (22) श्री जयदेवसूरिजी (48) श्री सोमतिलकसरिजी सूत्र-अर्थ-तदुभयात्मक जिनागम शास्त्र श्री पावनकारी परिपाटी हि (23) श्री देवानन्दसूरिजी (49) श्री देवसुन्दरसुरिजी लवणसमुद्र तुल्य इस विषम (24) श्री विक्रमसूरिजी (50) श्री सोमसुंदरसरिजी दुःषमकाल (पांचवे आरे) में भी मधुरजल की सरणी के समान होने (25) श्री नरसिंहसूरिजी (51) श्री मुनिसुन्दरसूरिजी से भव्य जीवों के आत्महित के लिये (26) श्री समुद्रसूरिजी (52) श्री रत्नशेखरसरिजी पर्याप्त है... -मुनि दिव्यचंद्रविजय... Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पत्राक 50 22 24 26 30 30 31 38 अनुक्रमणिका सूत्र क्रमांक षष्ठ अध्ययन प्रारंभ धूताध्ययनम् प्रथम उद्देशक प्रारंभ स्वजनविधूननम् श्रुत.-अध्य.-उद्दे.-सूत्र- सूत्रांक 1 - 6 - 1 - 1 - (186) 1 - 6 -1 - 2- (187) 1 - 6 - 1 - 3 - (188) 1- 6 - 1 -4 - (189) 1- 6 - 1 - 5 - (190) 1- 6 - 1 - 6 - (191) 1 - 6 - 1 - 7 - (192) 1 - 6 - 1 -8 - (193) द्वितीय उद्देशक प्रारंभ कर्मविधूननम् 1- 6-2-1 - (194) 1- 6 -2 - 2 - (195) 1 - 6 -2 - 3 - (196) 1- 6-2 - 4 - (197) तृतीय उद्देशक प्रारंभ उपकरण-शरीरविधूननम् 1 - 6 - 3 - 1 - (198) 1- 6 - 3 - 2 - (199) .1 - 6 - 3 - 3 - (200) चतुर्थ उद्देशक प्रारंभ गारवत्रिकविधूननम् 1 - 6 - 4 - 1 - (201) 1- 6-4 - 1 - (202) 1- 6 - 4 - 1 - (203) 1- 6-4 -1 - (204) 1- 6 - 4 - 1 - (205) 1 - 6-4 -1 - (206) पंचम उद्देशक प्रारंभ उपसर्ग-सन्मानविधूननम् 1- 6 - 5 - 1 - (207) 1- 6 - 5 - 2 - (208) 1- 6 - 5 -3 - (209) . सप्तमं महापरिज्ञाध्ययनम् व्युच्छिन्नम् अष्टम अध्ययन प्रारंभ विमोक्षाध्ययनम् 38 43 43 48 50 57 57 61 63 64 67 69 74 74 प्रथम उद्देशक प्रारंभ कुवादिपरिचयत्यागः 97 1- 8 - 1 - 1 - (210) Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पत्रांक श्रुत.-अध्य.-उद्दे.-सूत्र- सूत्रांक 1 - 8 - 1 - 2 - (211) 1 - 8 - 1 - 3 - (212) 1 - 8 -1 - 4 - (213) 1 - 8 - 1 - 5 - (214) द्वितीय उद्देशक प्रारंभ 100 101 101 113 अकल्पनीयपरित्यागः 116 116 120 122 125 126 अंगचेष्टास्वरूप निर्देश '128 128.. 130 132 .134 वेहानसादिमरणम् 138 1 - 8 - 2 - 1 : (215) 1 - 8 -2 -2 - (216) 1 - 8 - 2 - 3 - (217) 1 - 8 - 2 - 4 - (218) 1 - 8 - 2 - 5 - (219) तृतीय उद्देशक प्रारंभ 1 - 8 - 3 - 1 --(220) 1 - 8 - 3 -2 - (221) 1 - 8 - 3 - 3 - (222) 1 - 8 - 3 -4 - (223) चतुर्थ उद्देशक प्रारंभ 1 - 8 - 4 - 1 - (224) 1 - 8 -4 - 2 - (225) 1- 8 -4 -3 - (226) 1 - 8 - 4 - 4 - (227) 1 - 8 - 4 - 5 - (228) पंचम उद्देशक प्रारंभ 1- 8 - 5 - 1 - (229) 1 - 8 - 5 - 2 - (230) षष्ठ उद्देशक प्रारंभ 1 - 8 - 6 - 1 - (231) 1 - 8 -6 -2 - (232) 1 - 8 - 6 - 3 - (233) 1 - 8 - 6 - 4 - (234) 1- 8 - 6 - 5 - (234) 138 141 143 144 145 ग्लानभक्तपरिज्ञा 150 TEEEEEEEEEEEEEEEEEEE 150 153 इंगितमरणम् 158 158 159 161 163 165 पादपोपगमनमरणम् 170 सप्तम उद्देशक प्रारंभ 1 - 8 - 7 - 1 - (236) 1 - 8 - 7 - 2 - (237) 1 - 8 -7 - 3 - (238) 1 - 8 - 7 - 4 - (239) अष्टम उद्देशक प्रारंभ 170 172 173 176 उत्तममरणविधः 180.. 1 - 1 - 8 - 8 - 1 - (240) 8-8-2 - (241) 180 181 Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पत्रांक 182 184 185 186 187 188 189 190 192 193 194 195 196 198 199 200 202 203 204 206 श्रुत.-अध्य.-उद्दे.-सूत्र- सूत्रांक 1 - 8 - 8 - 3 - (242) 1 - 8-8 -4 - (243) 1.- 8 - 8 - 5 - (244) 1 - 8-8-6 - (245) 1- 8-8- 7 - (246) 1- 8-8-8 - (247) 1 - 8 - 8 - 9 - (248) 1- 8-8- 10 - (249) 1 - 8 - 8 - 11 - (250) 1 - 8-8 - 12 - (251) 1- 8-8 - 13 - (252) 1 - 8.-8 - 14 - (253) 1- 8 - 8 - 15 - (254) 1 - 8 - 8 - 16 - (255) 1 - 8-8 - 17 - (256) 1 - 8 - 8 - 18 - (257) 1. - 8-8-19 - (258) 1 - 8 - 8 - 20 - (259) - 1 - 8 - 8 - 21 - (260) 1- 8 - 8 - 22 - (261) 1- 8-8- 23 - (262) 1-8-8- 24 - (263) 1- 8-8-25 - (264) नवम उद्देशक प्रारंभ प्रथम उद्देशक प्रारंभ 1- 9 - 1 - 1 - (269) 1- 9 - 1 - 2 - (266) 1- 9 - 1 -3 - (267) 1- 9 - 1 - 4 - (268) 1- 9 - 1 - 5 - (269) 1- 9 -1 -6 - (270) 1- 9 - 1 - 7 - (271) 1- 9 -1-8 - (272) 1- 9 - 1 - 9 - (273) 1- 9 - 1 - 10 - (274) 1- 9 -1 - 11 - (275) 1- 9 - 1 - 12 - (276) 1- 9 - 1 - 13 - (277) 1- 9 -1 - 14 - (278) 1- 9 - 1 - 15 - (279) 1- 9 -1 - 16 - (280) 207 209 210 214 उपधानश्रुताध्ययनम् चर्या 227 227 230 232 234 235 237 238 241 242 243 246 247 247 251 252 254 Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पत्रांक 255 257 258 259 261 262 263 शय्या 266 श्रुत.-अध्य.-उद्दे.-सूत्र- सूत्रांक 1- 9 - 1 - 17 - (281) 1 - 9 - 1 - 18 - (282) 1- 9 - 1 - 19 - (283) 1 - 9 - 1 - 20 - (284) 1 - 9 - 1 - 21 - (285) 1- 9 - 1 - 22 - (286) 1- 9 - 1 - 23 - (287) द्वितीय उद्देशक प्रारंभ 1 - 9 - 2 - 1 - (288) 1- 9 - 2 - 2 - (289) 1- 9 - 2 -3 - (290) 1- 9 - 2 - 4 - (291) 1 - 9 - 2 - 5 - (292) 1- 9 - 2 -6 - (293) 1 - 9 - 2 - 7 - (294) 1- 9 - 2 - 8 - (295) 1 - 9 - 2 - 9 - (296) 1- 9 - 2 - 10 - (297) 1 - 9 -2 - 11 - (298) 1 - 9 - 2 - 12 - (299) 1- 9 - 2 - 13 - (300) 1 - 9 - 2 - 14 - (301) 1 - 9 -2 - 15 - (302) 1- 9 - 2 - 16 - (303) तृतीय उद्देशक प्रारंभ 1 - 9 -3 - 1 - (304) 1- 9 - 3 - 2 - (305) 1- 9 -3 -3 - (308) 1- 9 - 3 - 4 - (307) 1 - 9 - 3 - 5 - (308) 1- 9 -3 - 6 - (309) 1- 9 -3 - 7 - (310) 1- 9 - 3 - 8 - (311) 1- 9 -3 - 9 - (312) 1- 9 -3 - 10 - (393) 1- 9 -3 - 11 - (314) 1. 9 - 3 - 12 - (315) 1- 9 -3 - 13 - (316) 1- 9 - 3 - 14 - (317) 266 267 270 271 272 273 274 274 276 278 279 280 281 282 283 284 परीषहः 287 287 288 289 290 291 292 293 295 296 296 297 298 299 301 Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रुत.-अध्य.-उद्दे.-सूत्र- सूत्रांक पत्रांक रोगातङ्कः 303 304 305 306 308 चतुर्थ उद्देशक प्रारंभ 1- 9 - 4 - 1 - (318) 1- 9 -4 - 2 - (319) 1 - 9 - 4 - 3 - (320) 1- 9 - 4 - 4 - (321) 1- 9 - 4 - 5 - (322) 1- 9 - 4 - 6 - (323) 1- 9 - 4 -7 - (324) 1 - 9 - 4 - 8 - (325) 1- 9 - 4 - 9 - (326) 1- 9 -4 - 10 - (327) 1 - 9 - 4 - 11 - (328) 1 - 9 - 4 - 12 - (329) 1 - 9 - 4 - 13 - (330) 1- 9 -4 - 14 - (338) 1- 9 - 4 - 15 - (332) 1 - 9 - 4 - 16 - (333) 1- 9 - 4 - 17 - (334) उपसंहार 308 310 311 312 383 314 315 315 317 318 321 322 324 327 प्रशस्ति / 338 निर्युक्तयः 334-330 मा नमः श्री जिनप्रवचनाय # णमोऽत्थु णं समणस्स भगवओ महावीरस्स मी सरस्वत्यै नमः स्वाहा Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संक्षिप्त विषयानुक्रम पत्रांक . D 57 अध्ययन-उद्देशक विषय षष्ठ अध्ययन प्रारंभ धूताध्ययनम् प्रथम उद्देशक प्रारंभ स्वजनविधूननम् द्वितीय उद्देशक प्रारंभ कर्मविधूननम् तृतीय उद्देशक प्रारंभ उपकरण-शरीरविधूननम् चतुर्थ उद्देशक प्रारंभ गारवत्रिकविधूननम् पंचम उद्देशक प्रारंभ उपसर्ग-सन्मानविधूननम् सप्तमं महापरिज्ञाध्ययनम् व्युच्छिन्नम् अष्टम अध्ययन प्रारंभ विमोक्षाध्ययनम् प्रथम उद्देशक प्रारंभ कुवादिपरिचयत्यागः द्वितीय उद्देशक प्रारंभ अकल्पनीयपरित्यागः तृतीय उद्देशक प्रारंभ अंगचेष्टास्वरूप निर्देश चतुर्थ उद्देशक प्रारंभ वेहानसादिमरणम् पंचम उद्देशक प्रारंभ ग्लानभक्तपरिज्ञा षष्ठ उद्देशक प्रारंभ इंगितमरणम् सप्तम उद्देशक प्रारंभ पादपोपगमनमरणम् अष्टम उद्देशक प्रारंभ उत्तममरणविधः नवम उद्देशक प्रारंभ उपधानश्रुताध्ययनम् प्रथम उद्देशक प्रारंभ चर्या द्वितीय उद्देशक प्रारंभ शय्या तृतीय उद्देशक प्रारंभ परीषहः चतुर्थ उद्देशक प्रारंभ रोगातङ्कः उपसंहार प्रशस्ति निर्युक्तयः 116 128 138 150 158 170 . 214 227 266 287 303 327. 338 334-337 טן טן माया नमः श्री जिनप्रवचनाय मा णमोऽत्थु णं समणस्स भगवओ महावीरस्स . मुना सरस्वत्यै नमः स्वाहा טן Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सौधर्म बृहत् तपागच्छीय त्रिस्तुतिकसंघ के गणनायक गच्छाधिपति आचार्यदेव श्रीमद् विजय हेमेन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. कर-कमलों में राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी' हिन्दी टीका-ग्रन्थ का सादर समर्पण : समर्पक : ज्योतिषाचार्य श्री जयप्रभविजयजी म.सा. 'श्रमण' के शिष्य हितेशचन्द्रविजय - दिव्यचन्द्रविजय... गुरुसप्तमी वि.सं.२०६१ दिनांक 16 जनवरी 2005 मोहनखेडा तीर्थ PRERERPERPERPERPETSER Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ से बेमि, जे अईया जे य पडुपण्णा जे य आगमिस्सा अरहंता भगवंतो, ते सव्वे एवमाइक्खंति, एवं भासंति, एवं पण्णविंति, एवं परूविंति - सव्वे पाणा, सव्वे भूया, सव्वे जीवा, सव्वे सत्ता, न हंतव्वा, न अज्जावेयव्वा न परिघित्तव्वा, न परियावेयव्वा, न उद्दवेयव्वा, एस धम्मे सुद्धे निइए, सासए समिच्च लोयं खेयण्णेहिं पवेइए, तं जहा-उडिएसु वा अनुडिएसु वा, उवढिएसु वा अणुवट्ठिएसु वा, उवरयदंडेसु वा, अणुवरय दंडेसु वा, सोवहिएसु वा, अणोवहिएसु वा, संजोगरएसु वा असंजोगरएसु वा, तच्चं चेयं तहा चेयं अस्सिं चेयं पवुच्चड़ // 139 // सडिस्स णं समणुण्णस्स संपव्वयमाणस्स समियंति मण्णमाणस्स एगया समिया होइ 1, समियंति मण्णमाणस्स एगया असमिया होड 2, असमियंति मण्णमाणस्स एगया समिया होइ 3, असमियंति मण्णमाणस्स एगया असमिया होइ 4, समियंति मण्णमाणस्स समिया वा असमिया वा समिया होइ उवेहाइ 5, असमियंति मण्णमाणस्स समिया वा असमिया वा असमिया होइ उवेहाए 6, उवेहमाणो अणुवेहमाणं बूया - उवेहाहि समियाए, इच्चेवं तत्थ संधी झोसिओ भवड, से अट्ठियस्स ठियस्स गई समणुपासह, इत्थ वि बालभावे अप्पाणं नो उवदंसिज्जा || 176 // . Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका // 1-6-0-0 9 // भारत-वर्ष के हृदयस्थल स्वरूप मालवभूमि - मध्यप्रदेश में शत्रुञ्जयावतार मोहनखेडा तीर्थाधिपति श्री आदिनाथ-जिनेश्वराय नमो नमः // // परमपूज्य, विश्ववन्द्य, अभिधानराजेन्द्रकोष-निर्माता, भट्टारक, सरस्वतीपुत्र, कलिकालसर्वज्ञकल्प, स्वर्णगिरी-कोरटा-तालनपुरादितीर्थोद्धारक, क्रियोद्धारक, प्रभुश्रीमद् विजयराजेन्द्रसूरीश्वर पट्टप्रभावक आचार्यश्रीमद् विजयधनचन्द्रसूरीश्वर पभूषण आचार्य श्रीमद् विजयभूपेन्द्रसूरीश्वर पट्टदिवाकर आचार्य श्रीमद् विजययतीन्द्रसूरीश्वर पट्टालङ्कार आचार्य श्रीमद् विजयविद्याचन्द्रसूरीश्वरादि सद्गुरु चरणेभ्यो नमो नमः // ॐ नमः श्री जिन प्रवचनाय 卐 卐卐ज श्री आचाराङ्ग-सूत्रम् ( अध्ययन-६-(७)-८-९) तत्र श्री शीलाङ्काचार्यविरचितवृत्ति की राष्ट्रभाषा "हिंदी" में राजेन्द्र सुबोधनी “आहोरी' हिंदी टीका... __“मूल-सूत्र संस्कृत-छाया 9 सूत्रार्थ टीका-अनुवाद : सूत्रसार..." तत्र प्रथम-श्रुतस्कन्धे षष्ठमध्ययनम् "धूताध्ययनम्" मङ्गलाचरणम् श्रीमद् ऋषभदेवादि - वर्धमानान्तिमान् जिनान् / नमस्कृत्य नमस्कुर्वे सुधर्मादि - गणधरान् // 1 // Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ 1 - 6 - 0-0 // श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन श्रीमद् विजय राजेन्द्र-सूरीश्वरान् नमाम्यहम् / यै: अभिधानराजेन्द्र - कोषः व्यरचि हर्षतः // 2 // भवाब्धितारकान् वन्दे श्रीयतीन्द्रसूरीश्वरान् / तथा च कविगुणाढ्यान् विद्याचन्द्रसूरीश्वरान् // 3 // गच्छाधिनायकान् नौमि श्रीहेमेन्द्रसूरीश्वरान् येषां शुभाशिषा कार्यं सुगमं सुन्दरं भवेत् // 4 // गुरुबन्धु श्री सौभाग्य-विजयादि-सुयोगतः हितेश-दिव्यचन्द्राणां शिष्याणां सहयोगतः // 5 // जयप्रभाऽभिधः सोऽहं श्रीराजेन्द्रसुबोधनीम् आहोरीत्यभिधां कुर्वे टीका बालावबोधिनीम् // 6 // युग्मम् / . शीलांकाचार्य वृत्ति नमः श्री वर्धमानाय वर्धमानाय पर्ययै : उक्ताचार प्रपञ्चाय निष्प्रपञ्चाय तायिने पर्ययैः वर्धमानाय नये नये ज्ञान पर्यायों से बढते हुए.. उक्ताचारप्रपञ्चाय आचार का विस्तृत वर्णन करने वाले निष्प्रपञ्चाय ____ = प्रपंच = कपट रहित / तायिने ___= धर्मोपदेश के द्वारा जीवों की रक्षा करनेवाले श्री वर्धमानाय नमः . = श्री वर्धमान स्वामीजी को नमस्कार हो... शस्त्रपरिज्ञा - विवरणमतिगहनमितीव किल वृत्तं पूज्यैः। श्री गन्धहस्तिमित्रैर्विवृणोमि ततोऽहमवशिष्टम् // 2 // , पू. आचार्य श्री गंधहस्ति सूरीजी ने शस्त्रपरिज्ञा का अतिगहन विवरण कीया है... अब जो अवशिष्ट है, वह सुगम टीका मैं (शीलांकाचार्य) लिखता हुं... अर्थात् सुगम विवरण लिखता हुं... "आहोरी” हिन्दी टीका आचारांग सूत्र कि राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी हिन्दी टीका के अंतर्गत विभाग-१ में प्रथम अध्ययन एवं विभाग-२ में द्वितीय, तृतीय, चतुर्थ एवं पंचम अध्ययन का विवेचन प्रकाशित हो चुका है। अब यह तृतीय विभाग में अवशिष्ट षष्ठ (सप्तम) अष्टम एवं नवम अध्ययन का विवेचन इस प्रस्तुत पुस्तक में प्रकाशित हो रहा है। अत: यहां आचारांग सूत्र के प्रथम श्रुतस्कंध सूत्र की राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी हिन्दी टीका का भावानुवाद परिपूर्ण किया गया है। Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका // 1-6-0 - 0 卐 3 // अथ धूताध्ययनम् // पांचवा अध्ययन पूर्ण हुआ, अब छट्टे अध्ययन का प्रारंभ करते हैं... इस अध्ययन का पांचवे अध्ययन के साथ इस प्रकार संबंध है कि- पांचवे अध्ययन में लोक के सार स्वरूप संयम और मोक्ष का वर्णन कीया... किंतु वह संयम और मोक्ष नि:संग होने के बिना और कर्मो के क्षय के बिना हो हि नहि शकता, इसलिये यहां नि:संगता और कर्मो का क्षय होने का स्वरूप कहा जाएगा... इस प्रकार के संबंध से आये हुए इस अध्ययन के चार अनुयोग द्वार कहते हैं... उनमें उपक्रम-द्वार में दो अर्थाधिकार हैं... 1. अध्ययनार्थाधिकार, 2. उद्देशार्थाधिकार... इन दोनों में भी अध्ययन का अर्थाधिकार पहले कह चूके हैं; अतः अब उद्देशार्थाधिकार नियुक्तिकार स्वयं हि कहतें हैं... नि. 250 पहले उद्देशक में - अपने आपके स्वजनों का यथाविधि परित्याग.. * दुसरे उद्देशक में - कर्मो की निर्जरा... लीसरे उद्देशक में - वस्त्र-पात्रादि उपकरण एवं शरीर का यथाविधि त्याग... चौथे उद्देशक में - तीन गारव का त्याग... पांचवे उद्देशक में - उपसर्ग एवं सन्मान का विधूनन... अब निक्षेप कहते हैं... वह तीन प्रकार से हैं... 1. ओघनिष्पन्न निक्षेप में - अध्ययन पद 2. नामनिष्पन्न निक्षेप में - धूत - शब्द 3. सूत्रालापक निष्पन्न निक्षेप मे... सूत्र के पद... नामनिष्पन्न निक्षेप में "धूत' शब्द के चार निक्षेप होतें हैं 1. नाम धूत, 2. स्थापना धूत, 3. द्रव्य धूत, 4. भाव धूत... इन चारों में नाम एवं स्थापना निक्षेप सुगम है; अत: द्रव्य एवं भाव निक्षेप का स्वरूप आगे की गाथा से कहते हैं... नि. 251 द्रव्य धूत दो प्रकार से है... 1. आगम से, 2. मोआगम से... 1. आगम से द्रव्य धूत - धूतशब्दार्थ का ज्ञाता किंतु अनुपयुक्त 2. नोआगम से द्रव्य धूत - ज्ञ शरीर, भव्य शरीर, तद्व्यतिरिक्त... नोआगम से तद्व्यतिरिक्त - रजःकण को दूर करने के लिये वस्त्रादि का विधूनन द्रव्य धूत है... आदि पद से फल के लिये वृक्ष का धूनन... भावधूत-आठ प्रकार के कर्मों का विधूनन... प्रस्तुत अध्ययन में इसी भावधूत का Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4 // 1-6-1 - 1 (186) // श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन % 3D हि अधिकार है... इसी अर्थ को अब विशेष प्रकार से कहते हैं... नि. 252 देव मनुष्य एवं तिर्यंच जीवों के द्वारा होनेवाले उपसर्गों को सम-भाव से सहन करना अर्थात् उपसर्गों को निष्फल करना... संसार-वृक्ष के बीज समान कर्मो का विनाश करना वह भाव-धूत है... अथवा क्रिया एवं क्रिया के कर्ता का अभेद संबंध होता है, अत: कर्मो का धूनन हि भाव-धूत है... नाम-निष्पन्न निक्षेप पूर्ण हुआ, अब सूत्रानुगम में अस्खलितादि गुण सहित सूत्र का उच्चार करना चाहिये... और वह सूत्र यह है... श्रुतस्कंध - 1 अध्ययन - 6 उद्देशक - 1 # स्वजनविधूननम् // I सूत्र // 1 // // 186 // 1-6-1-1 . ओबुज्झमाणे इह माणवेसु आघाइ स नरे, जस्स इमाओ जाइओ सव्वओ सुपडिलेहियाओ भवंति, आघाइ से नाणमणेलिसं, से किदृइ तेसिं समुट्ठियाणं निक्खित्तदंडाणं समाहियाणं पण्णाणमंताणं इह मुत्तिमग्गं एवं (अवि) एगे महावीरा विप्परिक्कमंति, पासह एगे अवसीयमाणे अणत्तपण्णे से बेमि। से जहा वि कुम्मे हरए विणिविट्ठचित्ते पच्छण्णपलासे उम्मग्गं से नो लहइ, भंजगा इव संनिवेसं नो चयंति, एवं एगे अणेगरूवेहिं कुलेहिं जायारूवेहि सत्ता कलुणं थणंति नियाणओ ते न लभंति मुक्खं, अह पास तेहि कुलेहि आयत्ताए जाया // 186 // II संस्कृत-छाया : अवबुध्यमानः इह मानवेषु आख्याति स: नरः, यस्य इमा जातयः सर्वतः सुप्रत्युपेक्षिताः भवन्ति, आख्याति सः ज्ञानं अनीदृशं, सः कीर्तयति तेषां समुत्थितानां निक्षिप्तदण्डानां समाहितानां प्रज्ञानवतां इह मुक्तिमार्ग एवं (अपि) एके महावीराः विपराक्रमन्ते, पश्यत एकान् अवसीदतः अनात्मप्राप्तान् सोऽहं ब्रवीमि स: यथा अपि कूर्मः हृदे विनिविष्टचित्तः प्रच्छन्नपलाशः उन्मार्गं स: न लभते भग्नका इव सन्निवेशं न त्यजन्ति, एवं एके अनेक रूपेषु कुलेषु जाता: रूपेषु सक्ताः करूणं स्तनन्ति, निदानं ते न लभन्ते, मोक्षं अथ पश्य तेषु कुलेषु आत्मत्वाय जाताः // 186 // Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका // 1-6-1-1(186) HI सूत्रार्थ : इस मनुष्य लोक में सद्बोध को प्राप्त हुआ पुरुष ही अन्य मनुष्यों के प्रति धर्म का कथन करता है अथवा वह श्रुतकेवली, जिसने शस्त्रपरिज्ञा अध्ययन में कथन की गई सर्व प्रकार से एकेन्द्रियादि जातियें सुप्रतिलेखित की है या तीर्थंकर, केवली तथा अतिशय ज्ञानी गीतार्थ पुरुष धर्म का उपदेश करते हैं। जो धर्म सुनने के लिए उपस्थित हैं, जिसने मन, वचन और काय के दण्ड को त्याग दिया है, समाधि को प्राप्त है, बुद्धिमान है, उसे तीर्थंकरादि मुक्ति मार्ग का उपदेश करते है। तब कई एक वीर पुरुष धर्म को सुनकर संयम मार्ग में पराक्रम करते हैं और हे शिष्य ! तू देख ! आत्मा का हित न चाहनेवाले कितनेक पुरुष धर्म से गिरते भी हैं। हे शिष्यो ! मैं तुम्हें कहता हूं, कि- जैसे वृक्ष के पत्तों एवं सेवाल से आच्छादित ह्रदसरोवर में निमग्न हुआ कछुआ वहां से निकलने का मार्ग प्राप्त नहीं कर सकता. उसी प्रकार गहवास में आसक्त जीव वहां से निकलने में समर्थ नहीं हो सकता, मोहावरण के कारण वे जीव धर्मपथ को नहीं देख सकते। जैसे वृक्ष शीतोष्णादि कष्टों आने पर भी अपने स्थान को नहीं छोडता, उसी प्रकार उग्र कर्मवाले जीव भी अनेक ऊंच-नीच कलों में जन्म धारण कर नाना प्रकार के रूपादि विषयों में आसक्त हुए नानाविध कर्मों के कारण नानाप्रकार की दु:ख-वेदनाओं को पाते हुए अनेक प्रकार के दीन वचनवाले होतें हैं। परन्तु, वे कर्म फल को भोगे बिना कर्म बंधन से मुक्त नहीं हो सकते। वे मोहांध जीव संसार से छुटने के उपाय का भी अन्वेषण नहीं करते। सुधर्मास्वामी कहते हैं कि- हे शिष्यो ! तुम देखो कि- वे ऊंच-नीच कुलों में उत्पन्न होते हैं... और वे जीव, निम्नलिखित रोगों द्वारा असह्य वेदना को प्राप्त होते हैं। यथा- १-गंडमाला, २-कुष्ट, ३राजयक्ष्मा, ४-अपस्मार-मृगी, ५-काणत्व, ६-जडता-शून्यता, ७-कुणित्व-लुंजपन, ८-कुब्जता, ९-मूकता-गूंगापन, १०-उदर-रोग-जलोदरादि, ११-शोथ-सूजन, १२-भस्मरोग, १३-कम्पवात, १४-गर्भ दोष से उत्पन्न हुआ रोग जिससे प्राणी विना लाठी के चलने में असमर्थ होता है, १५-श्लीपद, १६-मधुमेह। इन सोलह प्रकार के रोगों का अनुक्रम से कथन किया है। जब शूलादि का स्पर्श होता है; तब बुद्धि असमंजस अर्थात् अस्त-व्यस्त हो जाती है। अत: देवों के उपपात और च्यवन को तथा उक्त प्रकार के रोगों द्वारा होने वाली मनुष्यों की मृत्यु को देखकर एवं कर्मो के विपाक को लक्ष्य में रखकर साधक को संयम-साधना द्वारा जन्म-मरण से छूटने का प्रयत्न करना चाहिए। IV टीका-अनुवाद : स्वर्ग एवं अपवर्ग (मोक्ष) और उनके कारण... तथा संसार एवं संसार के कारणों को जाननेवाले केवलज्ञानी प्रभु इस मनुष्य लोक में मनुष्यों को धर्म कहते हैं, अर्थात् वेदनीय Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 6 1 -6-1-1(186) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन आदि चार अघाति कर्मो के सद्भाव से मनुष्यगति में रहे हुए वे केवलज्ञानी प्रभु धर्म का स्वरूप कहते हैं ऐसा जिनमत का कथन है... जब कि- शाक्यमतवाले कहते हैं कि- भीत-दिवार आदि में से धर्मदेशना प्रगट होती है... तथा वैशेषिक मतवाले कहते हैं कि- प्रभु उलूक-भाव से याने घूवड के रूप में रहकर पदार्थों का स्वरूप कहते हैं इत्यादि... किंतु जिनमत में ऐसा नहि माना है... क्योंकि- ज्ञानावरणीयादि चार घातिकर्मो के क्षय होने से प्रगट केवलज्ञानवाले तीर्थंकर परमात्मा कृतार्थ होते हुए भी मनुष्य देह में जब तक हैं; तब तक जगत के जीवों के हित के लिये देव-मनुष्य की पर्षदा में धर्म का स्वरूप कहते हैं... प्रश्न- क्या तीर्थंकर परमात्मा हि धर्म कहतें हैं कि- अन्य भी ? उत्तर- तीर्थंकर परमात्मा धर्म का उपदेश देते हैं, और अन्य भी आचार्यादि जो कोइ जिनागमानुसार विशिष्ट ज्ञान से तत्त्व-पदार्थों के ज्ञाता हैं; वे भी धर्म का उपदेश देतें अतींद्रिय ज्ञानी (केवलज्ञानी) अथवा श्रुतकेवली स्थविर-आचार्य शस्त्रपरिज्ञा अध्ययन में कहे गये सूक्ष्म एवं बादर तथा पर्याप्त एवं अपर्याप्त एकेंद्रियादि जीवों का स्वरूप शंकादि के निराकरण से स्पष्ट अनुभव सिद्ध होने पर धर्म का उपदेश देतें हैं, इनके सिवा अन्य कोई भी व्यक्ति-साधु धर्म का उपदेश नहि कहते... इसी कारण से यहां कहा है कि- तीर्थंकर परमात्मा, सामान्य केवलज्ञानी और अतिशयज्ञानी श्रुतकेवली हि धर्म कहते हैं... ज्ञान = जिससे जीवादि पदार्थों का परिज्ञान हो; वह ज्ञान है... और वह मति-श्रुत आदि पांच प्रकार का है... सकल संशयों का विच्छेद होने से जो विशिष्ट ज्ञानवाले हैं; वे हि आत्मा के अलौकिक स्वरूप को कहते हैं... तीर्थंकर एवं गणधर आदि स्थविर आचार्यजी देव-मनुष्यादि की पर्षदा में मुमुक्षु जीवों को जगत् के यथावस्थित भावों को कहते हैं... जगत के जीव दो प्रकार से उत्थित होतें हैं... 1. द्रव्य से 2. भाव से 1. द्रव्य से शरीर के द्वारा एवं भाव से ज्ञानादि द्वारा, उनमें भी जो महिलाए साध्वी एवं श्राविका हैं; वे समवसरण में दोनों प्रकार से उत्थित होती है... 1. शरीर से.... 2. ज्ञानादि से... तथा पुरुष मति-श्रुतादि ज्ञान से उदिथत होतें हैं... शरीर से तो वे बैठे हुए हि धर्म सुनते हैं... अर्थात् भावोत्थित मनुष्यों को हि धर्म कहतें हैं... तथा देव और तिर्यंच जीव भी जो कोइ उत्थान के अभिमुख हैं; उन्हे भी धर्म कहते हैं... तथा जो लोग कौतुकादि से भी सुनतें हैं; उन्हें भी धर्म कहते हैं. भाव-समुत्थित मनुष्यों को तथा प्राणीओं को पीडा-दुःख देने स्वरूप दंड का जिन्हों ने त्याग कीया है; ऐसे निक्षिप्त दंडवाले साधुओं को, तथा ठीक तरह से जो कोइ तपश्चर्या एवं संयम में उद्यमवाले हैं; एसे साधुओं को... तथा प्रकृष्ट-निर्मल आगमसूत्र के ज्ञानवाले Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी-हिन्दी-टीका // 1-6-1-1(186) 7 साधुओं को धर्म कहते हैं... अर्थात् ऐसे मनुष्यों को हि सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र स्वरूप मोक्षमार्ग के धर्म का उपदेश देते हैं... साक्षात् तीर्थंकर परमात्मा के मुख से हि धर्म को सुननेवाले कितनेक लघुकर्मी जीव तत्काल धर्म का स्वीकार करके धर्माचरण के लिये तत्पर होते हैं, और अन्य जीव केवल धर्मकथा हि सुनते हैं किंतु संयमाचरण के लिये उद्यम नहि करतें... यह बात सूत्र के पदों से इस प्रकार कहतें है- तीर्थंकर परमात्माने धर्म का उपदेश दीया तब कितनेक उत्तम जीव विविध प्रकार से संयम रूप संग्राम-युद्ध में कर्म रूप शत्रुओं के उपर आक्रमण करतें हैं अथवा इंद्रियों को वश करने में पराक्रम करतें हैं... वे संयमशील साधु हैं... तथा सकल संशयों के विनाशक साक्षात् तीर्थंकर परमात्मा के मुख से धर्म सुनने पर भी जो लोग प्रबल मोह के उदय से संयमाचरण में खेद पाते हुए आलश-प्रमाद करते हैं; ऐसे उन गृहस्थों को हे मुनिजन ! आप देखो ! वे लोग आत्मा के हितकारी प्रज्ञा के अभाव में संयम में खेद पातें हैं ऐसा हे जंबू ! मैं तुम्हें कहता हूं... यहां कूर्म = कच्छुए का दृष्टांत इस प्रकार से है... एक बडे सरोवर (द्रह) में मूढ चित्तवाला एक कच्छुआ रहता था, किंतु वह सरोवर पलाशपत्र के समान सेवाल से परिपूर्ण होने के कारण से वह कच्छुआ खुले आकाश को देखना चाहता हुआ भी देख नहि पाता था... इस दृष्टांत का भावार्थ इस प्रकार है- एक हजार योजन विस्तारवाला कोइक एक सरोवर है; किंतु वह गाढ सेवाल से चारों और से आच्छादित (ढका) हुआ है, ओर वह द्रह जलहस्ति, मगर, मच्छलीयां, कच्छुआ आदि अनेक प्रकार के जलचर जंतुओं से भरा हुआ ___ एक बार अकस्मात् हि उस सेवाल में कच्छुए के मुख प्रमाण छेद हुआ, उस समय वह कच्छुआ अपने परिवार से बिछडा हुआ भटकता-भटकता वहां सेवाल के छिद्र के पास जा पहुंचा और अपनी गरदन बाहार निकाली, तब आकाश में सोलह कलाओं से पूरे आकाश को दूध के जैसी उज्ज्वल चांदनी से छलकाते हुए शरद पूर्णिमा के चंद्र को देखा और सेंकडो ताराओं से भरे हुए आकाश को देखकर बहोत हि प्रसन्न-खुश हुआ, तब मन में सोचा किस्वर्ग के जैसा सुंदर यह दृश्य मेरे परिवार के लोगों को भी दिखाउं... यदि वे इस सुंदर दर्शनीय आकाश को देखेंगे; तब हि मेरा मनोरथ पूर्ण होगा, और मुझे अच्छा लगेगा... ऐसा सोचकर जल्दी से अपने बंधुजनों को ढूंढने के लिये यहां वहां खूब घूमा, और क्रमशः अपने परिवार के कच्छुओं को लेकर छिद्रं को ढुंढने के लिये चारों और परिभ्रमण Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8 // 1-6-1 - 1 (186) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन करता है, किंतु सरोवर बहोत हि बडा होने के कारण से और जलचर जंतुओं की अधिकता के कारण से वह कच्छुआ उस छिद्र को प्राप्त न कर शका, किंतु यहां वहां भटकता हुआ मरण को प्राप्त हुआ... .. इस दृष्टांतका उपनय इस प्रकार है... संसार स्वरूप सरोवर है, कच्छुए के समान भव्य जीव तथा सेवल में छिद्र के समान कर्म विवर... और चांदनी से परिपूर्ण आकाश के समान मनुष्य जन्म, आर्य क्षेत्र, उत्तम कुल और सम्यक्त्व की प्राप्ति... तथा परिवार की ममता के कारण से या विषय भोगों के उपभोग के लिये प्रयत्न करने से वह भव्य जीव सदनुष्ठान से विकल होता हुआ सफलता को प्राप्त नहि करता... और मनुष्यजन्मादि उत्तम सामग्री के अभाव में उस जीव को संसार-सरोवर में पुनः कब ऐसा शुभ योग प्राप्त होगा ? इसलिये कहते हैं कि- सेंकडो जन्मों में दुर्लभ ऐसे . सम्यगदर्शन को पाकर एक क्षण भी प्रमाद नहि करना चाहिये... संसार के अनुरागी मुग्ध जीवों को और भी एक दृष्टांत देकर समझातें हैं, वह इस प्रकार- भंजग याने वृक्ष... जैसे कि- शीत (ठंडी) गरमी, कंपन, छेदन तथा शाखा (डाली) को खींचना, उंची नीची करना, मरोडना और भांगना इत्यादि प्रकार से उपद्रव होने पर भी वह वृक्ष स्थावरादि कर्मो के अधीन होने के कारण से अपना स्थान छोड नहि शकता... इत्यादि... इस दृष्टांत का उपनय प्रस्तुत अर्थ में घटन करते हुए कहते हैं कि- वृक्ष के समान कितनेक भारे कर्मी जीव... वे अनेक प्रकार के उच्च एवं नीच कुल में जन्म पाकर यद्यपि धर्माचरण के योग्य होते हैं, किंतु वे चक्षुरादि इंद्रियों के रूपादि-विषयों में ,आसक्त होकर शारीरिक एवं मानसिक दुःखों से दु:खी होते हैं, तथा राजा आदि के उपद्रवों से दुःखी होते हैं, एवं अग्नि के दाह से सभी घर-सामग्री जलकर नष्ट होने पर अथवा विविध प्रकार के निमित्तों से मानसिक चिंता से दुःखी होते हैं; तथापि सकल दु:खों के निवास मंदिर समान गृहवास को छोड़ने में समर्थ नहि होतें, परिस्थिति वश वे वहां गृहस्थावास में हि रहे हुए वे विभिन्न प्रकार के संकट-कष्ट में करुण रुदन करतें हैं... वह इस प्रकार- हे तात ! हे मात ! हे दैव ! आपको इस स्थिति में हमे दुःखी होने देना योग्य नहि है-इत्यादि... अन्यत्र भी कहा है कि- हे प्रभो ! यह क्या है ? कि- मुझे नारक की तरह अचिंतित अतुल अनिष्ट और अनुपम कष्ट-दुःख अकस्मात आ गये ? इत्यादि... . अथवा तो रूपादि विषयों में आसक्त जीव बहोत सारे कर्म बांधकर नरकादि की वेदना का अनुभव करते हुए करुण रुदन करते हैं... केवल रुदन हि नहि करतें; किंतु उस दुःखों से Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1-6-1 - 2(187) 9 छुटने के लिये प्रयत्न करने पर भी उस दुःख के मूल कारण को नहि पहचान शकतें... और दुःखों से छुटकारा भी नहि पा शकतें, अथवा तो मोक्ष के कारण स्वरूप संयमानुष्ठान को प्राप्त नहि कर शकतें... दुःखों से सर्वथा मुक्त न होने पर जीव संसार में विविध प्रकार के रोगादि से पीडित होतें हैं... अतः असाता वेदनीय कर्म के उदय से जीव को होनेवाले सोलह (16) महारोग . तीन गाथाओं से कहते हैं... / v. सूत्रसार : सूत्रक्रमांक 186-187-188-189 चारों सूत्रों का सूत्रसार सूत्रक्रमांक 190 में लिखा गया है। अतः वहां देखियेगा... I सूत्र // 2 // // 187 // 1-6-1-2 * गंडी अहवा कोढी रायसी अवमारियं / काणियं झिमियं चेव, कुणियं खुज्जियं तहा // 187 // संस्कृत-छाया : गण्डी अथवा कुष्ठी राजांसी अपस्मारी। काणितं जास्यता चैव कुणितं कुब्जं तथा // 187 // III सूत्रार्थ : गंडमालादि 1 से 8 महारोग... जो सूत्रांक 186 में लिखे गये है... IV टीका-अनुवाद : - वात-पीत-श्लेष्म एवं संनिपात से होनेवाला गंड रोग चार प्रकार से है... ऐसा गंड रोग जिसको होता है; वह गंडी... अथवा राजांसी अपस्मारी... तथा अट्ठारह प्रकार के कुष्ठ रोग जिसको होता है, वह कुष्ठी... उनमें सात महाकुष्ठ है... वे इस प्रकार- 1. अरुण, 2. उदुंबर, 3. निश्यजिह्व, 4. कपाल, 5. काकनाद. 6. पौंडरीक, 7. कद्रु इन्हें महाकुष्ठ इसलिये कहा है कि- यह सात रोग शरीर के सभी धातुओं में प्रवेश पाकर प्रगट होतें हैं; अत: असाध्य __ तथा ग्यारह लघुकुष्ठ हैं... 1. स्थूलारुष्क, 2. महाकुष्ठ, 3. एककुष्ठ, 4. चर्मदल, 5. परिसर्प, 6. विसर्प, 7. सिध्म, 8. विचर्चिका, 9. किटिभ, 10. पामा, 11. शतारुक... यह ग्यारह कुष्ठरोग प्रयत्नसाध्य होते हैं... सामान्य से कुष्ठरोग वायु की उत्कटता से संनिपात Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 101 -6-1 - 3 (188) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन स्वरूप है... और वातादि के दोषों की विभिन्नता से अट्ठारह भेद होते हैं... तथा राजांस याने राजयक्ष्म (क्षय-T.B.) यह क्षयरोग संनिपात से होनेवाले चार कारणों से होता है... वेगरोध, वेगक्षय, साहस एवं विषमाशन... तीन दोषवाला राजयक्ष्मा और चार दोषवाला गद... तथा अपस्मार- वात-पित्त, श्लेष्म और संनिपात के भेद से चार प्रकार का अपस्मार होता है... अपस्मार रोगवाला प्राणी सद् एवं असद् के विवेक से शून्य होता है तथा भ्रम, मूर्छा आदि अवस्था को प्राप्त करता है... कहा भी है कि- भ्रमावेश, ससंरंभ, द्वेषोद्रेक, हृतस्मृति, यह अपस्मार रोग अतिशय घोर भयानक है... तथा काणियं याने आंख का रोग... वह दो प्रकार से है... 1. गर्भ में रहे हुए को, 2. जन्म पाये हुए को... इनमें से गर्भगत जीव को दृष्टि के भाग को तेज प्राप्त न होने से वह प्राणी जात्यंध होता है... अथवा एक आंख से काणा होता है अथवा लोही में अनुगत होने से रक्ताक्ष होता है, पित्तानुगत पिंगाक्ष, श्लेष्मानुगत शुक्लाक्ष, और वातानुगत विकृताक्ष होता है... तथा जन्म पाने के बाद वातादि से होनेवाला अभिष्यंद याने आंख आना... और इस से आंखों के सभी रोग प्रगट होते हैं... कहा भी है कि- वात, पित्त, कफ और रक्त (लोही) से होनेवाला अभिष्यंद (आंखे आना) चार प्रकार से है... और प्रायः करके आंखों का यह रोग महा भयंकर-घोर है... तथा झिमियं = जास्यता अर्थात् शरीर के छोटे बड़े कोइ भी अवयवों का नियंत्रण खो बैठना (लकवा)... तथा कुणियं = गर्भाधान के दोष से एक पांव (पैर) छोटा होना, अथवा एक हाथ छोटा होना... अथवा एक हाथ न होना... तथा कुब्ज = पृष्ठ आदि में कुब्ज रोग होता है... यह रोग मात-पिता के शोणित एवं शुक्रदोष से गर्भस्थ प्राणी को कुब्ज या वामन दोष से दूषित करता है... कहा भी है कि- गर्भावस्था में यदि मां को वायु का प्रकोप हो, अथवा दोहद का अपमान हो, तब गर्भस्थ जीव कुब्ज, या कुणि, या पंगु, या मूक, या मन्मन होता है... यहां मूक मन्मन जरूर होता है; किंतु मन्मन मूक नहि होता... I सूत्र // 3 // // 188 // 1-6-1-3 ___ उदरिं पास मूयं च सूणीयं च गिलासणिं। वेवई पीढसप्पिं च सिलिवयं महुमहणिं // 188 // // संस्कृत-छाया : उदरिणं पश्य मूकं च शूनत्वं च भस्मको व्याधिः / कम्प पीढसर्पित्वं च श्लीपहं मधुमेहनीम् // 188 // Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका // 1-6-1-3 (188) 1 II सूत्रार्थ : उदर-रोग जलोदरादि 9 से 16 महारोग... जो सूत्रांक 186 में लिखे गये हैं... IV टीका-अनुवाद : वात-पित्त आदि से उत्पन्न होनेवाला उदर रोग आठ प्रकार से होते हैं; यह उदर रोग जिस प्राणी को हो वह उदरी है... उनमे से जलोदर रोग असाध्य है, शेष उदर रोग तत्काल उपाय करने से साध्य होते हैं... वे आठ प्रकार यह हैं... 1. वात प्लीह, 2. पित्त प्लीह, 3. श्लेष्म प्लीह, 4. वात बद्ध गुद, 5. पित्तबद्धगुद, 6. श्लेष्म बद्धगुद, 7. आगंतुक, और 8. जलोदर... तथा मुंगे अथवा अस्पष्ट बोलनेवालों को देखो ! कि- जो गर्भ दोष से या जन्म के बाद ऐसे मूंगे हुए हैं... मुख में पैंसठ (65) रोग हो शकतें हैं... वे इस प्रकार- मुख के मुख्य सात स्थान हैं... 1. ओष्ठ, 2. दंतमूल, 3. दांत, 4. जिह्वा (जीभ), 5. तालु, 6. कंठ, 7. सर्वस्थान... 1. ओष्ठ (दोनों) में कुल आठ (8) रोग हो शकतें हैं 2. दांत के मूल (पेढा) में कुल पंद्रह (15) रोग हो शकतें हैं. दांत में कुल आठ (8) रोग हो शकतें हैं : 4. जिह्वा (जीभ) में कुल पांच (5) रोग हो शकतें हैं 5. तालु में कुल नव (9) रोग हो शकतें हैं / 6. कंठ (गले) में कुल सत्तरह (17) रोग हो शकतें हैं 7: सर्व मुखस्थान में कुल तीन (3) रोग हो शकतें हैं सभी मीलाकर मुख के कुल 65 रोग होते हैं... तथा शूनत्व याने श्वयथुः, वात, पित्त, श्लेष्म, सन्निपात, रक्ताभिघात भेद से 6 प्रकार का शूनत्व है... कहा भी है कि- श्वयथु याने शोफ (सूजन) 6 प्रकार के होते हैं; वह वात, पित्त, श्लेष्म के बढने से महा भयंकर होते हैं तथा सन्निपात याने वात-पित्त-कफ तीनों के एक साथ विषम होने से या कोइ भी दो या एक के विषम होने में भी शरीर में सूजन होता है तथा लोही का अभिघात (विकार) होने से भी शरीर में सूजन होता है... तथा गिलासणी याने भस्मक रोग... और यह भस्मक रोग वात एवं पित्तकी उत्कटता से तथा श्लेष्म की न्यूनता से उत्पन्न होता है... तथा वेवइ याने कंपन... यह रोग वायु (वात) से उत्पन्न होता है, और शरीर में कंपन होता है... कहा भी है कि- जो अतिशय कंपन होता Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12 1-6-1 - 4 (189) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन हो, तथा चलते समय भी कंपन होता हो, वह संधिओं के दृढ बंधन के अभाव में कलापखंज (पांगला) है... तथा पीढसप्पि याने प्राणी गर्भदोष से पीढसर्पित्व रूप से उत्पन्न होता है अथवा जन्म होने के बाद कोइक कर्म के दोष से भी यह रोग हो शकता है... वह मनुष्य हाथ में लकडी लेकर चलता है... तथा सिलिवय याने श्लीपद नाम का यह रोग शरीर में कठोरता (अक्कड जाना) स्वरूप है... जैसे कि- प्रकुपित हुए वात पित्त और श्लेष्म शरीर में नीचे की और जातें हैं तब पैर में रहकर सूजन उत्पन्न करतें हैं; इसे श्लीपद कहते हैं... कहा भी है कि- जो भूमी सभी ऋतुओं में शीतल हि रहती है, तथा पुराने जलवाली भूमी हो... ऐसी भूमी के लोगों को विशेष करके यह श्लीपद नाम का रोग होता है... तथा यह रोग जिस प्रकार पाउं में होता है; वैसे हि हाथों में होता है... एवं कान, ओष्ठ (होठ) और नासिका में भी होता है... ऐसा . तज्ज्ञ लोग कहते हैं... तथा “महुमेहणी" याने मधुमेह अर्थात् बस्तिरोग जिसको हुआ हो वह मधुमेही है... उसके शरीर में से मधु जैसा प्रवाही स्राव बहता रहता है... इस प्रमेह रोग के बीस (20) भेद हैं, और यह रोग असाध्य है... यह सभी प्रकार के प्रमेह रोग प्रायः करके सभी (तीनों) दोषों से उत्पन्न होता है, तो भी वात आदि की उत्कटता के भेद से बीस (20) भेद होतें हैं... उनमें कफ से दश, पित्त से छह (6) तथा वात से चार (4) यह सभी असाध्य अवस्था को पाने पर "मधुप्रमेह" के नाम से पहचाना जाता है... कहा भी है कि- सभी प्रकार के प्रमेह नाम के रोग कालान्तर में जब अप्रतिकार योग्य बनतें हैं; तब वे मधुमेहत्व के स्वरूप को पाते हैं और असाध्य होते हैं... I सूत्र // 4 // // 189 // 1-6-1-4 सोलस एए रोगा अक्खाया अणुपुव्वसो। अह णं फुसंति आयंका फासा य असमंजसा // 189 // // संस्कृत-छाया : षोडश एते रोगा: आख्याता अनुपूर्वशः। अथ स्पृशन्ति आतङ्काः स्पर्शाश्श असमञ्जसाः // 189 // m सूत्रार्थ : यहां सोलह रोग अनुक्रम से कहें, अब जो असमंजस रोग-आतंक एवं कठोर स्पर्श के दुःख हैं, उन्हें कहतें हैं // 189 // Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका #1-6-1-5(190) 13 - iv टीका-अनुवाद : इस प्रकार सोलह (16) महारोग यहां अनुक्रम से कहे गये हैं... अब आतंक याने तत्काल जीवित का नाश करनेवाले शूल आदि व्याधि... तथा स्पर्श याने गाढ प्रहार से होनेवाले व्याधि... वे व्याधि असमंजस याने अनुक्रम से एक एक अथवा युगपद् याने एक साथ सभी व्याधि तथा कोइ विशेष कारण से या बिना कारण विविध प्रकार के व्याधि-रोग जीव को दुःख देते हैं... संसारी जीव मात्र रोग एवं आतंक से हि पीडित होते हैं; ऐसा नहि है; किंतु और भी निकाचित उग्र कर्मवाले एवं गृहवास में आसक्त मनवाले जीव क्रमशः या एक साथ एवं सकारण या निष्कारण हि रोगातंकों से दुःख पाकर मरण पाते हैं... अत: इस प्रकार के संसारी जीवों के दुःखों को देखकर एवं बांधे हुए आयुष्य कर्म के अनुसार देवों का उपपात (जन्म) एवं च्यवन (मरण) को जानकर यह जीवात्मा ऐसा शुभ कार्य करे कि- जिससे गंडादि रोगों का एवं जन्म-मरण का सर्वथा अभाव हो... तथा मिथ्यात्व अविरति प्रमाद कषाय एवं योगों के द्वारा बांधे हुए, और अबाधाकाल पूर्ण होने के बाद उदय में आये हुए कर्मो के विपाक (फल) को अच्छी तरह से देखकर एवं जीवों के शारीरिक एवं मानसिक दुःखों के कारणों का चिंतन करके उन कर्मों के एवं कारणों के विनाश के लिये मुमुक्षु-साधु सदा-सर्वदा जिनाज्ञानुसार प्रयत्न करें... तथा जन्म एवं मरण के समय संसारी जीव करुण रुदन करते हैं; इत्यादि कहने के बाद अब संसारी जीवों को संसार में निर्वेद (उद्वेग-बेचेनी) हो; एवं वैराग्य भाव की प्राप्ति के लिये और भी संसार में संभवित होनेवाले उत्कट (विषम) दु:खों को कहतें हैं... I सूत्र // 5 // // 190 // 1-6-1-5 - मरणं तेसिं संपेहाए उववायं चवणं नच्चा परियागं च संपेहाए तं सुणेह-जहा तहा संति पाणा अंधा तमसि वियाहिया तामेव सई असई अइअच्च उच्चावयफासे पडिसंवेएइ, बुद्धेहिं एयं पवेइयं - संति पाणा वासगा रसगा उदए उदएचरा आगासगामिणो पाणा पाणे किलेसंति, पास लोए महब्भयं // 190 // II संस्कृत-छाया : मरणं तेषां संप्रेक्ष्य उपपातं च्यवनं ज्ञात्वा पर्यायं च संप्रेक्ष्य तं शृणुत-यथा तथा सन्ति प्राणिनः अन्धाः तमसि व्याख्याताः, तामेव सकृत् असकृत् अतिगत्य उच्चावचस्पर्शान् प्रतिसंवेदयति, बुद्धैः एतत् प्रवेदितम्-सन्ति प्राणिनः वासकाः रसगाः Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14 // 1-6-1-5 (190) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन उदके उदकचरा: आकाशगामिनः प्राणिनः, अन्यान् प्राणिनः क्लेशयन्ति / पश्य लोके महद्भयम् // 190 // III सूत्रार्थ : हे शिष्यो ! तुम कर्म विपाक के यथावस्थित स्वरूप को मुझ से सुनो ! संसार में द्रव्यचक्षु रहित या भावचक्षु रहित जीव कहे गये हैं, वे उन रोगादि अवस्थाओं में दुःखों का अनुभव कर रहे हैं। नरकादि गतियों में एक बार या अनेक बार विविध प्रकार के दुःख का अनुभव करते हैं। यह अनन्तरोक्त बात-उपदेश-तीर्थकरों ने प्रतिपादन किया है। द्वीन्द्रियादि जीव या रसको जाननेवाले संज्ञी जीव तथा अप्काय जलरूप जीव, जल में रहनेवाले त्रस जीव और आकाश में उडनेवाले पक्षी, संसार में जितने जीव है, उनमें बलवान निर्बलों को पीडितदुःखित करते हैं। हे शिष्यो ! तुम संसार के दुःखों से उत्पन्न हुए महाभय को देखो अथवा हे शिष्य ! तू संसार रूप महाभय को देख। IV टीका-अनुवाद : उन कर्मो का विपाक (फल) जैसा है; वैसा हि यथावस्थित स्वरूप जो मैं कहुं वह आप सुनीयेगा... जैसे कि- इस संसार में नारक तिर्यंच मनुष्य एवं देव स्वरूप चार गतियां हैं... वहां नरकंगति में चार लाख (4,00,000) योनीयां हैं, एवं पच्चीस लाख (25,00,000) कुलकोटी है... और उत्कृष्ट आयुष्य तैंतीस (33) सागरोपम प्रमाण कहा गया है... तथा वेदना (दुःख-पीडा) कि- जो परमाधामी देवों के द्वारा, परस्पर एक दुसरों को दुःख पहुंचाने के द्वारा एवं स्वाभाविक हि क्षेत्र से होनेवाले दुःखों का वर्णन तो वाणी से कभी भी पूर्ण रूप से कहा न जा शके उतनी तीव्र वेदना-पीडा नारकों को नरक गतिमें होती है... यद्यपि कोइ सज्जन नारकी के अंशमात्र दुःखों के स्वरूप को कहना चाहे तो भी वह दुःख वाणी कहा नहि जा शकता, तो भी विषम कर्मो के विपाक (दुःख) को जानने से भवभीरु (मुमुक्षु) जीवों को संसार से वैराग्य हो, इस दृष्टि से छह (6) श्लोकों के द्वारा टीकाकार महर्षि श्री शीलांकाचार्यजी म. नारकों के दुःखों का वर्णन करतें हैं... नरक भूमी में नारक जीवों के कान का कटना, आंखो को उखेडना, हाथ-पैर कटना, हृदय जलाना, नासिका का छेदन इत्यादि कष्ट-दुःख प्रतिक्षण होता है, तथा तीक्ष्ण त्रिशूल से शरीर का भेदन एवं भयानक कंक-पक्षीओं के विकराल मुख से चारों और से भक्षण होना इत्यादि... // 1 // ___ तथा तीक्ष्ण तरवार, चमकते हुए भाले, एवं विषम कुहाडे के समूहों से तथा फरसी त्रिशूल मुद्गर तोमर वांसले और मुसंढीओं के द्वारा चारों और से तालु, मस्तक का छेदन, Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका #1-6-1-5 (190) 15 भेदन तथा उन शस्त्रों से कटे हुए हाथ, कान ओष्ठवाले तथा हृदय और पेट के भेदन से बाहार निकले हुए आंतरडावाले और आंखे फोड दी होने के कारण से वे नारक-जीव अतिशय दुःखों से पीडित हैं... // 2-3 // तथा विषम कर्मो के उदय में अंध बने हुए वे नारक-जीव नरकभूमी में दीन एवं दुःखी होते हुए उच्छलतें हैं; गिरतें हैं; विविध प्रकार की चेष्टां (दुःख से बचने के लिये उपाय) करते * हुए भी उनको दु:खों से बचानेवाला कोइ दिखता नहि है... // 4|| . कृपण याने कठिन कर्मो के उदयवाले उन नारक-जीवों के यमराज जैसे तीक्ष्ण कुहाडी एवं तरवार से टुकडे टुकडे कीये जाते हैं; और; करुण रुदन करनेवाले उन-नारकों को विष याने जहरवाले साप-बिच्छु आदि डंख देते हैं... तथा लकडे की तरह करवत से उनके शरीर को फाडे (काटे) जातें हैं, तथा दोनों हाथों के टुकडे टुकड़े किये जाते हैं... और कुंभी में रखकर नारकों को त्रपु (सीसा) गरम करके पीलाया अर्थात् त्रपुपान कराया जाता है; अत: उनके शरीर में दाह-ज्वलन वेदना होती है... अंगारे के समान अंबरीष (परमाधामी-देव) के अग्नि की ज्वाला में “त्राहि मां' ऐसा पोकार करते हुए उन नारकों को सेके जाते हैं... // 5 // तथा प्रज्वलित अंगारे के तुल्य वज्रभवन में प्रज्वलित अंगारों में उन नारकों को जलाये जाते हैं, इस परिस्थिति में उंचे हाथ एवं मुख करके रोते हुए, करुण आवाजवाले एवं चारों और रक्षण के लिये नजर करनेवाले शरण रहित ऐसे उन नारकों को बचानेवाला वहां कोई नहि है... इत्यादि... // 6 // तथा तिर्यंच (पशु) गति में भी पृथ्वीकाय जीवों की सात लाख (7,00,000) योनीयां हैं; एवं उनके सात लाख कुलकोटी है तथा यहां पृथ्वीकाय जीवों को भी विभिन्न प्रकार की अनेक वेदनाएं हैं... तथा अग्निकाय जीवों की सात लाख योनीयां हैं; एवं उनके तीन लाख कुलकोटी हैं... अग्निकाय जीवों को भी विभिन्न प्रकार की बहोत वेदना है... तथा वायुकाय जीवों की भी सात लाख योनीयां हैं... एवं सात लाख कुलकोटी हैं तथा उनको शीत एवं उष्ण (गरमी) से होनेवाली अनेक वेदनाएं होती है... तथा प्रत्येक वनस्पतिकाय जीवों की दश लाख योनीयां हैं; एवं साधारण वनस्पतिकाय जीवों की चौदह लाख योनीयां होती है, और इन दोनों प्रकार के वनस्पतिकाय जीवों की अट्ठाइस (28) लाख कुलकोटी होती है... इस वनस्पतिकाय में उत्पन्न होनेवाले जीव वहां अनन्तकाल पर्यंत छेदन-भेदनादि से होनेवाली अनेक प्रकार की वेदनाओं को पाते हैं तथा विकलेन्द्रिय जीवों को दो-दो लाख योनीयां होती है, अर्थात् बेइंद्रिय जीवों की दो लाख योनीयां सात लाख कुलकोटी तथा तेइंद्रिय जीवों की दो लाख योनीयां एवं आठ Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 16 1-6-1- 5 (190) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन लाख कुलकोटी तथा चरिंद्रिय जीवो की दो लाख योनीयां एवं नव लाख कुलकोटी होती हैं तथा उनको भूख, तरस, शीत, गरमी आदि से होनेवाले अनेक प्रकार के दुःख (वेदनाएं) होतें है... तथा पंचेंद्रिय तिर्यंच जीवों की चार लाख योनीयां होती है और उनकी कुलकोटी (53,50,000) साढे त्रेपन लाख होती हैं... वे इस प्रकार है। पंचेन्द्रिय जलचर तिर्यंच जीव - 12.50.000 पंचेन्द्रिय खेचर तिर्यंच जीव - 12,00,000 पंचेन्द्रिय चतुष्पद तिर्यंच जीव - 10,00,000 पंचेन्द्रिय उर:परिसर्प तिर्यंच जीव - 10,00,000 पंचेन्द्रिय भुजपरिसर्प तिर्यंच जीव - 9,00,000 पंचेन्द्रिय तिर्यंच जीवों की - 53,50,000 कुलकोटी हैं... विकलेंद्रिय एवं पंचेन्द्रिय तिर्यंच जीवों को भूख-तरस-ठंडी-गरमी आदि जो जो वेदनाएं हैं; वे यहां मनुष्यों को प्रत्यक्ष हि है... तथा अन्यत्र भी कहा है कि- तिर्यंच जीवों को भुख, तरस, ठंडी, गरमी, भय एवं मनुष्यों की ताबेदारी में रहना इत्यादि दुःखों से पीडित इन तिर्यंच जीवों को यदि सुख की बात हि दुर्लभ है... तब फिर सुख की प्राप्ति कहां से हो ? / तथा मनुष्य गति में भी मनुष्यों की चौदह लाख योनीयां हैं; एवं बारह लाख कुलकोटी हैं, इन मनुष्यों को भी वेदना-दुःख अनेक हैं जैसे कि- सर्वप्रथम स्त्री (मां) की कुख में गर्भकाल दरम्यान जीव को बहोत कष्ट होता हैं... तथा जन्म होने के बाद बाल्यकाल में मल-मूत्र से लिप्त शरीर, स्तनपान, धूली क्रीडा आदि तथा यौवनकाल में भी अर्थोपार्जनादि के कष्ट एवं इष्ट वियोगादि से विरह दुःख होता हैं तथा वृद्धावस्था तो दुःखमय है हि... अत: हे मनुष्य ! आप कहो कि- इस संसार में क्या अल्प मात्र (थोडा) भी सुख है क्या ? // 1 // तथा यदि बाल्यकाल से हि ऐसा कोइ रोग शरीर में हो कि- मरण पर्यंत उसकी वेदना रहे... तथा मान लो कि- कोइ शारीरिक पीडा नहि भी है; तो भी शोक-संताप-इष्ट वियोगदरिद्रता आदि अनेक प्रकार के दुःख मनुष्यों को होता हि है... // 2 // भूख, तरस, शीत, गरमी, दरिद्रता, शोक, प्रियवियोग, दुर्भाग्य, मूर्खता, अनादर, कुरूपता एवं रोगादि के दुःखों से मनुष्य स्वतंत्र तो नहि है... इत्यादि... // 3 // Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1-6-1-5 (190) 17 .. तथा देवगति में देवों की चार लाख योनीयां हैं एवं छब्बीस (26) लाख कुलकोटी है... देवों को भी ईर्ष्या, खेद, मत्सर एवं च्यवन (मरण) का भय शल्य के समान सतत मानस (चित्त) में चुभता रहता है... अतः देवों को भी दुःख हि दुःख है... देवों को भी सुख नहि है; किन्तु जो है वह मात्र सुखाभास हि है... कहा भी है कि- च्यवन (मरण) एवं इष्ट वियोगादि के दुःख देवों को भी सदा होता है... तथा क्रोध, ईर्ष्या, मद (अभिमान) मदन याने काम विकार आदि से भी देव पीडित होते रहते हैं... अतः हे आर्य ! हम आपसे प्रश्न करतें हैं कि- आप हि विचार करके कहो कि- देवलोक में भी देवों को सुख क्या है ? इत्यादि... - जीव . योनी. कुलकोटी 1 पृथ्वीकाय 7,00,000 12,00,000 2 अप्काय 7,00,000 7,00,000 3 . तेउकाय 7,00,000 3,00,000 वाउकाय 7,00,000 . 7,00,000 प्रत्येक वनस्पतिकाय 10,00,000 / 28,00,000 साधारण वनस्पतिकाय 14,00,000 / बेइंद्रिय जीव 2,00,000 7,00,000 तेइंद्रिय जीव 2,00,000 8,00,000 चरिंद्रिय जीव 2,00,000 9,00,000 . 4,00,000 पचीन्द्रय तिर्यंच पंचेन्द्रिय जलचर पंचेन्द्रिय खेचर पंचेन्द्रिय चतुष्पद पंचेन्द्रिय उर:परिसर्प पंचेन्द्रिय भुजपरिसर्प 12,50,000 12,00,000 10,00,000 10,00,000 9,00,000 देव नारक 4,00,000 4,00,000 26,00,000 25,00,000 14,00,000 12,00,000 मनुष्य चार गति में कुल योनियां... 84,00,000 कुल... 1,97,50,000 कुलकोटी... Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1871 - 6 - 1 - 5 (190) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन इस प्रकार चारों गति में रहे हुए संसारी जीव विविध प्रकार के कर्मो के विपाक (फल) को पाते हैं... यह बात अब सूत्र के द्वारा हि कहतें हैं... जैसे कि- इस संसार में अनेक प्राणी हैं, उनमें से कितनेक जीवों कों आंखे नहि है; वे द्रव्य से अंध-विकल है और जिन्हें सत् एवं असत् का विवेक नहि है, वे भाव-अंध हैं... नरकादि गतिओं में सूर्य के प्रकाश का अभाव स्वरूप जहां कहिं अंधकार है वह द्रव्य अंधकार तथा मिथ्यात्व अविरति प्रमाद कषाय आदि कर्मों के विपाक से होनेवाला जो अविवेक, वह भाव-अंधकार है... ऐसा यहां सूत्र में कहा गया है... तथा विभिन्न कर्मो के उदय से कुष्ठ आदि रोगों जीव के शरीर में उत्पन्न होते हैं... या तो अशुभकर्मोदय से जीव एकेन्द्रियादि अपर्याप्तकादि अवस्थाएं एक बार या अनेक बार प्राप्त करके उच्च याने तीव्र और अवच याने मंद स्पर्शादि के दुःखों का अनुभव इस संसार / ' में बार-बार करता है... इत्यादि यह बात तीर्थंकर, गणधर आदि ने स्पष्ट रूप से कही है... जैसे कि- इस संसार में कइ जीव-प्राणी भाषालब्धि पाये हुए बेइंद्रिय आदि हैं तथा कटुतिक्त-कषाय अम्ल एवं मधुरादि रस को जाननेवाले रसग याने संज्ञी पंचेद्रिय हैं, इत्यादि यह सब संसारी जीवों के कर्मों का विपाक याने फल है... तथा कितनेक जीव जल स्वरूप एकेंद्रिय हैं, और वे भी अपर्याप्त एवं पर्याप्तक भेद से दो प्रकार के हैं... तथा जल में रहनेवाले पोरा, छेदनक, लोड्डणक मच्छलीयां कच्छुए आदि अनेक प्रकार के जलचर जीव हैं... तथा कितनेक स्थलचर-सर्प आदि भी जल का आश्रय लेते हैं... तथा कितनेक खेचर-पक्षी भी जल में रहतें हैं, वे जलचर जीवों के भक्षण के द्वारा शरीर को धारण करतें हैं और कितनेक पक्षी आकाश में गमन करतें हैं, इत्यादि सभी प्राणी अन्य जीवों को आहार आदि के लिये या मत्सरादि के कारणों से कष्ट पहुंचाते हैं; अतः हे श्रमण ! आप देखीये कि- संपूर्ण चौदह राजलोक प्रमाण इस विश्व में सभी प्राणीओं को विविध प्रकार के दुःख क्लेशादि के विपाक स्वरूप महाभय अब कर्मों के विपाक से प्राणीओं को जो महाभय है; उसका स्वरूप सूत्रकार महर्षि आगे के सूत्रसे कहेंगे... v सूत्रसार : ज्ञान आत्मा का गुण है। प्रत्येक आत्मा में अनन्त ज्ञान की सत्ता स्थित है। परन्तु ज्ञानावरण कर्म के कारण बहुत-सी आत्माओं का ज्ञान प्रच्छन्न रहता है। ज्ञानावरण कर्म का जितना क्षयोपशम होता है, उतना ही ज्ञान आत्मा में प्रकट होता रहता है। जब आत्मा पूर्ण रूप से ज्ञानावरणीय कर्म का क्षय करती है, तब उसे पूर्ण ज्ञान-केवलज्ञान प्राप्त होता है। फिर उससे संसार का कोई भी पदार्थ प्रच्छन्न नहीं रहता। वह महापुरुष अपने ज्ञान से संसार Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1-6-1 - 5 (190) 19 % 3D परिभ्रमण के कारण एवं उससे मुक्त होने के साधन को जान लेता है। अत: ऐसा महापुरुष ही धर्म का यथार्थ उपदेश दे सकता है। इसी कारण जैनधर्म में तीर्थंकर एवं सर्वज्ञ भगवान की उपदेष्टा माना गया है। छद्मस्थ साधकों का उपदेश तीर्थंकर भगवान द्वारा प्ररूपित प्रवचन या आगम के आधार पर होता है, स्वतन्त्र रूप से नहीं। क्योंकि- सर्वज्ञ सभी पदार्थों के यथार्थ स्वरूप को देखता है, इसलिए उनके उपदेश में कहीं भी विपरीतता नहीं आ पाती। उनमें राग-द्वेष का अभाव होने से उनका उपदेश प्राणी जगत के लिए हितप्रद एवं कल्याणकारी होता है। सर्वज्ञ पुरुष राग-द्वेष के विजेता है। अत: उनके उपदेश में भेद-भाव नहीं होता। त्यागीभिक्षु एवं भोगी-गृहस्थ हो, धनी या निर्धन हो, स्त्री या पुरुष हो, सभी जीवों को उपदेश सुनने का अधिकार है। जैन धर्म में मात्र गुणों को एवं आचरण को महत्त्व दिया गया है; प्रत्येक वर्ग, जाति एवं देश का व्यक्ति अपने आचरण को शुद्ध बनाकर अपनी आत्मा का विकास कर सकता है। अतः धर्म निष्ठा एवं जिज्ञासा की भावना लेकर सुनने वाला कोई भी मनुष्य-व्यक्ति अपनी आत्मा का विकास कर सकता है। इस प्रकार श्रद्धा-निष्ठ व्यक्ति वीतराग प्रभु का प्रवचन सुनकर अपने जीवन को आरम्भ-समारम्भ से निवृत्त करके तप, संयम एवं ज्ञान साधना में लगा देते हैं। अत: वे महापुरुष दंड से सर्वथा निवृत्त होकर श्रुतसम्पन्न बनकर त्याग पथ पर गतिशील होते हैं। परन्तु, सभी श्रोता एक समान नहीं होते हैं। कुछ, श्रद्धानिष्ठ प्राणी भगवान का प्रवचन सुनकर तप-संयम के द्वारा कर्म-बन्धन तोड़ने का प्रयत्न करते हैं और प्रतिक्षण निष्कर्म बनने की साधना में संलग्न रहते हैं। किन्तु, कुछ व्यक्ति मोह कर्म से इतने आवृत्त होते हैं कित्याग-वैराग्य के पथ पर भली-भांति चल नहीं सकते। वे मोहांध पुरुष विषय-भोग एवं पदार्थों की आसक्ति को त्याग नहीं सकते। जैसे शैवाल से आच्छादित सरोवर में स्थित कछुआ उक्त सरोवर से बाहिर निकलने का मार्ग जल्दी नहीं पा सकता। उसी प्रकार मोह कर्म से आवृत्त व्यक्ति संसार सागर से ऊपर नहीं उठ सकता, तप-त्याग की ओर अपने आप को नहीं बढ़ा सकता। तप संयम की साधना के लिए मोह कर्म का क्षय या क्षयोपशम करना आवश्यक इस प्रकार विषय-वासना में आसक्त व्यक्ति कर्म बन्धन एवं कर्म जन्य दुःखों से छुटकारा नहीं पा सकते। क्योंकि विषय-वासना एवं आरम्भ-समारम्भ में संलग्न रहने के कारण वे पाप कर्म का बन्ध करते हैं और परिणाम स्वरूप दुःख के प्रवाह में प्रवहमान रहते हैं। वे जन्म-मरण के दुःख एवं व्याधियों से संतप्त रहते हैं। सामान्यतया रोग-व्याधियों की कोई परिमित संख्या नहीं है। फिर भी प्रमुख रोग 16 प्रकार के माने गए है। उनका नाम निर्देश करते हुए सूत्रकार ने लिखा है Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 20 // 1-6-1-5(190) // श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन गंडमाला-यह रोग वात, पित्त, कफ और इन तीनों का सन्निपात, इस प्रकार यह चार प्रकार का होता है। लोक भाषा में इसे कंठमाला कहते हैं। इसमें सन्निपात असाध्य रोग माना गया है। // 1 // कुष्ठरोग-यह रोग अठारह प्रकार का होता है। इसमें सात प्रकार के महाकुष्ठ-असाध्य और ग्यारह प्रकार के क्षुद्र-सामान्य कुष्ठ होते हैं। १-अरुण, २-उदुम्बर, ३-निश्यजिह्व, ४कपाल, ५-काकनाद, ६-पौंडरीक और ७-दट्ठ ये महाकुष्ठ हैं। १-स्थूलारूष्क, २-महाकुष्ठ, ३-एक कुष्ठ, ४-चर्मदल, ५-परिसर्प, ६-विसर्प, ७-सिध्म, ८-विचर्चिका, ९-पिष्टिम, १०पामा, ११-शतारुक ये क्षुद्र कुष्ठ कहलाते हैं। // 2 // राजयक्ष्मा-इसे क्षय रोग या टी.बी. भी कहते हैं। यह रोग मल-मूत्र आदि को रोकने से, धातु क्षय से, अत्यन्त साहस एवं विषम भोजन से होता है। // 3 // अपस्मार-इस रोग में स्मृति के ऊपर आवरण आ जाता है। इस रोग में रोगी को मूर्छा आ जाती है। इसे लोक भाषा में मृगी एवं अंग्रेजी में हिस्टेरिया की बीमारी भी कहते हैं। // 4 // काणत्व-एक आंख की रोशनी का चला जाना। यह रोग गर्भ में भी हो जाता है और जन्म के बाद भी हो शकता है। // 5 // जाड्यता-इस रोग में शरीर संचालन क्रिया से शून्य हो जाता है। // 6 // कुणि-इस रोग में एक पैर या एक हाथ बड़ा और दूसरा पैर या हाथ छोटा हो जाता है। // 7 // कुब्जरोग-इस में पीठ पर कुबड़ उभर आता है। // 8 // उदररोग-यह रोग वात-पित आदि के प्रकोप से होता है। यह आठ प्रकार का होता है-१-जलोदर, २-वातोदर, ३-पित्तोदर, ४-कफोदर, ५-कंठोदर, ६-प्लीहोदर, ७-बद्धोदर और ८-गुदोदर। // 9 // मूकरोग-इस रोग के कारण मनुष्य गूजा हो जाता है। वह बोल नहीं सकता। यह 65 प्रकार का है और 7 स्थानों में होता है। वे स्थान ये हैं-१-आठ ओष्ठ के, २-पन्द्रह दन्त मूल के, ३-आठ दान्तों के, ४-पांच जिव्हा के, ५-नव तालु के, ६-सत्रह कण्ठ के और ७-तीन सब स्थानों के, इस प्रकार कुल मिलाकर 65 प्रकार के मुखरोग होते हैं। // 10 // . शून्यत्व-इसमें अंगोपांग शून्य हो जाते हैं। यह रोग वात, पित्त, श्लेष्म, सन्निपात, रक्त और अतिघात से उत्पन्न होता हैं। // 11 // Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1-6-1 - 5 (190) 21 भस्मक-यह रोग वात-पित्त की अधिकता एवं कफ की अल्पता से होता है। इस में भूख अधिक लगती है, भोजन करते रहने पर भी तृप्ति नहीं होती। // 12 // कंपरोग-इस से शरीर कांपता रहता है। यह रोग वायु के प्रकोप से होता है। // 13 // पीठसपी-इस रोग में रोगी लाठी के आश्रय से ही चल सकता है। // 14 // श्लीपद-इस रोग में पैर बहुत बड़ा मोटा एवं भारी हो जाता है। // 15 // मधुमेह-इस में मूत्र में मधु जाता है। इसे अंग्रेजी में डायाबिटिज या शूगर (चीनी) की बीमारी कहते हैं। // 16 // इस प्रकार विषय-भोगों में आसक्त व्यक्ति अनेक प्रकार के कष्टों का संवेदन करता हुआ संसार में परिभ्रमण करता है। अत: मुमुक्षु पुरुष को सम्यग्ज्ञान से भोगासक्ति के परिणाम स्वरूप प्राप्त कष्टों एवं उनसे छुटकारा पाने के स्वरूप को जानकर पंचाचारात्मक संयम का पालन करना चाहिए। क्योंकि- ज्ञान से ही साधक संयम के पथ को जान सकता है एवं पंचाचार स्वरूप संयम का आचरण करके निरावरण ज्ञान को प्राप्त करके सिद्ध-बुद्ध एवं मुक्त बन सकता है। अतः साधक को सदा साधना में संलग्न रहना चाहिए। इसी विषय को और स्पष्ट करते हुए सूत्रकार महर्षि सुधर्म स्वामी कहते हैं कि संसार में अनन्त जीव हैं। इन्द्रिय आदि साधनों की समानता की अपेक्षा से उनके 5 भेद किए गए हैं। अर्थात् जीवों की पांच जातियां कहते है-१-ऐकेन्द्रिय, 2- द्वीन्द्रिय, ३त्रीन्द्रय, ४-चतुरिन्द्रिय, और 5- पंचेन्द्रिय। एकेन्द्रिय में स्पर्श इन्द्रियवाले पृथ्वी, पानी, अग्नि, वायु एवं वनस्पति के सभी जीव समाविष्ट हो जाते हैं। द्वीन्द्रिय में स्पर्श और जिव्हा दो इन्द्रिय वाले लट आदि जीवों को लिया गया हैं। इसी तरह त्रीन्द्रिय में स्पर्श, जिह्वा, घ्राण वाले चींटी, जूं आदि जीवों को, चतुरिन्द्रिय में स्पर्श, जिह्वा, घ्राण और चक्षु इन्द्रिय वाले मच्छर-मक्खीबिच्छू आदि जीवों को तथा पञ्चेन्द्रिय में स्पर्श जिह्वा, घ्राण, चक्षु और श्रोत्र इन्द्रिय वाले नरक, पशु-पक्षी, मनुष्य और देवयोनि के जीवों को गिना गया है। इस तरह से समस्त संसारी जीव अपने कृत कर्म के अनुसार विभिन्न जाति योनि को प्राप्त करते हैं। संसार में कुछ प्राणी अंधे भी होते हैं। अंधत्व द्रव्य और भाव से दो प्रकार का होता है। द्रव्य अंधत्व का अर्थ है-आंखों में देखने की शक्ति का न होना और भाव अंधत्व का तात्पर्य है- पदार्थों के यथार्थ बोध का न होना। द्रव्य अंधत्व आत्मा के लिए इतना अहितकर नहीं है, जितना कि- भाव अंधत्व अहित करता हैं। भाव अंधत्व अर्थात अज्ञान एवं मोह के वश जीव विषय वासना में संलग्न रहता हैं और परिणाम स्वरूप पापकर्म का बन्ध करके संसार में परिभ्रमण करता है, अनेक तरह की छेदन-भेदनादि वेदनाओं का संवेदन करता हैं। Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 22 // 1-6-1-6(191) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन ____ अत: मुमुक्षु पुरुष को संसार के सभी प्राणियों एवं उनके परिभ्रमण करने के कारणों से परिज्ञात होना चाहिए। और साधक को संसार में भटकाने वाले दुष्कर्मों से अलग रहना चाहिए। इसी तरह संसार का चिन्तन उसे कुमार्ग से हटाकर सन्मार्ग की ओर कदम बढाने की प्रेरणा देता है और इससे उसकी साधना में तेजस्विता आती हैं। अत: साधक को वीतराग प्रभु द्वारा प्ररूपित आगमों के द्वारा संसार के स्वरूप का सम्यक् बोध प्राप्त करके उससे मुक्त होने का प्रयत्न करना चाहिए, जिससे वह निर्भय बनकर निष्कर्म स्थिति-मोक्ष को पा सके। ___ सात प्रकार का भय, मोहनीय कर्म के उदय से होता है। अतः मोहनीय कर्म का क्षय या क्षयोपशम होने पर आत्मा में निर्भयता आती है। यह बात सूत्रकार महर्षि सुधर्म स्वामी आगे के सूत्र से कहेंगे। I सूत्र // 6 // // 191 // 1-6-1-6 बहुदुक्खा हु जंतवो, सत्ता कामेसु माणवा, अबलेण वहं गच्छंति शरीरेण पभंगुरेण अट्टे से बहुदुक्खे इइ बाले पकुव्वइ, एए रोगा बहू नच्चा आउरा परियावए नालं पास, अलं तव एएहिं, एयं पास मुणी ! महन्भयं नाइवाइज कंचणं // 191 // // संस्कृत-छाया : बहुदुःखाः खलु जन्तवः, सक्ताः कामेषु मानवा: अबलेन वधं गच्छन्ति शरीरेण प्रभगुरेण, आर्त्तः सः महादुःख, इति बालः प्रकरोति, एतान् रोगान् ज्ञात्वा. आतुराः परितायेयुः नाऽलं पश्य, अलं तव एभिः, एतत् पश्य हे मुने ! महद्भयम्, नाऽतिपातयेत् कञ्चन // 191 // // सूत्रार्थ : हिंसादि कर्मों से जीव बहुत दु:खी हो रहे हैं। संसारी मनुष्य काम भोगों में आसक्त हैं। क्षण भंगुर निर्बल शरीर के द्वारा जीव कष्ट-पीडाओं को प्राप्त करता हैं, वे रोगादि से पीड़ित जीव बहुत दु:खी हैं। बाल-अज्ञानी आतुर प्राणी उत्पन्न हुए गण्ड, कुष्ठ, राजयक्ष्मादि रोगों को जानकर उनकी निवृत्ति के लिए अन्य प्राणियों को परिताप देता है। परन्तु, हे शिष्य ! तू यह देख, सम्यग्विचार कर कि- हिंसा प्रधान चिकित्सा से कर्म जन्य रोग उपशान्त नहीं होता। अत: हे शिष्य ! तुझे हिंसामय औषधि से कदापि उपचार नहीं करना चाहिए। यह सावद्य औषधोपचार महाभय का कारण है। इसलिए तुझे किसी भी जीव का अतिपात याने वध नहीं करना चाहिए। Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1-6-1-6(191) 23 IV टीका-अनुवाद : ____ कर्मो के विपाक से बहु दुःख पाये हुए; अतः अतिशय दुःखी जीवों के साथ अप्रमत्त भाव से व्यवहार करें अर्थात् उन्हें कष्ट न दें... इस प्रकार तीर्थंकरादि स्थविर साधु बार बार उपदेश देते हैं... क्योंकि- राग-द्वेषादि के अनादि काल के अनन्त भावों के अभ्यास से विषय भोगो में आसक्त एवं इच्छा स्वरूप कामविकारों से मनुष्य अगणित प्रकार से अन्य जीवों को कष्ट देते हैं; अतः विषयभोगों की निवृत्ति के लिये बार बार उपदेश देने में “पुनरुक्त" दोष नहि लगता... तथा काम-भोगादि में आसक्त प्राणी असार एवं क्षणभंगुर इस औदारिक शरीर के साता-सुख के लिये पृथ्वीकायादि जीवों की हिंसा करके बहोत सारे कर्म बांधकर अनेक बार वध (मरण) को पाते हैं... पुनः कटुविपाकवाले कामभोगादि में आसक्त वह प्राणी मोहोदय से पीडित हो कर कार्य एवं अकार्य का विवेक न रखता हुआ अन्य जीवों को अनेक प्रकार के क्लेश-कष्ट पहुंचाता है, और कीये हुए कर्मबंध के उदय में अनेक बार वध (मरण) को पाता हैं.... और यदि शरीर में कुष्ठ, गंड, राजयक्ष्म (क्षयरोग-टी.बी.) आदि रोग उत्पन्न होतें हैं; तब वह अज्ञानी मनुष्य रोग की पीडा से आकुल-व्याकुल होकर रोगों की चिकित्सा के लिये अनेक त्रस एवं स्थावर जीवों को परितापना पहुंचाता है... जैसे कि- लावकादि प्राणीओं के पिशित (मांस) के द्वारा क्षय रोग का उपशम होता है; इत्यादि... इत्यादि बातें सुनकर अपने जीवितव्य की आशा से वह अन्य जीवों को मारने के लिये प्रवृत्त होता है... किंतु वह अज्ञानी मनुष्य ऐसा ऐसा नहि सोचता कि- यह रोग मेरे कीये हुए अशुभ कर्मो के उदय से हुआ है... और उन कर्मो के क्षय से हि रोग का उपशमन होगा... तथा अन्य प्राणीओं को मारने से होनेवाली चिकित्सा से तो और भी पापकर्मो का बंध होने से रोगों की पीडा तो अत्यधिक असह्य होगी... इत्यादि... अत: जिनेश्वर परमात्मा कहते हैं कि- हे श्रमण ! निर्मल विवेक चक्षु से देखिये कि- यह सावद्य चिकित्सा-विधि कर्मो के उपशम के लिये तो समर्थ है हि नहि... अत: सत् एवं असत् के विवेकवाले श्रमणों को चाहिये कि- ऐसे पापबंध के कारणवाली चिकित्साओं का त्याग करें... तथा तीनों भुवन के स्वभाव को जाननेवाले हे मुनी ! आप देखो कि- यह जो प्राणीओं के वध स्वरूप जो पाप है, वह नरकादि दुर्गति का कारण होने से महाभय स्वरूप हि है... इसीलिये कीसी भी प्राणी का वध नहि करना चाहिये... क्योंकि- एक प्राणी का वध करने से भी हिंसक को आठों प्रकार के कर्मो का बंध होता है... और उस कर्मो के द्वारा वह पापात्मा अनन्त संसार में परिभ्रमण करता है... अत: महर्षिओने प्राणी-वध महाभय स्वरूप कहा है... इस प्रकार यहां रोग एवं कामभोग की आतुरता से पापाचरण में प्रवृत्त जीवों को कहा गया है कि- प्राणी-वध हि महाभय है, इत्यादि... Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 24 // 1-6-1-7 (192) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन अब जो जीव ऐसे हिंसक नहि हैं उनके अपने आप का स्वरूप एवं आत्मा की गणवत्ता का स्वरूप सूत्रकार महर्षि आगे के सूत्र से कहेंगे... V सूत्रसार : __ प्रस्तुत सूत्र में बताया है कि- मोह कर्म से आवृत्त अज्ञानी जीव हिंसा आदि दुष्कर्मों से अनेक प्रकार के दुःखों एवं रोगों का संवेदन करते हैं। फिर भी वे विषयकषाय से निवृत्त नहीं होते। वे उन दुःखों से छुटकारा पाने के लिए भी आरम्भ-समारम्भ एवं विषय-कषाय का आश्रय लेते हैं। इस प्रकार वे दुःख परम्परा को और बढ़ाते हैं तथा महादुःख एवं महाभय के गर्त में जा गिरते हैं। विषय-वासना में आसक्त व्यक्ति सदा भयभीत बना रहता हैं। क्योंकिवह दूसरे प्राणियों को त्रास देता है, डराता है। इसलिए स्वयं भी दूसरों से डरता रहता हैं। सिंह जैसा शक्तिशाली जानवर भी-जो हाथी जैसे विशालकाय प्राणी को मार डालता है, वह भी अन्य बलवान प्राणी से सदा भयभीत रहता है। वह जब भी चलता है; तब प्रत्येक कदम पर पीछे मुड़कर देखता है। इसका कारण यह है कि- वह दूसरे प्राणियों के मन में भय उत्पन्न करता है, इसलिए वह स्वयं भी भय ग्रस्त रहता है। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि- दूसरों को संत्रस्त करने वाला व्यक्ति स्वयं त्रास एवं भय से पीड़ित रहता है। वह अनेक पाप कर्मों का बन्ध करके अनेक दुःखों एवं रोगों का संवेदन करता है। . अतः साधक को विषय-कषाय एवं आरम्भ-समारम्भ के दुष्परिणामों को जानकर उससे दूर रहना चाहिए। उसे किसी भी परिस्थिति में आरम्भ-समारंभ नहीं करना चाहिए। रोग आदि के उत्पन्न होने पर भी आरम्भ जन्य दोषों में प्रवृत्त न होकर समभाव पूर्वक उसे सहन करना चाहिए और कर्मों की निर्जरा के लिए सदा संयम में संलग्न रहना चाहिए।, ___ ऐसे संयम-निष्ठ साधकों के गुणों का उल्लेख करते हुए सूत्रकार महर्षि सुधर्म स्वामी आगे का सूत्र कहते हैं... I सूत्र // 7 // // 192 // 1-6-1-7 आयाण भो सुस्सूस ! भो धूयवायं पवेयइस्सामि, इह खलु अत्तत्ताए तेहिं तेहिं कुलेहिं अभिसेएण अभिसंभूया अभिनिव्वुडा अभिसंवुड्ढा अभिसंबुद्धा अभिनिक्कंता अणुपुव्वेण महामुणी // 192 // // संस्कृत-छाया : आजानीहि भोः ! शुश्रूषष्व ! भोः धूतवादं प्रवेदयिष्यामि, इह खलु आत्मतया तैः तैः कुलैः अभिषेकेण अभिसम्भूताः अभिसञ्जाता: अभिनिवृत्ता: अभिसंवृद्धाः अभिसम्बुद्धाः अभिनिष्क्रान्ता: अनुपूर्वेण महामुनयः // 192 // Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 卐१-६-१-७ (192) 2 - - - - III सूत्रार्थ : हे शिष्यो ! ध्यानपूर्वक सुनो और समझो, मैं तुम्हें कर्म क्षय करने का उपाय बतलाता हूं। इस संसार में कतिपय जीव अपने किए हुए कर्मों के विपाकानुसार भिन्न-भिन्न उत्तम कुलों में माता-पिता के रज-वीर्य से गर्भ रूप में उत्पन्न हुए, जन्म धारण किया, क्रमशः परिपक्व वय के बने, एवं प्रतिबोध पाकर वे मनुष्य त्यागमार्ग अंगीकार करके अनुक्रम से महामुनि बने। IV टीका-अनुवाद : हे शिष्य ! यह जो मैं आपको एक गंभीर बात कहना चाहता हूं; वह आप एकाग्र होकर सुनीयेगा... प्रमाद का त्याग करके सावधानी से सुनीये... मैं आपको धूतवाद कहता हुं... धूत याने आठ प्रकार के कर्मो का धूनन याने निर्जरा... और वाद याने उन कर्मो को जानना और क्षय करना... अतः अब मैं जो धूतवाद कहुंगा; वह आप एकाग्र होकर सुनीयेगा... यहां नागार्जुनीय मतवाले कहतें हैं कि- आठ प्रकार के कर्मो के विनाश का उपाय अथवा अपने आत्मा को अप्रमत्त (जागृत्) होने का उपाय तीर्थंकर आदि कहतें हैं... वह उपाय इस प्रकार हैं... इस संसार में आत्मा का जो भाव वह आत्मता याने जीव का अस्तित्व... और जीव ने हि कीये हुए कर्मो का परिणाम (विपाक) और उन कर्मो के परिणाम से होनेवाली जीव की नारक-तिर्यंच-देव-मनुष्य स्वरूपम् विभिन्न अवस्था... इस संसार में ईश्वरवादी लोग ऐसा कहते हैं कि- ईश्वर-प्रजापति के आदेश से पृथ्वी आदि पांच भूत का परिणाम हुआ है... किंतु जिनमत कहता है कि- वास्तव में ऐसा नहि है... परंतु इस संसार में अपने अपने कीये हुए कर्मो के उदय से हि जीव पृथ्वीकायादि स्वरूप शरीर बनाते हैं... तथा जब यह जीव संज्ञी पंचेन्द्रिय मनुष्य होता है तब उच्च-नीच विभिन्न प्रकार के कुल में उत्पन्न होते हैं... जैसे कि- मनुष्यगति में जीव सर्व प्रथम पिता के शुक्रवीर्य एवं माता के शोणित याने लोही (रक्त) को ग्रहण करके शरीर बनाता है... वहां क्रम इस प्रकार है... प्रथम सात दिन तक “कलल" कहते हैं... बाद में सात दिन तक “अर्बुद" कहतें हैं और उस अर्बुद से हि पेशी होती है, और बाद में उस पेशी से घन-शरीर बनता वहां जब तक "कलल" है, तब तक वह “अभिसंभूत" होता है... और पेशी हो तब तक वह “अभिसंजात” होता है... और उसके बाद शरीर के अंग उपांग स्नायु मस्तक बाल (रोम) आदि क्रम से निवर्तन हुए तब उसे “अभिनिर्वृत्त” कहते हैं... उसके बाद जन्म पाकर जब धर्मश्रवण के योग्य अवस्था होती है, और जब धर्मकथादि सुनकर पुन्य एवं पाप Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 26 1 -6-1-8 (193) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन को समझता है; तब उसे “अभिसंबुद्ध" कहतें हैं... उसके बाद सत् एवं असत् का विवेक करके संसार का त्याग करता है, तब उसे “अभिनिष्क्रांत" कहतें हैं... उसके बाद जब आचारांगादि शास्त्रों को ग्रहण एवं आसेवन शिक्षा से पढते हैं और ज्ञपरिज्ञा तथा प्रत्याख्यान परिज्ञा से उत्पन्न शुभ भाववाले वे चरणपरिणाम को पाकर अनुक्रम से शैक्षक, गीतार्थ, क्षपक, परिहारविशुद्धिक एवं एकाकिविहारि जिनकल्पिक मुनी होते हैं... स्थविर कल्प में गीतार्थ-आचार्यादि के पास यदि कोइ जीव बोध पाकर प्रव्रज्या की इच्छावाला उपस्थित हो; तब उसे प्रव्रज्या-दीक्षा देकर अपने उत्तराधिकारी शिष्य बनाते है... इत्यादि... V सूत्रसार : आगम में बताया गया है कि- मनुष्य ही सब कर्मों का क्षय करके मुक्ति को पा सकता है। मनुष्य के अतिरिक्त किसी भी गति या योनि में स्थित जीव निष्कर्म नहीं बन सकता। मनुष्य योनि में भी सभी मनुष्य निष्कर्म नहीं बनते हैं। प्रस्तुत सूत्र में निष्कर्म बनने वाले मनुष्यों के जीवन विकास का चित्रण किया गया है, गर्भ में उत्पन्न होने के समय से लेकर कर्म क्षय करने के स्वरूप का संक्षेप से वर्णन किया गया है। संसार के प्रत्येक जीव अपने कृत कर्म के अनुसार जन्म ग्रहण करते हैं। जिस ने मनुष्य गति का आयुष्य बांध रखा है, वे मनुष्य योनि में उत्पन्न होते हैं। माता-पिता के रज और वीर्य का संयोग होने पर जीव उसमें उत्पन्न होता है। वह जीव उस रज-वीर्य का आहार लेकर सात दिन में कलल स्वरूप शरीर बनाता है, दूसरे सात दिन में अर्बुद (शरीर) बनाता है, उसके बाद पेशि बनाता है, फिर वह जीव क्रमश: सघन शरीर बनाता है, उसके बाद शरीर के अंगोपांग बनाता हैं और फिर गर्भ का समय पूर्ण होने पर वह जन्म ग्रहण करता है और धीरे-धीरे विकास को प्राप्त होता है। समझदार होने के बाद मोहकर्म के क्षयोपशम से वह स्वयं या धर्म गुरु-आचार्यजी के संसर्ग से सद्ज्ञान को पाकर मुनि बन जाता है और तपसंयम में संलग्न होकर कर्मों का क्षय करने लगता है। इससे यह स्पष्ट हो गया कि- जो मनुष्य योनि को प्राप्त करके संयम में संलग्न होता है, ज्ञान, दर्शन और चारित्र स्वरूप पंचाचार की. साधना करता है, वह हि मनुष्य निष्कर्म बन सकता है। इस प्रकार संसार के स्वरूप को समझकर जब मनुष्य साधना के पथ पर चलने को तैयार होता है, उस समय उसके परिजन एवं स्नेही उसे क्या कहते हैं, वह बात सूत्रकार महर्षि सुधर्म स्वामी आगे के सूत्र से कहते हैं... I सूत्र // 8 // // 193 // 1-6-1-8 तं परिक्कमंतं परिदेवमाणा मा चयाहि इय ते वयंति- छंदोवणीया Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1 - 6- 1 - 8 (193) 27 अज्झोववण्णा अक्कंदकारी जणगा रूयंति, अतारिसे मुणी नो ओहंतरए जणगा जेण विप्पजढा, सरणं तत्थ नो समेइ, कहं नु नाम से तत्थ रमइ ? एयं नाणं सया समणुवासिज्जासि त्तिबेमि // 193 // // संस्कृत-छाया : तं पराक्रममाणं परिदेवमाना: मा त्यजत इति ते वदन्ति- छन्दोपनीताः अभ्युपपन्नाः आक्रन्दकारिणः जनकाः रुवन्ति, अतादृशः मुनिः न ओघं तरति, जनकाः येन अपोढाः शरणं तत्र न समेति, कथं नु नाम सः तत्र रमते ? एतद् ज्ञानं सदा समनुवासयेः इति ब्रवीमि // 193 // III सूत्रार्थ : संयम के लिए उद्यत हुए तत्त्वज्ञ व्यक्ति के प्रति उसके माता-पिता आदि परिजन इस प्रकार कहते हैं- हे पुत्र ! तू हमको मत छोड़, हम तेरे अभिप्राय के अनुसार रहेंगे... तुझ पर हमें बहोत हि सद्भाव है इत्यादि प्रकार से वे आक्रन्दन और रुदन करते हुए कहते हैं... अतः इस परिस्थिति में मात-पितादि का त्याग करनेवाला मनुष्य-साधु संसार-सागर को नहि तैर शकता.. किंतु यदि वह मुमुक्षु मात-पितादि को अशरण-भावना के द्वारा संसार का स्वरूप कहे एवं उनकी अनुमति से प्रव्रजित होकर पंचाचारात्मक संयमानुष्ठान में अपनी आत्मा को स्थापित करे... ऐसा मैं तुम्हें कहता हुं... IV टीका-अनुवाद : मात-पिता पुत्र एवं पत्नी आदिने जब जाना कि- यह व्यक्ति तत्त्व को जानकर गृहवास से मिकलकर तीर्थंकरादि महापुरुषों से आसेवित मोक्षमार्ग के लिये पराक्रम (पुरुषार्थ) कर रहा है; तब विलाप करते हुए वे मात-पितादि कहे कि- हमे छोडकर न जाइयेगा... करुण रुदन करते हुए वे मात-पितादि कहे कि- हम लोग आपके कहने के अनुसार रहते हैं, आपके आश्रित हैं; अतः आश्रित ऐसे हमारी अवगणना मत करो, इत्यादि प्रकार से आक्रंदन करते हुए मातपितादि जब रोतें हैं; तब ऐसी स्थिति में यदि वह मात-पितादि का त्याग करके घर से निकलता है; तो तीर्थंकरादि कहते हैं कि- वह मुनी नहि हो सकता है, और कभी पाखंडीओं की मायाजाल में फंसकर यदि वह मात-पितादि का त्याग करे तो भी मुनिगण के अभाव में संसार समुद्र नहि तैर शकता... ___किंतु इस परिस्थिति में संसार के स्वभाव को जाननेवाला वह मनुष्य मात-पितादि बंधुजनों को कहे कि- जब पापकर्मो के उदय से रोगादि हो या आयुष्य पूर्ण होने पर मरण आवे तब क्या मैं आप स्नेही-स्वजनों को शरण हो शकुंगा ? अर्थात् न तो रोग की पीडा Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 28 1-6-1-8 (193) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन ले शकुंगा या न तो मरण के समय भवांतर में जाते हुए आपको बचा शकुंगा... हां ! यदि आप पाप से मुक्त होना चाहते हो तो आप भी हमारे साथ प्रव्रज्या ग्रहण कीजीयेगा... और में यदि आपके कहने से यहां घर में रहं तो भी सर्व दुःखों के स्थान, नरक के समान और सभी शुभ गति के द्वार में परिघ (विघ्न) समान ऐसे घरवास में मेरा मन हि कैसे लगेगा ? तथा मेरे मोह-माया के बंधन तुट जाने से अब मैं सुख-दु:खादि द्वन्द्व के कारणभूत इस गृहवास में रहुं भी कैसे ? इत्यादि प्रकार से उन्हें प्रतिबुद्ध करे... __ अब इस उद्देशक का उपसंहार करते हुए सूत्रकार कहते हैं कि- पूर्व कहे गये सम्यग् ज्ञान को अपनी आत्मा में सदा अच्छी प्रकार से स्थापित करें... "इति" पद अधिकार की समाप्ति का सूचक है और "ब्रवीमि" पद का अर्थ है कि- श्री वर्धमानस्वामीजी के मुख से जो मैंने सुना है वह मैं (सुधर्मस्वामी) हे जंबू! तुम्हें कहता हुं... .. V सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि- जीवन में अनेकों उतार-चढ़ाव आते हैं। कभी मनुष्य को परिजनों का स्नेह मिलता है; तो कभी उनकी ओर से तिरस्कार भी सहना पड़ता है। परन्तु, प्रायः यह देखा गया है कि- जीवन विकास के पथ पर बढ़ने वाले व्यक्ति को परिजन मोहमाया के बंधन स्वरूप बनते हैं... भले ही, घर में रहते समय उससे सदा लड़तेझगड़ते रहे हों, परन्तु जब वह बोध को प्राप्त होकर संयम साधना के पथ पर चलने का उपक्रम करता है, तब उनका समस्त प्यार-स्नेह उमड़ पड़ता है और वे उसे अनेक तरह से संसार में रोकने का प्रयत्न करते हैं। उस समय मात-पितादि सभी परिजन उसे समझाते हैं कि- तू हमारे जीवन का आधार है। हमने सदा तुम्हारे जीवन का एवं दुःख-सुख का ध्यान रखा है। तुम्हें योग्य बनाने के लिए सभी तरह का प्रयत्न किया है। परन्तु, जब हमारी सेवा करने का अवसर उपस्थित हुआ, तब तुम हमें छोड़कर जा रहे हो। क्या यही तुम्हारा धर्म है ? क्या यह हि तुम्हारा कर्तव्य है ? जरा गंभीरता से सोचो-समझो ? इस तरह के आक्रन्दन भरे शब्द दुर्बल मन वाले साधक को विचलित कर देते हैं। अतः उनके अज्ञानमूलक अनुराग के समय में दृढ़ रहने का उपदेश दिया है। जो व्यक्ति स्नेहराग के प्रबल झोकों से भी विचलित नहीं होता, वही संयम-भाव में स्थिर रह सकता है। किंतु इस वचनों का यह अर्थ नहीं है कि- वह मुमुक्षु माता-पिता आदि परिजनों का तिरस्कार करके . घर से भाग जाए, परंतु यहां तात्पर्य इतना ही है कि- वह अपने सद्विचारों पर स्थित रहता हुआ, सद्भाव एवं स्नेह से परिजनों को समझाकर, उनकी अपेक्षाओं का निराकरण करके उनकी आज्ञा प्राप्त करे। यह ठीक है कि- यदि वैराग्य की कसौटी के लिए उसे किसी तरह Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1-6-1 - 8 (193) 29 का कष्ट दिया जाए तो वह उसे समभाव पूर्वक सहकर उसमें उत्तीर्ण होने का प्रयत्न करे, परन्तु अपनी तरफ से उन्हें कष्ट देने का प्रयत्न न करे। ___इस तरह त्याग-वैराग्य एवं ज्ञान के द्वारा परिजनों के मोह आवरण को दूर करके अपने पंचाचारात्मक संयम पथ को प्रशस्त बनाने का प्रयत्न करे। ऐसे विवेकनिष्ठ साधक ज्ञान एवं त्याग-वैराग्य के द्वारा सदा अभ्युदय की ओर बढ़ते रहते हैं और एक दिन समस्त कर्म बन्धनों से उन्मुक्त होकर अपने ध्येय को, लक्ष्य को पूरा कर लेते हैं। “त्तिबेमि" की व्याख्या पूर्ववत् समझें। // इति षष्ठाध्ययने प्रथम: उद्देशकः समाप्तः // : प्रशस्ति : मालव (मध्य प्रदेश) प्रांतके सिद्धाचल तीर्थ तुल्य शत्रुजयावतार श्री मोहनखेडा तीर्थमंडन श्री ऋषभदेव जिनेश्वर के सांनिध्यमें एवं श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरिजी, श्रीमद् यतीन्द्रसूरिजी, एवं श्री विद्याचंद्रसूरिजी के समाधि मंदिर की शीतल छत्र छायामें शासननायक चौबीसवे तीर्थंकर परमात्मा श्री वर्धमान स्वामीजी की पाट-परंपरामें सौधर्म बृहत् तपागच्छ संस्थापक अभिधान राजेन्द्र कोष निर्माता भट्टारकाचार्य श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी म. के शिष्यरत्न विद्वद्वरेण्य व्याख्यान वाचस्पति अभिधान राजेन्द्रकोषके संपादक श्रीमद् विजय यतीन्द्रसूरीश्वरजी म. के शिष्यरत्न, दिव्यकृपादृष्टिपात्र, मालवरत्न, आगम मर्मज्ञ, श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम प्रकाशन के लिये राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी हिंदी टीका के लेखक मुनिप्रवर ज्योतिषाचार्य श्री जयप्रभविजयजी म. “श्रमण' के द्वारा लिखित एवं पंडितवर्य लीलाधरात्मज रमेशचंद्र हरिया के द्वारा संपादित सटीक आचारांग सूत्र के भावानुवाद स्वरूप श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी हिंदी टीका-ग्रंथ के अध्ययनसे विश्वके सभी जीव पंचाचारकी दिव्य सुवासको प्राप्त करके परमपदकी पात्रता को प्राप्त करें... यही मंगल भावना के साथ... "शिवमस्तु सर्वजगतः" वीर निर्वाण सं. 2528. // राजेन्द्र सं. 96. विक्रम सं. 2058. Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 30 卐१-६-२-१(१९४) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन श्रुतस्कंध - 1 अध्ययन - 6 उद्देशक - 2 # कर्मविधूननम् // प्रथम उद्देशक कहा, अब दूसरे उद्देशक का प्रारंभ करतें हैं... यहां यह परस्पर संबंध यह है कि- प्रथम उद्देशक में अपने स्वजनादि का त्याग कहा, किंतु यदि वह मुनी पंचाचारात्मक संयमानुष्ठानों के द्वारा कर्मो की निर्जरा करे तब हि स्वजनादि का त्याग सफल होवे... अत: यहां दुसरे उद्देशक में कर्मो के विधूनन याने क्षय के लिये उपक्रम करतें हैं... इस संबंध से आये हुए प्रस्तुत दुसरे उद्देशक का यह प्रथम सूत्र है... I सूत्र // 1 // // 194 // 1-6-2-1 __ आउरं लोगमायाए चइत्ता पुव्वसंजोगं हिच्चा उवसमं वसित्ता बंभचेरंसि वसु वा अनुवसु वा जाणित्तु धम्मं अहा तहा अहेगे तमचाइ कुसीला॥ 194 // II संस्कृत-छाया : __ आतुरं लोकं आदाय त्यक्त्वा पूर्वसंयोगं, हित्वा उपशमं उषित्वा ब्रह्मचर्ये, वसुः वा अनुवसुः वा, ज्ञात्वा धर्मं यथा तथा, यथा एके तं न शक्नुवन्ति कुशीलाः॥ 194 / / III सूत्रार्थ : स्नेह राग में आसक्त माता-पिता आदि के स्वरूप को जानकर, पूर्वसंयोग माता-पिता के सम्बंध को छोड़कर; उपशम को प्राप्त कर। ब्रह्मचर्य में रहकर, साधु अथवा श्रावक; यथार्थ रूप से धर्म को जानकर भी मोहोदय से कुशील बुरे आचार वाले कुछ व्यक्ति उस धर्म का पालन नहीं कर सकते। IV टीका-अनुवाद : स्नेहानुराग से या वियोग के कारण से होनेवाली कार्यों की कठिनाइओं से कामरागातुर (चिंतित) चिंतावाले मात-पिता पुत्र पत्नी आदि को सम्यग् ज्ञान से जानकर एवं मात-पितादि के पूर्व-संबंधो का त्याग करके तथा उपशम भाव को पाकर एवं ब्रह्मचर्य में निवास करके. वह मनुष्य वसु याने साधु हो या अनुवसु याने श्रावक होवे... वसु याने कषायों की मलीनता दूर होने से वीतराग तथा अनुवसु याने वीतराग के अनुरूप सराग... अन्य जगह भी कहा है कि- वसु याने वीतराग, जिन या संचय (धन) तथा अनुवसु याने सराग, स्थविर या श्रावक Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1-6-2 - 2 (195) 31 भाव को प्राप्त कर श्रुत धर्म एवं चारित्र धर्म को जानकर और यथाविधि धर्म को स्वीकार करके भी कितनेक साधु तथाविध भवितव्यता के कारण से धर्म का पालन करने में समर्थ नहि होतें... क्योंकि- वे कुशील याने अशुभ कर्मोदय से काम विकारों के परवश होते हैं; अतः पंचाचारात्मक धर्मानुष्ठान में समर्थ नहि होतें... अब वे कुशील साधु जो करतें हैं; वह बात सूत्रकार महर्षि आगे के सूत्र से कहेंगे... सूत्रसार : __ कुछ व्यक्ति श्रुत और चारित्र धर्म का यथार्थ स्वरूप समझकर संयम-साधना के पथ पर चलने का प्रयत्न करते हैं। उस समय मोह एवं राग में आसक्त एवं आतुर व्यक्ति उन्हें उस मार्ग से रोकने का प्रयत्न करते हैं। परन्तु, प्रबल वैराग्य के कारण वे पारिवारिक बन्धन से मुक्त होकर संयम साधना में प्रविष्ट होते हैं। ब्रह्मचर्य को स्वीकार करने वाले मुनि या श्रावक के व्रतों के परिपालक श्रमणोपासक धर्म के यथार्थ स्वरूप को समझकर उसका परिपालन करते हैं। परन्तु, कुछ व्यक्ति धर्म के स्वरूप को जानते हुए भी मोहोदय के कारण पंचाचारात्मक संयम-साधना पथ से भ्रमित हो जाते हैं। इससे स्पष्ट होता है कि- श्रमण एवं श्रमणोपासक दोनों मोक्ष मार्ग के साधक हैं। श्रमणोपासक पूर्णत: त्यागी न होने पर भी मोक्ष मार्ग का देशतः आराधक है। क्योंकि- उसका लक्ष्य एवं ध्येय मोक्ष हि है, कि-जो ध्येय साधु का है। अतः आत्म विकास का मार्ग दोनों के लिए उपादेय है। मुमुक्षु साधक के लिए यह आवश्यक है कि- वह मोह का क्षयोपशम करके समभाव पूर्वक महाव्रत या अणुव्रत रूप धर्म का यथाविधि पालन करे। ..'वसु' और 'अनुवसु' शब्द का वृत्तिकार ने क्रमश: वीतराग एवं वीतरागानुरूप सराग अर्थ किया है। इसके अतिरिक्त उक्त शब्दों से श्रमण-साधु एवं श्रमणोपासक- श्रावक अर्थ भी ग्रहण किया गया है। जो व्यक्ति संयम का स्वीकार करके जब अकस्मात् मोहोदय से भ्रमित हो जाता है, तब उस की क्या स्थिति होती है, इसका उल्लेख सूत्रकार महर्षि सुधर्म स्वामी आगे के सूत्र में करते हैं। I . सूत्र // 2 // // 195 // 1-6-2-2 . वत्थं पडिग्गहं कंबलं पायपुंछणं विउसिजा, अणुपुव्वेण अणहियासेमाणा परीसहे दुरहियासए, कामे ममायमाणस्स इयाणिं वा मुहत्तेण वा अपरिमाणाए भेए, एवं से अंतराएहिं कामेहिं आकेवलिएहिं अइवण्णे चेए॥ 195 // Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 32 // 1-6-2-2(195) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन // संस्कृत-छाया : वस्त्रं पतद्ग्रहः (पात्रं) कम्बलं पादपुञ्छनकं व्युत्सृज्य, अनुपूर्वेण, अनधिसहमानाः परीषहान् दुरधिसहनीयान्, कामान् ममायमानस्य इदानीं वा मुहूर्तेन वा अपरिमाणाय भेदः, एवं स: आन्तरायिकैः कामैः आकेवलिकैः अवतीर्णाः च एते // 195 // III सूत्रार्थ : वे कुशील मोहनीय कर्म के उदय से संयम परित्याग के समय संयम के साधन उपकरणों को भी छोड़ देते हैं। उनमें से कोई एक तो संयम के उपकरण - वस्त्र, पात्र, कम्बल और रजोहरणादि का सर्वथा परित्याग करके देशविरति धर्म को ग्रहण कर लेते हैं, तथा कुछ अविरति सम्यग् दृष्टि बन जाते हैं और कुछ धर्म से सर्वथा पतित हो जाते हैं, क्यों कि- असहनीय कठिन परीषहों से विषम कर्म अनुक्रम अथवा युगपद से उदय में आए हुए हैं, अतः उन कर्मो से पराजित होकर संयम का परित्याग कर देते हैं। तथा पापोदय से काम-भोगों में अधिक ममत्व रखने वाले उन असंयमी पुरुषों के शरीर का तत्काल ही अथवा मुहूर्त मात्र में अथवा कुछ और अधिक समय में अपरिमितकाल के लिए आत्मा से भेद-विनाश हो जाता है। इस प्रकार विघ्नों और दुःखों से युक्त जो विषय-भोग हैं, उनके निरन्तर सेवन से वे असंयतपुरुष संसार समुद्र को पार नहीं कर सकते। वास्तव में कामी पुरुष काम भोगों से अतृप्त रहकर ही शरीर का परित्याग कर देते हैं अर्थात् वे भोगों से कभी भी तृप्त नहीं होते हैं। IV टीका-अनुवाद : कितनेक प्राणी कोटी-भवो में दुर्लभ ऐसा मनुष्य जन्म पाकर, और संसार-समुद्र को तैरने के लिये समर्थ ऐसे बोधि याने जिनशासन (सम्यक्त्व) को पाकर, तथा मोक्ष-वृक्ष के बीज समान सर्वविरति स्वरूप चारित्र का स्वीकार करके संयमाचरण करते करते जब कभी आत्म प्रदेशों में अशुभ निमित्त पाकर अशुभ कर्मो का उदय होवे तब कलुषित अंत:करण वाला वह साधु कर्माधिन होकर संयमाचरण का त्याग करता है... क्योंकि- कामविकार का आवेग दुर्निवारणीय होता है, तथा मानसिक आकुलव्याकुलता बढती है, पांचों इंद्रियां अपने अपने विषय में लोलुप (आसक्त) होती हैं तथा प्रबल मोहनीय कर्म के उदय से अनादिकाल से आसेवित विषय भोगों में मधुरता दीखती है, और अपयश:कीर्ति कर्म की उत्कटता से भविष्य काल का विचार कीये बिना हि अकार्य याने प्रमादाचरण का स्वीकार करके मात्र वर्तमान काल के कामभोगों में हि मग्न होकर कुलक्रम से आये हुए अच्छे आचरण को छोडकर वह पापात्मा साधु जीवन से भ्रमित होता है... अर्थात् संयम के धर्मोपकरण का त्याग करता है... जैसे कि- वस्त्र- (साधु वेष) पात्र, कंबल, पात्र के उपकरण झोली पल्ले इत्यादि एवं रजोहरण Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका +1-6-2-2(195) 33 (ओघो) इत्यादि का सापेक्ष या निरपेक्ष प्रकार से त्याग करके कोइक श्रावक जीवन का स्वीकार करता है, या श्रद्धा-सम्यग्दर्शन को हि धारण करता है, या कोइ तो मिथ्यात्व में चले जाता यहां यह प्रश्न होवे कि- वह साधु दुर्लभ ऐसे चारित्र को पाकर ऐसा क्यों करता है ? यहां सूत्रकार उत्तर देतें हैं कि- दुःसह ऐसे परीषह अनुक्रम से या एक साथ उपस्थित होने से वह साधु मानसिक व्याकुलता में उलझ जाता है और मोहनीय कर्म के तीव्र विपाकोदय से मतिमूढ होकर मोक्षमार्ग से भ्रमित होता है... अब मोक्षमार्ग का त्याग करनेवालों को कामभोग एवं धन की प्राप्ति के लिये जो परिस्थिति उपस्थित होती है, वह कहते हैं... जैसे कि- कामभोग के अशुभ अध्यवसाय (विचार) वाले उनको अंतराय के उदय से विरूप कामभोग भी प्राप्त नहि होते है, अथवा प्राप्त हो जाय तो भी अंतर्मुहूर्त मात्र काल में हि या कंडरीक मुनि की तरह एक अहोरात्र (दिवस) काल में हि शरीर का भेद याने विनाश (मरण) होता है, या उसके बाद कभी भी मरण पाकर वह प्राणी अनंतकाल पर्यंत पंचेन्द्रियत्व को प्राप्त नहि कर शकता, अर्थात् एकेंद्रिय या विकलेंद्रिय में हि जन्म-मरण करते रहते हैं... इस प्रकार वह भोगाभिलाषी प्राणी बहोत सारे अपाय (संकट-उपद्रव) वाले उन कामभोगों से अपूर्ण होता हुआ अर्थात् अतृप्त रहता हुआ मरण पाता है... अब जो प्राणी-मनुष्य मोक्ष के समीप है, याने आसन्न भवी है; वे लघुकर्मी होने के कारण से देव-गुरू की कृपा से कथंचित् चारित्र परिणाम को प्राप्त करके प्रवर्धमान शुभ * अध्यवसायवाले होतें हैं; इत्यादि बात अब सूत्रकार महर्षि आगे के सूत्र से कहेंगे... V सूत्रसार : पंचाचारात्मक संयम-साधना का पथ फूलों का नहीं किंतु शूलों का मार्ग है। त्याग के पथ पर बढ़ने वाले साधक के सामने अनेक मुसीबतें, कठिनाइयां एवं परेशानियां आती हैं। उसे प्रत्येक क्षेत्र में परीषहों के शूल बिछे मिलते हैं। जैसे कि- कभी समय पर अनुकूल भोजन नहीं मिलता, तो कभी अनुकूल पानी का अभाव होता है। कभी ठहरने के लिए व्यवस्थित मकान उपलब्ध नहीं होता, तो कभी ठीक शय्या-वसति नहीं मिलती। इसी प्रकार गर्मी-सर्दी, वर्षा आदि अनेक परीषह सामने आते हैं। इस प्रकार संयम-साधना का मार्ग परीषहों से भराभरा है। अन्यत्र भी कहा है- 'श्रेयस्कर- कल्याणप्रद मार्ग में अनेक विघ्न आते हैं। अत: उन विघ्नों पर विजय प्राप्त करने वाला साधक ही अपने साध्य को सिद्ध कर सकता है। परन्तु, कुछ साधक परीषहों के प्रबल वातावरण को सहन नहीं कर सकते। प्रबल Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 34 1 -6-2-3 (196) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन मोहोदय के कारण वे एकदम अकस्मात् पंचाचारात्मक संयम-पथ से भ्रमित हो जाते हैं... इस तरह वे विवेक विकल साधक पुन्योदय से प्राप्त चिन्तामणि (संयम) रत्न को फेंक देते हैं। वे संयम का त्याग कर असंयत हो जाते हैं। कुछ साधक महाव्रतों का त्याग कर देशव्रत में स्थिर होते हैं... कुछ साधक सम्यग् दर्शन-सम्यक्त्व में स्थिर रहते हैं... परन्तु, कुछ साधक सम्यगदर्शन श्रद्धा से भी भ्रमित होकर मिथ्यात्वभाव से विषय-कषाय में आसक्त होकर अनन्त काल तक संसार में परिभ्रमण करते हैं। वे भोगेच्छा की तृष्णा से संयम का परित्याग करते हैं और रात-दिन भोगों में आसक्त रहते हैं, फिर भी उनकी भोगेच्छा कभी भी पूरी नहीं होती। क्योंकि- इच्छा, तृष्णा एवं कामना अनन्त है, अपरिमित है और जीवन या आयु सीमित है। इसलिए भोगासक्त व्यक्ति सदा अतृप्त ही रहता है। मृत्यु के अन्तिम क्षण तक उसकी आकांक्षाएं, तृष्णाएं एवं वासनाएं अतृप्त .. ही रहती हैं और वह भोगोपभोग की तृष्णा में हि अपनी आयु को समाप्त कर देता है और उस कामभोग की वासना से आबद्ध कर्मों के अनुसार संसार में परिभ्रमण करता रहता है। अतः साधु को विषय-वासना के प्रवाह में नहीं बहना चाहिए और परीषहों के समय भी संयमभाव में दृढ एवं स्थिर रहना चाहिए; ऐसे साधु के जीवन का उल्लेख करते हुए सूत्रकार महर्षि सुधर्म स्वामी आगे का सूत्र कहतें हैं... I सूत्र // 3 // // 196 // 1-6-2-3 अहेगे धम्ममायाय आयाणप्पभिइसु पणिहिए चरे, अप्पलीयमाणे दढे सव्वं गिद्धिं परिण्णाय, पणए महामुणी, अइअच्च सव्वओ संगं न महं अत्थित्ति इय एगो अहं अस्सिं जयमाणे इत्थ विरए अणगारे सव्वओ मुंडे रीयंते, जे अचेले परिवुसिए संचिक्खइ ओमोयरियाए से आकुट्टे वा हए वा लुंचिए वा पलियं पकत्थ अदुवा पकत्थ अतहेहिं सद्दफासेहिं इय संखाए एगयरे अण्णयरे अभिण्णाय तितिक्खमाणे परिव्वए, जे य हिरी जे य अहिरीमाणा // 196 // // संस्कृत-छाया : अथ एके धर्म आदाय आदानप्रभृतिषु प्रणिहिताः चरेयुः / अप्रलीयमानाः दृढाः सर्वां गृद्धिं परिज्ञाय एषः प्रणत: महामुनिः अतिगत्य सर्वतः सङ्गं, न मम अस्ति इति, इति एकः अहं अस्मिन् यतमानः अत्र विरत: अनगारः सर्वतः मुण्डः रीयमाणः यः अचेलः पर्युषितः संतिष्ठते अवमोदर्ये, स: आकृष्टः वा हतः वा लुञ्चितः वा, कर्म प्रकथ्य अथवा प्रकथ्य अतथ्यैः शब्दस्पर्शः इति सङ्ख्याय एकतरान् अन्यतरान् अभिज्ञाय तितिक्षमाणः परिव्रजेत् ये च ह्रीरूपाः ये च अह्रीमनसश्च // 196 // Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 卐१-६-२-3(१९६)卐 35 I सूत्रार्थ : कुछ एक व्यक्ति धर्म को ग्रहण कर, धर्मोंपकरणादि से युक्त होकर संयम मार्ग में विचरते हैं तथा माता पिता आदि में अनासक्त होकर संयमभाव की दृढता से भोगाकांक्षा को छोड़ कर संयमानुष्ठान में प्रयत्नशील होते हैं। संयम मार्ग में चलने से ही उस मनुष्य को मुनि कहते हैं। वह मुमुक्षु-मनुष्य सर्व प्रकार के संग को छोड़ कर- "मैं इस संसार में अकेला हूं, मेरा कोई नहीं है"। इस प्रकार की भावना से आत्मा का अन्वेषण करता है, जिनशासन में विचरने का यत्न करता हुआ सावध व्यापार का त्याग करके वह अनागार सर्व प्रकार से मुण्डित होकर संयमभाव में विचरता है। और अचेल धर्म में वसा हुआ वह ऊनोदरी तप में स्थित रहता है तथा वचन से आक्रोशित किया हुआं, एवं दंडादि से ताड़ित किया हुआ तथा केशोत्पाटनादि से लुञ्चित किया हुआ तथा किसी पूर्व दृष्कृत्य के कारण निन्दित किया हुआ, अतथ्य शब्दों से पीडित किया हुआ और शस्त्रादि से घायल किया हुआ; वह भिक्षु दृढप्रहारी एवं अर्जुनमाली मुनि की तरह अपने स्वकृत पूर्व कर्मों के फल का विचार कर शान्त चित्त से संयम मार्ग में विचरता है। इसी प्रकार अनुकूल और प्रतिकूल अर्थात् मन को प्रसन्न करने वाले तथा मन में खेद उत्पन्न करने वाले परीषहों को शान्ति पूर्वक सहन करता हुआ विचरता है। इसी कारण वह अपने अभीष्ट-मोक्षपद को सिद्ध करने में सफल होता है। IV टीका-अनुवाद : अब कितनेक मनुष्य निकट मोक्षगामी होने से विशुद्ध परिणामों से श्रुत एवं चारित्र धर्म को स्वीकार करके वस्त्र, पात्र आदि धर्मोपकरणों से युक्त धर्मानुष्ठान में एकाग्र (सावधान) होतें हैं, एवं परीषहों को जीतते हुए सर्वज्ञ प्रभुने कहे हुए धर्मानुष्ठानों का आचरण करतें हैं... यहां पूर्व कहे गये प्रमाद-सूत्र अप्रमाद के अभिप्राय से कहना चाहिये... कहा भी है कि- जहां प्रमाद से अप्रमाद ढका हुआ है, वहां जिनागमोपदिष्ट प्रयत्न विशेष से प्रमाद भी अप्रमाद से निवृत्त हो जाता है; इसीलिये विवक्षित अधिकार के अनुसार सूत्रविधि को जाननेवाले आचार्य सूत्रों को व्यतिरेक रूप से भी कहते हैं... तथा कामभोग में या मात-पितादि के मोह में नहिं फंसनेवाले मुमुक्षु साधु, तपश्चर्या एवं संयमादि में दृढता को धारण करते हुए पंचाचारात्मक धर्माचरण करते हैं... तथा भोगसुखों की गृद्धि-आसक्ति का ज्ञपरिज्ञा एवं प्रत्याख्यान परिज्ञा से त्याग करें... काम-भोग की पिपासा (इच्छा) के त्यागी मुनी हि संयम अर्थात् संवरभाव से कर्मो की निर्जरा में सावधान होते हैं; अतः वे हि महामुनी कहलाते हैं, अन्य नहि... Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 36 1-6- 2 - 3 (196) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन तथा वे मुनी पुत्र एवं पत्नी आदि से होनेवाले सभी प्रकार के स्नेह-संबंध को या कामभोग की इच्छा को त्याग करके ऐसा चिंतन-विचार करतें हैं कि- "इस संसार में डूबते हुए मुझे बचानेवाला सर्वज्ञोपदिष्ट पंचाचारात्मक चारित्र धर्म के सिवा और कोइ नहि है; अत: इस संसार में मैं अकेला हि हुं अर्थात् मेरा कोइ नहि है और मैं भी अन्य किसी का नहि हुं"... इत्यादि एकत्व भावना से भावित अंत:करणवाला वह मुनी जिनेश्वर के प्रवचन याने शासन में पापाचरण का सर्वथा त्याग करके दशविध चक्रवाल साधु सामाचारी में प्रयत्न करनेवाला दीक्षित वह अणगार (मुनी) एकत्व भावना को भावित करता हुआ ऊणोदरी याने धर्मोपकरणों की भी इच्छाओं का संक्षेप करता हुआ संवरभाव में रहता है... . तथा द्रव्य से एवं भाव से मुंडित हुआ वह साधु संयमानुष्ठान में उद्यम करता हुआ अल्पवस्त्रवाला स्थविर कल्प या जिनकल्पिक बना हुआ संयम में उपयोगवाला एवं अंत-प्रांत .. (तुच्छ एवं असार) आहारादि को मात्र संयम-देह के निर्वाह के लिये हि वापरतें हैं, और वह भी भरपूर पेट नहि; किंतु ऊणोदरी याने अल्प आहार लेते हैं... इस प्रकार संयमाचरण में रहे हुए उन साधुओं को कोइक दुष्ट मनुष्य कठोर वचनों से आक्रोश-तिरस्कार करे, या दंडादि से मारे या बालों को उखेडकर खेंच निकाले तब वे सोचे कि- यह सभी कष्ट पूर्वकृत कर्मो के हि फल है ऐसा जानते हुए उन कष्टों को समभाव से सहन करें... एवं संयमाचरण में लीन-दृढ रहें... और ऐसा चिंतन करे कि- “पूर्व काल में कीये हुए अशुभ कर्मो का विनाश या तो प्रतिक्रमण से हो, या दुःखों को समभाव से सहन करने से हो या तो तपश्चर्या के द्वारा क्षय करने से आत्मा को कर्मो से मुक्ति मीलती है..." इत्यादि सोचे, विचारे, चिन्तन करें.. तथा कभी कोइ अज्ञानी मनुष्य कठोर वाणी से आक्रोश द्वारा तिरस्कार करता हुआ कहे कि- "हे कोकिल ! हे प्रव्रजित ! तुं भी मेरे सामने बोलता है;" इत्यादि... अथवा जकार या चकार वाली भाषा से या अन्य अस्पष्ट भाषा से निंदा- तिरस्कार करे... अथवा गलतजुठे भाव से कहे कि- “तुं चौर हैं, तुं परस्त्री गमन करनेवाला है..." इत्यादि शब्दों के द्वारा आक्रोश करे तथा हाथ-पैर के छेदन-भेदनादि के द्वारा कठोर स्पर्श जन्य कष्ट पहुंचावे तब वह साधु सोचे कि- “यह कष्ट, मेरे कीये हुए अशुभ कर्मो का हि फल है...” इत्यादि चिंतन करके उन कष्टों को समभाव से सहन करता हुआ संयमानुष्ठान में दृढ-लीन रहे... छद्मस्थ मुनी उदयागतकर्मानुसार उत्पन्न कष्ट-परीषह-उपसर्गों को पांच प्रकार की . विभावना के द्वारा प्रशमभाव से सहन करे, क्षमा करे, वह इस प्रकार१. यह पुरुष यक्षाविष्ट है... 2. यह पुरुष उन्मादवाला है, Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका // 1-6-2-3 (196) 37 3. यह पुरुष दिप्त-उग्र चित्तवाला है, 4. मुनी यह सोचे कि- मेरे हि कीये हुए कर्म इसी जन्म में भुगतने योग्य होने से उदय में आये हुए हैं, कि- जिस उदयागतकर्मो के कारण से यह पुरुष मेरा आक्रोश तिरस्कार करता है, अथवा बंधन, ताकडन, परितापनादि करता है.... 5. यदि मैं इन कष्टों को अच्छे भाव-प्रशमभाव से सहन करूं तो निश्चित हि मेरे पापकर्मों का क्षय होगा... इत्यादि... तथा केवलज्ञानी प्रभु भी उदय में आये हुए कर्मो से उत्पन्न परीषह एवं उपसर्गादि को उपरोक्त पांच विभावनाओं के द्वारा हि सहन करे... यावत् मुझे इन कष्टों को समभाव से सहन करते हुए देखकर, यह अनेक छद्मस्थ श्रमण, निग्रंथ भी स्वकृत कर्मोदय से उत्पन्न हुए परीषह एवं उपसर्गों को समभाव से सहन करेंगे... इत्यादि... परीषह दो प्रकार के होते हैं... 1. अनुकूल एवं 2. प्रतिकूल... अतः इन दोनों प्रकार में से जो कोइ परीषह उत्पन्न हुआ हो तब उनको प्रशमभाव से सहन करे... जो परीषह साधु के मन को आह्लादित-प्रसन्न करे वे सत्कार पुरस्कारादि अनुकूल परीषह है, और जो परीषह साधु के मन को अनिष्ट हो; वे क्षुधा-तृषादि प्रतिकूल परीषह हैं... अथवा ही याने लज्जा स्वरूप याचना अचेलकादि... एवं अलज्जाकारी शीत, उष्ण, दंशमशकादि... इस प्रकार इन दोनों प्रकार के परीषहों को प्रशमभाव से सहन करता हुआ साधु प्रव्रज्या का पालन करे... v सूत्रसार : . साधना में पंचाचारात्मक-संयम की निष्ठा एवं सहिष्णुता का महत्त्वपूर्ण स्थान है। निष्ठाश्रद्धा के बिना संयम का परिपालन नहीं किया जा सकता। इसलिए साधक को धर्मोपकरणों के द्वारा संयम-साधना में सदा संलग्न रहना चाहिए। साधक चाहे जितनी उत्कृष्ट साधना में संलग्न हो, फिर भी जब तक शरीर है, तब तक आहारादि कुछ उपकरणों की आवश्यक्ता रहती ही है। परन्तु, वह साधु उन उपकरणों को भोग-विलास की दृष्टि से नहीं किंतु केवल संयम की साधना में सहायक होने के कारण अनासक्त भाव से यथाविधि स्वीकार करता है। अत: उसके उपकरण मर्यादित, निर्दोष एवं साधना में तेजस्विता उत्पन्न करने वाले होते हैं। __वेश-भूषा का भी जीवन पर प्रभाव होता है। यदि किसी सैनिक को युद्ध-संग्राम के समय यदि निश्चित युनिफोर्म वेश-भूषा को छोडकर अन्य वेशभूषा पहना दी जाए तो उससे उसके जीवन में स्फूर्ति शूरवीरता के बदले प्रमाद-आलस दिखाई देगी और उसको कोई भी सैनिक नहीं समझेगा। क्योंकि सैनिक के लिये उसके कार्य के अनुरूप सैनिक की पोषाक होनी आवश्यक है। इसी प्रकार साधक के लिए उसकी संयम-साधना एवं त्याग वृत्ति को प्रकट करने वाली निर्दोष एवं सात्त्विक वेशभूषा होनी चाहिए। इसलिए आगम में साधु के लिए Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 38 1 -6-2-4 (197) // श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन मुहपत्ती, रजोहरण, चोलपट्टक आदि चौदह उपकरण रखने का विधान है। पंचाचारात्मक-संयम की साधना का मूलभूत उद्देश यह है कि- अपने अन्दर में स्थित राग-द्वेष, काम-क्रोध, तृष्णा-आसक्ति आदि अन्तरंग शत्रुओं पर विजय प्राप्त करना। अतः साधक को प्रत्येक परिस्थिति में समभाव को बनाए रखना चाहिए। उसे कोई वन्दन-नमस्कार करे तो गविष्ठ नही होना चाहिए और यदि कोई तिरस्कार एवं प्रताड़न करे तो व्यग्र एवं क्रुद्ध नहीं होना चाहिए। उसे दोनों अवस्था ओं में एक रूप रहना चाहिए और दोनों व्यक्तियों के लिए एक समान कल्याण की भावना रखनी चाहिए। यह हि साधुत्व की संयम-साधना है; संयम की साधना के द्वारा साधु सदा-सर्वदा कर्मों की निर्जरा करता हुआ निष्कर्म बनने का प्रयत्न करता है। प्रस्तुत सूत्र में प्रयुक्त अचेलक शब्द में 'अ' देशतः निषेध अर्थ में प्रयोग किया गया है। अत: अचेलक शब्द का अर्थ बिल्कुल नग्न नहीं, परंतु स्वल्प प्रमाणोपेत श्वेत वस्त्र रखना होता है। 'ओमोयरियाए संचिक्खइ' का अर्थ है- साधु को औनोदर्य तप-अल्पाहार करना चाहिए। अधिक आहार करने से शरीर में आलस्य आता है, जिसके कारण साधक ज्ञान, दर्शन एवं चारित्र की भली-भांति आराधना नहीं कर सकता है। अंत: रत्नत्रय की साधना के लिए साधक को शुद्ध एषणीय एवं सात्त्विक आहार भी भूख की मात्रा से भी भोजन थोड़ा न्यून खाना चाहिए। साधना के विषय में कुछ विशेष बातें बताते हुए सूत्रकार महर्षि सुधर्म स्वामी जी आगे का सूत्र कहते हैं... I सूत्र // 4 // // 197 // 1-6-2-4 चिच्चा सव्वं विसुत्तियं फासे समियदंसणे, एए भो ! नगिना वुत्ता जे लोगंसि अनागमण-धम्मिणो आणाए मामगं धम्म एस उत्तरवाए इह माणवाणं वियाहिए, इत्थोवरए तं झोसमाणे आयाणिजं परिण्णाय परियाएण विगंचइ, इह एगेसिं एगचरिया होइ, तत्थियरा इयरेहिं कुलेहिं सुद्धसणाए सव्वेसणाए से मेहावी परिव्वए सब्भिं अदुवा दुन्भिं अदुवा तत्थ भेरवा पाणा पाणे किलेसंति, ते फासे पुट्ठो धीरे अहियासिजासि त्तिबेमि // 197 // // संस्कृत-छाया : त्यक्त्वा सर्वां विस्रोतसिकां (स्पर्शान्) स्पृशेत् समितदर्शनः एते भोः ! Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका . 1-6-2 - 4 (197) 39 निष्किञ्चना: उक्ताः, ये लोके अनागमनधर्माणः आज्ञया मामकं धर्मं एषः उत्तरवादः इह मानवानां व्याख्यातः, अत्र उपरतः तत् झोषयन् आदानीयं परिज्ञाय पर्यायेण विवेचयति, इह एकेषां एकचर्या भवति, तत्र इतरे इतरेषु कुलेषु शुद्धषणया सर्वैषणया स: मेधावी परिव्रजेत्, सुरभिः वा दुर्गन्धः वा, तत्र भैरवाः प्राणिनः, प्राणिनः क्लेशयन्ति, तान् स्पर्शान् स्पृष्टः धीरः अतिसहेत, इति ब्रवीमि // 197 // III सूत्रार्थ : - हे शिष्यो ! सभी शंका-कुशंकाओं को सर्वथा छोड़ कर समित दर्शन-सम्यग् दृष्टि सम्पन्न होने को भाव नग्नता कहते हैं, जो इस मनुष्य लोक में दीक्षित होकर पुनः घर में आने की अभिलाषा नहीं रखते वे ही उत्तम-साधु हैं। इस मनुष्य लोक में यह उत्कृष्ट वाद-सिद्धांत कथन किया गया है कि- भगवान की आज्ञा ही मेरा धर्म है। इस जिनशासन में सुस्थित साधु आठ प्रकार के कर्मों के भेद प्रभेदों को जानकर संयम पर्याय से कर्म क्षय करता है। इस जिनशासन में कितनेक हलुकर्मी जीव एकाकी विहार प्रतिमा में प्रवृत्त हो जाते हैं, विविध प्रकार के अभिग्रहों को क्रमश: धारणा करतें हैं, अतः वह सामान्य मुनियों से विशिष्टता रखता है, अज्ञात कुलों में निर्दोष तथा एषणीय भिक्षा को ग्रहण करता है। ___ यदि उसे अज्ञात कुलों में सुगन्ध युक्त या दुर्गंध युक्त आहार मिला हो तब वह साधु उसमें राग या द्वेष न करे। यदि एकाकी प्रतिमा वाला भिक्षु किसी श्मशानादि स्थान पर ठहरा हुआ है और वहां पर यक्षादि के भयानक शब्द सुनाई पडें, तब वह साधु संयम-साधना से विचलित न हो... तथा यदि व्याघ्रादि भयानक प्राणी, अन्य प्राणियों को संताप दे रहे हों या वे हिंसक प्राणी अपने खुद पर आक्रमण कर रहे हों, तब वह साधु उन दुःख रूप स्पर्शो को प्रशमभाव से सहन करे। तात्पर्य यह है कि- मोक्षाभिलाषी साधु को यदि किसी प्रकार के हिंसक प्राणी कष्ट दें, तब भी वह साधु उन कष्टों-परिषहों को धैर्य पूर्वक सहन करने में तत्पर रहे। इस प्रकार मैं (सुधर्मस्वामी) हे जंबू ! तुम्हें कहता हूं। IV टीका-अनुवाद : ___परीषहों से होनेवाली सभी विस्रोतसिका याने कामभोगेच्छा का त्याग करके सम्यग्दर्शन को पाया हुआ वह सम्यग्दृष्टि साधु परीषहों से प्राप्त दुःखदायक कठोर स्पर्शों को समभाव से सहन करें... हे श्रमण ! इन परीषहों को समभाव से सहन करनेवाले साधु अकिंचन याने निग्रंथ कहे गये हैं... इस मनुष्य लोक में अनागमनधर्मा याने स्वीकृत प्रतिज्ञा के भार को दृढता के साथ वहन करनेवाले अर्थात् प्रतिज्ञा को तोडकर पुन: घर में जाने की इच्छा नहि रखनेवाले धीर वीर गंभीर निग्रंथ साधु हि भावनग्न-अचेलक कहे गये हैं... Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 40 1 -6-2-4 (197)" श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन तीर्थंकर परमात्मा कहते हैं कि- “पंचाचारात्मक धर्माचरण को आज्ञानुसार हि पालें..." अथवा धर्मानुष्ठान करनेवाला साधु यह सोचे कि- धर्म हि एक मात्र मेरा है, धर्म के अलावा अन्य सब कुछ पराये है; अतः मैं तीर्थंकर प्रभु की आज्ञानुसार हि अच्छे प्रकार के सभी धर्मानुष्ठान आचरता हु (करता हुं...) ___ यहां जिनशासन में साधुओं को यह अनंतरोक्त उत्कृष्टवाद-सिद्धांत कहा गया है तथा यहां कर्मो के धूनन का उपाय स्वरूप संयमाचरण में जो साधु लीन है; वह आठों प्रकार के कर्मो का क्षय करता हुआ धर्माचरण करता है, तथा कर्मो की मूल प्रकृतियां एवं उत्तर प्रकृतियों को जानकर वह साधु संयम जीवन के पर्याय के उन कर्मो का पंचाचार के द्वारा क्षय करता अब यहां सभी कर्मो के विधूनन (क्षय) के लिये तपश्चर्या हि समर्थ है... तप के दो भेद है... 1. बाह्य तप और 2. अभ्यंतर तप... प्रथम यहां बाह्य तप के अनुसंधान में कहतें हैं कि- यहां प्रवचन याने जिनशासन में लघुकर्मी कितनेक साधुओं को एकाकिविहारप्रतिमा स्वरूप एकचर्या होती है; उसमें विविध प्रकार के अभिग्रह एवं विशेष प्रकार की तपश्चर्याएं होती है... उनमें भी प्राभृतिका का स्वरूप कहतें हैं... जैसे कि- सामान्य अन्य साधुओं से अत्यधिक विशेष प्रकार की एकाकिविहार- प्रतिमा में यह कल्प है कि- अज्ञात एवं अंतप्रांत निर्धन कुल-घरों में शुद्ध-एषणा याने एषणा के दश दोष रहित आहारादि से या सर्वेषणा याने उद्गम- आदि उत्पादन-एषणा एवं ग्रासैषणा (16 दोष+ 16 दोष+ 10 दोष+ 5 दोष = 47 दोष ) से परिशुद्ध विधि से संयमानुष्ठान में लीन रहते हैं... यद्यपि ऐसे जिनकल्पिक साधु अनेक होते हैं तो भी यहां सूत्र में विवक्षा से एकवचन का प्रयोग कीया गया है... ___ अत: कहते हैं कि- वह मेधावी जिनकल्पिक साधु जिनकल्प की मर्यादा में रहकर संयम में उद्यम करता है... तथा अज्ञात घरों से प्राप्त आहारादि सुगंधवाले (अच्छे) हो या दुर्गंधवाले (सामान्य-तुच्छ) हो, तो भी उनमें राग.या द्वेष न करे... तथा एकाकिविहार के कल्प अनुसार पितृवन याने स्मशान में जब प्रतिमा स्वीकार कर के रहते हैं, तब "भैरव" याने भीषण-भयानक भूत-पिशाचादि के शब्द हो, या भैरव याने सिंह वाघ सर्प आदि दीप्त जिह्वावाले हिंसक प्राणी अन्य जीवों को कष्ट देतें हो तब, अथवा हे श्रमण ! वे भयानक प्राणी जब आपको हि कष्ट पहुंचावे तब भी धीर वीर गंभीर होकर उन कष्टों को प्रशमभाव से सहन कीजीयेगा इत्यादि... “इति" पद यहां अधिकार की समाप्ति का सूचक है और “ब्रवीमि" पद का अर्थ पूर्ववत् जानीयेगा... सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में साधक को उपदेश दिया गया है कि- वह सदा सहिष्णु बना रहे। वह Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका ॐ१-६-२-४ (197) 41 अपनी संयम-साधना का पूरी निष्ठा के साथ पालन करें। वह अपने संयम पथ पर दृढ़ता से चलता रहे और वीतराग द्वारा उपदिष्ट धर्म एवं आज्ञा का सम्यक् प्रकार से पालन करे। वह साधु यह विचार करे कि- इस विश्व में धर्म के सिवाय अन्य कोई भी पदार्थ अक्षय नहीं है। धर्म ही कर्म मल को दूर करके आत्मा को शुद्ध करने वाला है। अतः हिंसा आदि समस्त दोषों का त्याग करके जीवन निर्वाह के लिए निर्दोष आहार, वस्त्र-पात्र आदि स्वीकार करता हुआ साधु-श्रमण शुद्ध संयम का पालन करे। तथा-कदापि, तीर्थंकर भगवान की आज्ञा से विपरीत आचरण न करे। इस तरह संयम-साधना के काल समय में आने वाले अनुकूल एवं प्रतिकूल परीषहों को समभाव पूर्वक सहन करे। यदि कोई दुष्ट व्यक्ति साधु पर प्रहार भी करे तब भी वह साधु उसके प्रति द्वेष न करे, मन में भी घृणा एवं नफरत का भाव न रखे। यदि कभी श्मशान आदि शून्य स्थानों में कार्योत्सर्ग-ध्यान लगा रखा हो और उस समय कोई हिंसक पशु, मनुष्य या देव कष्ट दे, तब भी अपने धर्मध्यान आत्म चिन्तन का त्याग न करे और उनके प्रति क्रूर भाव भी न लाए। यदि कोई हिंसक पशु या मनुष्य देव आदि साधु के शरीर का भी नाश करता हो, तब भी उसे बुरा-भला न कहकर, खंधक ऋषि की तरह उस वेदना को यह समझकर समभाव पूर्वक सहन,करें कि- यह शरीर विनश्वर है और मेरी आत्मा अविनाशी है। इस शरीर के नाश होने पर भी आत्मा का अस्तित्व समाप्त नहीं होता। इस प्रकार अनित्य एवं अशरण भावना के द्वारा अपने शरीर पर से ध्यान हटाकर आत्म चिन्तन को दृढ बनाने का प्रयत्न करे। इस तरह समभाव पूर्वक उपसर्ग एवं परीषहों को सहन करने वाला साधक राग-द्वेष पर विजय प्राप्त करके शीघ्र ही वीतराग पद को प्राप्त करके सिद्ध-बुद्ध एवं मुक्त बन जाता है। . “त्तिबेमि" की व्याख्या पूर्ववत् समझें। // इति षष्ठाध्ययने द्वितीयः उद्देशकः समाप्तः // 卐卐卐 : प्रशस्ति : मालव (मध्य प्रदेश) प्रांतके सिद्धाचल तीर्थ तुल्य शत्रुजयावतार श्री मोहनखेडा तीर्थमंडन श्री ऋषभदेव जिनेश्वर के सांनिध्यमें एवं श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरिजी, श्रीमद् यतीन्द्रसूरिजी, एवं श्री विद्याचंद्रसूरिजी के समाधि मंदिर की शीतल छत्र छायामें शासननायक चौबीसवे तीर्थंकर परमात्मा श्री वर्धमान स्वामीजी की पाट-परंपरामें सौधर्म बृहत् तपागच्छ संस्थापक अभिधान राजेन्द्र कोष निर्माता भट्टारकाचार्य श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी म. के शिष्यरत्न विद्वद्वरेण्य व्याख्यान वाचस्पति अभिधान राजेन्द्रकोषके संपादक श्रीमद् विजय Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 42 1 -6-3-1(198)" श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन %3 यतीन्द्रसूरीश्वरजी म. के शिष्यरत्न, दिव्यकृपादृष्टिपात्र, मालवरत्न, आगम मर्मज्ञ, श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम प्रकाशन के लिये राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी हिंदी टीका के लेखक मुनिप्रवर ज्योतिषाचार्य श्री जयप्रभविजयजी म. “श्रमण' के द्वारा लिखित एवं पंडितवर्य लीलाधरात्मज रमेशचंद्र हरिया के द्वारा संपादित सटीक आचारांग सूत्र के भावानुवाद स्वरूप श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी हिंदी टीका-ग्रंथ के अध्ययनसे विश्वके सभी जीव पंचाचारकी दिव्य सुवासको प्राप्त करके परमपदकी पात्रता को प्राप्त करें... यही मंगल भावना के साथ... "शिवमस्तु सर्वजगतः" वीर निर्वाण सं. 2528. राजेन्द्र सं. 96. विक्रम सं. 2058. 4 . . . . . . . MANAYAMI Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 卐१-६-3-१(१९८)॥ 43 श्रुतस्कंध - 1 अध्ययन - 6 उद्देशक - 3 उपकरण-शरीरविधूननम् // द्वितीय उद्देशक कहा, अंब तृतीय उद्देशक का प्रारंभ करतें हैं... यहां परस्पर इस प्रकार संबंध है कि- दुसरे उद्देशक में कर्मधूनन की बात कही, किंतु वह उपकरण एवं शरीर के विधूनन के सिवा हो हि नहि शकता, अत: उन उपकरणादि के विधूनन के लिये यहां तीसरे उद्देशक में कहा जाएगा... इस प्रकार के संबंध से आये हुए इस तीसरे उदेशक का यह प्रथम सूत्र हैं... I सूत्र // 1 // // 198 // 1-6-3-1 एयं खु मुणी आयाणं सदा सुयक्खायधम्मे विहूयकप्पे निज्झोसइत्ता, जे अचेले परिवुसिए तस्स णं भिक्खुस्स नो एवं भवइ- परिजुण्णे मे वत्थे, वत्थं जाइस्सामि, सुत्तं जाइस्सामि, सूई जाइस्सामि, संधिस्सामि सीविस्सामि उक्कसिस्सामि वुक्कसिस्सामि परिहिस्सामि पाउणिम्सामि, अदुवा तत्थ परिक्कमंतं भुजो अचेलं तणफासा फुसंति, सीयफासा फुसंति, तेउफासा फुसंति, दंसमसगफासा फुसंति एगयरे अण्णयरे विरूवरूवे फासे अहियासेइ, अचेले लाघवं अगममाणे, तवे से अभिसमण्णागए भवइ, जहेयं भगवया पवेइयं तमेव अभिसमिच्चा सव्वओ सव्वत्ताए संमत्तमेव समभिजाणिज्जा, एवं तेसिं महावीराणं चिररायं पुव्वाइं वासाणि रीयमाणाणं दवियाणं पास अहियासिय।। 198 // // संस्कृत-छाया : - एतत् खु मुनिः आदानं, सदा स्वाख्यातधर्मा विद्यूतकल्पः झोषयित्वा, यः अचेलः पर्युषित: तस्य भिक्षोः न एवं भवति - परिजीर्णं मम वस्त्रं, वस्त्रं याचिष्ये, सूत्रं याचिष्ये, सूचिं याचिष्ये, सन्धास्यामि सेविष्यामि उत्कर्षयिष्यामि व्युत्कर्षयिष्यामि परिधास्यामि प्रावरिष्यामि, अथवा तत्र पराक्रामन्तं (पराक्रममाणं) भूयः अचेलं तृणस्पर्शाः स्पृशन्ति, शीतस्पर्शाः स्पृशन्ति, तेजःस्पर्शाः स्पृशन्ति दंशमशकस्पर्शाः स्पृशन्ति एकतरान् अन्यतरान् विरूपरूपान् स्पर्शान् अधिसहते, अचेलः लाघवं आगमयन्, तपः तस्य अभिसमन्वागतं भवति, यथा इदं भगवता प्रवेदितं तदेव अभिसमेत्य सर्वत्र सर्वात्मना सम्यक्त्वमेव समभिजानीयात्, एवं तेषां महावीराणां चिररात्रं पूर्वाणि वर्षाणि . रीयमाणानां द्रव्याणां पश्य अधिसोढव्यम् // 198 // Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 441 -6 - 3 - 1 (198) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन सूत्रार्थ : इन पूर्वोक्त धर्मोपकरणों के अतिरिक्त उपकरणों को कर्मबन्ध का कारण जानकर जिस साधु ने उनका परित्याग कर दिया है, वह मुनि उत्तम धर्म को पालन करनेवाला है। वह आचार संपन्न अचेलक साधु सदा-सर्वदा संयम में स्थित रहता है। उस भिक्षु-साधु को यह विचार नहीं होता है कि- मेरा वस्त्र जीर्ण हो गया है। अतः मैं नए वस्त्र की याचना करूंगा, या सूई धागे की याचना करूंगा और फटे हुए वस्त्र को सीऊंगा या छोटे से बडा या बड़े से छोटा करूंगा, फिर उससे शरीर को आवृत्त करूंगा। ____ अथवा उस अचेलकत्व में पराक्रम करते हुए मुनि को तृण के स्पर्श चुभते हैं, उष्णता के स्पर्श स्पर्शित करते हैं और दंशमशक के स्पर्श स्पर्शित करते हैं, इत्यादि एक. या अनेक तरह के परीषहजन्य स्पर्शों को सहन करता है। अचेलक भिक्षु लाघवता को जानता हुआ कायक्लेश तप से युक्त होता है। यह पूर्वोक्त बात भगवान् महावीर ने प्रतिपादन की है। हे शिष्य ! तू भी इस बात को सम्यग् रूप से जानकर उन वीर पुरुषों की तरह कि-जिन्हों ने पूर्वकोटि वर्षों तक संयममार्ग में विचरकर परीषहों को सहन किया है, तू भी अपनी आत्मा में परीषहों को सहन करने की वैसी ही शक्ति प्राप्त कर ! इसका निष्कर्ष यह है कि- मुनि के हृदय में परीषहों को सहन करने की दृढ भावना होनी चाहिए। IV टीका-अनुवाद : जिससे कर्मो को ग्रहण कीया जाय वह आदान याने कर्म का आश्रव = कर्मबंध... अत: साधु धर्मोपकरण के सिवा अन्य अतिरिक्त वस्त्रादि का त्याग करें... इत्यादि बात जिनेश्वरों ने अच्छी तरह से कही है... अतः मुनी भी संसार की परिभ्रमणा से भीरु होने के कारण से स्वीकृत संयम भार को यथाविधि वहन करे... पाले... तथा सम्यक् प्रकार से स्वीकृत कल्प याने आचारवाला मुनी आदान याने आश्रव कर्मबंध एवं कर्मबंध के कारणभूत अतिरिक्त वस्त्रादि का त्याग करें... यहां अज्ञान शब्द का अर्थ है; अल्पज्ञान... अतः अल्पज्ञानवाला एवं अल्प वस्त्रवाला किंतु संयम की मर्यादा में रहे हुए उस साधु को यदि कभी ऐसा विचार आवे कि- मेरा वस्त्र जीर्ण हो गया है, अत: बिना वस्त्र मैं शरीर का रक्षण कैसे करुंगा ? तथा शीत आदि से पीडित अवस्था में मेरा क्या होगा ? अतः मैं कीसी गृहस्थ श्रावकादि से नये वस्त्र की याचना करूं, अथवा उस जीर्ण वस्त्र को सांधने के लिये सुत्त-धागे की याचना करूं, और सूइ की भी याचना करुं... तथा सूइ-धागा प्राप्त होने पर जीर्ण वस्त्र को जोडुंगा तथा फटे हुए वस्त्र को सीबुंगा, Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1 - 6 - 3 - 1(11) 45 अथवा छोटे वस्त्र में अन्य टुकडा जोडकर वस्त्र को बडा बनाउंगा... अथवा वस्त्र बडा (लंबा) होगा तो टुकडा अलग निकालुंगा... और ऐसा करने के बाद उसे पहनुंगा तथा ओढुंगा... इत्यादि प्रकार से आर्तध्यान होवे; तब विशेष प्रकार से पंचाचारात्मक धर्माचरण में तत्पर होकर साधु आर्तध्यान से अपने चित्त को कलुषित न होने दें... - अथवा जिनकल्पिक साधु के अभिप्राय से इस सूत्र की इस प्रकार व्याख्या कीजीयेगा... जैसे कि- अचेल याने वस्त्र रहित तथा अच्छिद्र हाथवाले होने से पाणिपात्र याने सात प्रकार के पात्र के उपकरण से रहित अर्थात् अभिग्रह के अनुसार तीन वस्त्र एवं सात पात्रोपकरणो से रहित मात्र रजोहरण एवं मुहपत्ती स्वरूप दो उपकरणवाले उस अचेल साधु को “वस्त्र जीर्ण हुए है" इत्यादि वस्त्र विषयक आर्तध्यान नहि होता है... क्योंकि- धर्मी (वस्त्र) के अभाव में धर्म (आर्तध्यान) का अभाव होता है, तथा अचेल होने के कारण से अन्य नये वस्त्र की याचना करुंगा इत्यादि आर्तध्यान भी न हो... किंतु जो जिनकल्पिक साधु छिद्रहाथवाले हैं; वे पात्र के सात उपकरणवाले होतें हैं और तीन वस्त्रों में से अन्यतर कोइ भी वस्त्रवाले हो, तब वह मुनी वस्त्र जीर्ण होने पर आर्त्तध्यान न करें, तथा यथाकृत या अल्प परिकर्मवाले वस्त्र लेनेवाले होने से सूइ-धागे का भी अन्वेषण न करें... इत्यादि... तथा तृण-शय्या पर शयन करनेवाले अचेल साधु को कभी तृण के कठोर स्पर्श से शरीर में पीडा हो, तब अदीनमनवाला होकर उन कठोर स्पर्शों को सहन करें... तथा शीत स्पर्श हो या दंशमशक-स्पर्श हो तो भी उन्हें समभाव से सहन करें... बाइस (22) परीषहोंमें से अविरूद्ध ऐसे दंशमशक तृणस्पर्शादि जो भी परीषह होवे उन्हे समभाव से सहन करें... तथा शीत-उष्णादि परीषहों में से जो जो परस्पर विरुद्ध है, उनमें से कोई भी एक हो, अन्य न हो... यहां परीषह शब्द का बहुवचन में प्रयोग कीया गया है, अत: कोइ भी एक परीषह भी तीव्र, मंद, मध्यम आदि अनेक अवस्थावाला होता है... ऐसा जानीयेगा... तथा विरूप याने मन को प्रतिकूल स्वरूपवाले तृणादि के कठोर स्पर्शों में अचेल या अल्प वस्त्रवाला मुनी आर्तध्यान न करते हुए धर्मध्यान में दृढ होकर उन कठोर स्पर्शों को समभाव से सहन करें, और सोचे कि- परीषहों को समभाव से सहन करने से आत्मा के अशुभ कर्मो का विनाश होता है, अर्थात् द्रव्य से उपकरणलाघव एवं भाव से कर्मलाघवता को जानता हुआ वह साधु उन परीषहों को एवं उपसर्गों को समभाव से सहन करता है... यहां नागार्जुनीय-मतवाले आचार्य करतें हैं कि- साधु कर्मक्षय स्वरूप भावलाघवता के लिये उपकरण लाघव एवं तपश्चर्या करता है... तथा उपकरणलाघवता से कर्मलाघवता एवं कर्मलाघवता से उपकरणलाघवता को जानकर तृणादि स्पर्शों को सहन करनेवाले साधु को कायक्लेश स्वरूप बाह्य तप का लाभ Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 46 1 -6-3-1(198)# श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन . होता है... अत: साधु सावधानी से परीषहों को सहन करता है... यहां सुधर्मस्वामीजी अपने शिष्य जंबूस्वामीजी को कहते हैं कि- यह बात मैं अपने मनोविकल्प से नहि कहता हुं, किंतु तीर्थंकर प्रभु श्री वर्धमान स्वामीजी ने यह बात स्पष्ट रूप से बारह पर्षया के समक्ष कही है... तथा वह उपकरणादि लाघवता चार प्रकार से है, द्रव्य, क्षेत्र, काल एवं भाव भेद से चार प्रकार... 1. द्रव्य से लाघवता - आहार एवं उपकरणादि में... 2. क्षेत्र से लाघवता - सर्वत्र गांव-नगरादि में 3. काल से लाघवता - दिन, रात्रि या सर्व प्रकार के दुर्भिक्षादि काल में 4. भाव से लाघवता - कृत्रिम कल्कादि के अभाव से... तथा सम्यक्त्व याने प्रशस्त, शुभ, एक या संगत ऐसा जो तत्त्व वह सम्यक्त्व है... अन्यत्र भी कहा है कि- प्रशस्त, शोभन, एक एवं संगत जो भाव वह सम्यक्त्व है... अतः इस प्रकार के सम्यक्त्व या समत्व को जानीयेगा... जैसे कि- अचेल साधु एकचेलादि साधुओं की अवगणना नहि करतें... अन्यत्र भी कहा है कि- जो कोइ साधु दो वस्त्र, तीन वस्त्र, एक वस्त्र या अवस्त्र से संयमानुष्ठान में दृढ हैं; उनका अन्य साधु अनादर न करें, तिरस्कार न करें क्यों कि- वे सभी जिनाज्ञानुसार हि हैं... तथा संघयणबल एवं धृति आदि कारणों से जो जो साधु विभिन्न आचारवाले हैं, वे परस्पर एक-दुसरों की अवगणना न करें, एवं अपने को अन्य से हीन-न्यून या अधिक न समझें... क्योंकि- वे सभी जिनाज्ञानुसार यथाविधि कर्मो के क्षय के लिये हि उद्यमशील हैं... अतः हे श्रमण ! आप यह बात निश्चित प्रकार से सम्यग् जानीयेगा... अथवा चारों और से द्रव्यादि भेद से लाघवता को प्राप्त करके, सर्व प्रकार के नामादि निक्षेपों से सम्यक्त्व को हि सम्यग् जानीयेगा... अर्थात् तीर्थंकर एवं गणधरादि के उपदेश से सम्यक् धर्मानुष्ठान करें... यह यहां सारांश है... - तथा यह कष्टसाध्य-अनुष्ठान आपके समक्ष हम नागमणी के उपदेश की तरह ऐसे हि व्यर्थ नहि कहते हैं, क्योंकि- अनेक साधुओं ने चिरकाल याने दीर्घ समय पर्यंत इन अनुष्ठानों का आचरण कीया है... जैसे कि- अचेल रूप से संयमाचरण करनेवाले तृणादि के स्पर्शों को सहन करनेवाले एवं सकल लोक में चमत्कार करनेवाले उन धीर वीर महावीरों ने चिररात्र याने प्रभूत काल अर्थात् जीवन पर्यंत यह धर्मानुष्ठान कीया हैं... तथा एक पूर्व वर्ष याने 84,00,000 x 84,00,000 = 7056,00,000, 00 Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1 - 6 - 3 - 2 (199) 47 000 = सित्तेर लाख छप्पन हजार क्रोड वर्ष.. ऐसे अनेक पूर्व वर्ष पर्यंत उन धीर वीर गंभीर महावीरों ने संयमानुष्ठान का आचरण कीया है... जैसे कि- नाभेय याने ऋषभदेव प्रभु से लेकर दशवें तीर्थंकर श्री शीतलनाथ पर्यंत “पूर्व" संख्या का व्यवहार था, इसलिये यहां “पूर्व" शब्द का प्रयोग कीया गया है... तथा श्रेयांसनाथ प्रभु से वर्ष-संख्या का व्यवहार हुआ; अत: “वर्ष" शब्द का उल्लेख कीया है... तथा हे श्रमण ! आप देखीये कि- मुक्ति में जाने के लिये योग्य ऐसे भव्य जीवों को पूर्व कहे गये तृणस्पर्शादि परिषह समभाव से सहन करने चाहिये... तथा यहां सम्यक्करण का मतलब यह है कि- हे श्रमण ! आप यह भी जानो कि- मैंने भी श्रमण जीवन में यह स्पर्शादि परीषहों को सम्यक् सहन कीये हैं। ____‘इन परीषहों को सम्यक् सहन करनेवालों को जो कुछ आत्मगुणों का लाभ होता है; वह बात सूत्रकार महर्षि आगेके सूत्र से कहेंगे... V. सूत्रसार : यह हम देख चुके हैं कि- मुनि को साधक अवस्था में कुछ उपकरण रखने पड़ते हैं। जैसे कि- जिनकल्पी मुनि-जो जंगल एवं पर्वतों की गुफाओं में रहते हैं, उनको जघन्य से मुखवत्रिका और रजोहरण दो उपकरण एवं उत्कृष्ट से बारह उपकरण होते हैं, जब किस्थविरकल्पी साधुओं के लिए 14 उपकरण बताए गए हैं। इन उपकरणों में न्यूनता करना वह विशेष तपश्चर्या हि है। इससे कर्मों की निर्जरा होती है। अतः साधक को कषायों के त्याग के साथ-साथ यथाशक्य यथाविधि उपकरणों में भी न्यूनता करने के लिए भी प्रयत्नशील रहना चाहिए। मुनि का मूल उद्देश्य आत्म विकास है। आत्मा विकास के लिए ही वह आहार-पानी एवं वस्त्र-पात्र आदि उपकरणों को स्वीकार करता है। ये उपकरण केवल संयम साधना के साधन हैं, साध्य नहिं / अतः साधु उपकरणों को रखते हुए भी उनमें आसक्त नहि रहता है। उसका मन एवं उसका चिन्तन सदा-सर्वदा संयम परिपालन में ही संलग्न रहता है। क्योंकिवह इस बात को जानता है कि- संयम से ही कर्मों का नाश होगा और कर्म क्षय होने पर ही आत्मा का विकास हो सकेगा। अतः साधु सदा संयम पालन में ही जागरुक रहता है। कभी वस्त्र आदि के फट जाने पर तथा समय पर शुद्ध-एषणीय वस्त्र के न मिलने पर वह उसके लिए चिन्ता नहीं करता, आर्त-रौद्र ध्यान नहीं करता। किंतु ऐसे समय में भी वह साधु समभाव पूर्वक अपनी साधना में संलग्न रहता है। वह वस्त्र की न्यूनता के कारण होने वाले शीत, दंश-मशक एवं तृण स्पर्श के परीषहों को विना किसी खेद से सहन करता Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 481 -6- 3 - 2 (199) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन है। वह साधु अपने मन में सोचता-विचारता है कि- “भगवान महावीर ने इसी दशविध श्रमण धर्म का या सप्तदशविध संयम-साधना करने का उपदेश दिया है और अनेक महापुरुषों ने वर्षों एवं पूर्वो तक इस शुद्ध धर्म एवं संयम का परिपालन करके आत्मा को कर्मों से सर्वथा अनावृत्त कर लिया है। अत: मुझे भी इसी धर्म का पालन करके निष्कर्म बनाना चाहिए। “इस प्रकार साधक को समभाव पूर्वक परीषहों को सहन करते हुए संयम में संलग्न रहना चाहिए।" प्रस्तुत सूत्र में 'अचेलक' शब्द का तात्पर्य यह है कि- अल्प वस्त्र रखने वाला मुनि। यह हम स्पष्ट कर चुके हैं कि- स्वल्प वस्त्र भी संयम-साधना के साधन हैं, साध्य नहीं। अतः साधक इन वस्त्रादि में आसक्त नहीं रहता। इन सभी उपकरणों में अनासक्त रहते हुए वह साधु सदा संयम में संलग्न रहता हैं और आने वाले परीषहों को समभाव पूर्वक सहन करता है। ___ परीषहों को सहन करने से आत्मा में किस गुण का विकास होता है, इस बात को बताते हुए सूत्रकार महर्षि सुधर्म स्वामी आगे का सूत्र कहतें हैं... I सूत्र // 2 // // 199 // 1-6-3-2 आगयपण्णाणाणं किसा बाहवो भवंति, पयणुए य मंससोणिए विस्सेणिं कटु परिण्णाय, एस तिण्णे मुत्ते विरए वियाहिए तिबेमि॥ 199 // // संस्कृत-छाया : आगतप्रज्ञानानां कृशाः बाहवः भवन्ति, प्रतनुके च मांस-शोणिते विश्रेणी कृत्वा परिज्ञाय, एषः तीर्णः मुक्तः विरत: व्याख्यातः इति ब्रवीमिः // 199 // III सूत्रार्थ : परीषहों को सहन करने से प्रज्ञावान मुनि की भुजाएं कृश हो जाती हैं, मांस और रुधिर अल्प हो जाता है। वह संसार परिभ्रमण को बढ़ाने वाली रागद्वेष की सन्तति को नष्ट करके और समत्व भाव एवं पूर्वोक्त गुणों से युक्त होकर संसार समुद्र को पार कर जाता है। वह सर्वं संसर्ग से छूट जाता है। इस प्रकार मैं कहता हूं। IV टीका-अनुवाद : पदार्थों के स्वरूप को प्रगट करनेवाला ज्ञान जिन्हें प्राप्त हुआ है; वे आगतप्रज्ञान, ऐसे आगतप्रज्ञानवालों की भुजाएं तपश्चर्या से एवं परीषहों को सहने से कृश याने दुर्बल हुइ हैं... अथवा महान् उपसर्ग एवं परीषह होने पर भी आगतप्रज्ञानवाले साधुओं को पीडा कृश याने अल्प हो जाती है... क्योंकि- कर्मो के क्षय के लिये हि उठे हुए वे साधुजन सदा सावधान होते हैं; अत: मात्र शरीर को हि पीडा देनेवाले उन परीषह एवं उपसर्गों को “यह तो हमें Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1 - 6 - 3 - 3 (200) 49 मोक्ष प्राप्ति में सहायक हैं" ऐसा माननेवाले उन साधुओं को थोडी भी मन:पीडा नहि होती... अन्यत्र भी कहते है कि- अन्य प्राणी- लोग आत्मा को नहि, किंतु मात्र शरीर को हि वेदनापीडा उत्पन्न करता है, क्योंकि- अन्य प्राणी, हमारे अपनी आत्मा को एवं हृदय को दुःख कभी भी नहिं दे शकतें क्यों कि- आत्मा एवं अंत:करण शरीर से सुरक्षित हैं...इत्यादि... तथापि शरीर को पीडा-कष्ट दे शकता है... यह बात सूत्र के पदों से अब दिखलाते हैं... जैसे कि- शरीर में मांस एवं लोही (रक्त) दोनों अतिशय अल्प हो जाते हैं... क्योंकि- साधुओं का आहार रूक्ष एवं अल्प होता है, अतः वह आहार प्रायः खल रूप हि परिणत होता है, रस नहिं बनता.... कहा है किकारण के अभाव में कार्य नहि बनता... अब, जब खुन (लोही) हि अति अल्प है, तो मांस भी अल्प हि होगा... और मेद आदि भी अल्प हि होंगे... अथवा रूक्ष आहार प्राय: वातवायु दोषवाला होता है, और वायु की प्रधानता होने से मांस एवं लोही अल्प होते हैं, तथा अचेलकत्व के कारण से तृणस्पर्शादि से शरीर में पीडा होती है, इस कारण से भी शरीर में मांस एवं लोही अल्प होते हैं... . * तथा राग, द्वेष एवं कषायों की संतति स्वरूप जो संसार-श्रेणी है, उसे क्षमा आदि से विश्रेणी करके तथा समत्व भावना से यह जाने कि- जो जिनकल्पित साधु होते हैं, उनमें से कितनेक साधु एक वस्त्रवाले होते हैं, तथा कितनेक दो या तीन वस्त्रवाले होते हैं, अथवा स्थविर कल्पवाले मासक्षपण या अर्धमासक्षपण तपश्चर्या करतें हैं, तथा विकृष्ट या अविकृष्ट तपश्चर्या करनेवाले साधु हो या नित्यभोजी कूरगडुक मुनी हो... वे सभी तीर्थंकर के वचनानुसार संयमानुष्ठान करतें हैं, अतः साधु परस्पर की निंदा नहिं करतें; किंतु समदृष्टिवाले होतें हैं... __कहा भी है कि- जो कोइ साधु, चाहे वह दो वस्त्रवाला हो या तीन वस्त्रवाला हो या एक वस्त्रवाला हो या अवस्त्र हो, वे सभी जिनाज्ञा के अनुसार हि हैं, अत: कोइ भी साधु की अवगणना-निंदा नहि करनी चाहिये... __तथा कोइक जिनकल्पिक या भिक्षु प्रतिमावाले साधु को कभी छह (6) महिने तक कल्प के अनुसार निर्दोष भिक्षा प्राप्त न हो तब भी कुरगडुक जैसे मुनि को ऐसा न कहे कि"तुं तो ओदनमुंड याने सारे दिन चावल खा खा करता है" इत्यादि... अर्थात् उनकी अवगणनानिंदा न करें... अत: इस प्रकार समभाववाली दृष्टि एवं प्रज्ञा से कर्मो का क्षय करके वह पूर्वोक्त लक्षणवाला मुनी संसार सागर को तैरता है, अर्थात् मोक्ष पद पाता है... क्योंकि- वह सभी प्रकार के पौद्गलिक संग से मुक्त है; एवं पापाचरण से विरत है... जो साधु ऐसे संयत-विरत नहि है, वे संसार सागर को तैर नहि शकते... “ब्रवीमि” पद का अर्थ पूर्ववत् जानीयेगा... इस प्रकार संसार की परंपरा का विसर्जन करके जो मुनी संसारसागर को तैरनेवालों Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 50 1 -6-3-3 (200) // श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन %3 की तरह तैर चुके हैं तथा मुक्त होनेवालों की तरह मुक्त हो चुके हैं; वे हि विरत हैं... अब . यहां यह प्रश्न होता है कि- क्या पूर्वोक्त विशेषण वाले मुनी को विषम कर्मो के उदय में अरति होती है या नहिं ? क्योकि- अचिंत्य सामर्थ्यवाले कर्मो से अभिभव याने पीडा तो हो शकती है न ? इस प्रश्न का उत्तर सूत्रकार महर्षि आगे के सूत्र से कहेंगे... v सूत्रसार : संसार में दो प्रकार का परिवर्द्धन होता है- 1. शरीर और २-भव भ्रमण। शरीर का परिवर्धन प्रकाम-गरिष्ठ एवं पौष्टिक भोजन पर आधारित है और भव भ्रमण का प्रवाह रागद्वेष एवं विषय-वासना के आसेवन से बढ़ता है। मुनि का जीवन त्याग का जीवन है। वह भोजन करता है, वस्त्र पहनता है, मकान में रहता है, फिर भी इनमें आसक्त नहीं रहता। क्योंकि- वह इन्हें केवल संयम पालन के साधन मानता है; अतः संयम-साधना को शुद्ध रखने के लिए वह साधु सदा-सर्वदा सात्विक भोजन एवं वस्त्रादि लेकर समभाव से संयम का पालन करता है और कभी समय पर यथाविधि शुद्ध-एषणीय आहार आदि उपलब्ध न होने पर भी वह किसी प्रकार की चिन्ता उद्वेग नहीं करता है। वह इन सभी परीषहों को समभाव पूर्वक सहन करता है। इस प्रकार अनेक परीषहों को सहन करने से उसके शरीर का मांस शुष्क हो जाता है। उसका शरीर कृश-दुबला-पतला हो जाता है; परन्तु सहन शक्ति धैर्य के साथ समभाव की धारा प्रवहमान रहने के कारण वह पूर्व बद्ध कर्मों को क्षय करके कर्म के बोझ से भी हलुआ हो जाता है। इससे वह जन्म-मरण की परम्परा को परिवर्द्धित करने वाले राग-द्वेष का क्षय करके अजर-अमर पद को प्राप्त कर लेता है। इस प्रकार वह द्रव्य और भाव दोनों प्रकार के संसार-परिवर्द्धन को समाप्त करके भव सागर से पार हो जाता है। इससे स्पष्ट हो गया कि- ज्ञान, दर्शन एवं चरित्र से संपन्न साधक समभाव पूर्वक परीषहों को सहन करने में समर्थ होता है। इससे उसकी संयम-साधना में तेजस्विता आती है और वह संसार परिभ्रमण को घटाता रहता है। इस प्रकार परीषहों को सहन करने से उसकी आत्मा का विकास होता है। इस विषय को और स्पष्ट करते हुए सूत्रकार महर्षि सुधर्म स्वामी आगे का सूत्र कहतें हैं... I सूत्र // 3 // // 200 // 1-6-3-3 विरयं भिक्खं रीयंतं चिरराओसियं अरई तत्थ किं विधारए ? संधेमाणे समुट्ठिए, . जहा से दीवे असंदीणे, एवं से धम्मे आरियपदेसिए, ते अनवकंखमाणा पाणे अनइवाएमाणा जइया मेहाविणो पंडिया, एवं तेसिं भगवओ अणुट्ठाणे जहा से दियापोए, Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1 - 6 - 3 - 3 (200) 51 एवं ते सिस्सा दिया य राओ य अणुपुव्वेण वाइय तिबेमि // 200 // // संस्कृत-छाया : विरतं भिक्षु रीयमाणं चिररात्रोषितं अरतिः तत्र किं विधारयेत् ? सन्दधानः समुत्थितः, यथा सः द्वीपः असन्दीनः एवं सः धर्मः आर्यप्रदेशितः ते अनवकाङ्क्षमाणाः प्राणिनः अनतिपातयन्तः दयिता: मेधाविनः पण्डिताः, एवं तेषां भगवतः अनुष्ठाने, यथा सः द्विज-पोतः, एनं ते शिष्याः दिवा वा रात्रौ वा अनुपूर्वेण वाचिताः इति ब्रवीमि // 200 // // सूत्रार्थ : सावध व्यापार से निवृत्त और संयम मार्ग में विचरते हुए मिक्षु-जो चिर काल से संयम में अवस्थित है, उन को भी क्या अरति उत्पन्न हो सकती है ? हां, कर्म की विचित्रता के कारण उन्हें भी संयम में अरति हो सकती है। परन्तु, संयम निष्ठ मुनि को अरति उत्पन्न नही होती है, क्योंकि- उत्कृष्ट संयम में आत्मा को जोड़ने वाला, सम्यक् प्रकार से संयम में यत्नशील मुनि असन्दीन (कभी भी जल में नहीं डूबने वाले) द्वीप की तरह सभी जीवों का रक्षक होता है, इसी प्रकार यह तीर्थंकर प्रणीत धर्म भी द्वीप तुल्य होने से जीवों का रक्षक है। तथा वह साधु भोगेच्छा से रहित होता है एवं प्राणियों के प्राणों का उत्पीड़िन नहीं करता तथा जगत प्रिय-वल्लभ, मेधावी और पंडित है। परन्तु; जो साधु जिनागमोपविष्ट धर्म में स्थिर चित्तवाले नहीं हैं, ऐसे साधकों को भी आचार्यादि गुरुजन दिन और रात्रि में अनुलोम वाचनादि के द्वारा रत्नत्रय का यथार्थ बोध करवा कर संसार समुद्र से तैरने के योग्य बनाते हैं। इस प्रकार मैं तुम्हें कहता हूं। IV टीका-अनुवाद : असंयम से विरत एवं भिक्षणशील साधु, असंयम के स्थानों से निकलकर प्रशस्त स्थानो में गुणो के उत्कर्ष के साथ दिन-रात संयमाचरण में हि रहनेवाले साधु को क्या ? संयमानुष्ठान में कभी अरति याने उद्विग्नता होवे ? इस प्रश्न का उत्तर देते हुए कहते हैं किहां ! कभी कभी ऐसा भी हो शकता है, क्योंकि- इंद्रियां अविनीत हैं तथा मोहशक्ति भी अचिन्त्य है और कर्मो की परिणति भी विचित्र है, अतः ऐसी विषम स्थिति में असंभव क्या है ? अर्थात् साधु को अरति हो शकती है... अन्यत्र भी कहा है कि- गाढ़ चिकने एवं वज्र के समान निबिड निकाचित कर्मो का उदय ज्ञानीओं को भी मार्ग से विचलित कर शकता है... ____अथवा तो पूर्वोक्त सूत्र पदों का अर्थ इस प्रकार करे... क्या ऐसे पूर्वोक्त स्वरूपवाले साधुओं को संयम में अरति होती है ? अर्थात् संयत विरत साधुओं को संयमानुष्ठान में अरति Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 52 1 -6- 3 - 3 (200) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन न होवे... क्योंकि- वे साधु प्रतिक्षण विशुद्ध विशुद्धतर चरण-परिणामवाले होकर मोहनीय कर्म के उदय को रोक दे, या निष्फल करे... इस प्रकार से वे लघुकर्मी होतें हैं... और उत्तरोत्तर अध्यवसायों की विशुद्धि से संयम स्थानो के विशुद्ध कंडकों को धारण करते हुए यथाख्यात चारित्र के अभिमुख होतें हैं, अतः उन्हें संयम में अरति नहि हो शकती... इतना हि नहिं; किंतु वे अन्य जीवों को भी अरति से बचातें हैं, प्राणों का रक्षण करते हैं... इस बात की पुष्टि के लिये "द्वीप' का दृष्टांत कहतें हैं... जिस भूमी के दोनों (चारों) तरफ जल हो उसे द्वीप कहते हैं, वह द्वीप द्रव्य एवं भाव के भेद से दो प्रकार का होता है... उनमें द्रव्य द्वीप याने आश्वासन-द्वीप... जहां मनुष्य (प्राणी) आश्वासन-विश्राम ले शके, वह आश्वास-द्वीप... जैसे कि- बडी नदी या समुद्र के बीच उंचा प्रदेश (पर्वतादि) कि- जहां नौका तुट जाने पर मनुष्य आदि प्राणी वहां विश्रामआश्वासन पा शकतें हैं... किंतु वह आश्वास-द्वीप पुनः दो प्रकार से होता है..... 1. संदीन आश्वास द्वीप कि- जो पक्ष या महिने के बात विनष्ट हो जाता है, या जल में डूब जाता है जैसे कि- बर्फ की बडी शिला या छोटी उंचाइवाला पर्वत... . 2. असंदीन आश्वास द्वीप... जैसे कि- सिंहलद्वीप आदि... क्यों कि- समुद्र में यात्रा करनेवाले सांयात्रिक उन असंदीन द्वीपों को पाकर आश्वासन पाते हैं... विश्राम लेतें है... इसी प्रकार भाव द्वीप स्वरूप वह साधु महात्मा अन्य प्राणी-मनुष्यों को आश्वासन-आधार देते हैं... अथवा "दीव" याने दीप = प्रकाश-दीपक... वह भी संदीन एवं असंदीन भेद से दो प्रकार का है... उनमें सूर्य, चंद्र, मणी रत्न आदि असंदीन हैं... और इससे विपरीत बिजली उल्का आदि संदीन हैं... अर्थात् प्राप्त इंधनानुसार मर्यादित समय रहनेवाला दीपक संदीन दीप है और चिरकाल रहनेवाले सूर्य-चंद्रादि असंदीन दीप हैं... जैसे कि- दीवादांडी समुद्र में जल की उंडाइ एवं पर्वतादि के खडकों का संकेत करके समुद्र-यात्रीओं को सुरक्षा प्रदान करती है... इसी प्रकार ज्ञान के संधान याने केवलज्ञान के लिये उद्यमशील साधु परीषह एवं उपसर्गो से क्षोभ नहिं पातें; अत: वे असंदीन भाव द्वीपदीप हैं... क्योंकि- वे अपने आत्महित के साथ साथ विशिष्ट प्रकार के धर्मोपदेश के द्वारा अन्य जीवों को उपकारक होतें हैं... इत्यादि... कितनेक आचार्य भाव द्वीप या भावदीप का स्वरूप अन्य प्रकार से कहते हैं... जैसे . कि- भावद्वीप सम्यक्त्व है... और वह यदि औपशमिक या क्षायोपशमिक हो तो संदीन भाव द्वीप है, किंतु यदि वह सम्यक्त्व क्षायिक हो; तब असंदीन है... अतः इन दोनो प्रकार के Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1-6- 3 - 3 (200) 53 भावद्वीप को पाकर परीतसंसारी याने लघुकर्मी जीव आश्वासन प्राप्त करतें हैं... तथा भावदीप ज्ञान है... वह भी यदि केवलज्ञान हो तो असंदीन भावदीप कहलाता है, और यदि श्रुतज्ञान हो तब वह संदीन भावदीप है... क्योंकि- इन दोनों प्रकार के भावदीप को पाकर प्राणी अवश्य आश्वासन पाते हैं... अथवा धर्माचरण के लिये तत्पर बने हुए उन साधुओं को कभी अरति का उपद्रव हो... तब वे असंदीन याने अक्षुब्ध याने अचल रहें... जैसे कि- समुद्र में असंदीन द्वीप जल में डूबता नहि है, और समुद्र के यात्री-जनों को आश्रय देकर आश्वास का हेतु बनता है, बस, उसी तरह तीर्थंकरों के कहे हुए कष, ताप एवं छेद परीक्षा से सुविशुद्ध धर्माचरणवाले वे साधु भी असंदीन भावद्वीप हैं... अथवा अन्य मतवालों के कुतर्को से पराभव नहि पाने वाले वे साधु असंदीन द्वीप की तरह प्राणीओं का रक्षण के लिये आश्वासभावद्वीप होतें हैं अब यहां यह प्रश्न उठता है कि- क्या तीर्थंकरों ने कहे हुए धर्म का सम्यग् अनुष्ठान करनेवाले साधु होतें हैं ? यदि "हां" तो वे कैसे होते हैं ? इस प्रश्न का उत्तर देते हुए सूत्रकार कहतें हैं कि- आत्मभाव के संधान के लिये उद्यमशील ऐसे वे साधु संयम में कभी अरति का उपद्रव हो तो भी थोडे हि समय में मोक्षपद पानेवाले वे कामभोगों की चाहना न करते हुए धर्माचरण में हि सम्यग् प्रकार से उद्यमशील होते हैं... तथा वे साधु प्राणीओं का वध नहि करतें, जूठ नहि बोलतें, अदत्त नहि लेते, अब्रह्म का सेवन नहिं करतें और परिग्रह को भी धारण नहि करतें... किंतु कुशलानुष्ठान में प्रवृत्त होने के कारण से सभी जीवों को वल्लभप्यारे होते हैं... तथा मेधावी याने मर्यादा में रहे हुए, पंडित याने पापाचरण का त्याग करके वस्तु-पदार्थों के स्वरूप को अच्छी तरह से जाननेवाले वे साधु धर्माचरण के लिये उद्यमशील होतें हैं..... तथा जो कोइ साधु तथा प्रकार के ज्ञान के अभाव में विवेक की विकलता के कारण से अभी भी पूर्वोक्त प्रकार से संयमाचरण में उद्यमशील एवं विवेकी नहि हुए हैं, उनको आचार्यादि गुरूजन जब तक विवेकी न बने तब तक हितशिक्षा दें... यह बात अब सूत्र के पदों से कहते हैं... जैसे कि- भगवान् श्री वर्धमानस्वामीजी ने कहे हुए धर्मानुष्ठान में सम्यक् प्रकार से उद्यम नहि करने वाले अपरिकर्मित मतीवाले याने अविवेकी ऐसे उन साधुओं का पालन-रक्षण करने के साथ सदुपदेश के द्वारा उनको परिकर्मित मतीवाले याने विवेकी बनावें... इस बात के समर्थन के लिये यहां एक दृष्टांत कहतें हैं... जैसे कि- पक्षी अपने बच्चों को जन्म देने के बाद अंडकावस्था से लेकर परिपक्व पांखो से उडकर अपने स्वयं की सुरक्षा कर न शके तब तक की सभी अवस्थाओं में पालन-रक्षण करता है, बस, ठीक इसी प्रकार आचार्य भी नवदीक्षित साधु को प्रव्रज्या प्रदान से लेकर सामाचारी का उपदेश देकर एवं सूत्रों Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 54 1-6-3-3 (200) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन के अध्यापन से जब तक गीतार्थ न हो; तब तक सभी अवस्थाओं में पालन-रक्षण करतें हैं... किंतु जो साधु स्वच्छंदता के कारण से आचार्य के उपदेश का उल्लंघन करके जैसे तैसे याने मन चाहे वैसे प्रकार से धर्मानुष्ठान में प्रवृत्त होतें हैं; वे उज्जयिनी के राजपुत्र की तरह नष्ट होते हैं... वह कथा इस प्रकार है... उज्जयिनी नगरी में जितशत्रु राजा के दो पुत्र थे, उनमें से ज्येष्ठ पुत्र धर्मघोष नाम के आचार्य के पास संसार की असारता को जानकर प्रव्रजित हुआ, और अनुक्रम से आचारांगादि शास्त्रों के सूत्र, अर्थ तदुभय को प्राप्त करके जिनकल्प स्वीकारने की इच्छा से दुसरी सत्त्वभावना को परिभावित करतें हैं... वह सत्त्वभावना पांच प्रकार से होती है... उनमें प्रथम सत्त्वभावना उपाश्रय में, तथा दुसरी उपाश्रय से बाहार, तीसरी नगर के चोराहे में, चौथी शून्य घर में एवं पांचवी सत्त्वभावना स्मशान भूमी में होती (की जाती) है... जब वे पांचवी सत्त्वभावना को भावित करतें थे तब; वह छोटा भाइ बडे भाइ के अनुराग के कारण से आचार्य के पास आकर कहता है कि- मेरे बडे भाइ कहां हैं ? उस वख्त अन्य साधुओं ने कहा कि- आपको क्या काम है ? तब वह बोला कि- मैं प्रव्रज्या ग्रहण करना चाहता हूं... तब आचार्य ने कहा कि- प्रव्रज्या ग्रहण करो बाद में आप अपने बडे भाइ को देख शकोगे... तब उसने भी वैसा हि कीया अर्थात् प्रव्रज्या ग्रहण कर ली... अब एक बार पुनः उसने अपने बड़े भाइ को देखने के लिये पुछा; तब आचार्य कहते हैं किउनको देखने का क्या काम है ? क्योंकि- वे अभी किसी के भी साथ बात नहि करतें, वे अभी जिनकल्प को स्वीकार ने की इच्छावाले हैं... तब वह बोला कि- भले हि बात न करे, तो भी मैं उनको देखना चाहता हुं... छोटे भाइ का अतिशय आग्रह देखकर आचार्य ने बडे भाइ मुनी का दर्शन करवाया... तब मौन भाव में हि रहे हुए उन बडे भाइ को वंदन कीया... बडे भाइ-मुनि के प्रति अनुराग के कारण से वह छोटा भाइ-मुनि जब बड़े भाइमुनि की तरह अनुष्ठान-विधि करने को तत्पर हुआ तब आचार्य ने निषेध कीया, उपाध्याय ने भी मना करी, और अन्य साधुओं ने भी रोका और कहा कि- आपको अभी ऐसे अनुष्ठान का समय नहि है, क्योंकि- यह धर्मानुष्ठान दुष्कर है एवं दुर्गम है, इत्यादि प्रकार से मना करने पर भी उसने कहा कि- हम दोनो के पिता एक हि है, अतः मैं भी यह अनुष्ठान करूंगा; ऐसा कहकर अभिमान से एवं मोहमुग्धता से वह भी बडे भाइ की तरह धर्मानुष्ठान करता है... अब एक बार कोइ देवता आकर बडे भाइ (मुनी) को वंदन कीया... नवदीक्षित ऐसे उस छोटे भाइ को वंदन नहि कीया, तब वह अपरिकर्मित मतीवाला होने के कारण से “यह . अविधि है" ऐसा कहकर कोपायमान हुआ... तब देवता भी उस छोटे भाइ मुनी के उपर कोपायमान होकर पादतल के (पैर) के प्रहार से अक्षिगोलक (आंखे) बाहार निकाल दी... Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका #1-6-3-3 (200) 55 तब बडे भाइ मुनी ने हृदय से (मनोमन) देवता से कहा कि- यह तो अज्ञ है, आपने इसको क्यों कष्ट पहुंचाया ? इसकी आंखे अब पुनः नयी बना दो... तब वह देवता बोले कि- जीव प्रदेश से मुक्त ऐसे यह अक्षिगोलक अब नये करने शक्य नहि है...इत्यादि कहकर और ऋषि का वचन अलंघनीय है; ऐसा मानकर उसी वख्त कीसी चांडालने मारे हुए बकरे के अक्षिगोलक लाकर उस छोटे भाइ मुनी की आंखे ठीक कर दी... इस प्रकार आज्ञा के सिवा धर्मानुष्ठान * करना “अपाय' है; ऐसा मानकर शिष्य सदा आचार्य के उपदेशानुसार हि धर्मानुष्ठान करें, और आचार्य भी सदा स्व परके उपकार करनेवाले होनेसे अपने शिष्यों को यथोक्तविधि से सम्यक् याने अच्छी प्रकार से पालन-रक्षण करें... इत्यादि.... ___ अब इस दृष्टांत का उपसंहार करते हुए कहते हैं कि- जिस प्रकार वह पक्षी का बच्चा मात-पिता से पाला जाता है, बस, उसी हि प्रकार से आचार्य भी शिष्यों को अनुक्रम से सूत्रार्थ पढावें एवं आसेवन (आचरण) की शिक्षा दें और समस्त कार्यों में सहिष्णु बनावें तथा संसार समुद्र को पार उतरने के लिये समर्थ बनावें... इति शब्द यहां अधिकार के समाप्ति का सूचक है, एवं “ब्रवीमि' पद का अर्थ पूर्ववत् जानीयेगा... वह इस प्रकार... पंचम गणधर श्री सुधर्मस्वामीजी अपने शिष्य श्री जंबूस्वामीजी को कहते हैं कि- समवसरण में बारह पर्षदाओं को श्री वर्धमानस्वामीजी ने जो पंचाचार कहा था, वह पंचाचार हे जंबू ! मैं तुम्हे कहता हुं... V सूत्रसार : __ आगमों में मोह कर्म को शेष सभी कर्मों से प्रबल माना है। जिस समय मोहनीय कर्म का उदय होता है, उस समय मुमुक्षु-साधु संयम-साधना पथसे भ्रमित होता है। इसी बात को बताते हुए, प्रस्तुत सूत्र में कहा गया है कि- मोह कर्म के उदय से साधक के मन में आर्त्तध्यान एवं रौद्रध्यान रूप चिन्ता-पीडा उत्पन्न हो सकती है। किंतु इस दुर्ध्यान को धर्मध्यान के द्वारा दूर करने का प्रयत्न करना चाहिए। तथा अपने मन को विषय-वासना एवं पदार्थों की आसक्ति से हटाकर संयम में लगाना चाहिए। एवं अपने चिन्तन की धारा को रत्न-त्रय की साधना में मोड देना चाहिए। जिससे साधु का मन संयम में तथा ज्ञान एवं दर्शन की साधना में संलग्न हो सके। इस प्रकार वीतराग प्रभु की आज्ञा के अनुसार संयम में संलग्न रहनेवाला साधक कभी भी अपने पथ से भ्रमित नहि होता है। वह संयम संपन्न मुनि सभी प्राणियों के लिए आश्रयभूत होता है। जैसे समुद्र में भटकनेवाले प्राणियों की रक्षा द्वीप करता है, उन्हें आश्रय देता है, उसी प्रकार संयमशील साधक सभी प्राणियों की दया, रक्षा करता है। संयम सभी जीवों को अभय प्रदाता है। इससे बढकर संसार में कोई और आश्रय या शरण नहीं है। उत्तराध्ययन सूत्र में केशीश्रमण के एक प्रश्न का उत्तर देते हुए गौतम स्वामी ने भी यही कहा है कि “संसार सागर में भटकने वाले प्राणी के लिए धर्म-द्वीप ही सब से श्रेष्ठ आश्रय है, उत्तम शरण है।" Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 56 1 -6-3-3 (200) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन % 3D ऐसे संयम-निष्ठ मुनि ही समस्त प्राणियों के रक्षक हो सकते हैं। वे ही भोगासक्त भ्रांत व्यक्तियों को त्याग का मार्ग बताकर उन्हें निवृत्ति पथ पर बढ़ने की प्रेरणा दे सकते हैं। ऐसे आचार सम्पन्न महापुरुषों का यह कर्तव्य बताया गया है कि- वे मुमुक्षुओं को तत्त्वों का यथार्थ बोध कराएं और ज्ञान के द्वारा उसकी साधना में तेजस्विता लाने का प्रयत्न करें। यदि किसी साधक का मन चल-विचलित हो रहा है, तो उस समय आचार्य एवं गीतार्थ (वरिष्ठ) साधु को चाहिए कि- वह अपने अन्य सभी कार्यों को छोडकर उसके मन को स्थिर करने का प्रयत्न करे। उसे रात-दिन स्वाध्याय कराते हुए, आगम का बोध कराते हुए उसके हृदय में संयम के प्रति निष्ठा जगाने का प्रयत्न करना चाहिए। इस प्रकार अगीतार्थ एवं चल-विचल मनवाले शिष्य को सुयोग्य गीतार्थ बनाने का दायित्व आचार्य एवं संघ के वरिष्ठ साधुओं पर है। इस प्रकार संयम-निष्ठ एवं संयम में स्थिर हुआ साधु प्राणी जगत के लिए शरण रूप होता है। स्वयं संसार सागर से पार होता है और अन्य प्राणियों को भी पार होने का मार्ग बताता है। 'त्तिबेमि' का अर्थ पूर्ववत् समझें। // इति षष्ठाध्ययने तृतीयः उद्देशकः समाप्तः // : प्रशस्ति : मालव (मध्य प्रदेश) प्रांतके सिद्धाचल तीर्थ तुल्य शत्रुजयावतार श्री मोहनखेडा तीर्थमंडन श्री ऋषभदेव जिनेश्वर के सांनिध्यमें एवं श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरिजी, श्रीमद् यतीन्द्रसूरिजी, एवं श्री विद्याचंद्रसूरिजी के समाधि मंदिर की शीतल छत्र छायामें शासननायक चौबीसवे तीर्थंकर परमात्मा श्री वर्धमान स्वामीजी की पाट-परंपरामें सौधर्म बृहत् तपागच्छ संस्थापक अभिधान राजेन्द्र कोष निर्माता भट्टारकाचार्य श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी म. के शिष्यरत्न विद्वद्वरेण्य व्याख्यान वाचस्पति अभिधान राजेन्द्रकोषके संपादक श्रीमद् विजय यतीन्द्रसूरीश्वरजी म. के शिष्यरत्न, दिव्यकृपादृष्टिपात्र, मालवरत्न, आगम मर्मज्ञ, श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम प्रकाशन के लिये राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी हिंदी टीका के लेखक मुनिप्रवर ज्योतिषाचार्य श्री जयप्रभविजयजी म. “श्रमण' के द्वारा लिखित एवं पंडितवर्य लीलाधरात्मज रमेशचंद्र हरिया के द्वारा संपादित सटीक आचारांग सूत्र के भावानुवाद स्वरूप श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी हिंदी टीका-ग्रंथ के अध्ययनसे विश्वके सभी जीव पंचाचारकी दिव्य सुवासको प्राप्त करके परमपदकी पात्रता को प्राप्त करें... यही मंगल भावना के साथ... "शिवमस्तु सर्वजगतः" वीर निर्वाण सं. 2528. म राजेन्द्र सं. 96. विक्रम सं. 2058. Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी-हिन्दी-टीका 卐१-६-४-१(२०१)॥ 57 - D श्रुतस्कंध - 1 अध्ययन - 6 उद्देशक - 4 / म गारवत्रिकविधूननम् // __तृतीय उद्देशक कहा, अब चौथे उद्देशक का प्रारंभ करतें हैं... इसका यहां परस्पर संबंध इस प्रकार है कि- तृतीय उद्देशक में शरीर एवं उपकरण का धूनन याने त्याग कहा था, किंतु उपकरण विधूनन के लिये गारवत्रिक का त्याग अनिवार्य है, अतः इस तीन गारव के धूनन (त्याग) का उपदेश इस चौथे उद्देशक में कहा जाएगा... इस संबंध से आये हुए चौथे उद्देशक का यह प्रथम सूत्र है... और उसका अस्खलितादि गुण सहित हि उच्चारण कर... I सूत्र // 1 // // 201 // 1-6-4-1 एवं से सिस्सा दिया य राओ य अणुपुत्वेण वाइया तेहिं महावीरेहिं पण्णाणमंतेहिं तेसिमंतिए पण्णाणमुवलब्भ हिच्चा उवसमं फारुसियं समाइयंति, वासित्ता बंभचेरंसि आणं तं नो त्ति मण्णमाणा आघायं तु सुच्चा निसम्म, समणुण्णा जीविस्सामो, एगे निक्खमंते असंभवंता विडज्झमाणा कामेहिं गिद्धा अज्झोववण्णा समाहिमाधायमजोसयंता सत्थारमेव फरुसं वयंति // 201 // // संस्कृत-छाया : एवं ते शिष्याः दिवा च रात्रौ च अनुपूर्वेण वाचिताः तै: महावीरैः प्रज्ञावद्भिः, तेषां अन्तिके प्रज्ञानं उपलब्भ्य हित्वा उपशमं परुषतां समाददति / उषित्वा ब्रह्मचर्यं तां आज्ञां "न" इति मन्यमानाः आधाकर्म तु श्रुत्वा निशम्य, समनोज्ञाः जीविष्यामः एके निष्क्रान्ताः असम्भवन्तः दह्यमानाः कामैः गृद्धाः अध्युपपन्नाः समाधि आधाय अजोषयन्तः शास्तारमेव परुषं वदन्ति // 201 // III सूत्रार्थ : हे जम्बू ! कुछ शिष्य तीर्थंकर, गणधर तथा आचायादि प्रज्ञावानों के द्वारा रात-दिन पढ़ाये हुए, उनके समीप श्रुतज्ञान को प्राप्त कर के भी अन्यदा प्रबल मोहोदय से उपशम भाव को छोड़कर कठोर भाव को ग्रहण करते हैं। वे गुरुकुलवास में रहने पर भी तीर्थंकर की आज्ञा को नहि मानते... तथा कुशील सेवन से उत्पन्न होने वाले कष्टों को सुनकर कई साधु इस आशा से दीक्षा लेकर शब्द- शास्त्रादि पढ़ते हैं कि- हम लोक में प्रामाणिक जीवन व्यतीत करेंगे किंतु मोह के प्राबल्य से वे मोहमुग्ध साधु तीन गौरवों के वशीभूत होकर भगवत् कथित Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 58 1-6-4-1(201) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन मोक्ष मार्ग का सम्यक् प्रकार से अनुसरण नहिं करतें किंतु अहंकार से जलते हैं। वे कामभोगों में मूर्छित एवं गारवत्रिक में अत्यन्त आसक्त हुए भगवत् कथित समाधिमार्ग का अनुसरण नहीं करते हैं। यदि कभी गुरुजन उन्हें हितशिक्षा दें तब वे उनको भी कठोर वचन बोलते हैं... IV टीका-अनुवाद : . पक्षी अपने बच्चों का संवर्धन जिस प्रकार करता है उसी पद्धति से आचार्यजी स्वहस्त दीक्षित या उपसंपदा से प्राप्त शिष्यों को एवं अध्ययन के लिये आये हुए अन्य साधुओं को दिन में एवं रात्रि में अनुक्रम से ग्रहणशिक्षा एवं आसेवनशिक्षा दें ... जैसे कि- उत्तराध्ययनादि कालिक श्रुत दिन में प्रथम एवं चौथे प्रहर में पढाया जाय, तथा दश-वैकालिक आदि उत्कालिक श्रुत कालवेला को छोडकर संपूर्ण दिन-रात पढाया जाता है... और वह अध्यापन आचारांगादि के क्रम से कराया जाय... जैसे कि- तीन वर्ष का चारित्र पर्याय होने पर आचारांग सूत्र पढाया जाता है... इत्यादि क्रम से पढाये गये शिष्यों को पंचाचारात्मक चारित्र की भी शिक्षा दी जाती है... जैसे कि- युगमात्र याने साढे तीन हाथ प्रमाण भूमी को देखते हुए ईर्यासमिति के उपयोग से चलें, आवागमन करें... तथा कूर्म याने कच्छुए की तरह अंगोपांग को संयमित रखते हुए संयमाचरण करें इत्यादि प्रकार से शिक्षा शिष्यों को दी जाय... यह बात केवलज्ञानी प्रभु श्री महावीर स्वामीजी आदि तीर्थंकरो ने कही है, तथा इसी प्रकार विशिष्ट ज्ञानी गणधर स्थविर आचार्य आदि ने भी यह बात कही है... स्वहस्तदीक्षित एवं उपसंपदा प्राप्त ऐसे दोनो प्रकार के शिष्य प्रेक्षापूर्वक आचारानुष्ठान करनेवाले होने से वे आचार्यादि के पास श्रुतज्ञान को प्राप्त करके बहुश्रुत होतें हैं... किंतु कभीकभी कोइ साधु प्रबल मोहोदय के कारण से गुरुजी के सदुपदेश की अवगणना करता है, और उत्कट मदवाला होकर उपशम भाव का त्याग करके कठोर वचन बोलता है... वह उपशम द्रव्य एवं भाव भेद से दो प्रकार का है... द्रव्य उपशम याने कतकफल के चूर्ण से कलुषित (गंदे) जल को स्वच्छ बनाना... तथा भाव-उपशम याने ज्ञानादि से आत्मा की निर्मलता... जो साधु ज्ञान से उपशम भाव को प्राप्त करे वह ज्ञानोपशम... जैसे किआक्षेपणी आदि कोइ भी धर्मकथा से कोइक साधु उपशम भाव को प्राप्त करता है... तथा दर्शनोपशम याने शुद्ध सम्यग्दर्शन से अन्य जीव को उपशांत करे... यथा- श्रेणिक राजाने मिथ्यात्वी देव को प्रतिबोधित कीया... अथवा सम्मतितर्क आदि दर्शन शास्त्रों से कोइक उपशम भाव को प्राप्त करता है... तथा चारित्रोपशम याने क्रोध आदि का उपशम... तथा विनय, नम्रता आदि गुणो की प्राप्ति... इत्यादि... किंतु कोइक क्षुद्र साधु ज्ञान-समुद्र में अवगाहन करने पर भी क्षुद्रता के कारण से उपशम भाव का त्याग करता है अर्थात् क्रोधादि कषायों की चुंगाल में फंस जाता है... और Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1-6-4 -1(201) 59 अंश मात्र ज्ञान की प्राप्ति में हि गर्व-अभिमान करता हुआ कठोरता को धारण करता है... जैसे कि- कोइ सूत्र के अर्थ निर्णय की विचारणा चलती हो तब अभिमानी क्षुद्र साधु अन्य साधु को कहे कि- इस सूत्र के अर्थ को आप नहि जानते हो... आपने जो अर्थ कहा वह ठीक नहि है... मेरे जैसा कोइक हि सूत्र के अर्थ-निर्णय में समर्थ होता है... सभी नहि... इत्यादि... अन्यत्र भी कहा है कि- कोइक साधु स्वयं हि सूत्र का काल्पनिक अर्थ निर्णय करके गुरुजीसे पुनः पुछे... और कहे कि- वादी और मल्लवादी में मेरे जैसा हि अंतर है... अर्थात् अन्य सभी वादी हैं और मैं मल्लवादी हुं इत्यादि... जब दुसरा साधु कहे कि- हमारे गुरुजी ने तो हमें इस सूत्रका अर्थ इस प्रकार हि कहा है, तब वह अभिमानी साधु कहे कि- वचन में कुंठित एवं बुद्धि रहित वह आचार्यजी क्या जाने ? और तुं भी शुक-पाठ की तरह पढा है, कुछ ऊहा-अपोह तो कीया हि नहि है... इत्यादि एवं अन्य प्रकार से गुरुजी की अवगणना-अपमान करता है... इस प्रकार कुछ थोडे बहोत शब्द श्रतज्ञान को प्राप्त करके गर्विष्ठ वह साधु उपशम भाव का त्याग करता है... जो ज्ञान उपशम भाव का कारण है, उससे हि वह क्रोधादि कषाय भावको पाकर अपनी उद्धताइ प्रगट करता हुआ अन्य साधुओं का अनादर करता है... अर्थात् शास्त्रों के थोडे थोडे अंश को पढकर वह ऐसा गर्व धारण करता है कि- सभी शास्त्रों को मैं हि जानता हुं... मेरे समान अन्य कोइ बुद्धिशाली नहि है... ऐसा वह खुद अपने आप को मानता हैं.. ___ अथवा बहुश्रुत बने हुए साधुओं में से कितनेक (थोडे) साधु हि अशुभकर्मोदय से ग़र्व-अभिमान स्वरूप कठोरता को धारण करतें हैं... सभी नहिं... गर्व-अभिमानी साधु से कभी कोइ साधु कुछ सूत्रार्थ जानना चाहे तब वह गर्व के कारण मौन रहता है... अथवा हुंकारा से या मस्तक हिलाने के द्वारा हि हा या ना इतना हि जवाब देता है... तथा कितनेक साधु ब्रह्मचर्य याने संयम में रहकर आचारांग सूत्र के अर्थानुसार पंचाचार का आचरण करनेवाले भी अशुभकर्मोदय से कभी-कभी गर्व से अंध बनकर तीर्थंकरों के उपदेश स्वरूप आज्ञा की अवगणना करतें हैं... अर्थात् साता-गारव की बहुलता के कारण से शरीर की सुख-सुविधा के लिये बकुश-कुशीलता को धारण करते हैं... अथवा अपवाद मार्ग का आलंबन लेनेवाले उनको जब गुरुजी उत्सर्ग मार्ग की प्रेरणा करते हैं, तब वे साधु कहते हैं कि- तीर्थंकर प्रभु की आज्ञा उत्सर्ग एवं अपवाद स्वरूप है... और अपवाद मार्ग के सूत्र को दिखलाते हुए अपवाद मार्ग को हि तीर्थंकर की आज्ञा मानकर चलतें हैं... जैसे कि- ग्लान साधु के लिये आधाकर्म आदि भी उचित है इत्यादि... यदि प्रभु की ऐसी आज्ञा नहि है, तो रुग्ण ऐसे ग्लानादि साधुओं को उन आधाकर्मादि Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 60 // 1-6-4-1(201) // श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन का अपाय क्यों नहिं कहा ? जैसे कि- निष्कारण आधाकर्मादि सेवन करनेवाले साधुओं को जिनाज्ञा की आशातना से दीर्घ संसार होता है... इत्यादि... जब गुरुजी कहते हैं कि- हे श्रमण ! यदि निरपेक्ष होकर कुशीलाचरण करे; तब उन्हें भी दीर्घ संसार स्वरूप कर्मविपाक कहा गया है... इत्यादि गुरुजी की बात सुनकर भी गर्व से अंध बने हुए वे गर्विष्ठ साधु शास्ता याने हितशिक्षा देनेवाले गुरुजी का हि कठोर वचनों से अवगणना-तिरस्कार करतें हैं... तथा वे गर्विष्ठ साधु शास्त्र के वचन इसलिये पढतें हैं कि- हम लोगों को मान्य बनकर सुख से जीएंगे... अथवा वे ऐसा सोचते हैं कि- आगम-शास्त्रों के अध्ययन के द्वारा हम लोगों को मान्य बनेंगें... ऐसा सोचकर कितनेक मनुष्य साधु बनते हैं... अथवा हम शुद्ध साधु समनोज्ञ उग्रविहारी होकर जीएंगे... ऐसा सोचकर संयम जीवन जीने के लिये संसार का त्याग करतें हैं; किंतु मोहनीय कर्मो के उदय से वे तीन गारव के कारण से ज्ञान-दर्शन-चारित्र स्वरूप मोक्षमार्ग में सम्यग् सिद्ध नहि होतें हैं... अर्थात् तीर्थंकर के उपदेश अनुसार संयमानुष्ठान नहि करनेवाले वे विविध प्रकार से काम-विकारों से जलते हुए एवं तीन गारव में आसक्त बने हुए तथा पांच इंद्रियों के विषयों को हि सोचनेवाले वे तीर्थंकर प्रभुने कहे हुए इंद्रियों के प्रणिधान स्वरूप समाधि को प्राप्त नहि कर शकतें... तथा १विदग्ध ऐसे वे गर्विष्ठ साधु परमात्माने कहे हुए पांच महाव्रतों का अच्छी तरह से पालन नहि करतें... इस स्थिति में जब आचार्यादि उन्हें शास्त्रों के माध्यम से हितशिक्षा देते हैं; तब वे कोपायमान होकर कठोर वचन बोलतें हैं... जैसे कि- “हे आचार्य ! आप इन शास्त्रों को जरा भी नहि जानते हो, जैसे मैं सूत्रार्थ गणित या निमित्तों को जानता हुं... वैसा अन्य कौन साधु जानता है ?" इत्यादि... प्रकार से वे गर्व से अंध बने हुए साधु आचार्यादि की अवगणना करतें हैं... अथवा अनुशासन करनेवाले तीर्थंकरादि की “गोशाला" आदि की तरह अवगणना करतें हैं... जैसे कि- कभी कोइ अनुष्ठान में स्खलना (गलती) हुइ हो, तब गुरुजी अनुग्रह (करुणा) बुद्धि से हितशिक्षा दे तब, वे अभिमानी साधु कहते हैं कि- क्या तीर्थंकर प्रभुजी ने इस से भी अधिक हमारा गला काटने का कुछ कहा है क्या ? इत्यादि प्रकार से आलाप याने वार्तालाप से जुठीविद्या के मद से उन्मत्त होकर शास्त्रकारों के भी दूषण बोलतें हैं... अल्प ज्ञान से उन्मत्त बने हुए वे साधु केवल (मात्र) अनुशासन करनेवाले आचार्यादि गुरुजी का हि तिरस्कार नहि करतें; किंतु अन्य साधुओं की भी निंदा-अवगणना करते हैं... यह बात सूत्रकार महर्षि आगे के सूत्र से कहेंगे... V सूत्रसार : आगम में विनय को धर्म का मूल कहा है। निरभिमानता विनय का लक्षण हैं। Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1-6- 4 - 2 (202) 61 अभिमान और विनय का परस्पर मेल नही बैठता है। अभिमानी व्यक्ति गुरु का, आचार्य का एवं वरिष्ठ पुरुषों का आदर-सत्कार एवं विनय नहीं कर सकता है। तथा आगम का ज्ञान प्राप्त करके भी वह ज्ञान के मद में गुरु के उपकार को भी भूल जाता है। वह उपशम का त्याग करके कठोरता को धारण कर लेता है। उपशम का अर्थ है विषय-विकारों को शान्त करना। यह उपशम द्रव्य और भाव से दो प्रकार का है। पानी में मिली हुई मिट्टी को उससे अलग करने के लिए उस में कतक-फल का चूर्ण डालते हैं; या फिटकरी फेरते हैं, जिससे मिट्टी नीचे बैठ जाती है और पानी साफ हो जाता है। यह द्रव्य उपशम है। तथा उदय में आये हुए कषायों को ज्ञान के द्वारा उपशांत करना यह भाव उपशम है। जैसे वायु के प्रबल झोंकों से शान्त पानी में लहरें उठने लगती हैं, उसी तरह मोह के उदय से आत्मा में भी विषमता एवं विषय-विकारों की तरंगें उछल-कूद मचाने लगती हैं तब वह साधु तीर्थंकर, आचार्य आदि महापुरुषों की अवज्ञा करने लगता है। वह साता-सुख; रस एवं ऋद्धि इन तीन गारवों के वश में होकर किसी की भी परवाह नहीं करता है और अपने आपको सब से अधिक योग्य समझने लगता है। वे गर्विष्ठ साधु आगमों का अध्ययन संयम में संभवित दोषों को दूर करके शुद्ध संयम का परिपालन करने की दृष्टि से नहीं, किंतु केवल अपनी प्रतिष्ठा बढ़ाने एवं दूसरों पर अपना प्रभाव डालने के लिए ही सत्राध्ययन करते हैं। अत: ज्यों ही उनका थोडा-सा अध्ययन होता है; त्यों ही वे एकदम मेंडकों की तरह उछल-कूद मचाने लगते हैं। ऐसे अभिमानी एवं अविनीत शिष्य अपने गुरु एवं अन्य वरिष्ठ पुरुषों की अवहेलना करने में भी संकोच नहीं करते हैं। वे गर्विष्ठ साधु अपने गच्छ के अन्य साधुओं के साथ भी शिष्टता का व्यवहार नहीं करते हैं। उन्हें भी वे कठोर शब्द बोलते रहते हैं। इसी बात को बताते हुए सूत्रकार महर्षि सुधर्म स्वामी आगे का सूत्र कहते हैं... सूत्र // 2 // // 202 // 1-6-4-2 सीलमंता उवसंता संखाए रीयमाणा असीला अणुवयमाणस्स बिइया मंदस्स बालया // 202 // II संस्कृत-छाया : शीलवन्त: उपशान्ता: सङ्ख्यया रीयमाणाः, अशीला: अनुवदत: द्वितीया मन्दस्य बालता // 202 // Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 62 // 1-6-4-2(202) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन III सूत्रार्थ : आचार निष्ठ, उपशांत कषाय वाले और ज्ञान पूर्वक संयम में संलग्न साधक को दुराचारी कहना यह उस मन्द बुद्धि एवं बाल अज्ञानी साधक की दूसरी मूर्खता है। IV टीका-अनुवाद : . शील याने अट्ठारह हजार शीलांग रथ, अथवा महाव्रतों की आचरणा, इंद्रियजय, कषायनिग्रह एवं तीन गुप्ति से गुप्त इत्यादि सत्तरह (17) प्रकार के संयमाचरण स्वरूप शीलवाले, तथा कषायों के उपशम से उपशांत... यहां शीलवंत कहने से हि उपशांत पद का अर्थ आ जाता है, फिर भी कषायों के निग्रह की प्रधानता कहने के लिये उपशांत पद का प्रयोग कीया गया है... अतः ऐसी संख्या याने प्रज्ञा से संयमानुष्ठान में पराक्रम करनेवाले वे साधु होतें हैं, उनमें से कोइ साधु यदि विहारादि श्रम या वृद्धत्व या रोगादि कारणों से मंद हो, तब वे गर्व से अंध बने हुए दुर्विदग्ध पार्श्वस्थादि साधु कहते हैं कि- यह साधु कुशील है... अथवा कोइ मिथ्यादृष्टि मनुष्य, उन शीलवंत साधुओं को कुशील कहे; तब वे पसत्यादि भी उनकी हा में हा मीलाते हुए कहे कि- हां ! यह सभी साधु कुशील है... इस प्रकार उन पासत्थाओं की यह दुसरी अज्ञानता है... मूर्खता है... अथवा कोई अन्य मनुष्य कहे कि- यह साधुलोग शीलवंत हैं... यह उपशांत हैं.. इत्यादि... तब वे मूर्ख-अज्ञानी पासत्थादि साधु कहे कि- बहोत सारे पुस्तक-वस्त्र आदि उपकरणवाले इन साधुओं की शीलवत्ता कहां है ? या उपशांतता भी कहां है ? इत्यादि प्रकार से निंदा करनेवाले उन पासत्थाओं की यह दुसरी अज्ञता-मूर्खता है... तथा अन्य कितनेक साधु ऐसे भी होते हैं कि- स्वयं वीर्यांतराय के उदय से संयमाचरण में शिथिल हो, किंतु अन्य संयमी साधुओं की प्रशंसा करते हुए यथावस्थित आचार को कहतें हैं... यह बात अब सूत्रकार महर्षि आगे के सूत्र से कहेंगे... V सूत्रसार : जीवन का अभ्युदय ज्ञान, आचार एवं कषायों की उपशांतता पर आधारित है। ज्ञान एवं आचार संपन्न पुरुष विषय-विकारों पर विजय पा सकते हैं। वे उदय में आये हुह कषायों को भी उपशांत कर सकते हैं। अत: ऐसे साधक ही आत्म विकास कर सकते हैं। किंतु कुछ व्यक्ति संयम-साधना के पथ को स्वीकार करते हैं, परन्तु मोहोदय के करण वे संयम से गिर जाते हैं। वे साधक अपने दोषों को न देखकर शुद्ध संयम में संलग्न अन्य मुमुक्षु साधकों की अवहेलना करते हैं। वे पासत्थादि साधु उन्हें दुराचारी, पाखण्डी, मायाचारी एवं कपटी आदि बताकर उनका तिरस्कार करते हैं। इस तरह वे अज्ञानी साधु संयम का त्याग करके पहली Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1-6-4 - 3 (203) 63 मूर्खता करते हैं और फिर महापुरुषों पर झूठा दोषारोपण करके दूसरी मूर्खता करते है। इस प्रकार वे पतन के महागर्त में जा पड़ते हैं। अतः मुमुक्षु पुरुष को किसी भी संयम-निष्ठ पुरुष की अवहेलना नहीं करनी चाहिए। इस संबन्ध में सूत्रकार महर्षि सुधर्म स्वामी आगे का सूत्र कहते हैं... I सूत्र // 3 // // 203 // 1-6-4-3 नियट्टमाणा वेगे आयारगोयरमाइक्खंति, णाणभट्ठा सणलूसिणो // 203 / / II संस्कृत-छाया : .. निवर्तमानाः वा एके आचारगोचरं आचक्षते। ज्ञानभ्रष्टाः सम्यग्दर्शनध्वंसिनः // 203 // III सूत्रार्थ : कुछ साधक मुनि वेश का त्याग करने पर भी आचार संपन्न मुनियों का आदर करते हैं, वे संयम निष्ठ मुनियों की निन्दा नहीं करते। परन्तु, अज्ञानी पुरुष ज्ञान एवं दर्शन-श्रद्धा दोनों के विध्वंसक होते हैं। IV टीका-अनुवाद : कितनेक साधु विषम कर्मो के उदय से संयम से याने साधुवेश से निवृत्त होने पर भी, अथवा “वा” शब्द से साधुवेश में रहे हुए वे साधु यथावस्थित आचार-विधि कहतें हैं... और वे कहते हैं कि- हम यह आचार पालने में समर्थ नहि हैं... किंतु आचार तो यह हि है... इत्यादि कहनेवाले उन पासत्थादि साधुओं की दुसरी बालता याने अज्ञानता-मूर्खता प्रगट नही होती है... तथा वे ऐसा कभी भी नहिं कहतें कि- "हम जो आचार पालतें है, वह हि संयमाचरण है..." किंतु- दुःषम याने पांचवे आरे के प्रभाव से अब हमे बालता याने मूर्खता को छोडकर मध्यम ऐसा यह आचारानुष्ठान करना कल्याणकर है... क्योंकि- अभी हमारे लिये उत्सर्ग मार्ग का अवसर नहि है... अन्यत्र भी कहा है कि- वह सच्चा सारथी है कि- जो घोडों को न तो अति खींच के रखे या न तो अधिक शिथिल छोडे किंतु घोडे जिस प्रकार मार्ग में आसानी से चले, वह हि प्रकार इष्ट नगर में पहुंचने के लिये योग्य है... किंतु जो साधु, जहां आचार मार्ग में भग्न हुआ है, और वहां से निकलने का मार्ग न जानता हो, तथा प्राप्त साधुवेष को छोडना न चाहता हो, वह हि अपने तुटे-फुटे सातिचार मार्ग को हि श्रेष्ठ कहता है... तथा विवेक की विकलता एवं सम्यग्दर्शन के अभाव में वे Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 64 // 1-6-4 - 4 (204) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन पासत्थादि साधु स्वयं हि आचार मार्ग से भ्रमित हुए हैं, और अन्य को भी शंका उत्पन्न करने के द्वारा संयम-मार्ग से भ्रमित करतें हैं... इत्यादि... तथा अन्य कितनेक साधु बाह्य क्रिया अनुष्ठानवाले होते हुए भी विवेक के अभाव में अपने आपकी आत्मा का विनाश करतें हैं; यह बात आगे के सूत्र से कहते हैं... V सूत्रसार : ज्ञान, दर्शन, चारित्र की समन्वित पंचाचारात्मक संयम-साधना से मोक्ष की प्राप्ति होती है। अतः जीवन विकास के लिए रत्न-त्रय की साधना महत्त्वपूर्ण है। इनमें ज्ञान और दर्शन सहभावी हैं, दोनों एक साथ रहते हैं। सम्यग् ज्ञान के साथ सम्यग् दर्शन एवं सम्यग् दर्शन के साथ सम्यग् ज्ञान अवश्य होगा। परन्तु, ज्ञान और दर्शन के साथ चारित्र हो भी सकता है और कभी नहीं भी होता। किन्तु सम्यक् चारित्र के साथ सम्यग् ज्ञान और दर्शन अवश्य होगा। उनके अभाव में चारित्र सम्यक् नहीं रह सकता है। अतः सम्यग् ज्ञान के अभाव में वह चारित्र, मिथ्या चारित्र ही कहलाएगा। इससे स्पष्ट हो जाता है कि- सम्यग् ज्ञान युक्त चारित्र का ही महत्त्व है। अतः यदि कोई व्यक्ति चारित्र मोहकर्म के उदय से संयम का त्याग भी कर देता है। परन्तु, श्रद्धा-ज्ञान एवं दर्शन का त्याग नहीं करता है, तो वह संयम से गिरने पर भी 'मोक्ष मार्ग से सर्वथा भ्रमित नहीं होता है। वह साधु संयम का त्याग करने पर भी आचार एवं विचार निष्ठ मुनियों की निन्दा एवं अवहेलना नहीं करता है। वह उन्हें आदर की निगाह से देखता है। क्योंकि- उसकी विवेक दृष्टि पूरी तरह से अभी भी स्पष्ट हि है। परन्तु, जो अज्ञानी है अर्थात् ज्ञान एवं दर्शन का भी त्याग कर चुके हैं, वे धोबी के कुत्ते की तरह न घर के रहते हैं और न घाट के। वे अपने अवशिष्ट जीवन में आर्तध्यान के साथ साथ चारित्र-निष्ठ उत्तम पुरुषों की निन्दा करके अन्य लोगों की श्रद्धा-निष्ठा को भी भमित करते हैं। इसी बात को और स्पष्ट करते हुए सूत्रकार महर्षि सुधर्म स्वामी आगे का सूत्र कहतें हैं... I सूत्र // 4 // // 204 // 1-6-4-4 नममाणा वेगे जीवियं विप्परिणामंति, पुट्ठा वेगे नियटॅति जीवियस्सेव कारणा, निक्खंतं पि तेसिं दुण्णिक्खंतं भवइ, बालवयणिज्जा हु ते नरा, पुणो पुणो जाई पकप्पिंति, अहे संभवंता विद्दायमाणा अहमंसीति विउक्कसे उदासीणे फरुसं वयंति, पलियं पकत्थे अदुवा पकत्थे अतहेहिं, तं वा मेहावी जाणिज्जा धम्मं // 204 // Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1-6-4-4 (204) 65 II - संस्कृत-छाया : नमन्तः वा एके जीवितं विपरिणामयन्ति स्पृष्टाः वा एके निवर्तन्ते, जीवतस्यैव कारणात्, निष्क्रान्तमपि तेषां दुनिष्क्रान्तं भवति, बालवचनीयाः खलु ते नराः, पुनः पुनः जाति प्रकल्पयन्ति, अधः सम्भवन्तः विद्रायमाणाः वयं स्मः इति व्युत्कर्षयेयुः, उदासीनाः परुषं वदन्ति, पलितं प्रकथयेत् अन्यथा प्रकथयेत्, अतथ्यैः तं वा मेधावी जानीयात् धर्मम् // 204 // III. सूत्रार्थ : श्री सुधर्मा स्वामी कहते हैं कि- हे जम्बू ! कई एक साधक पुरुष श्रुतज्ञान के लिए आचार्यादि को भाव रहित नमस्कार करते हुए परीषहों से स्पर्शित होने पर केवल असंयमअसंयत जीवन के लिए संयममय जीवन का परित्याग कर देते हैं। अतः उनका संसार से निकलना श्रेष्ठ नहीं कहलाता है। वे बाल अर्थात् प्राकृत जनों द्वारा भी निन्दा के पात्र बनते हैं और चार गति रूप संसार में परिभ्रमण करते हैं। संयम स्थान से नीचे गिरते हुए अथवा अविद्या के वशीभूत होकर वे अपने आप को परम विद्वान् मानते हुए तथा मैं परम शास्त्रज्ञ अथवा बहुश्रुत हूं, इस प्रकार आत्मश्लाघा में प्रवृत्त हुए अभिमानी जीव, मध्यस्थ पुरुषों को भी कठोर वचन कहते हैं एवं निन्दा करते हैं, तथा गुरुजनों की अवहेलना भी करते हैं। अत: बुद्धिमान पुरुष, श्रुत और चारित्र रूप धर्म को एवं वाच्य और अवाच्य भावों को भी भलीभांति जानने का प्रयत्न करे। IV टीका-अनुवाद : श्रुतज्ञानादि प्राप्ति के लिये आचार्यादि गुरुजी को नमस्कार करते हैं, किंतु अशुभ कर्मो के उदयमें वे सभी पासत्थादि साधु अपने आत्मा को संयम जीवन से भ्रमित करतें हैं, अर्थात् वे सच्चारित्र से रहित होकर अपने आत्मा का विनाश करतें हैं... तथा कितनेक साधु अपरिकर्मित मतिवाले होने के कारण से तीन गारव में आसक्त रहते हैं, और परीषह-उपसर्ग आने पर संयम जीवन से निवृत्त होते हैं अर्थात् साधुवेश का विसर्जन करतें हैं, क्योंकि- अब उन्हे असंयमवाला जीवन पसंद है, वे सोचते हैं कि- असंयमाचरण याने गृहस्थ जीवन में हम सुख से रहेंगे... तथा चारित्रभाव से रहित जो साधु वेश में रहे हुए हैं उनकी स्थिति ऐसी होती है कि- साधु होते हुए भी असाधु हैं... क्योंकि- वे सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र स्वरूप मोक्षमार्ग के लिये हि गृहवास से निकले थे; किंतु मोक्षमार्ग में सही ढंग से चल न पाने के कारण से उनका गृहवास का त्याग निष्फल हि रहा... इस विषम स्थिति में रहे हुए वे पासत्थादि Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 66 1 -6-4-4 (204) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन साधु सामान्य मनुष्यों से भी निंदनीय बनते हैं... तथा बार बार जहां जन्म-मरण होता है; ऐसे (अरघट्ट-घटी-यंत्र के न्याय से) संसार-चक्र में घूमते रहते हैं... तथा अध: याने जघन्य संयमस्थान में रहे हुए वे विद्या के अभाव में भी “हम विद्यावाले हैं" इत्यादि प्रकार से अपना उत्कर्ष-अभिमान दिखातें हैं... अपने मुंह से हि अपने खुद की प्रशंसा करते हैं... तथा अत्यल्प श्रुतज्ञान को जानता हुआ वह साधु रसगारव, ऋद्धिगारव एवं साता गारव की बहुलता से कहता है कि- मैं हि यहां बहुश्रुत हुं, यह बात आचार्य भी जानते हैं... और वह श्रुत भी मैंने थोडे हि दिनो में पढा है... इत्यादि प्रकार से वह आत्मश्लाघा करता है... तथा मात्र आत्मश्लाघा से हि संतुष्ट नहि होता, किंतु अन्य साधुओं की निंदा भी करता है... जैसे कि- उदासीन याने राग-द्वेष रहित मध्यस्थ तथा बहुश्रुत एवं उपशांत ऐसे उत्तम साधुजन जब कभी उस साधु की स्खलना (गलती) होने पर कुछ हितशिक्षा देतें हैं; तब वह साधु उन उत्तम साधुओं को कठोर वचन से कहता है कि- पहले आप स्वयं हि कृत्य एवं अकृत्य को जानो, बाद में दुसरों को उपदेश देना... तथा ऐसा भी कहे कि- “तुम भी ऐसे हो, वैसे हो” इत्यादि निंदा करता है... अथवा अन्य प्रकार से कुंट मुंट आदि शब्दों-वचनों से या मुखविकारादि से अतथ्य याने जुठ हि दोषारोपण करता है... इत्यादि... . अब इस सूत्र का उपसंहार करते हुए सूत्रकार महर्षि कहते हैं कि- यह वाच्य है, या अवाच्य... इत्यादि का मुमुक्षु-साधु विवेक करे, एवं वह मर्यादास्थित मेधावी साधु श्रुतधर्म तथा चारित्र धर्म को अच्छी तरह से जाने... अब असभ्यवाद में प्रवृत्त उस बाल याने अज्ञानी पासत्थादि साधु को आचार्यादि गुरुजी जिस प्रकार अनुशासन करतें हैं, हितशिक्षा देतें हैं; वह बात सूत्रकार महर्षि आगे के सूत्र से कहेंगे... v सूत्रसार : यह हम देख चुके हैं कि- ज्ञान प्राप्ति के लिए विनय की आवश्यकता है। परन्तु, उसके साथ निष्ठा-श्रद्धा का होना भी आवश्यक है। कुछ साधक ज्ञान की प्राप्ति के लिए आचार्य एवं गुरू को यथाविधि वन्दन-नमस्कार करते हैं। परन्तु, गुरू के प्रति श्रद्धा भाव नहीं रखते। अत: उनका विनय या वन्दन केवल दिखावा मात्र होता है; परिणाम स्वरूप वे अपनी ज्ञान साधना में सफल नहीं होते हैं। उनके हृदय में श्रद्धा नहीं होने के कारण उनका मन साधना में नहीं लगता है। इस तरह वे संयम से भ्रमित हो जाते हैं। और अपने दोषों को छुपाने के लिए महापुरुषों की निन्दा करके पापकर्म का बन्ध करते हैं और जन्म-मरण के प्रवाह को बढ़ाते हैं। वे अज्ञानी व्यक्ति अपने आपको सब से श्रेष्ठ समझते हैं। वे अपने आप को सब Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1-6-4 - 5 (205) 67 में अधिक ज्ञानी, ईमानदार एवं चरित्रवान समझते हैं। वे आचार निष्ठ महापुरुषों की सदा आलोचना करते रहते हैं। उनके जीवन में से दोषों का अन्वेषण करने में ही संलग्न रहते हैं। सदा गुरुजनों पर व्यंग करते हैं तथा शारीरिक इशारों के द्वारा उनका उपहास करते हैं। इस प्रकार महापुरुषों की निन्दा करके वे संसार में परिभ्रमण करते रहते हैं। __ अतः साधक को ऐसे पासत्थाओं का त्याग करके श्रद्धापूर्वक ज्ञान एवं क्रिया तथा आचार एवं विचार की साधना करनी चाहिए। आचार एवं विचार से संपन्न साधक ही आत्मा का विकास कर सकता है। ज्ञान से रहित केवल आचार का पालन करने वाले तथा क्रियाकाण्ड से शून्य केवल (मात्र) ज्ञान की साधना में संलग्न साधक यथार्थ रूप से आत्मा का विकास नहीं कर सकते हैं। ज्ञान और क्रिया की समन्वित साधना के अभाव में साधक भ्रमित हो सकता है और वह भगवदाज्ञा के विपरीत चलकर संसार को भी बढ़ा सकता है। इसी बात को दिखाते हुए सूत्रकार महर्षि सुधर्म स्वामी आगे का सूत्र कहतें हैं... I सूत्र // 5 // // 205 // 1-6-4-5 अहम्मट्ठी तुमंसी नाम बाले आरंभट्ठी अनुवयमाणे हण पाणे घायमाणे हणओ यावि समणुजाणमांणे, घोरे धम्मे, उदीरिए उवेहए णं अणाणाए, एस विसण्णे वियद्दे वियाहिए त्तिबेमि // 205 // .. // संस्कृत-छाया : अधर्मार्थी त्वं असि नाम बाल: आरम्भार्थी अनुवदन्-जहि प्राणिनः, घातयन् प्रतच अपि समनुजानासि, घोरः धर्मः उदीरितः उपेक्षते अनाज्ञया, एषः विषण्णः वितर्दः व्याख्यातः इति ब्रवीमि // 205 // // सूत्रार्थ : __संयम से पतित होते हुए शिष्य के प्रति गुरु कहते हैं- हे शिष्य ! तू अधर्मार्थी है, बाल है और आरम्भ में प्रवृत्त हो रहा है। हिंसक पुरुषों के वचनों का अनुसरण करके तू भी कहता है कि- प्राणियों का अवहनन-घात करो और तू दूसरों से हनन करवाता है तथा हिंसा करने वालों को अच्छा भी समझता है, अत: तू बाल है। आश्रवों का निरोधक होने के कारण से ही भगवान ने धर्म को घोर-दुरनुचर कहा है। किन्तु, तू उस धर्म की उपेक्षा करता है, भगवान की आज्ञा के विरुद्ध आचरण करने से तू स्वेच्छाचारी बन गया है। इन पूर्वोक्त कारणों से तथा काम-भोगों में आसक्त और संयम से प्रतिकूल आचरण करने के कारण तू हिंसक कहा गया है। इस प्रकार मैं कहता हूं। Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 68 1 -6-4-5(205) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन - IV टीका-अनुवाद : हे श्रमण ! आप अधर्म की कामना करते हो; अतः हम आपको हितशिक्षा देते हैं, अनुशासन करतें हैं... जैसे कि- आप अधर्म के अर्थी हो, अतः आप बाल (अज्ञानी) हो, एवं बाल हो; इस कारण से हि आप सावद्यारंभ याने पापाचरण की कामना करते हो... और सावद्यारंभ के अर्थी हो, इस कारण से आप प्राणीओं के मर्दन याने वध की बातें करते हो... जैसे कि- इन प्राणी-जीवों को मारो... और अन्य लोग यदि जीवों को मारतें हो, तब आप उनकी अनुमोदना करते हो... तथा तीन गारव में आपको आसक्ति होने के कारण से आप पचन-पाचनादि याने रसोइ बनाने की क्रिया में प्रवृत्त लोगों के समक्ष कहते हो कि- “इस में क्या दोष है ?" क्योंकि- शरीर के सिवा धर्मानुष्ठान कर नहि शकतें, अत: इस कारण से धर्माचरण के आधारभूत इस शरीर का यत्न से पालन-रक्षण करना चाहिये... इत्यादि... अन्यत्र भी कहा है कि- धर्माचरण करनेवाले शरीर का प्रयत्न के साथ रक्षण करना चाहिये... क्योंकि- जिस प्रकार बीज से अंकुर उत्पन्न होता है; वैसे हि शरीर से धर्म होता है... इत्यादि... ___अब गुरुजी कहते हैं कि- हे श्रमण ! यह धर्म घोर याने दुर्गम है, अर्थात् सभी आश्रवों के निरोध से धर्म होता है; अत: धर्म दुरनुचर याने दुर्लभ है... यह बात तीर्थंकर एवं गणधर आदिने कही है... इत्यादि ऐसे अशुभ अध्यवसाय (विचार) वाले होकर यदि तुम धर्मानुष्ठान की उपेक्षा करते हो और तीर्थंकर एवं गणधरादि की आज्ञा का उल्लंघन करके अपनी इच्छानुसार चलते हो, यह ठीक नहि है... यह यहां कहे गये स्वरूपवाला वह अधर्मार्थी बाल एवं आरंभार्थी साधु प्राणीओं का वध करता है, अन्य के द्वारा प्राणीओं का वध करवाता है, तथा प्राणीओं का वध करनेवालों की अनुमोदना करता है तथा धर्मानुष्ठान की उपेक्षा करनेवाला वह साधु काम-भोगादि में खेद पाता है, और विविध प्रकार से प्राणीओं की हिंसा करता हुआ, संयम से सर्वथा प्रतिकूल है अर्थात् संयमाचरण के लिये योग्य नहि है... इत्यादि यह मैंने जो कुछ यहां कहा उसको हे श्रमण ! आप जानो. समझो... आप समझदार हो. अतः मैं पनः पनः कहता है कि- मेधावी ऐसे आप धर्म को अच्छी तरह से जानो और संयमाचरण का आदर करो... यह बात सूत्रकार महर्षि आगे के सूत्र से विशेष प्रकार से कहेंगे... v सूत्रसार : जब साधक साधना पथ से एक बार फिसलने लगता है, तो बीच में उचित सहयोग न मिलने पर या मोहकर्म के उदय के कारण फिर वह पुनः पुनः फिसलता हि जाता है। उसका पतन यहां तक हो जाता है कि- वह अन्य हिंसक प्राणियों की तरह आरम्भ-समारम्भ में संलग्न यह भ Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1 - 6 - 4 - 6 (206) 69 किमा रहने लगता है। अपनी भोगतृष्णा को पूरा करने के लिए वह हिंसा, झूठ आदि दोषों का सेवन करने लगता है। वह विषय-कषाय में आसक्त होकर धर्म से सर्वथा विमुख हो जाता है और इससे पाप कर्म का बन्ध करके संसार में परिभ्रमण करता है। ___गुरुजी अपने शिष्य को जागृत करते हुए कहते हैं कि- हे आर्य ! तुझे संयम पथ से भ्रमित व्यक्ति के दुःखद एवं अनिष्टकर परिणाम को जानकर सदा संयम साधना में संलग्न रहना चाहिए। संयम पथ से भ्रमित व्यक्ति को अधर्मी, स्वेच्छाचारी तथा भगवान की आज्ञा से बाहर एवं संसार में परिभ्रमण करने वाला कहा गया है। अतः मुमुक्षु पुरुष को सदा शुद्ध संयम का परिपालन करना चाहिए। ___ गुरुजी द्वारा दी जाने वाली विशेष शिक्षा का उल्लेख करते हुए सूत्रकार महर्षि सुधर्म स्वामी आगे का सूत्र कहते हैं... I सूत्र // 6 // // 206 // 1-6-4-6 किमणेण भो ! जणेण करिस्सामित्ति मण्णमाणे एवं एगे वइत्ता मायरं पियरं हिच्चा नायओ य परिग्गहं वीरायमाणा समुट्ठाए अविहिंसा सुव्वया दंता पस्स दीणे अप्पइए पडिवयंमाणे वसट्टा कायरा जणा लूसगा भवंति, अहगमेगेसिं सिलोए पावए भवइ, से समणो भवित्ता विन्भंते पासहेगे समण्णागएहिं सह असमण्णागए नममाणेहिं अनममाणे विरएहिं अविरए दविएहिं अदविए अभिसमिच्चा पंडिए मेहावी निट्ठिय? वीरे आगमेणं सया परक्कमिज्जासि त्तिबेमि // 206 // II संस्कृत-छाया : किं अनेन भोः ! जनेन करिष्यामि इति मन्यमानः, एवं एके उदित्वा मातरं पितरं हित्वा ज्ञातीन्ः च परिग्रहं वीरायमाणाः समुत्थाय अविहिंसाः सुव्रताः दान्ताः, पश्य दीनान् उत्पतितान् प्रतिपततः, वशार्ताः कातराः जनाः लूषकाः भवन्ति, अहं एकेषां श्लोकः पापकः भवति, सः श्रमणः भूत्वा विभ्रान्तः विभ्रान्तः, पश्यत एके समन्वागतैः सह असमन्वागताः नमद्भिः सह अनमन्तः, विरतैः सह अविरताः द्रव्यभूतैः सह अद्रव्यभूताः, अभिसमेत्य पण्डित: मेधावी निष्ठितार्थः वीरः आगमेन सदा परिक्रामयः इति ब्रवीमि // 206 // III सूत्रार्थ : सुधर्मा स्वामी कहते हैं कि- हे जम्बू ! कई पुरुष प्रथम संयम मार्ग की आराधना में सम्यक् प्रकार से उद्यत होकर पीछे से किस प्रकार उसका परित्याग करके प्राणियों के विनाश Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 70 1 -6-4-6 (206).y श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन में प्रवृत्त हो जाते हैं। वह इस प्रकार कहता है कि- हे लोगो ! मुझे इन संबन्धि जनों से क्या प्रयोजन है ? ऐसा मानकर वह दीक्षित होता है, माता-पिता और सम्बन्धि जनों तथा अन्य प्रकार के परिग्रह को त्यागकर वीर पुरुष की भांति आचरण करते हुए सम्यक् प्रकार से संयमानुष्ठान में प्रवृत्त होकर अहिंसक वृत्ति से व्रतों का परिपालन करने और इन्द्रियों को दमन करने में सदा सावधान रहता है। परन्तु, पीछे से किसी पाप के उदय में दीक्षा को छोड़कर, संयम को त्यागकर वह दीनता को धारण कर लेता है। अपने त्यागे हुए विषय भोगों को फिर से ग्रहण करने लगता है। गुरु कहते हैं कि- हे शिष्य ! तू ऐसे पतित पुरुषों को देख, कि जो इन्द्रियजन्य विषय और कषायों के वश में होकर आर्त दुःखी बन गए हैं। वे परीषहों को सहन करने में कायर होने से व्रतों के विध्वंसक बन रहे हैं। वे श्रमण होकर तथा विरत एवं त्यागी बनकर भी यश के स्थान में अपयश को ही प्राप्त करते हैं। वे विनयशील साधकों के साथ रहकर भी अविनयी, विरतों के सहवास में रहकर भी अविरति, उद्यत विहारीयों के साथ रहकर भी शिथिल विहारी बन जाते हैं; एवं मुक्ति गमन योग्य व्यक्तियों के साथ बसकर भी वे मुक्तिगमन के योग्य नहीं रहते हैं। अत: मेधावी-विचारशील साधु इनको अच्छी तरह से देख कर वीर पुरुष की भांति विषय भोगों से सर्वथा विमुख होकर आगम के अनुरूप क्रियानुष्ठान-साधना का पालन करने में सदा संलग्न रहे। इस प्रकार में कहता हूं। IV टीका-अनुवाद : कितनेक मनुष्य विदितवेद्य याने सम्यग्दर्शन के साथ वीर की तरह पराक्रम करते हुए सम्यग् उत्थान के द्वारा संयम को स्वीकार करके पुनः प्रमाद वश होकर जीवों का वध करनेवाले होतें हैं... वह इस प्रकार- कोइक मनुष्य धर्मकथा सुनकर ऐसा सोचता है कि- स्वार्थ में परायण एवं परमार्थ से अनर्थ रूप ऐसे माता-पिता पुत्र एवं स्त्री आदि से क्या ? क्योंकि- वे लोग रोग एवं मरण आदि को निवारण करने में समर्थ तो नहि है, अत: इनका त्याग करके मैं प्रव्रज्या ग्रहण करूं... इत्यादि सोचनेवाले मनुष्य को अन्य कोइ मनुष्य कहे कि- सिकता याने रेत के कवल के समान इस चारित्र से भी आपको क्या लाभ होगा ? अतः अदृष्ट याने भाग्य से प्राप्त भोजन आदि को अभी भुगतो... इत्यादि सुनकर पुन: वह विरक्त मनुष्य कहता है किमुझे इन भोजन आदि से भी क्या प्रयोजन है ? क्योंकि- संसार में परिभ्रमण करते हुए मैंने यह भोजनादि अनेक बार भुगते है, तो भी मुझे तृप्ति तो हुइ नहि है... अत: इस जन्म में इन भोजन आदि को भुगतने से क्या मुझे तृप्ति होगी ? इत्यादि प्रकार से सोचनेवाले कितनेक मनुष्य संसार के अनित्य-अशरण स्वभाव को जानकर माता-पिता आदि की अनुमति लेकर तथा प्रथम के एवं बाद के संबंधि ज्ञातिजनो का त्याग करके, और धन, धान्य, हिरण्य, सुवर्ण, दास, दासी, गाय, बैल, हाथी, घोडे आदि परिग्रह का त्याग करके वीर पुरुष की तरह पराक्रम करता हुआ सम्यक् प्रकार से संयमानुष्ठान के द्वारा संसार का त्याग करके विविध प्रकार से Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका #1-6-4-6 (206) 71 होनेवाली जीव हिंसा से विरत होकर पांच महाव्रतों का स्वीकार करते हैं तथा पांचो इंद्रियों को पंचाचार के द्वारा संयमित करतें हैं... यहां नागार्जुनीय-मतवाले सूत्र इस प्रकार कहतें हैं कि- हम अणगार श्रमण बनेंगे... अकिंचन एवं पुत्र परिवार की ममता छोडकर अहिंसक बनेंगे... पांच महाव्रत, इंद्रियों का दमन तथा परदत्तभोजी होकर पाप कर्म नहि करेंगे... इत्यादि सोच-विचार करके संसार का परित्याग कर संयमी साधु बनतें हैं... किंतु हे शिष्य ! देखो ! बाद में जब अशुभ कर्म का उदय होता है; तब वे साधुजन शृगाल के समान दीनता को धारण करतें हैं; एवं त्याग कीये हुए कामभोग के सुखों की कामना (इच्छा) करते हैं... तथा संयमाचरण रूप पर्वत पर चढने के बाद पापकर्मो के उदय से संसार रूप खाइ (गर्ता) में गिर पडतें हैं... और वशा याने स्त्री अर्थात् पांचो इंद्रियों के विषयों की आशंसा में कषायों से पीडित होते हैं... इस स्थिति में वे अनेक प्रकार के अशुभ कर्मो का बंध करते हैं... अन्यत्र भी कहा है कि- हे भगवन् ! श्रोत्रंद्रिय के विषयों से पीडित प्राणी कितनी कर्म प्रकृतियां बांधते है ? हे गौतम ! आयुष्य को छोडकर सात कर्म प्रकृतियां बांधतें हैं; यावत् इस अपार संसार में परिभ्रमणा करते हैं... हे भगवन् ! क्रोध परवंश हुआ प्राणी कितने कर्म बांधतें हैं ? हे गौतम ! क्रोध करनेवाले प्राणी भी आयुष्य को छोडकर सात कर्म बांधतें हैं, यावत् इस संसार में परिभ्रमणा करते हैं... इसी प्रकार मान आदि के विषय में भी समझीयेगा... तथा परीषह एवं उपसर्ग आने पर कातर याने डरपोक होतें हैं, भयभ्रांत होतें हैं... अथवा कातर याने विषय भोगों के लोलुप होतें हैं... इस परिस्थिति में वे साधु व्रतों को तोडकर महाव्रतों का विनाश करतें हैं, और कहतें हैं कि- इस काल में कौन ऐसा है; जो अट्ठारह हजार शीलांग रथ को वहन कर शके ? इत्यादि सोचकर द्रव्यलिंग याने साधुवेश एवं भावलिंग याने व्रतपरिणाम का त्याग करके जीवहिंसा स्वरूप विराधना के द्वारा विराधक होते हैं... - अब संयमाचरण का त्याग करने के बाद भग्न प्रतिज्ञावाले कितनेक मनुष्य थोडे समय में या अंतर्मुहूर्त में मरण पाते हैं, और कितनेक मनुष्य निंदा के पात्र बनतें हैं... जैसे किदेखो ! स्मशान के लकडे के समान यह मनुष्य भोगों का अभिलाषी होता हुआ जा रहा है... यहां बैठा हुआ है इत्यादि... अतः यह विश्वास के पात्र नहि है... इसीलिये कोइ भी इसका विश्वास न करें; इत्यादि प्रकार से अपने पक्ष के लोगों से या अन्य पक्ष के लोगों से अपयश का अपकीर्ति का पात्र बनता है... अन्यत्र भी कहा है कि- परलोक के विरूद्ध आचरण करनेवालों को दूरसे हि त्याग करें... क्योंकि- जो मनुष्य अपने आपको नहि संभाल शकता वह दुसरों का हित कैसे करेगा ? इत्यादि... अथवा सूत्र के शब्दों से हि कहतें हैं कि- देखो ! यह मनुष्य श्रमण-साधु होने के Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 72 1 -6-4-6 (206) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन बाद विविध प्रकार के कर्मो के वश होकर भग्न हुआ है... देखिये ! कर्मो का सामर्थ्य कैसा है ? इत्यादि... तथा कितनेक साधु अच्छे संयमाचरणवाले संयमी साधुओं के साथ रहते हुए भी शिथिलविहारी प्रमादाचरणवाले होतें हैं... तथा संयमानुष्ठान से मोक्षमार्ग में चलनेवाले साधुओं के साथ रहने पर भी निर्लज्जता के कारण से पापाचरणवाले होते हैं... तथा विरतिवालों के साथ रहने पर भी अविरत होते हैं... तथा द्रव्यभूत याने योग्य-अच्छे साधुओं के साथ रहने पर भी पाप के कलंक से कलंकित होते हैं... इत्यादि... अत: श्री सुधर्मास्वामीजी अपने अंतेवासी शिष्य श्री जंबूस्वामीजी से कहते हैं कि- कर्मो की ऐसी विषम स्थिति को जानकर आप ! ज्ञाततत्त्व पंडित बनेंगे... मर्यादा में रहे हुए मेधावी बनेंगे... और विषयभोग की पिपासा का त्याग करके निष्ठितार्थ याने सच्चे संयमी साध बनेंगे... और वीर याने कर्मो को विनाश करने में समर्थ होकर आगम याने सर्वज्ञ प्रभु श्री महावीर स्वामजी के उपदेश अनुसार सदाहमेशा मोक्षमार्ग में पराक्रम कीजीयेगा... “इति..." अधिकार समाप्ति का सूचक है... और “ब्रवीमि'' पूर्ववत् जानीयेगा... V सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में साधना की पूर्व एवं उत्तर स्थिति का एक चित्र उपस्थित किया है। इसमें बताया गया है कि- कुछ साधक त्याग-विराग पूर्वक घर का एवं विषयभोगों का त्याग करने के लिए उद्यत होते हैं। परिजन उन्हें घर में रोकने का प्रयत्न करते हैं। परन्तु, वे उनके प्रलोभनों में नहीं आते और पारिवारिक बन्धन को तोड़कर संयम स्वीकार कर लेते हैं और निष्ठापूर्वक संयम का पालन करते हैं। वे संयम में किसी प्रकार का भी दोष नहीं लगाते हैं। ___ परन्तु, मोह कर्म के उदय से वे जब विषय-भोगों में आसक्त होकर संयम का त्याग कर देते हैं। वर्षों की घोर तपश्चर्या को क्षणभर में धूल में मिला देते हैं। सिंह की तरह गर्जने वाले वे गीदड़ की तरह कायर बन जाते हैं। भोगों में अति आसक्त रहने के कारण वे जल्दी ही मर जाते हैं। उन में से कुछ व्यक्ति दीर्घ आयुष्यबल से जीवित भी रहते हैं, परन्तु पथ भ्रमित हो जाने के कारण लोगों में उनका मान-सन्मान नहीं रहता है। जहां जाते हैं; वहां निन्दा एवं तिरस्कार ही पाते हैं। इस तरह वे वर्तमान एवं भविष्य के या इस लोक एवं परलोक दोनों लोक के जीवन को बिगाड़ देते हैं। अतः उनके दुष्परिणाम को देखकर साधक को सदा विषय-वासना से दूर रहना चाहिए। ज्ञान एवं आचार की साधना में सदा संलग्न रहना चाहिए। जो साधक सदा-सर्वदा विवेक पूर्वक संयम का परिपालन करता है और आचार एवं विचार को शुद्ध रखता है, वह अपनी आत्मा का विकास करता हुआ एक दिन निष्कर्म बन जाता है। त्तिबेमि की व्याख्या पूर्ववत् समझें। Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1 - 6 - 4 - 6 (206) 73 // इति षष्ठाध्ययने चतुर्थः उद्देशकः समाप्तः // 卐 :: प्रशस्ति : : मालव (मध्य प्रदेश) प्रांतके सिद्धाचल तीर्थ तुल्य शत्रुजयावतार श्री मोहनखेडा तीर्थमंडन श्री ऋषभदेव जिनेश्वर के सानिध्यमें एवं श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरिजी, श्रीमद् यतीन्द्रसूरिजी, एवं श्री विद्याचंद्रसूरिजी के समाधि मंदिर की शीतल छत्र छायामें शासननायक चौबीसवे तीर्थंकर परमात्मा श्री वर्धमान स्वामीजी की पाट-परंपरामें सौधर्म बृहत् तपागच्छ संस्थापक अभिधान राजेन्द्र कोष निर्माता भट्टारकाचार्य श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी म. के शिष्यरत्न विद्वद्वरेण्य व्याख्यान वाचस्पति अभिधान राजेन्द्रकोषके संपादक श्रीमद् विजय यतीन्द्रसूरीश्वरजी म. के शिष्यरत्न, दिव्यकृपादृष्टिपात्र, मालवरत्न, आगम मर्मज्ञ, श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम प्रकाशन के लिये राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी हिंदी टीका के लेखक मुनिप्रवर ज्योतिषाचार्य श्री जयप्रभविजयजी म. “श्रमण' के द्वारा लिखित एवं पंडितवर्य लीलाधरात्मज रमेशचंद्र हरिया के द्वारा संपादित सटीक आचारांग सूत्र के भावानुवाद स्वरूप श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी हिंदी टीका-ग्रंथ के अध्ययनसे विश्वके सभी जीव पंचाचारकी दिव्य सुवासको प्राप्त करके परमपदकी पात्रता को प्राप्त करें... यही मंगल भावना के साथ... "शिवमस्तु सर्वजगतः' - वीर निर्वाण सं. 2528. . राजेन्द्र सं. 96. विक्रम सं. 2058. Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 74 1 -6-5-1(207) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन % 3D श्रुतस्कंध - 1 अध्ययन - 6 उद्देशक - 5 उपसर्ग एवं सन्मान विधुननम् चौथा उद्देशक कहा, अब पांचवे उद्देशक का प्रारंभ करतें हैं... यहां परस्पर यह संबंध है कि- चौथे उद्देशक में कर्मो के विधूनन के लिये तीन गौरव का विधूनन कहा, किंतु वह उपसर्ग के विधूनन के सिवा संपूर्णता को नहि प्राप्त करता, और सत्कार पुरस्कार स्वरूप सन्मान के विधूनन के सिवा भी नहि... अतः तीन गौरव के विधूनन (त्याग) की संपूर्णता के लिये उपसर्ग एवं सन्मान के विधूनन के लिये इस पांचवे उद्देशक का प्रारंभ करतें हैं, इस संबंध से आये हुए पांचवे उद्देशक का यह प्रथम सूत्र है... अतः इस सूत्र को अस्खलितादि गुण सहित हि पढीयेगा... I सूत्र // 1 // // 207 // 1-6-5-1 से गिहेसु वा गिहतरेसु वा गामेसु वा गामंतरेसु वा नगरेसु वा नगरंतरेसु वा जणवयेसु वा जणवयंतरेसु वा गामनयरंतरे वा गामजणवयंतरे वा नगरजणवयंतरे वा संतेगइया जणा लूसगा भवंति, अदुवा फासा फुसंति, ते फासे पुढे वीसे अहियासए, ओह समियदंसणे, दयं लोगस्स जाणित्ता, पाईणं पडीणं दाहिणं उदीणं आइक्खे, विभए किट्टे वेयवी, से उट्ठिएसु वा अणुट्ठिएसु वा सुस्सूसमाणेसु वा पवेयए संतिं विरई उवसमं निव्वाणं सोयं अज्जवियं मद्दवियं लापवियं अणइवत्तिय सव्वेसिं पाणाणं सव्वेसिं भूयाणं सव्वेसिं जीवाणं सव्वेसिं सत्ताणं अणुवीय भिक्खू धम्ममाइक्खिज्जा // 207 // // संस्कृत-छाया : सः गृहेषु वा गृहान्तरेषु वा, ग्रामेषु वा ग्रामान्तरेषु वा, नगरेषु वा नगरान्तरेषु वा जनपदेषु वा जनपदान्तरेषु वा ग्रामनगरान्तरे वा ग्रामजनपदान्तरे वा नगरजनपदान्तरे वा सन्ति एके जनाः लूषकाः भवन्ति, अथवा स्पर्शान् स्पृशन्ति, तान् स्पर्शान् स्पृष्टः वीरः अधिसहेत, ओजः समितदर्शनः दयां लोकस्य ज्ञात्वा प्राचीनं वा प्रतीचीनं वा दक्षिणं वा उदीचीनं वा आचक्षीत। विभजेत् कीर्तयेत् वेदवित्, स: उत्थितेषु वा अनुत्थितेषु वा शुश्रूषमाणेषु प्रवेदयेत्, शान्तिं विरतिं उपशमं निर्वाणं शौचं आर्जवं मार्दवं लाघवं. अनतिपत्य सर्वेषां प्राणिनां सर्वेषां भूतानां सर्वेषां जीवानां सर्वेषां सत्त्वानां अनुविचिन्त्य भिक्षुः धर्म आचक्षीत // 207 // Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1-6-5-1(207) 75 II सूत्रार्थ : वह आगम का ज्ञाता भिक्षु, गृहों में, गृहान्तरों में, ग्रामों में ग्रामान्तरों में, नगरों में, नगरान्तरों में, देशों में, देशान्तरों में, ग्रामों और नगरान्तरों में, ग्रामों और जनपदों में, नगरों और जनपदान्तरों में बहुत से लोग हिंसक-उपद्रव करने वाले होते हैं। अत: धीर पुरुष उनके द्वारा दिए गए दु:ख एवं कष्ट विशेष को तथा परीषहों के स्पर्श से स्पृष्ट हुए संवेदन को सहन करे और राग-द्वेष से रहित एकाकी होकर, समभाव पूर्वक केवल वीतराग भाव में विचरण करता हुआ, प्राणी जगत पर दयाभाव लाकर, पूर्व, पश्चिम, दक्षिण और उत्तर आदि सभी दिशाओं में धर्म कथा कहे, धर्म का विभाग करके समझाए। आगम का ज्ञाता मुनि सभी को व्रतों का फल सुनाए। जो जीव संयम में सावधान है-पुरुषार्थ कर रहे हैं, उनको तथा जो संयम में पुरुषार्थ नहीं कर रहे हैं; परन्तु धर्म सुनने की इच्छा रखते हैं, उनको भी धर्म कथा सुनावे। आगमों में वर्णित क्षमा, विरति, उपशम, निवृत्ति, शौच, ऋजुता, मार्दव और लघुता आदि धर्म के लक्षणों को वह विचार पूर्वक एवं स्व-पर कल्याण के लिए सर्व प्रणियों, सर्वं भूतों, सर्व सत्त्वों और सर्व जीवों को सुनाए। IV. 'टीका-अनुवाद : वह पंडित मेधावी निष्ठितार्थ वीर एवं सदैव सर्वज्ञ प्रणीत उपदेशानुसार आचारवाला तथा तीन गारव से विरक्त निर्मम निष्किंचन निराशंस एवं एकाकिविहार प्रतिमा के अभिग्रह से ग्रामानुग्राम विहार करनेवाला साधु क्षुद्र तिर्यंच (पशु-पक्षी) मनुष्य एवं देवों ने कीये हुए उपसर्ग तथा परीषहों से प्राप्त कष्ट दायक स्पर्शों को कर्मनिर्जरा की कामनावाला होकर समभाव से सहन करे... किंतु ऐसे उपसर्ग एवं परीषह के कष्ट साधु को किस परिस्थिति में होतें हैं ? इस प्रश्न के उत्तर में कहते हैं कि- आहारादि के लिये विभिन्न प्रकार के गृहस्थों के घरों में प्रवेश करने पर, या दो घर के बीच में... तथा बुद्धि आदि गुणो का कवल करे वह ग्राम याने गांव अर्थात् गांव में प्रवेश करने पर, या दो गांव के बीच में... तथा जहां कर (टेक्ष) न होवे वह नकर याने नगर... अर्थात् नगर में या दो नगर के बीच... तथा जन याने लोक और पद याने निवास स्थान... ऐसे अवंती आदि जनपद में या दो जनपद के बीच मार्ग में... साधुओं के विहार के योग्य साढे पच्चीस जनपद देश हैं; वे अंग बंग सौराष्ट्र, अवंती इत्यादि... तथा गांव एवं नगर के बीच... गांव एवं जनपद के बीच... नगर एवं जनपद (देश) के बीच... तथा उद्यान याने बगीचे में या दो उद्यान के बीच... तथा विहारभूमी याने स्वाध्याय भूमी में या स्वाध्याय भूमी की और जाते हुए मार्ग में... इस प्रकार विभिन्न प्रकार के क्षेत्र में रहे हुए, कायोत्सर्गादि करते हुए उन संयमी, साधु, श्रमणों को कोइक मनुष्य कषाय से कलुषित होकर मारे, ताडन करे... Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 76 1 -6-5-1(207) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन % 3D यहां साधुओं को नारकों से उपसर्ग होना असंभव है तथा तिर्यंच एवं देवों के द्वारा भी कभी कभी हि उपसर्ग हो, अतः साधुओं को मनुष्यों के द्वारा हि अनुकूल एवं प्रतिकूल उपसर्ग की अधिकतर संभावना होने से यहां सूत्र में “जन" याने मनुष्य शब्द का प्रयोग कीया गया है... अथवा जो उत्पन्न होते हैं; जन्म धारण करते हैं वे जन... और वे तिर्यंच मनुष्य एवं देव हि “जन' शब्द से अभिहित है... और वे “जन" अनुकूल एवं प्रतिकूल में से कोइ एक या दोनों प्रकार के उपसर्ग के द्वारा साधुओं को उपसर्ग करे... देव के द्वारा होनेवाले उपसर्ग के चार प्रकार है... जैसे कि- 1. हास्य से, 2. द्वेष से, 3. विमर्श याने परीक्षा के लिये, और 4. शेष अन्य विभिन्न प्रकार से... 1. . हास्य से उपसर्ग... जैसे कि- कोइ क्रीडाप्रिय व्यंतर देव मात्र हास्य-विनोद के लिये हि विविध प्रकार के उपसर्ग करतें हैं... यथा- भिक्षा के लिये गांव में गये हुए क्षुल्लक / ' साधुओं को क्रीडाप्रियता से उपसर्ग कीया... प्रद्वेष से - जैसे कि- माघ मास की रात्रि में कोइ व्यंतरी देवी तापसी का रूप धारण करके जटा में शीतल जल भरकर साधु के उपर छीटके... 3. विमर्श से... जैसे कि- “यह साधु दृढधर्मी है; या नहि" इत्यादि परीक्षा के लिये अनुकूल या प्रतिकूल उपसर्ग करे... यथा कोइक संविग्न साधु के संयमाचरण से प्रभावित हुइ कोइ व्यंतरी देवी स्त्रीवेश को धारण करके शून्य देवकुलिका में ठहरे हुए साधु को अनुकूल उपसर्ग करे... और जब देखे कि- यह दृढ धर्मी है... तब प्रगट होकर वंदन करे... इत्यादि... पृथग्विमात्रा से... जैसे कि- उपर कहे गये हास्यादि तीन में से कोई एक प्रकार से उपसर्ग का प्रारंभ करके अन्य प्रकार के उपसर्ग से पूर्ण करे... यथा- भगवान श्री महावीर प्रभु को छद्मस्थ काल में संगमक-देव ने विर्मश से प्रारंभ कीये हुए उपसर्ग प्रद्वेष के साथ उपसर्ग पूर्ण कीये... इत्यादि... तथा मनुष्यों के द्वारा भी चार प्रकार से उपसर्ग होता है... 1. हास्य, 2. प्रद्वेष, 3. विमर्श, और 4. कुशील प्रतिसेवन... 1. हास्य से... देवसेना नाम की गणिका, जब हास्य से क्षुल्लक मुनी को उपसर्ग करती थी तब क्षुल्लक साधु ने दंडे से उसको मारा, और जब वह राजा के पास फरीयाद करने गइ तब क्षुल्लक साधु ने श्रीगृह के उदाहरण से राजा को प्रतिबोधित कीया... इत्यादि... 2. प्रद्वेष से... गजसुकुमाल मुनी को श्वशुर सोमभूति (सोमिल ब्राह्मण) ने माथे पे मिट्टी की पाली बनाकर अंगारे रखे... Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका // 1-6-5-1(207) 77 3. विमर्श से... चाणक्य से प्रेरित चंद्रगुप्त राजा ने धर्म परीक्षा के लिये अंत:पुर की रानिओं के द्वारा धर्म-उपदेश दे रहे साधु को उपसर्ग करवाया; तब साधु ने उन रानिओं को दंडे से ताडन कीया और श्रीगृह उदाहरण से राजा चंद्रगुप्त को प्रतिबोधित कीया... 4. कुशील प्रतिसेवन... किसी गृहस्थ के घर में कोइ दिन किसी साधु ने उतारा (निवास) कीया तब ईर्यालु उस गृहस्थ ने प्रोषितभर्तृका याने जिनके पति परदेश गये है; ऐसी चार स्त्रीओं के द्वारा संपूर्ण रात्रि में एक एक प्रहर में एक एक स्त्री को भेजने के द्वारा अनुकूल उपसर्ग करवाया... तब वह साधु स्त्रिओं के अनुकूल उपसर्ग में काम-विकारों के आधीन न हुआ, किंतु मेरु पर्वत की तरह धर्मध्यान में अचल रहा... निष्प्रकंप याने स्थिर रहा... तथा तिर्यंच प्राणीओं के द्वारा भी चार प्रकार के उपसर्ग होते हैं... 1. भय, 2. प्रद्वेष, आहार, 4. अपत्यसंरक्षण... 1. भय से... सर्प आदि से... 2. प्रद्वेष से... श्री महावीर प्रभु को चंडकौशिक सर्प से.... 3. आहारादि कारण से... सिंह वाघ आदि से... 4. अपत्यसंरक्षण के कारण से... कौवे (कागडी) आदि से... इत्यादि... - इस प्रकार उपर कही गइ विधि से होनेवाले उपसर्गों से जन याने लोक लूषक होतें हैं... अथवा उन गांव-नगर आदि स्थानों में रहे हुए या विहार करते हुए साधुओं को कठोर स्पर्श के संवेदन स्वरूप स्पर्श होतें हैं और उनके चार प्रकार हैं... जैसे कि घट्टनता... आंख में कचरा-रज आदि से... 2. पतनता... भ्रमि याने चक्कर आना तथा मूर्छा आदि से गिर पडना... 3. स्तंभनता... वायु आदि से... 4. श्लेषणता... तालु पात से या अंगुली आदि से... अथवा वात-पित्त-श्लेष्म आदि के क्षोभ याने विषमता से साधुओं को कठोर स्पर्श का वेदन होता है... अथवा निष्किंचनता याने अपरिग्रहता के कारण से तृणस्पर्श, दंशमशक, शीत, उष्ण आदि के कठोर स्पर्श दुःख याने पीडा दायक होते हैं... ___ अत: इस प्रकार परीषह एवं उपसर्गों से होनेवाले कठोर स्पर्शों को धीर साधु प्रशमभाव से सहन करे... क्योंकि- साधु इस परिस्थिति में विचारता है कि- यह दु:ख (कष्ट) नरक की अपेक्षा से तो अल्प हि है... और यदि मैं कर्मो के विपाक से आये हुए इन कष्टों को Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 781 -6-5-1(207) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन अभी प्रशमभाव से सहन नहि करुंगा तो, कभी न कभी नरकादि गति में जाकर मुझे इन कर्मो के फलों को भुगतना तो पडेगा हि... ऐसा सोचकर मुनी उपस्थित परीषह एवं उपसर्गों के कष्टों को प्रशमभाव से सहन करतें हैं... तथा वह साधु केवल (मात्र) स्वयं हि उन परीषहादि के कष्टों को सहन नहि करतें, किंतु धर्मोपदेश देने के द्वारा अन्य साधुओं को भी परीषहादि कष्ट सहन करने के लिये उत्साहित करतें हैं... जैसे कि- रागादि के अभाव से कोई एक साध शमितदर्शन याने सम्यगदष्टि याने उपशांत अध्यवसाय वाला होकर उपसर्गादि के कठोर स्पर्शों को सहन करता है, और अन्य जीवों के प्रति करुणा-दया-भाववाला होकर धर्म का स्वरूप भी कहता है... जैसे कि- द्रव्य से जीवों की विभिन्न परिस्थिति को देखकर... क्षेत्र से... पूर्व पश्चिम उत्तर दक्षिण आदि दिशाओं के विभाग से विभिन्न क्षेत्रों को जानकर, सभी जीवों के उपर दया-भाववाला होकर धर्मोपदेश देता है... तथा काल से... जीवन पर्यंत... और भाव से... राग-द्वेष का त्याग करके साधु इस प्रकार कहे कि- इस विश्व में सभी जीव दु:खों से बचकर सुखों को हि प्राप्त करना चाहते हैं, अतः अपने आपके आत्मा की समान सभी जीवों को देखीयेगा... कहा भी है कि- जो आचरण अपने आपको प्रतिकूल हो, वह आचरण अन्य जीवों के प्रति न करें... यह हि सभी धर्मो का सार है... इत्यादि... तथा धर्म का उपदेश देने के वख्त साधु द्रव्य, क्षेत्र, काल एवं भाव की विवक्षा करके विभिन्न प्रकार से धर्मोपदेश दें... तथा आक्षेपणी विक्षेपणी संवेदनी एवं निर्वेदनी प्रकार से धर्मकथा कहें... अथवा प्राणातिपातविरमण, मृषावादविरमण, अदत्तादानविरमण मैथुन विरमण, परिग्रहविरमण एवं रात्रिभोजनविरमण इत्यादि प्रकार से धर्म का उपदेश दें... अथवा आगमशास्त्र को जाननेवाला वह साधु यह सोचे कि- यह श्रोता पुरुष कौन है ? कौन से देवता को मानता है ? तथा अभिगृहीत याने अपने माने हुए विचार में कदाग्रहवाला है; या अनभिगृहीत याने आग्रह के अभाववाला हैं ? इत्यादि प्रकार से श्रोता को विभक्त करे... तथा व्रतानुष्ठान का स्वरूप एवं फल कहे... __ यहां नागार्जुनीय-मतवाले कहते हैं कि- जो यह बहुश्रुत साधु (श्रमण) उदाहरण एवं हेतु कहने में कुशल है तथा धर्मकथा की लब्धि से संपन्न है, वह साधु क्षेत्र, काल, भाव एवं पुरुष को प्राप्त करके सोचे कि- यह पुरुष कौन है ? अथवा कौन से दर्शन-मत को माननेवाला है...? इत्यादि तथा उस पुरुष के गुण, जाति, कुल, वंश आदि को अच्छी तरह से जान-पहचार कर धर्मोपदेश देने के लिये तत्पर हो... तथा जिनमत एवं अन्य मत के शास्त्रो को जानने वाला वह साधु यह देखे कि- यह साधुजन पार्श्वनाथ प्रभु के संतानीय साधु हैं; अतः चार यामवाले धर्माचरण में तत्पर है, तब उन्हे श्री महावीर प्रभु के तीर्थ में होनेवाले पांच याम (महाव्रत)वाला धर्म कहे... अथवा अपने शिष्यों को अज्ञात-शास्त्रों के बोध के लिये धर्मोपदेश दे... तथा अनुत्थित याने श्रावकों को, Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1-6-5- 1 (207) 79 कि- जो धर्म का स्वरूप सुनने की इच्छावाले हो, और गुरुजनों की सेवा करतें हो, उनको संसार समुद्र तैरने के लिये रत्नत्रय स्वरूप मोक्षमार्ग का उपदेश दे... वह इस प्रकार... शमनं याने शांति अर्थात् अहिंसा, तथा विरति याने मृषावाद विरमणादि शेष व्रतों का स्वरूप कहे... तथा क्रोध के निग्रह से उपशम भाव... इस उपशम पद से उत्तरगुणों का संग्रह कीया गया है... तथा निर्वृत्ति याने निर्वाण-मोक्षपद... मूल एवं उत्तर गुणों से इस जन्म में एवं जन्मांतर में होनेवाले मोक्ष पर्यंत के फलों का वर्णन करें... तथा शौच याने सभी प्रकार से विशुद्ध अर्थात् निर्दोष प्रकार से व्रतों का समाचरण... आर्जव याने माया एवं कपट का त्याग... मार्दव याने मान-अभिमान एवं अक्कडता का त्याग... लाघव याने बाह्य एवं अभ्यंतर परिग्रह का त्याग... इत्यादि धर्म... का स्वरूप आगमसूत्र की मर्यादा में रहकर हि सभी प्राणी-जीवों को अनुग्रह बुद्धि से कहें.... दश प्रकार के द्रव्य प्राणों को धारण करे वे प्राणी... यहां प्राणी शब्द से संज्ञी पंचेंद्रिय जीवों का ग्रहण कीया है... तथा भूत याने मुक्ति में जाने के लिये जो योग्य हैं; वे भूत... तथा जीव.याने संयम जीवन से हि जीने की इच्छावाले हैं वे जीव... तथा सत्त्व याने मोक्ष के लिये सत्त्व-पराक्रमवाले... अर्थात् तिर्यंच मनुष्य एवं देव इस संसार में अनेक प्रकार के कष्टों से पीडित हैं, अत: करुणा भावना से उन जीवों को क्षमा आदि दशविध धर्म का यथायोग्य स्वरूप स्व-परोपकार में तत्पर कथालब्धिवाला भिक्षु याने साधु कहते हैं... अब सूत्रकार महर्षि आगे के सूत्र से धर्मोपदेश की विधि कहेंगे... v सूत्रसार : ... चतुर्थ उद्देशक में गौरव (रस, साता और ऋद्धि) के त्याग का उपदेश दिया गया है।' परन्तु, इन पर विजय पाने के लिए कष्ट सहिष्णु होना आवश्यक है। परीषहों के उपस्थित होने पर भी जो समभाव पूर्वक अपने मार्ग पर बढ़ता रहता है, वही गौरवों का त्याग कर सकता है। अतः प्रस्तुत उद्देशक में परीषहों पर विजय पाने का या शीत-उष्ण, भूख-प्यास आदि के कष्ट उपस्थित होने पर भी संयम में स्थिर रहने का उपदेश देते है... ___ संसार में विभिन्न प्रकृतियों के प्राणी हैं। क्योंकि- सब प्राणियों के कर्म भिन्न हैं और कर्मों के अनुसार स्वभाव बनता-बिगड़ता है। कषाय के उदय भाव से जीवन में क्रोध, लोभ आदि की भावना उद्बुद्ध होती है इससे स्पष्ट है कि- अपने कृत कर्म के अनुसार प्राणी संसार में प्रवृत्त होता है। सभी प्राणियों के कर्म भिन्न भिन्न है, इसलिए उनके स्वभाव एवं कार्य में भी भिन्नता दिखाई देती है। हम देखते हैं कि- कुछ मनुष्य दूसरे को परेशान करने एवं दुःख देने में आनन्द अनुभव Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 801 - 6 - 5 - 2 (208) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन करते हैं। यहां तक कि- वे सन्त-पुरुषों को कष्ट पहुंचाने से भी नहीं चूकते हैं। मुनियों को देखते ही उनके मन में द्वेष की आग प्रज्वलित हो उठती है और वे उन्हें पीड़ा पहुंचाने का प्रयत्न करते हैं, उपाय सोचते हैं और अनेक तरह के कष्ट देते हैं। ऐसे समय में भी मुनि अपने स्वभाव का अर्थात् प्रशमभाव की साधना का त्याग न करे। उन कठोर स्पर्शों एवं दुःखों से घबराकर उन पर मन से भी द्वेष न करे, उन्हें कटु वचन न कहें और उन्हें अभिशाप भी न दे, किंतु शान्त भाव से उन्हें सहन करते हुए संयम का पालन करे। यदि उचित समझे तो उन्हें भी धर्म का, शान्ति का उपदेश देकर सन्मार्ग पर लाने का प्रयत्न करे। . . मुनि जीवन की उदारता एवं विराटता को बताते हुए प्रस्तुत सूत्र में यह महत्त्व पूर्ण बात कही गई है कि- मुनि सभी जीवों पर दया भाव रखे। वह उपकारी एवं अनुपकारी, अमीर एवं गरीब, धर्मनिष्ठ एवं पापी, ब्राह्मण एवं शूद्र आदि में किसी भी प्रकार का भेद भाव नहीं . करते हुए, सभी जीवों का कल्याण करने की तथा विश्वबन्धुत्व की भावना से सभी को सन्मार्ग दिखाने का प्रयत्न करे। उसके इस उपदेश का क्षेत्र कोई शहर विशेष या स्थान विशेष नहीं, किंतु सूत्रकार की भाषा में पूर्व-पश्चिम, उत्तर-दक्षिण आदि सभी दिशाएं-विदिशाएं हैं। वह किसी स्थान विशेष का आग्रह न रखते हुए, जहां भी आवश्यकता का अनुभव करता है, वहीं उपदेश की धारा बहाने लगता है। उसका उपदेश व्यक्ति विशेष एवं जाति विशेष के लिए नहीं, किंतु जीव मात्र के लिए होना चाहिए। तथा किसी जाति, धर्म, पंथ एवं सम्प्रदाय विशेष को नहिं किंतु अपने हित के साथ मानव मात्र का एवं प्राणी जगत का हित साधने कला वह साधु है। अत: वह सभी को समभावपूर्वक अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह और क्षमा, शान्ति, आर्जव आदि धर्मों का उपदेश देकर प्राणी जगत को कल्याण का मार्ग बताता है, सभी को जीओ और जीने दो का मन्त्र सिखा कर सुख-शान्ति से जीना सिखाता है। प्रस्तुत सूत्र में प्रयुक्त प्राणी, भूत, जीव, सत्त्व का अर्थ है- 10 प्राण धारण करने वाले संज्ञी पञ्चेन्द्रिय प्राणी तथा जिस भव्य जीव में मोक्ष जाने की योग्यता है, वे भूत कहलाते हैं, संयम-निष्ठ जीवन जीनेवाले जीव और तिर्यञ्च, मनुष्य एवं देव सत्त्व कहे गए हैं। इससे स्पष्ट हो जाता है कि- साधु संसार के सभी प्राणियों की रक्षा एवं दया के लिए प्रशमभाव से सभी को उपदेश दे। यहां यह प्रश्न हो सकता है कि- ऐसा उपदेष्टा किसी पंथ या सम्प्रदाय पर आक्षेप कर सकता है या नहीं ? इसका समाधान करते हुए सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहते हैं... / सूत्र // 2 // // 208 // 1-6-5-2 अणुवीइ भिक्खू धम्माइक्खमाणे नो अत्ताणं आसाइज्जा, नो परं आसाइज्जा, नो अण्णाइं पाणाइं भूयाइं जीवाई सत्ताइं आसाइज्जा, से अणासायए अणासायमाणे Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1-6-5 - 2 (208) 81 वज्झमाणाणं पाणाणं भूयाणं जीवाणं सत्ताणं, जहा से दीवे असंदीणे, एवं से भवइ सरणं महामुणी, एवं से अट्ठिए ठियप्पा अणिहे अचले चले अबहिल्लेसे परिव्वए संक्खाय पेसलं धम्मं दिट्ठिमं परिणिव्वुडे, तम्हा संगंति पासह गंथेहिं गढिया नरा विसण्णा कामक्कंता तम्हा लूहाओ नो परिवित्तसिज्जा, जस्सिमे आरंभा सव्वओ सव्वप्पयाए सुपरिणाया भवंति जेसिमे लूसिणो नो परिवित्तसंति, से वंता कोहं च माणं च मायं च लोभं च. एस नुट्टे वियाहिए त्तिबेमि // 208 // संस्कृत-छाया : अनुविचिन्त्य भिक्षुः धर्ममाचक्षाण: न आत्मानं आशातयेत्, न परं आशातयेत्, न अन्यान् प्राणिनः भूतान् जीवान् सत्त्वान् आशातयेत्, स: अनाशातकः अनाशातयन् वध्यमानानां प्राणिनां भूतानां जीवानां सत्त्वानां, यथा सः द्वीपः असन्दीनः, एवं स: भवति शरणं महामुनिः, एवं स: उत्थितः स्थितात्मा अस्निहः अचलः अबहिर्लेश्य: परिव्रजेत्, सङ्ख्याय पेशलं धर्मं दृष्टिमान् परिनिर्वृतः, तस्मात् सङ्गं पश्यत, ग्रन्थैः ग्रथिता; नराः विषण्णा: कामाक्रान्ताः, तस्मात् रूक्षात् न परिवित्रसेत् / यस्य इमे आरम्भाः सर्वतः सर्वात्मकतया सुपरिज्ञाताः भवन्ति, येषु इमे लूषिणः न परिवित्रसन्ति, स: वान्त्वा क्रोधं च मानं च मायां च लोभं च एषः तुट्टः (अपसृतः) व्याख्यातः इति ब्रवीमि // 208 // III सूत्रार्थ : हे आर्य ! तू विचार कर के देख कि- धर्म कथा करते समय मुनि अपनी आत्मा तथा . अन्य सुनने वाले श्रोताओं की आशातना-अवहेलना न करे और प्राणी, भूत, जीव और सत्त्वों की भी आशातना न करे। आशातना नही करने वाला मुनि आशातना न करता हुआ, दुःखों से पीडित प्राणी, भूत, जीव और सत्त्वों को द्वीप की तरह आश्रयभूत होता है, अर्थात् संसार समुद्र में डूबते हुए एवं व्यथित प्राणियों को आश्रय देता है। इस तरह ज्ञानादि में स्थित, स्नेहरागभाव से रहित संयम-निष्ठ मुनि परीषहों के समय अविचिलत एवं अप्रतिबन्ध विहारी और संयमानुसार शुद्ध अध्यवसायों में स्थित रहता हुआ संयम में प्रवृत्ति करे। कषायों के क्षयोपशम से धर्म के यथार्थ स्वरूप को जानकर ज्ञान संपन्न मुनि शान्त भाव से आत्म चिन्तन में संलग्न रहता है। हे शिष्यो ! तुम यह देखो कि- जो व्यक्ति सांसारिक पदार्थों में एवं काम भोगों में आसक्त हैं; या काम-भागों ने जिन्हें आक्रान्त-बना रखा है, वह शान्ति नहीं पा सकता है। इसलिए बुद्धिमान साधु-पुरुष, संयमानुष्ठान से भयभीत नहीं होते हैं। जो इन आरम्भादि से सुपरिज्ञात-सुपरिचित होते हैं, वे ही शान्ति को प्राप्त करते हैं। अतः वह संयमी भिक्षु क्रोध, मान, माया और लोभ का त्याग करके इस संसार सागर से पार हो सकता है। यह बात तीर्थंकर Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 821 -6-5 - 2 (208) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन आदि महापुरुषों ने कहा है। यह बात हे जंबू ! मैं तुम्हें कहता हूं। IV टीका-अनुवाद : वह मुमुक्षु साधु पूर्वापर संबंध से धर्म को या पुरुष को देख-विचार कर जिस पुरुष को जो धर्म कहना चाहिये, वह हि आगम सूत्र की मर्यादा में रहकर सम्यग्दर्शनादि के विभिन्न क्रियानुष्ठान का उपदेश दे... और यह ध्यान-उपयोग रखे कि- अपने खुद के आत्मा की आशातना न हो तथा सामने रहे हुए आत्मा की भी आशातना न हो... अपने आपके आत्मा की आशातना के द्रव्य एवं भाव भेद से दो प्रकार है... उनमें द्रव्य से आशातना याने - आहार में कालातिक्रम होने से शरीर में पीडा हो... इत्यादि तथा भाव-आशातना याने धर्मोपदेश देते हुए, शरीर को पीडा न हो, अंगोपांग का भंग याने तुटना न हो इस बात का ध्यान रखें... तथा श्रोताओं की आशातना निंदा न करें... क्योंकि- निंदा करने से कोयापमान हुए वे श्रोताजन आहार-उपकरण आदि न देने के द्वारा या शरीर को कष्ट-(उपद्रव) पहुंचाने के लिये प्रयास करे... अत: आशातना न हो, इस प्रकार धर्मोपदेश दें... तथा अन्य जीवों की भी आशातना न करें... इस प्रकार यह मुनी अपने आपके आत्मा की आशातना न करे एवं अन्य जीवों की भी आशातना न करे... एवं अन्य जीवों की आशातना करनेवालों की अनुमोदना भी न करें... अर्थात् अन्य प्राणी, भूत, जीव, एवं सत्त्व याने किसी भी जीव को बाधा-पीडा न हो, उस प्रकार धर्म का उपदेश दे... जैसे कि- लौकिक, कुपावचनिक एवं पासत्था आदि के दान की प्रशंसा करे या अवट याने कूवे, तालाब आदि कार्यों की प्रशंसा करे तो पृथ्वीकायादि के वध की अनुमोदना होवे... और यदि इन कार्यों को दूषित करे तब अंतराय करने के कारण से वे लोग ताडन, तर्जन, यावत् केद की सजा करे... अन्यत्र भी कहा है कि- जो साधु लौकिक कार्यों की प्रशंसा करते हैं; वे प्राणीओं के वध की अनुमोदना करते हैं तथा यदि उन कार्यों का निषेध करतें हैं; तब वे वृत्तिच्छेद के दोष से दूषित होते हैं... .. इस कारण से लौकिक दान एवं कूवे, तालाब आदि के विधि या प्रतिषेध को छोडकर यथावस्थित आगम सूत्रानुसार हि शुद्ध दान-धर्म का उपदेश दें... और निर्दोष (निरवद्य) धर्मानुष्ठान का स्वरूप कहें... इस प्रकार दोनों दोष का परिहार याने त्याग होता है तथा वह साधु जीवों को विश्वासपात्र बनता है... यहां द्वीप का दृष्टांत कहतें हैं... जिस प्रकार समुद्र में डूबते हुए मनुष्यप्राणी को स्थिर द्वीप शरण-आधार होता है, इसी प्रकार वह महामुनी-साधु जीवों की रक्षा . याने अहिंसा के उपदेश के द्वारा मरनेवाले एवं मारनेवालों के आर्त्तध्यान एवं रौद्र ध्यान स्वरूप अध्यवसायों को निवारण करके शुभ विचारवाले बनाकर सच्चे अर्थ में शरण्य होते हैं... जैसे Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सबोधनी आहोरी-हिन्दी-टीका // 1-6-5-2(208) 83 कि- आगमसूत्र की विधि से धर्मकथा कहनेवाला साधु कितनेक मुमुक्षु जीवों को दीक्षा-प्रव्रज्या देकर साधु बनाते हैं, तथा कीतनेक जीवों को अणुव्रत देकर श्रावक बनाते हैं... एवं कितनेक जीव सम्यग्दर्शनवाले होते हैं... और कितनेक जीव न्याय-नीति-सदाचार के पक्षवाले होकर प्रकृतिभद्रक भाव को प्राप्त करते हैं. प्रश्न- द्वीप की तरह शरण योग्य होनेवाले उस साधु में कौन कौन गुण हैं ? * उत्तर- भावोत्थान याने संयमानुष्ठान में सम्यक् प्रकार से रहा हुआ वह साधु सम्यग्दर्शन ज्ञान-चारित्र स्वरूप मोक्षमार्ग में अच्छी तरह से रहा हुआ है, तथा राग एवं द्वेष से रहित होने के कारण से वह साधु अस्निह है... अर्थात् कोइ भी द्रव्य-क्षेत्रादि में प्रतिबद्ध-आसक्त नहि है... तथा परीषह एवं उपसर्गों के वा-वंटोल में भी अचल (स्थिर) है... तथा अबहिर्लेश्य याने संयमस्थान के हि अध्यवसाय (लेश्या) वाला है... ऐसे गुणवाला वह साधु चारों और से संयमानुष्ठान में हि रहतें हैं; अत: आश्रितों को उपकारक होतें हैं... तथा शुभ धर्म को अंत:करण में अवधारण करके सम्यक् दृष्टिवाला या सदनुष्ठानवाला वह मुनी दृष्टिमान् है... तथा कषायों के उपशम या क्षय से परम शीतल बने हुए है... क्योंकिजिन्हों ने धर्म का अवधारण नहि कीया है; वे मिथ्यादृष्टि होने के कारण से शांत-शीतल नहि होतें... जैसे कि- विपरीत दर्शनवाला मिथ्यादृष्टि पुद्गलों के संगवाला होने के कारण से आकुलव्याकुलता स्वरूप चंचलता से मुक्त नहि होता है... इसलिये सूत्रकार महर्षि शिष्यों को कहतें हैं कि- देखो ! मात-पिता, पुत्र एवं स्त्री आदि तथा धन-धान्य-हिरण्य-सुवर्ण आदि के संग या संग के फलों को विवेक-चक्षु से देखिये... नवविध बाह्य परिग्रह एवं चौदह प्रकार के अभ्यंतर परिग्रह की ग्रंथि से बंधे हुए लोग प्रतिक्षण खेद-संताप पाते हैं... और परिग्रह के संग मे डूबे हुए लोग काम-भोग की इच्छाओं में आसक्त होने से उपशम-शांति-संतोष को नहि पा शकतें... इस प्रकार कामभोगों में आसक्त चित्तवाले लोग स्वजन-धन-धान्यादि में मूर्च्छित होकर शारीरिक एवं मानसिक दुःखों से सदा पीडित रहतें हैं... अत: हे शिष्य ! आप नि:संग स्वरूपवाले संयमानुष्ठान से कभी भी न डरें... किंतु सदैव आत्मसुख के अनुभव की प्राप्ति से प्रसन्न रहें... और अनेक दुःखों से पीडित संगासक्त जीवों पे करुणा करें... उन्हें सदुपदेश दें... ___तथा जिस महामुनी ने संसार एवं मोक्ष के कारणों को याने आश्रव स्वरूप आरंभसमारंभों को जाना-समझा है; वह मुनी उन आरंभों को ज्ञ परिज्ञा से जानकर प्रत्याख्यान परिज्ञा से त्याग स्वरूप संवर करता है... जब कि- जो अज्ञानी जीव है; वे मोह के उदय से कामभोग में आसक्त होकर उन आरंभों से डरतें नहि हैं; अर्थात् उन आरंभों का त्याग नहि करतें; किंतु उन आरंभों में हि मग्न रहते हैं... वे संसार में परिभ्रमण करते हैं... Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 84 // 1-6-5-2(208) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन वह महामुनी क्रोध मान माया एवं लोभ का वमन करता है... अर्थात् त्याग करता है... यद्यपि यहां संसार में सभी प्राणीओं में क्रोध अल्पाधिक होता हि है... अथवा विषय कषायों के साथ क्रोध निश्चित होता हि है; अत: चार कषायों में सर्व प्रथम क्रोध कहा गया है... और मान भी क्रोध के साथ संबंध रखता है; अतः क्रोध के बाद मान का निर्देश कीया है... तथा लोभ के लिये प्राणी माया का सहारा लेता है; अत: मान के बाद और लोभ के पहले माया का निर्देश किया गया है और सभी दोषों का आश्रय एवं सभी दोषो में महान् दोष लोभ है; अतः लोभ का निर्देश सभी कषायों के अंत में किया गया है... अथवा क्षपक श्रेणी में कषायों के क्षय का यह क्रम है; इस कारण से भी सर्व प्रथम क्रोध और अंत मे लोभ का निर्देश कीया है... इस प्रकार वह मुनी क्रोधादि कषायों का विनाश करके मोहनीय कर्म को तोडता है... और मोहनीय कर्म का विनाश होने से संसार की परंपरा का भी अंत होता है अर्थात् प्राणी मोक्षपद पाता है; इत्यादि सभी बातें तीर्थंकरादि महर्षिओं ने कही है... यहां “इति" पद अधिकार की समाप्ति का सूचक है... “ब्रवीमि' पद का अर्थ पूर्व कहे गये अनुसार है... V. सूत्रसार : यह हम देख चुके हैं कि- उपदेश प्राणियों के हित के लिए दिया जाता है। अतः उपदेष्टा को सबसे पहले यह जानना आवश्यक है कि- परिषद् किस विचार क्री है; उसका स्तर कैसा है ? उसके स्तर एवं योग्यता को देखकर दिया गया उपदेश हितप्रद हो. सकता है। उससे उनका जीवन बदल सकता है। परन्तु, परिषद् की विचार स्थिति को समझे बिना दिया गया उपदेश वक्ता एवं श्रोता दोनों के लिए हानिप्रद हो सकता है। यदि कोई बात श्रोताओं के मन को चुभ गई तो उनमें उत्तेजना फैल जाएगी और उत्तेजना के वश वे वक्ता को भलाबुरा कह सकते हैं; या उस वक्ता पर प्रहार भी कर सकते हैं। इस प्रकार बिना सोचे-समझे अविवेक पूर्वक दिया गया उपदेश दोनों के लिए अहितकर हो सकता है। अतः प्रस्तुत सूत्र में यह कहा गया है कि- मुनि को व्याख्यान में ऐसे शब्दों का प्रयोग नहीं करना चाहिए, जिससे स्व एवं पर को संक्लेश पहुंचे। अतः विवेकशील, संयमनिष्ठ मुनि प्राणी मात्र का शरणभूत हो सकता है। जैसे समुद्र में परिभ्रमित व्यक्ति के लिए द्वीप आश्रयदाता होता हैं, उसी तरह ज्ञान एवं आचार सम्पन्न मुनि भी प्राणीमात्र के लिए आधारभूत होता है और प्राणी जगत की रक्षा करता हुआ विचरता है। इससे स्पष्ट हो गया कि- मुनि किसी भी प्राणी को क्लेश पहुंचाने का कोई कार्य न करे। दूसरी बात यह है कि- संयमशील साधक ही दूसरों को सहायक हो सकता है। अतः मुमुक्षु पुरुष को संसार की परिस्थिति का परिज्ञान करके आरम्भ से निवृत्त रहना चाहिए। Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1 - 6 - 5 - 3 (209) 85 क्योंकि- आरम्भ-समारम्भ एवं विषय-भोगों में आसक्त व्यक्ति कभी भी शान्ति को प्राप्त नहीं करता है। वह रात-दिन अशान्ति की आग में जलता रहता है। इसलिए साधक को आरम्भ आदि से सदा दूर रहना चाहिए। इस विषय को और स्पष्ट करते हुए सूत्रकार महर्षि सुधर्म स्वामी आगे का सूत्र कहतें हैं... सूत्र // 3 // // 209 // 1-6-5-3 कायस्स वियाघाए एस संगामसीसे वियाहिए से हु पारंगमे मुणी, अविहम्ममाणे फलगायवट्ठी कालोवणीए कंखिज्ज कालं जाव सरीरभेउ तिबेमि // 209 // II संस्कृत-छाया : कायस्य व्याघातः एषः संग्रामशीर्ष: व्याख्यातः सः हु पारगामी मुनिः, अविहन्यमानः फलकवत् अवतिष्ठते, कालोपनीत: काङ्क्षत कालं यावत् शरीरभेदः इति ब्रवीमि // 209 // // सूत्रार्थ : . जिस प्रकार वीर योद्धा संग्राम में निर्भय होकर विजय को प्राप्त करता है। उसी तरह मुनि भी मृत्यु के आने पर फलक की तरह स्थिर चित्त रहकर पादोगमन आदि अनशन (संथरो) करके- जब तब तक आत्मा शरीर के पृथक न हो तब तक मृत्यु की आकांक्षा करता हुआ चिन्तन मनन में संलग्न रहे। ऐसा मुनि संसार से पार होता है। ऐसा में कहता हूं। IV. टीका-अनुवाद : ___ औदारिक तैजस एवं कार्मण यह तीन शरीर का या ज्ञानावरणीय दर्शनावरणीय मोहनीय एवं अंतराय यह चार घातिकर्म का विनाश... अथवा आयुष्य कर्म की अवधि पूर्ण होने पर अंग एवं उपांग की मर्यादा से रहनेवाले औदारिक शरीर का विनाश होता है... जैसे किरणभूमी-संग्राम के अग्र भाग पे रहा हुआ सैनिक शत्रुसेना की और से तिक्ष्ण खड्ग (तलवार) के प्रहार से यद्यपि कभी कुछ चित्तविकार याने क्षोभ को प्राप्त करे, इसी प्रकार मरण समय उपस्थित होने पर परिकर्मित मतिवाले मुनी को भी कभी अन्यथाभाव याने व्याकुलता हो... अतः कहते हैं कि- जो महामुनी मरणकाल में भी व्याकुल न हो, वह हि संसार का अंत करके या कर्मो का विनाश करके पारगामी होता है अर्थात् मोक्षपद प्राप्त करता है... विविध प्रकार के परीषह एवं उपसर्गों का उपद्रव न हो तब वह मुनी वैहानस या Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 86 1 -6-5-3 (209) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन गार्द्धपृष्ठ या बालमरण को प्राप्त करता है... और परीषहादि का उपद्रव हो तब बाह्य एवं अभ्यंतर तपश्चर्या के द्वारा फलक की तरह स्थिर रहता है. अर्थात परीषहादि से व्याकल नहि होता... तथा मरणकाल जब निकट आवे तब बारह वर्ष की संलेखना के द्वारा अपने आपकी आत्मा का संलेखन करके पर्वतों की गुफा आदि स्थानो में निर्जीव भूमी के उपर पादपोपगमन या इंगितमरण या भक्तपरिज्ञा में से कोई भी एक प्रकार से जब तक आयुष्य कर्म का क्षय हो, अर्थात् शरीर से आत्मा अलग हो, तब तक समाधि से रहते हैं... शरीर से आत्मा का अलग होना उसको हि शरीरभेद या मरणकाल कहते हैं... अर्थात् मरण याने जीव का अत्यंत विनाश नहि किंतु शरीर से अलग होना हि मरण है... “इति" शब्द अधिकार के समाप्ति का सूचक है, और ब्रवीमि पद का अर्थ पूर्ववत् जानीयेगा... V सूत्रसार : संसार में जन्म और मृत्यु दोनों का अनुभव होता है। यह ठीक है कि- दुनिया के प्रायः सभी प्राणी जीना चाहते हैं, मरने की कोई आकांक्षा नहीं रखता। मृत्यु का नाम सुनते ही लोग कांप उठते हैं, उससे बचकर रहने का प्रयत्न करते हैं। फिर भी मृत्यु का आगमन होता ही है। इस तरह सामान्य मनुष्य मृत्यु की अपेक्षा जीवन को; जन्म को महत्त्वपूर्ण समझते हैं। परन्तु, महापुरुष एवं ज्ञानी पुरुष मृत्यु को भी महत्त्वपूर्ण समझते हैं। वे महापुरुष भी बचने का प्रयत्न करते हैं, परन्तु मृत्यु से नहीं, किंतु जन्म से। क्योंकि जन्म कर्म जन्य है और मृत्यु कर्मक्षय का प्रतीक है। आयु कर्म का बन्ध होने पर जन्म होता है और उसका क्षय होना मृत्यु है। अतः ज्ञान-संपन्न मुनि आयु कर्म का क्षय करने का प्रयत्न तो करता है, परन्तु उसके बांधने का प्रयास नहीं करता है। वह सदा कर्म बन्ध से बचना चाहता है। क्योंकि- यदि आयुष्य कर्म का बन्ध नहीं होगा तो फिर पूर्व कर्म के क्षय के साथ पुनर्जन्म रूक जाएगा और जन्म के अभाव में फिर मृत्यु का अन्त तो स्वतः ही हो जाएगा। जब कर्म ही नहीं रहेगा तो उस के क्षय का तो प्रश्न ही नहीं उठेगा। इस प्रकार जन्म से बचने का अर्थ है- जन्म-मरण के प्रवाह से मुक्त होना। इसलिए मुनि मृत्यु से भय नहीं रखे। वे मृत्यु को अभिशाप नहीं किंतु वरदान समझते हैं। अत: पण्डित मरण के द्वारा मरण को सफल बनाने में या यों कहिए अपने साध्य को सिद्ध करने में सदा संलग्न रहते हैं। प्रस्तुत सूत्र में यही बताया है कि- जैसे योद्धा युद्ध क्षेत्र में मृत्यु को सामने देखकर भी घबराते नहीं। उसी तरह कर्मों एवं मनोविकारों के साथ युद्ध करने में संलग्न साधक भी मृत्यु से भय नहीं रखाता है। यदि कोई उस पर प्रहार भी करदे तब भी वह विचलित नहीं . होता, घातक के प्रति मन में भी द्वेष भाव नहीं लाता है। उस समय भी वह शान्त मन से आत्म चिन्तन में संलग्न रहता है। इसी तरह मृत्यु के निकट आने पर भी वह घबराता नहीं और न उससे बचने का भी कोई प्रयत्न करता है। वह महान् साधु मरण के स्वागत के लिए Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 卐१-६-५-3 (209) // 87 - संलेखना का प्रारम्भ कर देता है। वह साधु यह संलेखना साधना 12 वर्ष पूर्व प्रारम्भ कर देता है। उत्तराध्ययन सूत्र में इसका विस्तार से उल्लेख किया गया है। इस प्रकार साधक संलेखना के द्वारा कर्मों की निर्जरा करता हुआ अपने आपको पंडित मरण प्राप्त करने के लिए तैयार कर लेता है और मृत्यु के समय विना किसी घबराहट के वह पादपोगमन, इंगितमरण या भक्तप्रत्याख्यान किसी भी प्रकार से-आमरण अनशन को स्वीकार करके आत्म-चिन्तन में संलग्न रहता है और जब तक आत्मा शरीर से पृथक् नहीं हो जाती तब तक शान्त भाव से साधना में या यों कहिए कर्मों को क्षय करने में प्रयत्नशील रहता है। इस प्रकार मृत्यु से परास्त नहीं होने वाला साधक मृत्यु के मूल कारण जन्म या कर्म बन्ध को समाप्त करके जन्म-मरण पर विजय पा लेता है। यह हम पहले भी बता चुके हैं कि- जन्म का ही दूसरा नाम मृत्यु है। जन्म के दूसरे क्षण से ही मरण प्रारम्भ हो जाता है। अतः मृत्यु जन्म के साथ संबद्ध है, उसका अपना स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं है। जन्म का अन्त होते ही मृत्यु का भी अन्त हो जाता है। अतः साधक मृत्यु का अन्त नहीं करता, किंतु पण्डित मरण के द्वारा जन्म का या जन्म के मूल कारण कर्म का उन्मूलन कर देता है और यही उसका सबसे बडा विजय है। अतः साधक को निर्भय एवं निर्द्वन्द्व भाव से पण्डित मरण को स्वीकार करके निष्कर्म बनने का प्रयत्न करना चाहिए। पण्डित मरण को प्राप्त करके सारे कर्मों से मुक्त होना ही उसकी साधना का उद्देश्य है। अत: मुमुक्षु पुरुष को मृत्यु से घबराना नहीं चाहिए। // इति षष्ठाध्ययने पञ्चमः उद्देशकः समाप्त: // ___ इति धूताभिधं षष्ठमध्ययनं समाप्तम् 卐卐卐 : प्रशस्ति : मालव (मध्य प्रदेश) प्रांतके सिद्धाचल तीर्थ तुल्य शत्रुजयावतार श्री मोहनखेडा तीर्थमंडन श्री ऋषभदेव जिनेश्वर के सांनिध्यमें एवं श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरिजी, श्रीमद् यतीन्द्रसूरिजी, एवं श्री विद्याचंद्रसूरिजी के समाधि मंदिर की शीतल छत्र छायामें शासननायक चौबीसवे तीर्थंकर परमात्मा श्री वर्धमान स्वामीजी की पाट-परंपरामें सौधर्म बृहत् तपागच्छ संस्थापक अभिधान राजेन्द्र कोष निर्माता भट्टारकाचार्य श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी म. के शिष्यरत्न विद्वद्वरेण्य व्याख्यान वाचस्पति अभिधान राजेन्द्रकोषके संपादक श्रीमद् विजय यतीन्द्रसूरीश्वरजी म. के शिष्यरत्न, दिव्यकृपादृष्टिपात्र, मालवरत्न, आगम मर्मज्ञ, श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम प्रकाशन के लिये राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी हिंदी टीका के लेखक मुनिप्रवर ज्योतिषाचार्य श्री जयप्रभविजयजी म. “श्रमण' के द्वारा लिखित एवं पंडितवर्य Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 88 1 -6-5-3 (209) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन लीलाधरात्मज रमेशचंद्र हरिया के द्वारा संपादित सटीक आचारांग सूत्र के भावानुवाद स्वरूप श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी हिंदी टीका-ग्रंथ के अध्ययनसे विश्वके सभी जीव पंचाचारकी दिव्य सुवासको प्राप्त करके. परमपदकी पात्रता को प्राप्त करें... यही मंगल भावना के साथ... "शिवमस्तु सर्वजगतः" वीर निर्वाण सं. 2528. राजेन्द्र सं. 96. // विक्रम सं. 2058. आचारांग सूत्र के प्रथम श्रुतस्कंध में जो नव अध्ययन कहे गये है उनमें से अभी वर्तमानकाल में सातवा अध्ययन उपलब्ध नहीं हो रहा है अर्थात् व्युच्छिन्न हुआ है ऐसा स्थविर आचार्यों का निर्देश है... अत: छठे अध्ययन के बाद अब आठवे अध्ययन की ससूत्र टीका का राजेन्द्रसुबोधनी आहोरी हिन्दी टीका यहां क्रमशः प्रस्तुत है... Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 卐 1 - 8 - 0 - 0 म 89 प्रथमश्रुतस्कन्धे अष्टममध्ययनम् >> विमोक्षाध्ययनम् // छट्ठा अध्ययन कहा... अब क्रम प्राप्त सातवा अध्ययन कहने का अवसर है; किंतु महापरिज्ञा नाम का सातवा अध्ययन विच्छेद हुआ है, अतः अब छट्टे अध्ययन के बाद आठवा अध्ययन कहते हैं... यहां परस्पर संबंध इस प्रकार है कि- छढे अध्ययन में शरीर, उपकरण, तीन गारव, उपसर्ग एवं सन्मान के विधूनन के द्वारा नि:संगतता कही है... किंतु वह नि:संगता तब सफल हो कि- जब मुनी अपने जीवन के अंतकाल में सम्यक् निर्याण याने समाधि में रहे... अतः इस आठवे अध्ययन में सम्यग् निर्याण का स्वरूप कहते हैं... अथवा नि:संगता से विहार करनेवाले साधओं को विविध प्रकार से परीषह एवं उपसर्ग समभाव से सहन करने चाहिये... इत्यादि बातें यहां कहेंगे... उनमें भी मरणांतिक उपसर्ग होवे तब भी साधु अदीन मनवाला होकर सम्यग् निर्याण (समाधि) भाव रखें... इस अर्थ को कहने के संबंध से आये हुए इस. आठवे अध्ययन के उपक्रमादि चार अनुयोग द्वार होते हैं... उनमें उपक्रम द्वार में अर्थाधिकार दो प्रकार से कहे गये है... 1. अध्ययनार्थाधिकार... जो पहले कह चुके हैं... 2. उद्देशार्थाधिकार... जो अब नियुक्तिकार कहेंगे... नि. 253-256 आठवे अध्ययन के आठ उद्देशक हैं उनमें क्रमश: पहले से लेकर आठवे उद्देशक का अर्थाधिकार इस प्रकार है... अमनोज्ञ याने तीन सौ त्रेसठ (363) प्रवादीओं का त्याग करना चाहिये... अर्थात् उनके आहार उपधि शय्या का और उनकी दृष्टि का त्याग करें... जैसे कि- चारित्र तप एवं विनयकर्म में पासत्थादि असमनोज्ञ हैं और यथाच्छंद तो पांचो आचार में असमनोज्ञ हैं... अतः उनका यथायोग्य त्याग करें... 2. दुसरे उद्देशक में-अकल्पनीय आधाकर्मादि का त्याग करना चाहिये... अथवा आधाकर्म दोषवाले आहार के लिये यदि कोइ गृहस्थ निमंत्रण करे, तब निषेध करें... इस स्थिति में जब दाता रुष्ट हो; तब उन्हे शास्त्र की बात समझाकर कहें कि- ऐसे आधाकर्मादि दोषवाले आहारादि दान में तुम्हें और मुझे कोई लाभ नहि होगा; किंतु मात्र पापकर्म का हि बंध होगा... Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 90 // 1 - 8 - 0 - 0 श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन ____ तीसरे उद्देशक में- गोचरी के लिये गृहस्थों के घर में गये हुए साधु को शीत आदि से शरीर में कंपन हो; तब गृहस्थ को ऐसी शंका हो कि- यह साधु इंद्रियों के विषयों में आसक्त है, या शृंगारभाव के आवेश से इस साधु का शरीर कांप रहा है... इत्यादि गृहस्थ की शंका को दूर करने के लिये साधु यथावस्थित सच्ची बात का कथन करे... शेष पांच (4 से 8) उद्देशक में अर्थाधिकार इस प्रकार है- ४-चौथे उद्देशक में- शरीर एवं उपकरणों का त्याग जो पहले संक्षेप में कहा था; वह यहां विस्तार से कहेंगे... जैसे किवैहानस याने शरीर को बांध के लटका देना तथा गृद्धपृष्ठ याने यह शरीर के मांसादि मेरे नहि है; इत्यादि हृदय के भाव के साथ गृद्ध आदि पक्षीओं के द्वारा देह का विनाश करना... यह वैहानस एवं गृद्धपृष्ठ दोनों अर्थाधिकार मरण के हि प्रकार हैं... 5. पांचवे उद्देशक में ग्लान याने बिमारी का स्वरूप एवं भक्तपरिज्ञा का स्वरूप कहेंगे... 6. छठे उद्देशक में- एकत्व भावना तथा इंगितमरण का स्वरूप कहा जाएगा... सातवे उद्देशक में- साधुओं की एक माह आदि बारह प्रतिमाओं का स्वरूप तथा पादपोपगमन अनशन का स्वरूप कहेंगे... आठवे उद्देशक में- क्रमानुसार विहार करनेवाले एवं दीर्घकाल पर्यंत चारित्र का पालन करनेवाले साधुओं को शास्त्रार्थ ग्रहण एवं अध्यापन के बाद जब संयमाचरण, अध्ययन एवं अध्यापन क्रियाओं में श्रम लगता हो; एवं जब शिष्यवर्ग भी गीतार्थ हो चुके हो; तब वह मुनी उत्सर्ग से बारह (12) वर्ष पर्यंत संलेखना करके भक्तपरिज्ञा या इंगितमरण या पादपोपगमन प्रकार से अनशन स्वीकारें... यह नियुक्ति की पांच गाथाओं में उद्देशार्थाधिकार का संक्षिप्त अर्थ है, विस्तृत अर्थ तो प्रत्येक उद्देशक में कहा जाएगा... ; अनुयोग द्वार के द्वितीय निक्षेप द्वार में निक्षेप के तीन प्रकार है... 1. ओघनिष्पन्न निक्षेप... 2. नाम निष्पन्न निक्षेप... 3. सूत्रालापक निष्पन्न निक्षेप... उनमें ओघनिष्पन्न निक्षेप में “अध्ययन' पद के निक्षेप... नामनिष्पन्न निक्षेप में “विमोक्ष' नाम के निक्षेप कहेंगे... नि. 259 अब विमोक्ष पद के निक्षेप नियुक्तिकार कहते हैं... विमोक्ष पद के छह (6) निक्षेप होते हैं... 1. नाम, 2. स्थापना, 3. द्रव्य, 4. क्षेत्र, 5. काल, 6. भाव-विमोक्ष निक्षेप... इनमें द्रव्य विमोक्ष निक्षेप के दो प्रकार है... आगम से एवं नोआगम से... आगम से विमोक्ष याने ज्ञाता किंतु अनुपयुक्त... और नोआगम से विमोक्ष के तीन भेद हैं... ज्ञ शरीर, भव्य शरीर Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका म 1 - 8 - 0 - 0 91 एवं तद्व्यतिरिक्त... यहां तद्व्यतिरिक्त द्रव्य विमोक्ष याने निगड (बेडी-केद) आदि से मुक्ति... यहां विभक्ति का व्यत्यय हुआ है... अर्थात् पंचमी के अर्थ में सप्तमी का प्रयोग कीया है... अर्थात् निगड आदि द्रव्यों से विमोक्ष वह द्रव्य विमोक्ष... अथवा द्रव्य के द्वारा (तृतीया विभक्ति) या द्रव्य से (पंचमी विभक्ति) सचित्त-अचित्त मिश्र द्रव्य से विमोक्ष... इत्यादि... तथा क्षेत्रविमोक्ष याने चारकादि (केदखाना) आदि क्षेत्र से विमोक्ष... अथवा क्षेत्र के दान से विमोक्ष... अथवा जिस क्षेत्र में रहकर विमोक्ष पद की व्याख्या की जाय... वह क्षेत्रविमोक्ष... तथा कालविमोक्ष याने जिनालय-चैत्य के महिमादि महोत्सव के दिनों में अमारि की उद्घोषणा अथवा जिस काल में विमोक्ष पद की व्याख्या की जाय वह कालविमोक्ष... नि.२६० अब भाव-विमोक्ष का स्वरूप नियुक्तिकार कहते हैं... भाव-विमोक्ष के दो प्रकार हैं... 1. आगम से एवं 2. नो आगम से भाव विमोक्ष... वहां आगम से भाव विमोक्ष याने ज्ञाता तथा उपयुक्त और नोआगम से भाव विमोक्ष के दो प्रकार हैं... देश से एवं सर्व से... आगम से देश-भावविमोक्ष याने-अविरत सम्यग्दृष्टि का प्रथम अनंतानुबंधि कषाय चतुष्टय से विमोक्ष तथा देशविरतिवाले श्रावक को प्रथम आठ कषाय के क्षयोपशम से, और साधुओं को प्रथम बारह कषायों के क्षयोपशम से तथा क्षपकश्रेणी में जब तक संपूर्ण कषाय क्षय न हो; तब तक देश भाव विमोक्ष... तथा भवस्थ केवलज्ञानी भी भवोपग्राही (चार अघाति) कर्मो की अपेक्षा से देश भाव विमोक्ष हैं और सिद्ध परमात्मा हि सर्व भाव विमोक्ष निक्षेप में जानीयेगा... ___निगडादि का मोक्ष बंध पूर्वक ही माना गया है, अर्थात् पहले निगड में बंधन हो और बाद में निगडादि से मुक्ति... इसी प्रकार आत्मा को कर्मो के बंधन, और बाद में मुक्ति हो... अतः नियुक्तिकार महर्षि यहां कर्मबंध का स्वरूप कहतें हैं... नि. 261 कर्म-वर्गणाओं के द्रव्यों के साथ जीव का जो संयोग उसे बंध कहते हैं और वह कर्मबंध प्रकृतिबंध, स्थितिबंध, रसबंध एवं प्रदेशबंध के प्रकार से चार प्रकार का है... पुनः वे भी बद्ध, स्पृष्ट, निद्धत्त एवं निकाचना भेद से चार प्रकार से है... और आत्मा के प्रत्येक प्रदेश में अनंतानंत कर्म पुद्गल बंधे हुए हैं और वर्तमानकाल में अनंतानंत कर्म पुद्गल आत्म प्रदेशों के साथ बंधे जा रहे हैं... आत्मा मिथ्यात्व के उदय में आठ प्रकार के कर्मबंध करता है... _अन्यत्र भी कहा है कि- हे भगवन् ! जीव आठ कर्मप्रकृतियां क्यों बांधता है ? हे गौतम ! ज्ञानावरणीय कर्म के उदय से दर्शनावरणीय कर्म बांधता है, और दर्शन मोहनीय कर्म के उदय से मिथ्यात्व मोहनीय कर्म बांधता है... और मिथ्यात्व के उदय से जीव आठ कर्म प्रकृतियां बांधता है... अथवा... जिस प्रकार स्नेह (चिकाश) से लेपे हुए शरीर में रजः धुली Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 卐१ - 8 - 0-0卐 श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन चोंटती है, उसी प्रकार राग-द्वेष से स्निग्ध जीव में कर्मो का बंध होता है... इत्यादि... आठ प्रकार के इन कर्मो का वियोग (विनाश) आश्रव के निरोध से एवं तपश्चर्या के द्वारा या क्षपकश्रेणी के क्रम से शैलेशी अवस्था में होता है, उसे मोक्ष कहते हैं... और चार पुरुषार्थ में यह मोक्ष हि प्रधान पुरुषार्थ है... और यह मोक्ष खड्गधारा-तुल्य व्रतानुष्ठान का फल है... अन्य मतवालों ने मोक्ष का विकृत स्वरूप विभिन्न प्रकार का दिखलाया है; अत: यथावस्थित निर्दोष मोक्ष का स्वरूप तो आठ कर्म के वियोग से हि होता है; ऐसा आप्तपुरुषों ने कहा है... अब जीव का कर्मो के वियोग के उद्देश से होनेवाले मोक्ष का स्वरूप नियुक्तिकार कहतें हैं... नि. 262 सहज हि अनंतज्ञान स्वभाववाले असंख्येय प्रदेशी जीव ने अपने आप हि मिथ्यात्व अविरति प्रमाद कषाय एवं योगों के द्वारा बांधे हुए और प्रवाह से अनादिकाल के सत्तागत कर्मो का जो विवेक याने सर्व प्रकार से आत्मप्रदेशों में से विनाश हो, उसे हि मोक्ष कहतें हैं... इससे भिन्न दीपक के बुझ जाने जैसा निर्वाण इत्यादि जो अन्य मतवालों ने मोक्ष माना है; वह मोक्ष का वास्तविक स्वरूप नहि है... इस प्रकार यहां भाव-विमोक्ष का स्वरूप कहा... और वह भावविमोक्ष भक्तपरिज्ञा आदि तीन प्रकार में से कोई भी एक प्रकार से हि संभवित है... यहां कार्य में कारण का उपचार करने से भक्तपरिज्ञादि मरण हि भाव-विमोक्ष है... यह बात अब आगे की गाथा से नियुक्तिकार स्वयं कहतें हैं... नि. 263 (1) भक्त की परिज्ञा याने आहारादि का त्याग... अनशन... और वह त्रिविधाहार या चतुर्विधाहार के त्याग स्वरूप है... भक्तपरिज्ञा-अनशन स्वीकार करनेवाला साधु सप्रतिकर्म शरीरवाला एवं धृति-संहननवाला होता है... अतः जिस प्रकार समाधि हो, उस प्रकार अनशन स्वीकारतें हैं... तथा इंगित प्रदेश में जो मरण उसे इंगितमरण कहतें हैं... और वह चतुर्विध आहारादि के त्याग स्वरूप है, और यह इंगितमरण विशिष्ट संहननवाले साधु को हि होता है... तथा जो अन्य के सहकार बिना स्वयं हि देह के अंगोपांगों की उद्वर्तनादि क्रिया कर शके ऐसे साधु हि इंगितमरण-अनशन स्वीकारतें हैं... (3) पादपोपगमन - अनशन में... चर्तुविधाहार का त्याग होता है तथा अधिकृत चेष्टा (क्रिया) के सिवा अन्य उद्वर्तनादि क्रियाओं का त्याग... शरीर की कोई भी सेवाशुश्रुषा का त्याग... अर्थात् वृक्ष की तरह निष्क्रिय स्थिर रहना होता है... ' Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1 - 8 - 0 - 0 93 - जो मनुष्य (साधु) इसी जन्म में हि मोक्ष पानेवाला है; वह हि अंतिम मरण को स्वीकारे अर्थात् भक्तपरिज्ञादि तीन में से कोई भी एक प्रकार से हि शरीर का परित्याग करता है... किंतु अन्य वैहानसादि बालमरण का स्वीकार नहि करतें... अतः यहां कहे गये भक्तपरिज्ञादि तीन प्रकार के मरण हि भावमोक्ष है... यहां कहे गये इन तीनों प्रकार के मरण में जो विभिन्नता है वह चेष्टा, भेद एवं उपाधि याने उपकरणों की विभिन्नता से तीन प्रकार हुए हैं... . नि. 264 अब इसी हि भाव-मोक्ष स्वरूप मरण का स्वरूप सपराक्रम और अपराक्रम के भेद से दो प्रकार कहतें हैं; पराक्रम के साथ जो मरण हो, वह सपराक्रम मरण... और इससे जो विपरीत वह अपराक्रम मरण... जैसे कि- अपराक्रम मरण जंघाबल परिक्षीण होने पर जो भक्तपरिज्ञा, इंगितमरण एवं पादपोपगमन के भेद से त्रिविध होता है, और सपराक्रम मरण भी भक्तपरिज्ञादि भेद से तीन प्रकार से है... पुन: व्याघातिम और अव्याघातिम भेद से दो प्रकार से है... व्याघात याने सिंह, व्याघ्र आदि से... और अव्याघात याने प्रव्रज्या, सूत्रार्थ ग्रहण, आदि के द्वारा आनुपूर्वी याने अनुक्रम से आयुष्य क्षय होने पर होनेवाला मरण... यहां जो "आनुपूर्वी" कहा है, वहां यह परमार्थ है, कि- व्याघात से या आनुपूर्वी से सपराक्रमवाले या अपराक्रमवाले साधु को जब मरणकाल समीप में हो, तब सूत्रार्थ को जाननेवाले साधु अपने जीवन के अंत काल को जानने के कारण से समाधिमरण हि प्राप्त करें... अत: वे साधुजन भक्तपरिज्ञा या इंगितमरण या पादपोपगमन अनशन के द्वारा जिस प्रकार समाधि हो वैसा हि पंडितमरण करें... किंतु वैहानसादि बालमरण न करें यह यहां सारांश है... - नि. 265 अब सपराक्रम मरण दृष्टांत के द्वारा कहतें हैं... यह मरणादेश का दृष्टांत आचार्यों की परंपरा एवं शास्त्र से आया हुआ वृद्धवाद इस प्रकार है कि- यह सपराक्रम मरण ऐतिह्य याने प्राचीन-वर्तमान कालीन है यहां श्री वज्रस्वामीजी का दृष्टांत जानीयेगा... जिस प्रकार श्री वज्रस्वामीजी ने पादपोपगमन अनशन स्वीकार करके मरण को प्राप्त हुए थे... यह सपराक्रम मरण अन्यत्र भी मोक्षगामी साधु में आयोजित करें... यह गाथार्थ है... और भावार्थ श्री वज्रस्वामीजी की कथा से जानीयेगा... और वह कथा प्रसिद्ध हि है... जैसे कि- आर्यश्री वज्रस्वामीजी कान (कर्ण) के उपर रखा हुआ शृंगबेर याने सुंठ का टुकडा जब प्रमाद से भूल गये तब मरणकाल नजदीक है; ऐसा जानकर पराक्रमवाले हो कर रथावर्तगिरि के उपर पादपोपगमन अनशन का स्वीकार किया था इत्यादि... Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 941 - 8 -0-0 श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन नि. 266 अब अपराक्रम मरण की बात कहते हैं... पराक्रम याने सामर्थ्य जहां न हो वह अपराक्रम मरण... जैसे कि- जंघाबल से परिक्षीण उदधि नाम के आर्यसमुद्र का मरण हुआ... यह आदेश याने दृष्टांत वृद्ध वाद से आया हुआ है... पादपोपगमन में भी इसी प्रकार हि आदेश (दृष्टांत) जानीयेगा... जैसे कि- पादपोपगमन-अनशन से हि आर्य समुद्र का मरण हुआ था... यह अपराक्रम-मरण आर्य समुद्र का हुआ था... इसी प्रकार अन्य जगह भी जानीयेगा... यह गाथार्थ है... भावार्थ कथानक से जानीयेगा... जैसे कि- आचार्यजी आर्य समुद्र प्रकृति से दुर्बल हि थे, और बाद में जब जंघाबल से क्षीण हुए तब देखा कि- इस शरीर से अब संयमानुष्ठान का लाभ सुलभ नहि है, तब शरीर का त्याग करने की इच्छा से गच्छ में हि रहकर अनशन स्वीकार करके उपाश्रय के एक विभाग में निर्दारिम पादपोपगमन अनशन कीया था... नि. 267 अब व्याघातिम अनशन का स्वरूप कहते हैं... सिंह आदि से विशेष प्रकार के आघात-व्याघात से जो शरीर का विनाश हो, वह व्याघातिम मरण है... जैसे कि- किसी सिंह आदि के उपद्रव से हुए मरण को व्याघातिम मरण कहते हैं... यहां वृद्धवाद से आया हुआ आदेश (दृष्टांत) इस प्रकार है... जैसे कि- तोसलि नाम के आचार्य ने महिषी (जंगली भेंस) के द्वारा हुए उपसर्ग में चतुर्विध आहार का त्याग करके मरण को प्राप्त कीया था... यह व्याघातिम मरण है... यहां कथानक इस प्रकार है... जंगली भेंसो ने तोसलि नाम के आचार्य के उपर उपद्रव कीया था अथवा तोसलि-देश में बहोत सारी जंगली भेंस (महिषी) हैं... अब एक बार कोइ एक साधु अटवी में से पसार हो रहे थे; तब जंगली भेंसो के उपद्रव होने से साधुने देखा कि- अब जीना असंभव है, तब उन्हों ने चतुर्विध आहार का त्याग कर अनशन का स्वीकार कीया था... अब अव्याघातिम का स्वरूप कहतें हैं... नि. 268 आनुपूर्वी याने क्रम... अर्थात् अनुक्रम से जो होवे वृह अनुक्रमग... यहां वृद्धवाद आदेश इस प्रकार है कि- संयम के लिये तत्पर हुए मुमुक्षु को प्रथम प्रव्रज्या प्रदान करें... बाद / सूत्र का पठन और अर्थ का ग्रहण... और बाद में तदुभय याने सूत्रार्थानुसार संयमाचरण से परिपक्व होने पर गुरुजी की अनुज्ञा प्राप्त करके भक्तपरिज्ञादि तीन प्रकार में से कोई भी एक प्रकार के अनशन के लिये तैयार (तत्पर) होकर त्रिविध याने आहार, शरीर एवं उपधिशय्या के नित्य परिभोग का त्याग करता है... यदि वे आचार्य पद पे आरूढ हो, तब आचार्य पद योग्य शिष्य को आचार्य पद Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका देकर उत्सर्ग से बारह (12) वर्ष पर्यंत संलेखना विधि के द्वारा संलेखना करके बाद में गच्छ की अनुज्ञा से या अपने पद के उपर स्थापित आचार्य की अनुमति से अभ्युद्यत-मरण के लिये अन्य आचार्य के पास जावे... इसी प्रकार उपाध्याय, प्रवर्तक, स्थविर, गणावच्छेदक या सामान्य साधु आचार्य की अनुज्ञा प्राप्त करके संलेखना विधि से संलेखना करके भक्तपरिज्ञादि मरण को स्वीकारते हैं... द्रव्य संलेखना के साथ भाव संलेखना भी करें... क्योंकि- मात्र द्रव्य संलेखना में तो दोषों की संभावना है... नि. 269 - यदि आचार्य कहे कि- "आप ! पुनः संलेखना करो" तब वह साधु कोपायमान (क्रुद्ध) हो... किंतु ऐसा नहि होना चाहिए क्योंकि- राजा की तीक्ष्ण आज्ञा भी बाद में शीतल (मंद) होती है; इसी प्रकार आचार्य की भी आज्ञा भीम-कांत गुणवाली जानीयेगा... तथा नागवल्ली पत्तों में संडा हुआ पान (पत्ता) शेष पत्तों के संरक्षण के लिये त्याग कीया जाता है... इसी प्रकार गुरुजी दोषों को दुर करने के लिये प्रथम घट्टना याने कदर्थना करें... यदि साधु उस कदर्थना को सहन करे... और कहे कि- आपका प्रसाद है... इत्यादि यह यहां गाथार्थ है... और भावार्थ कथानक से जानीयेगा.... ___ वह कथानक इस प्रकार है- कोइ एक साधु ने बारह वर्ष की संलेखना से अपने आपको संलेखित करके मरण के लिये तत्पर होकर अपने आचार्यजी को विनंती की तब आचार्यजी ने कहा कि- अभी और अधिक संलेखना करो... तब कोपायमान होकर साधु ने अपनी अस्थि (हड्डी) मात्र रही दुर अंगुली को तोडकर कहा कि- अब यहां क्या अशुद्धि है ? तब आचार्यजी अपने अभिप्राय को प्रगट करते हए कहते हैं कि- आपकी संलेखना द्रव्य से हइ है; भाव से संलेखना नहि हुइ है; अत: आप अशुद्ध हैं... क्योंकि- हमारे कहने मात्र से आप कोपायमान होकर अंगुली को तोड दी... यह ठीक नहि कीया... कषायों का शमन हि भाव संलेखना है; आपने तो कोप करके अपनी भाव-अशुद्धि प्रगट की है... इस विषय में एक दृष्टांत सुनीयेकिसी एक राजा की आंखें सदा निष्पंद थी, उन्होंने अपने वैद्य की सलाह ली और औषधोपचार करने पर भी जब ठीक नहि हुइ; तब बाहर से आये हुए आगंतुक वैद्य ने कहा कि- मैं आपकी आंखे ठीक करुं किंतु यदि आप एक मुहूर्त (दो घडी) पर्यंत पीडा (वेदना) सहन करोगे और औषधोपचार से होनेवाली पीडा से मुझे प्राणांत दंड न दें... राजाने भी उस वैद्य की बात मान ली... वैद्यने जब राजा की आंखों में अंजन लगाया, तब हो रही तीव्र वेदना-पीडा से राजा कहने लगा कि-"मेरी आंखे चली गई" ऐसा कहाकर जब राजा वैद्य को मारने को तैयार हुआ; तब याद आया कि- राजा से भी राजा का वचन (आज्ञा) तीक्ष्ण है, इत्यादि... राजा खुद हि पहले से वैद्य के साथ वचन बद्ध हुए थे कि- वैद्य को नहि मारेंगे... अत: राजा ने वैद्य को नहि मारा... एक मुहूर्त के बाद जब पीडा शांत हुइ और आंखे अच्छी हुइ; तब Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 96 // 1 - 8 - 0 - 0 श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन राजा ने वैद्य का सन्मान-बहुमान कीया और राजा भी प्रसन्न रहा... __इसी प्रकार आचार्यजी की भी तीक्ष्ण-कठोर निर्देशात्मक आज्ञा परिणाम की दृष्टि से शीतल है... जब ऐसा समझाने पर भी वह साधु शांत न हो तब शेष साधुओं की सुरक्षा के लिये सडे हए नागरवेल के पत्ते की तरह उस साध को गच्छ से बाहार निकाल देना चाहिये... और यदि आचार्यजी के उपदेश का स्वीकार करे तो गच्छ में हि रहे हुए उस साधु को दुर्वचनादि से कदर्थना करनी चाहिये... जब वह साधु इस परिस्थिति में रहता हुआ कोप न करे, तब जानीयेगा कि- अब वह साधु भाव संलेखना से शुद्ध है... तब उस साधु को अनशन देने के साथ सार-संभाल के द्वारा समाधि प्राप्त करावें... अब अनशन स्वीकारनेवाला साधु कैसा हों ? और कितने काल तक आत्मा की संलेखना करें ? यह बात अब नियुक्तिकार स्वयं कहतें हैं... नि. 270, 271, 272, 273 जिस प्रकार पक्षी अपने बच्चों को प्रयत्न पूर्वक सार-संभाल के द्वारा उडने योग्य बनता. है, उसी प्रकार आचार्यजी अपने शिष्य को या आगंतुक साधु को सूत्र अर्थ एवं तदुभय के द्वारा अनशन के योग्य बनाने के लिये बारह वर्ष (साल) पर्यंत की संलेखना करवातें हैं... वह इस प्रकार-प्रथम के चार वर्ष पर्यंत विविध तपश्चर्या, जैसे कि- चोथ भक्त (उपवास) छट्ठ (बेला) अट्ठम (तेला) चार उपवास, पांच उपवास इत्यादि एवं पारणे में विगइवाला या बिना विगइ का आहार... तथा पांचवे वर्ष से आठवे वर्ष (चार वर्ष) पर्यंत बिना विगइ से हि पारणा करावें... तथा नववे एवं दशवे वर्ष (दो वर्ष) में आंबिल के बाद उपवास और पारणे में आंबिल पुनः उपवास, इस प्रकार आंबिल-उपवास आंबिल दो वर्ष पर्यंत करावें... उसके बाद ग्यारहवे वर्ष में पहले छह महिनों में अतिविकृष्ट तपश्चर्या न करें अर्थात् उपवास या छट्ठ तप करावें और पारणे में आंबिल करें... तथा अंतिम छह महिनों में विकृष्ट तपः करें अर्थात् अट्ठम, चार उपवास, पांच उपवास आदि और पारणे में आंबिल... तथा बारहवे वर्ष में कोटि सहित आंबिल याने प्रतिदिन आंबिल करावें... और बारहवे वर्ष के चार महिने शेष रहे, तब निरंतर (सतत) नमस्कार महामंत्र के पाठ (उच्चार) के लिये मुख शोष न हो, इस वास्ते बार बार तैल का कोगला (कुले) करे... इस प्रकार अनुक्रम से सभी प्रकार की संलेखना विधि करने के बाद यदि सामर्थ्य हो, तो गुरुजी की अनुज्ञा से गिरिकंदरा (पर्वत की गुफा) में जाकर स्थंडिल याने निर्जीव भुमी की पडिलेहणा करके पादपोपगमन अनशन करें... या जिस प्रकार समाधि रहे, उस प्रकार इंगितमरण या भक्तपरिज्ञा भक्तप्रत्याख्यान मरण का . स्वीकार करें... यह बारह वर्ष की संलेखना के द्वारा क्रमशः आहार की अल्पता हो, और अनुक्रम Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका // 1-8-1-1(210) // 97 से आहार की इच्छा का हि विच्छेद हो यह यहां तात्पर्य है... यह बात आगे की दो गाथा से कहते हैं... नि. 274, 275 तपश्चर्या में निष्णात (पंडित) वह है कि- जो सदा प्रतिदिन के बत्तीस कवल मात्रा प्रमाण आहार में भी संक्षेप करे... तथा आहार के बिना दो-तीन दिन या पांच-छह दिन रहकर पारणा करे... और पारणे में भी अल्प आहार लें... क्योंकि- उन्हें अनशन का स्वीकार करना हैं... इस प्रकार आहार की मात्रा (प्रमाण) घटाते हुए बारह साल की संलेखना के बाद भक्त प्रत्याख्यान (अनशन) करें... नाम निष्पन्न निक्षेप और उसकी नियुक्ति कही, अब सूत्रानुगम में अस्खलितादि गुण युक्त सूत्र का उच्चार करें... वह सूत्र यह रहा... श्रुतस्कंध - 1 अध्ययन - 8 उद्देशक - 1 . कुवादि-परिचय त्याग I सूत्र // 1 // // 210 // 1-8-1-1 से बेमि समणुण्णस्स वा असमणुण्णस्स वा असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा वत्थं वा पडिग्गहं वा कंबलं वा पायपुंछणं वा नो पदिजा नो निमंतिजा नो कुजा वेयावडियं परं आढायमाणे त्तिबेमि // 210 // // संस्कृत-छाया : सोऽहं ब्रवीमि-समनोज्ञस्य वा असमनोज्ञस्य वा अशनं वा पानं वा खादिमं वा स्वादिमं वा वस्त्रं वा पतद्ग्रहं वा कम्बलं वा पादपुञ्छनं वा न प्रदद्यात् न निमन्त्रयेत् न कुर्यात् वैयावृत्त्यं परं आद्रियमाणः इति ब्रवीमि // 210 // III सूत्रार्थ : हे आर्य ! पार्श्वस्थ मुनि या शिथिलाचारी (जैन साधु के वेश में स्थित किंतु चारित्र से हीन) साधु या जैनेतर भिक्षुओं को विशेष आदरपूर्वक अन्न, पानी, खादिम-मिष्टानादि एवं स्वादिम-लवंगादि, वस्त्र, पात्र, कम्बल और रजोहरण आदि न देवे, न निमन्त्रित करे और न उनका वैयावृत्त्य करे। इस प्रकार में कहता हूं। Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 98 1 -8-1-1(210) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन - = - IV टीका-अनुवाद : हे जंबू ! मैं सुधर्मस्वामी तुम्हें जो कुछ कह रहा हूं, वह मैंने भगवान् श्री महावीर प्रभुजी के मुख से सुना है, जैसे कि- दृष्टि या लिंग से समनोज्ञ (साधु) हो या असमनोज्ञ शाक्यादि साधु हो, उनको अशन याने ओदनादि आहार, पान याने द्राक्षजल आदि खादिम याने नालिकेरादि एवं स्वादिम याने लवंगादि तथा वस्त्र, पात्र, कंबल या रजोहरण आदि प्रासुक या अप्रासुक, कुशीलवाले ऐसे अन्य साधुओं को कुछ भी न दें... देने के लिये निमंत्रित भी न करें और उनकी वैयावच्च-सार-संभाल-सेवा भी न करें... अर्थात् उनके प्रति आदरवाले न बनें... v सूत्रसार : छठे अध्ययन में परीषहों पर विजय पाने का उपदेश दिया गया है। क्योंकि- परीषहों का विजेता ही संयम का भली-भांति परिपालन कर सकता है, वह विवेकी साधु आचार को शुद्ध रख सकता है। इसलिए प्रस्तुत आठवे अध्ययन में आचार एवं त्यागनिष्ठ जीवन का उल्लेख करते हैं... प्रस्तुत सूत्र में यह बताया गया है कि- साधु को किसके साथ सम्बन्ध रखना चाहिए। सम्बन्ध हमेशा अपने समान आचार-विचार वाले व्यक्ति के साथ रखा जाता है। इसी बात को यहां समनोज्ञ और अमनोज्ञ शब्दों से अभिव्यक्त किया गया है। दर्शन एवं चरित्र से संपन्न साधु समनोज्ञ कहलाता है और इन से रहित अमनोज्ञ / अतः साधु को दर्शन एवं चरित्र संपन्न मुनियों के साथ आहार आदि का सम्बन्ध रखना चाहिए, अन्य के साथ नहीं। इसके अतिरिक्त जो साधु दर्शन से सम्पन्न है और जैन मुनि के वेश में है, परन्तु, चारित्र सम्पन्न नहीं हैशिथिलाचारी है, या केवल वेश सम्पन्न है, परन्तु दर्शन एवं चारित्र निष्ठ नहीं है और जो साधु दर्शन, चारित्र एवं वेश से सम्पन्न नहीं है अर्थात् जैनेतर शाक्यादि सम्प्रदाय का भिक्षु है, तो उन्हें विशेष आदर सत्कार के साथ आहार पानी, वस्त्र-पात्र आदि पदार्थ नहीं देना चाहिए और उनकी वैयावृत्य-सेवा भी नहि करनी चाहिए। साधक का जीवन रत्नत्रय की विशुद्ध आराधना करने के लिए है। अतः साधु को ऐसे साधकों के साथ ही सम्बन्ध रखना चाहिए जो अपने स्तर के हैं। क्योकि- उत्तम साधुओं के संपर्क एवं सहयोग से साधु को अपनी साधना को आगे बढ़ाने में बल मिलेगा। परन्तु विपरीत दृष्टि रखने वाले एवं चारित्र से हीन व्यक्ति की संगत करने से अपने जीवन पर बुरा प्रभाव पड़ सकता है। पहले तो अपना अमूल्य समय कि- जो स्वाध्याय एवं चिन्तन-मनन में लगना चाहिए वह समय इधर-उधर की बातों में नष्ट होगा। तथा ज्ञान साधना में विघ्न पड़ेगा और बार-बार आचार एवं विचार के सम्बन्ध में विभिन्न तरह की विचारधाराएं सामने Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका // 1-8-1-1 (210) // 99 आने से साधु का मन विचलित होगा और परिणाम स्वरूप अपने आचार एवं विचार में भी शिथिलता आने लगेगी। अतः साधक को शिथिलाचार वाले स्वलिंगी एवं दर्शन तथा आचार से रहित अन्य लिंगी साधुओं से विशेष सम्पर्क नहीं रखना चाहिए। उन्हें आदर पूर्वक आहार आदि भी नहीं देना चाहिए। इसमें एक दृष्टि यह भी है कि- जैसे शिथिलाचारी साधु दर्शन एवं वेश से मनोज्ञ और चारित्र से अमनोज्ञ है, उसी प्रकार श्रावक एवं सम्यग् दृष्टि दर्शन से समनोज्ञ और चारित्र एवं वेश से अमनोज्ञ होते हैं और शाक्य, शैव आदि अन्य साधु, संन्यासी दर्शन, चारित्र एवं वेश से अमनोज्ञ हैं। अतः साधु किसके साथ आहारादि का सम्बन्ध रखे और किससे न रखे, यह बड़ी कठिनता है। सम्यग् दृष्टि से लेकर शिथिलाचारी तक मनोज्ञता एवं अमनोज्ञता दोनों ही हैं। यदि शिथिलाचारी के साथ आहार आदि का संबन्ध रखा जा सकता है, तो दर्शन से समनोज्ञ श्रावक के साथ संबन्ध क्यों न रखा जाए ? यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है। परन्तु, सबके साथ संबंध रखने पर वह अपनी साधना का भली-भांति परिपालन नहीं कर सकेगा। अतः साधु के लिए यही उचित है कि- ज्ञान, दर्शन एवं चारित्र से मनोज्ञ-संपन्न साधु के साथ ही अपना सम्बन्ध रखे, अन्य के साथ नहीं। जब उसका सम्बन्ध रत्नत्रय से सम्पन्न साधुओं के साथ ही है, तो वह प्रत्येक आवश्यक वस्तु अपने एवं अपने से सम्बद्ध साधकों के लिए ही लाएगा और देने वाले दाता भी उनके उपयोग के लिए ही देगा। अत: उसे अपने एवं अपने साथियों के लिए लाए हुए आहार-पानी आदि पदार्थों को अपने से असम्बद्ध व्यक्तियों को देने का कोई प्रसंग नहीं रहता है। प्रथम तो आहारादि पदार्थ अन्य असम्बद्ध साधु को देने के लिए गृहस्थ की आज्ञा न होने से तीसरे महाव्रत में दोष लगता है और दूसरा दोष यह आएगा कि-उनसे अधिक संपर्क एवं परिचय होने से अपने विशुद्ध दर्शन एवं चारित्र में शिथिलता आ सकती है। इसलिए साधक को अपने से असम्बद्ध स्वलिंगी एवं परलिंगी किसी भी साधु को विशेष आदर-सत्कार पूर्वक आहार-पानी आदि नहीं देना चाहिए। यह उत्सर्ग सूत्र है, अपवाद में कभी विशेष परिस्थिति में आहारादि दिया भी जा सकता है। इसलिए प्रस्तुत सूत्र में आहारादि देने का सर्वथा निषेध न करके आदर-सन्मान पूर्वक देने का निषेध किया गया है। ___ इससे स्पष्ट हो गया कि- इस निषेध के पीछे कोई दुर्भावना, संकीर्णता एवं तिरस्कार की भावना नहीं है। केवल संयम की सुरक्षा एवं आचार शुद्धि के लिए साधक को यह आदेश दिया गया है कि- वह रत्नत्रय से सम्पन्न मुनि के साथ ही आहार-पानी आदि का सम्बन्ध स्खे और उसकी ही सेवा-शुश्रुषा करे। इस विषय को और स्पष्ट करते हुए सूत्रकार महर्षि आगेका सूत्र कहते हैं... Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 100 1-8-1-2 (211) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन I सूत्र // 2 // // 211 // 1-8-1-2 धुवं चेयं जाणिजा असणं वा जाव पायपुंछणं वा, लभिया नो लभिया, भुंजिया नो भुजिया, पंथं विउत्ता विउक्कम्म विभत्तं धम्मं जोसेमाणे समेमाणे चलेमाणे पाइजा वा निमंतिजा वा कुज्जा वेयावडियं परं अणाढायमाणे तिबेमि // 211 // II संस्कृत-छाया : ध्रुवं चैतत् जानीयात् अशनं वा यावत् पादपुञ्छनं वा लब्ध्वा वा अलब्ध्वा वा, भुक्त्वा वा अभुक्त्वा वा पन्थानं व्यावृत्त्य अपक्रम्य वा विभक्तं धर्मं जुषन् समागच्छन् प्रदद्यात् वा निमन्त्रयेद् वा कुर्यात् वैयावृत्त्यं परं अनाद्रियमाणः इति ब्रवीमि // 211 // III सूत्रार्थ : __ यदि किसी जैन भिक्षु को कोई बौद्धादि भिक्षु ऐसा कहे कि- तुम्हें निश्चित रूप से हमारे मठ में सब प्रकार के अन्नादि पदार्थ मिल सकते हैं। अतः हे भिक्षु ! तू अन्न पानी आदि को प्राप्त करके या विना प्राप्त किए, आहारादि खाकर या विना खाए ही तुमको हमारे मठ में अवश्य आना चाहिए। भले ही तुम्हें वक्रमार्ग से ही क्यों न आना पड़े, किंतु आना अवश्य। यदि विभिन्न धर्म वाला साधु, उपाश्रय में आकर या मार्ग में चलते हुए को इस प्रकार कहता हो या आदरपूर्वक अन्नादि का निमन्त्रण देता हो या सम्मान पूर्वक अन्नादि पदार्थ देना चाहता हो और वैयावृत्य-सेवा-शुश्रूषा आदि करने की अभिलाषा रखता हो, तो ऐसी स्थिति में संयमशील मुनि को उसके वचनों का विशेष आदर नहीं करना चाहिए अर्थात् उसके उक्त-प्रस्ताव को किसी भी तरह स्वीकार नहीं करना चाहिए। इस प्रकार मैं कहता हूं। IV टीका-अनुवाद : कुशीलवाले वे शाक्यादि अशनादि को देखकर ऐसा कहे कि- देखिये ! हमारे निवास में हमेशा अशनादि होते हैं; अत: आपको यह अशनादि अन्य जगह प्राप्त हो, या प्राप्त न हो, तथा आहारादि वापरकर या बिना वापरे हमारे निवास में अवशय आइयेगा... अर्थात् आहारादि प्राप्त न हो तो, आहारादि की प्राप्ति के लिये, तथा आहारादि प्राप्त हो तो विशेष आहारादि के लिये, तथा भोजन करने पर बार बार भोजन करने के लिये और आहारादि न वापरा (खाया) हो तो प्रथमालिका याने प्रात:काल के अल्पाहार के लिये, जैसा भी हो; आप हमारे निवास स्थान में आइयेगा... आपको जैसा भी कल्पनीय होगा; वैसा हम देंगे... क्योंकिहमारा निवास-स्थान आपके लिये अनुपम है... अथवा तो हमारे लिये कीये हुए मार्ग को छोडकर वक्रमार्ग से भी आइयेगा... अथवा आकर के अन्य घरों में जाइयेगा... यहां आने में आप खेद न करें... इत्यादि... Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका // 1-8-1- 3 (212) 101 ___ * वह शाक्यादि विभिन्न धर्म को आचरनेवाले होते हैं, कभी अपने निवास स्थान में आते हुए होते हैं, या कभी जाते हुए बात करें, अथवा आहारादि दे, या आहारादि दान के लिये निमंत्रण करे या सार-संभाल वैयावच्च (सेवा) करे, तब उस कुशील का कुछ भी आहारादि ग्रहण न करें, या उनके साथ परिचय भी न करें, किंतु उनके प्रति अतिशय अनादरभाववाले हि रहें... ऐसा करने से हि दर्शन-शुद्धि होती है, ऐसा मैं तुम्हें कहता हूं... v सूत्रसार : .. पूर्व सूत्र में अपने से असंबद्ध अन्य मत के भिक्षुओं को आहार-पानी आदि देने का निषेध किया था। प्रस्तुत सूत्र में इसी बात को आगे बढ़ाते हुए कहा गया है कि- यदि कोई बौद्ध या अन्य किसी मत का साधु आकर कहे कि- हे मुनि ! तुम हमारे विहार में चलो ! वहां तुम्हें भोजन आदि की सब सुविधा मिलेगी। यदि तुम्हें हमारे यहां का भोजन नहीं करना हो तो तुम भोजन करके आ जाना। भले ही तुम भोजन करके आओ या भूखे ही आओ, जैसे तुम्हारी इच्छा हो, परन्तु हमारे यहां आना अवश्य / इस तरह के वचनों को मुनि आदर पूर्वक श्रवण न करे। इसका तात्पर्य यह है कि- वे विभिन्न प्रलोभनों के द्वारा परिचय बढ़ाकर उसे अपने मत में मिलाने का प्रयत्न करते हैं। इसलिए उनके संपर्क से मुनि के आचार एवं विचार में शिथिलता आ सकती है, वह साधना पथ से विचलित हो सकता है। अतः साधु को उनसे घनिष्ट परिचय नहीं करना चाहिए और न उनके संपर्क में अधिक आना चाहिए। श्रुत एवं आचार सम्पन्न विशिष्ट गीतार्थ साधक हि अन्य मत के भिक्षुओं के साथ विचार-चर्चा कर सकता है। क्योंकि- गीतार्थ साधु में अपनी साधना में दृढ़ रहते हुए अन्य व्यक्ति को सत्य मार्ग बताने की योग्यता है। वह उन्हें भी सही मार्ग पर ला सकता है। अतः विशिष्ट साधक के लिए प्रतिबन्ध नहीं है। परन्तु, सामान्य साधक में अभी इतनी योग्यता नहीं है कि- वह उन्हें सही मार्ग पर ला सके। अत: उनके लिए यह आवश्यक है कि- वह अपने से संबद्ध मुनियों के अतिरिक्त अन्य के साथ संपर्क न बढ़ावे, न उनका आदर-सन्मान करे एवं उनके स्थान पर भी न आए-जाए। तथा उनकी सेवा न करे और उनसे सेवा-शुश्रूषा न करावे। अन्य मत के विचारकों की विचारधारा कैसी है, यह बात सूत्रकार महर्षि आगे के सूत्र से कहेंगे... I सूत्र // 3 // // 212 // 1-8-1-3 इहमेगेसिं आयारगोयरे नो सुनिसंते भवति, ते इह आरंभट्ठी अणुवयमाणा हण पाणे घायमाणा हणओ यावि समणुजाणमाणा अदुवा अदिण्णमाययंति, अदुवा वायाउ Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 102 // 1-8-1- 3 (212) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन % 3D विउजंति, तं जहा-अस्थि लोए अपजवसिए लोए सुकडेत्ति वा दुक्कडेत्ति वा कल्लाणेत्ति वा पावेत्ति वा साहुत्ति वा असाहुत्ति वा सिद्धित्ति वा असिद्धित्ति वा निरएत्ति वा अनिरएत्ति वा जमिणं विप्पडिवण्णा मामगं धम्मं पण्णवेमाणा इत्थ वि जाणह अकस्मात् एवं तेसिं नो सुयक्खाए धम्मे नो सुपण्णत्ते धम्मे भवइ // 212 // // संस्कृत-छाया : . इह एकेषां आचारगोचरः न सुनिशान्तः भवति, ते इह आरम्भार्थिनः अनुवदन्तः, जहि प्राणिनः, घातयन्तः घ्नन्तः च अपि समनुजानन्तः, अथवा अदत्तं आददति, अथवा वाचः (विकुर्वन्ति) वियुजन्ति, तद्-यथा-अस्ति लोकः, अपर्यवसितः लोकः सुकृतमिति वा दुष्कृतमिति वा कल्याण: इति वा, पापः इति वा साधुः इति वा असाधुः इति वा, सिद्धिः इति वा असिद्धिः इति वा नरक इति वा अनरक इति वा यदिदं . विप्रतिपन्ना: मामकं धर्म प्रज्ञापयन्तः, अत्र अपि जानीत अकस्मात् एवं तेषां न स्वाख्यातः धर्मः, न सुप्रज्ञप्तः धर्मः भवति // 212 // III सूत्रार्थ : इस संसार में कुछ व्यक्तियों को आचार विषयक सम्यग् बोध नहीं होता। अत: कुछ अज्ञात भिक्षु इस लोक में आरम्भार्थ प्रवृत्त हो जाते है। वे अन्य धर्मावलम्बियों के कथनानुसार स्वयं भी जीवों के वध की आज्ञा देते हैं, दूसरों से वध करवाते हैं और वध करने वालों का अनुमोदन भी करते हैं। वे अदत्तादान का ग्रहण करते हैं और अनेक तरह के वचनों के द्वारा एकांत पक्ष की स्थापना करते हैं। जैसे कि- कुछ व्यक्ति कहते है कि- लोक है, तो कुछ कहते हैं कि- लोक नहीं है। कोई कहता है कि- यह लोक ध्रुव-शाश्वत है, तो कोई कहता है कि- यह लोक अधव-अशाश्वत है। कोई कहता है कि- लोक आदि है, तो कोई कहता है कि- लोक अनादि है। कोई कहता है कि- लोक सान्त है, तो कोई कहता है किलोक अनन्त है। कोई कहता है कि- इसने दीक्षा ली यह अच्छा काम किया, तो कोई कहता है कि- इसने यह अच्छा नहीं किया है। कोई कहता है, धर्म कल्याण रूप है तो कोई कहता है कि- धर्म पाप रूप है। कोई कहता है कि- यह साधु है, तो कोई कहता है कि- यह असाधु है। कोई कहता है कि- सिद्धि है, तो कोई कहता है कि- सिद्धि का अस्तित्व ही नहीं हैं। कोई कहता है कि- नरक है, तो कोई कहता है- नरक का सर्वथा अभाव है। इस प्रकार यह विभिन्न विचारक लोक एकान्ततः अपने 2 मत की स्थापना करते हैं। वे अन्य धर्मावलम्बी लोक विविध प्रकार के विरुद्ध वचनों से धर्म की प्ररूपणा करते हैं। अत: भगवान / कहते हैं कि- हे शिष्यो ! इन विभिन्न धर्मावलम्बियों के द्वारा कथित धर्म का स्वरूप अहेतुक होने से प्रामाणिक नहीं है और उनमें एकांत पक्ष का अवलम्बन होने से वह यथार्थ भी नहीं Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1-8 - 1 - 3 (212) 103 है। अतः तुम्हें यह समझना चाहिए कि- वह आदरणीय भी नहीं है। IV टीका-अनुवाद : इस मनुष्य लोक में अशुभ कर्मो के विपाकोदयवाले कितनेक लोग मोक्ष के अनुष्ठान (आचार) को अच्छी तरह से जानतें नहिं हैं, और भिक्षाचर्या अस्नान, पसीना, मेल आदि परीषहों से पराभव पाकर सखशील ऐसे शाक्यादि साध आरंभ समारंभ की कामना करते हैं... जैसे कि- मठ, बगीचा, तालाब, कूवे आदि करवाना, तथा औद्देशिकादि दोषवाले भोजनादि के द्वारा धर्म होता है; ऐसा कहतें हैं... तथा प्राणीओं का वध करो ऐसा आदेश देते हैं, तथा अन्य लोगों के द्वारा प्राणीओं का वध करवातें, एवं प्राणीओं का वध करनेवालों को अच्छा मानतें हैं... अथवा अशुभ अध्यवसायवाले एवं पाप का डर न रखते हुए वे दुसरों के अदत्त धन को ग्रहण करते हैं.... प्रथम एवं तृतीय व्रत में थोडा वक्तव्य होने से पहले कहकर अब बहोत वक्तव्य वाला दुसरा व्रत कहते हैं... अथवा पहले अदत्त धन को ग्रहण करते हैं और बाद में विविध प्रकार के झूठे वचन बोलतें हैं... जैसे कि- स्थावर एवं जंगम स्वरूप लोक है, और नव खंडवाली पृथ्वी है, अथवा सात द्वीप प्रमाण पृथ्वी है... तथा अन्य मतवाले कहते हैं किब्रह्मांड स्वरूप जगत है... तथा दूसरे लोग कहते है कि-ऐसे अनेक ब्रह्मांड जल में तैरते हुए रहे हुए हैं... तथा अपने कीये हुए कर्म फल को भुगतनेवाले जीव हैं, परलोक है, तथा बंध एवं मोक्ष है... तथा पांच महाभूत हैं... इत्यादि... तथा चार्वाक मतवाले कहते हैं कि- लोक हि नहि है, जो कुछ दीख रहा है, वह माया-इंद्रजाल या स्वप्न हि है... तथा उन्होंने रमणीयता का विचार कीये बिना हि भूतों का स्वीकार कीया है, तथा उनके मत अनुसार परलोक में जानेवाला जीव हि नहि है... और शुभ याने पुन्य और अशुभ याने पाप नहि है... किंतु किण्व याने मदिरा के बीज आदि से उत्पन्न होनेवाली मद-शक्ति से हि चैतन्य उत्पन्न होता है... इस प्रकार जो कुछ दिखाइ देता है; वह सभी माया-गंधर्व नगर के समान हि है... क्योंकि- वे उपपत्ति-क्षम नहि है... कहा भी है कि-जैसे जैसे पदार्थों का विचार करते हैं; वैसे वैसे हि उनका विभाग कीया जाता है... तथा शरीर, विषय एवं इंद्रियां पृथ्वी आदि पांच भूत से बने हुए हैं, तो भी मंद (अज्ञानी) लोग दुसरों को तत्त्व का उपदेश देते हैं... इत्यादि... तथा सांख्यमतवाले कहते हैं कि- यह लोक ध्रुव याने नित्य है, क्योंकि- उत्पाद से आविर्भाव (प्राकट्य) तथा विनाश से तिरोभाव (अदृश्य) होवे, किंतु असत् की कभी उत्पत्ति नहि होती और सत् का कभी भी विनाश नहि होता... अथवा ध्रुव याने निश्चल... नदीयां, समुद्र, पृथ्वी, पर्वत एवं आकाश तो सदा निश्चल हि है... Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ E 104 // 1-8-1-3(212) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन % तथा शाक्यादि मतवाले कहते हैं कि- लोक अध्रुव याने अनित्य है, क्योंकि- लोक प्रतिक्षण विनाशशील है... तथा विनाश के हेतु के अभाव वाले नित्य पदार्थ में क्रम से या एक साथ अर्थ क्रिया में प्रयुक्त होने का सामर्थ्य हि नहि है... अथवा अध्रुव याने चल (चंचल)... जैसे कि- कितनेक लोगों के मत से भूगोल नित्य होते हुए भी चल है... तथा सूर्य तो व्यवस्थित हि है, तो भी जो लोग सूयमंडल को दूर से पूर्व की और देखतें हैं; उनकी दृष्टि से सूर्योदय है, तथा जो लोग सूर्यमंडल को नीचे की और हैं, उनकी दृष्टि से मध्याह्न (दुपहर) है, और जो लोग सूर्यमंडल से बहोत हि दूर होने से सूर्य को देख नहि पातें उनकी दृष्टि से सूर्यास्त है... तथा अन्य कितनेक लोग लोक को सादि याने उत्पन्न मानतें हैं... वह इस प्रकार... यह जगत् अंधकारमय है, अज्ञात है, लक्षण रहित है, चिंतन योग्य नहि है, जानने योग्य नहि. है, किंतु चारों और से सोये हुए की तरह सुप्त हि है... ऐसे इस एकार्णव याने चारों और जल. हि जल स्वरूप; इस जगत में स्थावर एवं जंगम का विनाश हुआ था, देव एवं मानव विनष्ट हुए थे, उरग एवं राक्षस भी विनष्ट हुए थे, महाभूतों से रहित मात्र गड्ढे की तरह रहा हुआ था, ऐसे इस जगत में अचिंत्यात्मा प्रभु सोये हुए तपश्चर्या करते थे; तब सोये हुए उन प्रभु के नाभि में से एक कमल प्रगट हुआ, कि-जो तेजस्वी सूर्य मंडल की तरह रमणीय सुवर्ण कर्णिकावाला वह कमल था... उस कमल में यज्ञोपवीतवाले भगवान दंडी ब्रह्माजी प्रगट हुए, उन्होंने जगत की जनेता माताओं का सर्जन कीया... देवों की माता अदिति, असुरों की माता दिति, मनुष्यों की माता मनु, पक्षीओं की माता विनता, सरीसृप याने सों की माता कद्रु, नाग की माता सुलसा, गाय, भेंस आदि चतुष्पदों की माता सुरभि, एवं शेष सभी बीजों की माता पृथ्वी... इत्यादि... तथा कितनेक लोग इस लोक को अनादि मानतें हैं, जैसे कि- शाक्य मतवाले ऐसा कहते हैं कि- हे साधुजन ! यह संसार अनादि कालीन है, क्योंकि- इस संसार की आदि कोटी याने प्रारंभ नहि जाना जा शकता है... तथा जो प्राणी निरावरण है, उनको अविद्या नहि होती, और प्राणी की उत्पत्ति भी नहि है... तथा जगत के प्रलय में सभी का विनाश होने के कारण से यह लोग सपर्यवसित याने अंतवाला है... तथा आत्यंतिक याने सर्व प्रकार से विनाश न होने के कारण से यह लोक अपर्यवसित है... अर्थात् अनंत है... क्योंकि- शास्त्र का ऐसा वचन है कि- “यह जगत् अनीदृश कभी भी नहि है" यहां पर जिन्हों के मत से यह संसार सादि है, उनके हि मत में अंतवाला भी माना गया है, तथा जिन्हों के मत में यह संसार अनादि माना गया है, उनके मत से अनंत है तथा कितनेक लोगों के मत से यह संसार दोनों प्रकार से माना गया है... अन्यत्र भी कहा गया है कि- इस लोक में क्षर एवं अक्षर दो पुरुष है, उनमें सभी Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1-8-1 - 3 (212) 105 भूत-प्रांणी क्षर है जब कि- अक्षर कुटस्थ-नित्य है, इत्यादि... इस प्रकार परमार्थ को नहि जाननेवाले लोग इस संसार को “अस्ति" याने "है हि" ऐसा मानकर परस्पर विवाद करतें हैं तथा आत्मा के विषय में भी विवाद करते हैं... जैसे कि- यह सुकृत है; या यह दुष्कृत है ऐसा क्रियावादी मतवाले मानतें हैं... जिसने सर्व संग का परित्याग करके महाव्रत का आचरण कीया है, उसने सुकृत कीया है... तथा पुत्र की प्राप्ति के बिना हि जिसने भोली पत्नी का त्याग कीया है, उसने दुष्कृत कीया है... ...तथा प्रव्रज्या के लिये तत्पर कीसी मनुष्य को कितनेक लोगों ने कल्याण याने अच्छा माना है, जब कि- इस स्थिति में कितनेक लोग ऐसा कहतें हैं कि- पाखंडिओं की बात में आकर नपुंसक ऐसा यह मनुष्य गृहस्थाश्रम के पालन में असमर्थ और पुत्र के अभाव में पापी हि है... तथा.साधु याने सज्जन और असाधु याने दुर्जन यह भी स्वमति कल्पित हि है; ऐसा वे कहतें हैं... इसी प्रकार सिद्धि या असिद्धि तथा नरक या अनरक इत्यादि अन्य बाबतों में भी अपने अपने आग्रह के अनुसार विवाद करते हैं... अर्थात् लोक-जनता की विचारधाराओं को लेकर विभिन्न प्रकार से वाद-विवाद करते हैं... अन्यत्र भी कहा है कि- सृष्टिवादी महेश्वरादि मतवाले कहते हैं कि- यह संपूर्ण लोक कृत्रिम है और आरंभ एवं अंतवाला है तथा प्रमाण ज्ञान से जाना जा शकता है... . तथा कितनेक लोग कहते हैं कि- यह लोक नारीश्वर याने महेश्वर से उत्पन्न हुआ है और कोइ कहते हैं कि- यह संसार सोमाग्नि से उत्पन्न हुआ है और कोइ कहतें हैं कियह लोक द्रव्यादि छह (6) विकल्प स्वरूप है... जब कि- कितनेक लोग कहते हैं कि- यह संसार ईश्वर से बना है, कोइ कहते हैं कि- ब्रह्माजी ने बनाया है, और कपिल मतवाले कहतें हैं कि- यह संपूर्ण विश्व अव्यस्त से उत्पन्न हुआ है, कोइ कहतें हैं कि- यह संसार यादृच्छिक है, और कोइ कहते है कि- यह लोक भूत के विकार स्वरूप है और कोइ कहते हैं कियह संसार अनेकरूप है.... इस प्रकार लोक (संसार) के विषय में अनेक प्रकार के विचार धाराएँ प्रचलित है... इत्यादि... इस प्रकार स्याद्वाद-मत के परिचय के बिना एक अंश को माननेवाले बहोत सारे मत-भेद इस लोक में देखे जाते हैं... अन्यत्र भी कहा है कि- विभिन्न पदार्थ के विषय में जिन्हों ने स्याद्वाद-मत से तत्त्व का परमार्थ जाना नहि है; वे लोग आपस आपस में (परस्पर) विवाद करते हैं... किंतु जिन्हों ने स्याद्वाद-मत के परिचय से वस्तु-पदार्थ का अस्तित्व, नास्तित्व आदि स्वरूप जानकर नय की विवक्षा से संवाद कीया हैं उनको कोई विवाद है हि नहि... यहां बहोत कुछ कहने योग्य है, किंतु ग्रंथ के विस्तार के भय से संक्षेप में हि कहा है... परंतु सुयगडांग आदि आगम-सूत्रों में यह बात विस्तार से कही गइ है... Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 106 // 1-8-1-3(212) // श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन %3 पदार्थ के एक-एक अंश को लेकर चलनेवाले विभिन्न मतवाले लोग परस्पर विवाद करते हुए कहते हैं कि- “हमारा धर्म हि सत्य है" इस प्रकार वे स्वयं हि विनष्ट हुए हैं और अन्य लोगोंका भी विनाश करतें हैं... जैसे कि- कितनेक मतवाले कहते हैं कि- तकलीफ (कष्ट) न हों; वैसे सुख से हो शके वह हि धर्म है, जब कि- अन्य लोग कहते हैं किदुःख सहन करने से हि धर्म होता है... तथा अन्य कितनेक लोग कहते हैं कि- स्नान आदि शौच में हि धर्म है... इत्यादि... और ऐसा भी कहते हैं कि- मोक्ष के लिये हमारा धर्म हि सर्वोत्तम धर्म है, अन्य नहि... इस प्रकार स्वयं हि अधर्म-मार्ग में रहनेवाले वे कुतीर्थिक परस्पर विवाद करते हुए अन्य मुग्ध लोगों को ठगते हैं... अर्थात् सच्चे धर्म से विचलित करतें हैं... अब स्याद्वाद-मत से अन्य कुमतों का निराश (खंडन) करते हुए कहते हैं कि- हे कुतीर्थिक ! आप जो कहते हैं कि- यह लोक है; या नहि है; इत्यादि में कौन हेतु है ? अर्थात् कोइ हेतु नहि है... इत्यादि... अब आप सावधानी से वास्तविक युक्तियुक्त बात सुनो... जैसे कि- यदि यह लोक एकान्तभाव से है, तो “अस्ति" के साथ समानाधिकरण "नास्ति' से यह लोक प्रतिक्षण अलोक भी है; ऐसा मानना चाहिये... और ऐसी मान्यता में लोक हि अलोक होगा... क्योंकि- व्याप्य के सद्भाव में व्यापक का भी सद्भाव मानना होगा... और यदि आप अलोक का अभाव मानतें हैं; तो अलोक के प्रतिपक्ष लोक का भी प्राग् अभाव मानना होगा... अथवा तो लोक सर्वगत है; ऐसा मानना होगा... अथवा लोक है और लोक नहि है... तथा लोक भी नाम मात्र है... तथा अलोक के अभाव में लोक नहि है... इत्यादि किंतु यह सब असमंजस याने अनिष्ट है... तथा लोक के होने के व्यापकत्व में व्याप्य घट-पटादि को भी लोकत्व की प्राप्ति होगी... क्योंकि- व्यापक के सद्भाव में हि व्याप्य का होना संभवित है... तथा “लोक है" ऐसी यह प्रतिज्ञा लोक के साथ अस्ति याने होने-पने का हेतु को लेकर प्रतिज्ञा और हेतु में एकत्व की प्राप्ति होती है, और एकत्व की प्राप्ति में हेतु का अभाव हो जाता है, और हेतु का जब अभाव हो गया हो तो; कौन किस से सिद्ध होगा ? और यदि आप अस्तित्व से अन्य लोक है, ऐसा कहोगे तो प्रतिज्ञा की हानि होती है... अत: एकान्त से लोक के अस्तित्व के स्वीकार में हेतु का अभाव प्रदर्शित होगा... इसी प्रकार “लोक नहि है" ऐसा कहोगे तो भी यह हि दोष होगा... जैसे कि- “लोक नहि है" ऐसा जो कहते हैं, उनको हम कहेंगे कि- क्या आप है या नहि ? यदि आप हैं; तो लोक के अंदर हो या बाहर ? यदि आप लोक के अंदर हो तो फिर आप ऐसा कैसे कहते हो, कि- लोक नहि है ?... यदि आप लोक से बाहार हो, तो फिर खरविषाण याने गद्धे के शींग की तरह आप खुद हि असद्भूत हो जाओगे तो फिर हम किन्हें उत्तर दें ? किनसे बात करें ? इस प्रकार से एकांतवादीओं का स्यादवाद से प्रतिक्षेप करें... Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1 - 8-1- 3 (212) // 107 तथा जिस प्रकार लोक के होने और नहि होने में एकांतवादीओं का वचन हेतु युक्ति रहित है, इस प्रकार ध्रुव-अध्रुव आदि वचन भी हेतु रहित हि हैं... जब स्याद्वाद-मतवाले हम को “अपेक्षा से लोक को होना और नहि होना” ऐसा मानने में उपर कह गये दोष नहि होंगे... क्योंकि- स्व एवं पर की सत्ता का निराकरण एवं स्वीकार में हि वस्तु का वस्तुत्व सिद्ध होता है... अत: जो वस्तु स्वद्रव्य स्वक्षेत्र स्वकाल एवं स्वभाव से “अस्ति' अर्थात् है, वह वस्तु पर द्रव्य-क्षेत्र- काल एवं भाव से “नास्ति' याने नहि है... अन्यत्र भी कहा है कि- स्वद्रव्यादि चार प्रकार से सभी वस्तुओं का अस्तित्व कौन नहि मानेगा ? तथा पर द्रव्यादि चार प्रकार से इसी वस्तुओं का असत् याने नास्तित्व को भी कौन नहि मानेगा ? इत्यादि बहोत विस्तार-अर्थ है; किंतु यहां हमने मात्र शब्दार्थ कहने का हि प्रयास कीया है... इसी प्रकार ध्रुव-अध्रुव आदि वचनों में भी पांच अवयव या दश अवयव के विधान के द्वारा या अन्य कोई प्रकार से एकांत-पक्ष का विक्षेप याने खंडन करके स्याद्वाद-पक्ष की स्थापना स्वयं हि अपनी सूक्ष्म प्रज्ञा से युक्तियुक्त करें... अंब इस सूत्र का उपसंहार करते हुए कहते हैं कि- इस प्रकार उन एकांत-वादीओं का कहा गयाँ धर्म, वास्तव में धर्म हि नहि है, और उनके शास्त्रों की रचना भी युक्तियुक्त नहि है... अब शिष्य गुरुजी को कहते हैं कि- हे गुरुजी ! क्या आप यह बात अपने मन से हि कहते हो ? या किसी अन्य आधार से ? तब गुरुजी कहते हैं कि- हे शिष्य ! यह मैं मेरे मन से नहि कहता हुं, किंतु वीतराग-सर्वज्ञ परमात्मा के मुख से सुनकर मैं यह सब कुछ कहता हुं... .. अथवा तो किस प्रकार से कहा गया धर्म सुप्रज्ञापित होता है ? इस प्रश्न का उत्तर पंचम गणधर श्री सुधर्मास्वामीजी अपने अंतेवासी शिष्य जंबूस्वामीजी को आगे के सूत्र से समझाते हैं... v सूत्रसार : पूर्व सूत्र में जिनमत से असम्बद्ध अन्य मत के भिक्षुओं के साथ परिचय बढ़ाने का जो निषेध किया है, उसका कारण यह है कि- वे धर्म से परिचित नहीं हैं। उनका आचारविचार साधुत्व के योग्य नहीं है। वे हिंसा, झूठ, चोरी आदि दोषों से मुक्त नहीं हुए है। वे स्वयं हिंसा आदि दोषों का सेवन करते हैं, अन्य व्यक्तियों से दोषों का सेवन करवाते हैं और दोषों का सेवन करने वाले व्यक्तियों का समर्थन भी करते हैं। इसी तरह वे भोजनादि स्वयं बना लेते हैं, या अपने लिए बनवा लेते हैं। इसी प्रकार वे अग्नि, पानी आदि का आरम्भसमारम्भ भी करते-करवाते हैं। अतः वे किसी भी प्रकार के दोष से निवृत्त नहीं हुए हैं। Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 108 // 1-8-1-3 (212) // श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन दुसरी बात यह है कि- उन्हें तत्त्व का भी बोध नहीं है। क्योंकि- लोक है, लोक नहीं है, लोक ध्रुव है, लोक अध्रुव है, लोक अनादि है, लोक सपर्यवसित-सान्त है, लोक अपर्यवसित-अनन्त है, सुकृत है, दुष्कृत है, पाप है, पुण्य है, साधु है, असाधु है, सिद्धि है, असिद्धि है, नरक है, नरक नहीं है, इन बातों को अन्यमतवाले स्पष्टतया नहीं जानते हैं। कोई इनमें से किसी एक का प्रतिपादन करता है, तो दूसरा उसका निषेध करके अन्य का समर्थन करता है। जैसे वेदान्तदर्शन लोक को एकान्त ध्रुव मानता है, तो बौद्धदर्शन इसे एकान्त अध्रुव मानता है। इसी प्रकार अन्य दार्शनिक भी किसी एक तत्त्व का प्रतिपादन करके दूसरे का निषेध करते हैं। क्योकि- उन्हें वस्तु के वास्तविक स्वरूप का बोध नहीं होने से उनके विचारों में स्पष्टता एवं एकरूपता नजर नहीं आती है। जैसे वेदों में विराट् पुरुष द्वारा सृष्टि का उत्पन्न होना माना है। मनुस्मृति आदि में लिखा है कि- सृष्टि का निर्माण अण्डे से हुआ है। पुराणों में विष्णु की नाभि से एक कमल उत्पन्न हुआ और उससे सृष्टि का सर्जन हुआ ऐसा उल्लेख किया गया है। स्वामी दयानन्दजी की कल्पना इससे भिन्न एवं विचित्र है। वे माता-पिता के संयोग के बिना ही अनेक स्त्री-पुरुषों का उत्पन्न होना मानते हैं। ईसाई और यवन विचारकों की सृष्टि के सम्बन्ध में इनसे भी भिन्न कल्पना है। गॉड (इश्वर) या खुदा ने कहा कि- सृष्टि उत्पन्न हो गइ और एकदम सारा संसार जीवों से भर गया। इस प्रकार अन्य तत्त्वों के विषय में भी सबकी भिन्न भिन्न कल्पना है। इसलिए कोई विचारक एक निश्चय पर नहीं पहुंच सका हैं। इसलिए जिन आगम में कहा गया है कि- जिनमत से असम्बद्ध विचारकों के साथ परिचय नहीं रखना चाहिए। क्योंकि- इससे श्रद्धा-निष्ठा में गिरावट आने की सम्भावना है। उपरोक्त तत्त्वों के सम्बन्ध में जैनों का चिन्तन स्पष्ट है। जैसे कि- संसार के समस्त पदार्थ अनेक धर्म वाले हैं, अत: उनका एकान्त रूप से एक ही स्वरूप नहीं होता है। यह लोक नित्य भी है और अनित्य भी है, सादि भी है और अनादि भी है। वह सान्त भी है और अनन्त भी है। भगवती सूत्र में बताया गया है कि- लोक चार प्रकार का है... द्रव्य लोक, क्षेत्र लोक, काल लोक और भाव लोक। द्रव्य और क्षेत्र से लोक नित्य है। क्योंकिद्रव्य का कभी नाश नहीं होता है और क्षेत्र से भी वह लोक सदा 14 रज्जू परिमाण का रहता है। काल एवं भाव की अपेक्षा से वह अनित्य है। क्योंकि- भूतकाल में लोक का जो स्वरूप था, वह वर्तमान में नहीं रहा और जो वर्तमान में है; वह भविष्य में नहीं रहेगा, उसकी पर्यायों में प्रतिसमय परिवर्तन होता रहता है। इसी तरह भाव की अपेक्षा से भी उसमें सदा एकरूपता नहीं रहती है। कभी वर्णादि गुण हीन हो जाते हैं, तो कभी अधिक हो जाते हैं। ' अतः द्रव्य और क्षेत्र की अपेक्षा लोक नित्य भी है और काल एवं भाव की दृष्टि से.अनित्य भी है। इसी प्रकार सादि-अनादि, सान्त-अनन्त आदि प्रश्नों का समाधान भी स्याद्वाद की भाषा में दिया गया है। उसमें किसी प्रकार का विरोध नहीं रहता है, क्योंकि- जिनमत में एकान्तता Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका #1-8-1-4 (213) 109 नहीं है। जिनमत में किसी एक पक्ष का समर्थन एवं दूसरे का सर्वथा विरोध नहीं मिलता है। जिनमत में प्रत्येक पदार्थ को समझने की एक अपेक्षा, एक दृष्टि रहती है। वैज्ञानिकों ने भी पदार्थ के वास्तविक स्वरूप को समझने के लिए सापेक्षवाद को स्वीकार किया है। आगमिक भाषा में इसे स्याद्वाद, अनेकान्तवाद या विभज्यवाद कहा है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि- एकान्तवाद पदार्थ के यथार्थ स्वरूप को प्रकट करने में समर्थ नहीं है। अतः मुनि को एकान्तवादियों से संपर्क नहीं रखना चाहिए। किंतु यथार्थ धर्म में श्रद्धा-निष्ठा रखनी चाहिए। ___ कौन-सा धर्म यथार्थ है, इसका उल्लेख करते हुए सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहते हैं... I सूत्र // 4 // // 213 // 1-8-1-4 ___ से जहेयं भगवया पवेइयं आसुपण्णेण जाणया पासया अदुवा गुत्ती वओ गोयरस्स त्तिबेमि सव्वत्थ संमयं पावं, तमेव उवाइक्कम्म एस महं विवेगे वियाहिए, गामे वा अदुवा रण्णे, नेव गामे नेव रण्णे, धम्ममायाणह पवेइयं माहणेण मइमया, जामा तिण्णि उदाहिया जेसु ईमे आयरिया संबुज्झमाणा समुट्ठिया, जे निव्वुया पावेहिं कम्मेहिं अनियाणाते वियाहिया // 213 / / // संस्कृत-छाया : तद् यथा- इदं भगवता प्रवेदितं आशुप्रज्ञेन जानता पश्यता, अथवा गुप्तिः वाग्गोचरस्य इति ब्रवीमि-सर्वत्र सम्मतं पापम्, तदेव उपातिक्रम्य, एषः मम विवेकः व्याख्यातः, ग्रामे वा अथवा अरण्ये, नैव ग्रामे नैव अरण्ये, धर्म आजानीत प्रवेदितं माहणेण = भगवता मतिमता - यामा: त्रय: उदाहृताः येषु इमे आर्याः सम्बुध्यमानाः समुत्थिता: ये निर्वृताः पापेषु कर्मसु अनिदानाः ते व्याख्याताः // 213 // III सूत्रार्थ : - यह स्याद्वाद रूप सिद्धांत सर्वदर्शी भगवान ने प्रतिपादन किया है, एकान्तवादियों का वैसा सिद्धान्त नहीं है। क्योंकि- भगवान भाषा समिति युक्त हैं अथवा भगवान ने वाणी के विषय में गुप्ति और भाषा समिति के उपयोग का उपदेश दिया है। तात्पर्य यह है कि- वादविवाद के समय वचन गुप्ति का पूरा ध्यान रखना चाहिए। तर्क-वितर्क एवं वादियों के प्रवाद को छोड़कर यह कहना उचित एवं श्रेष्ठ है कि- पाप कर्म का त्याग करना ही सर्ववादि सम्मत सिद्धान्त है। अतः मैंने उस पापकर्म का त्याग कर दिया है। चाहे मैं ग्राम में रहूं या जंगल Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1101 -8-1-4 (२१3)卐 श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन में रहूं, परन्तु पाप कर्म नहीं करना यह मेरा विवेक है। वस्तुतः धर्म न ग्राम में है और न जंगल में है, वह तो विवेक में है। अत: तुम परम मेधावी सर्वज्ञ कथित धर्म को जानो। भगवान ने तीन याम का वर्णन किया है। उन के द्वारा ये आर्य लोग सम्बोधि को प्राप्त होते हुए धर्म कार्य में उद्यत हो रहे हैं और वे कषायों का परित्याग करके शान्त होते हैं। मुमुक्षु पुरुष पापकर्मों से रहित होते हैं, अत: वे ही मोक्ष मार्ग के योग्य कहे गये हैं। IV टीका-अनुवाद : स्यावाद स्वरूप यह वस्तु-पदार्थ का लक्षण सभी व्यवहार में अनुवादी याने सिद्ध है, अतः कहिं भी खंडित नहि होता, यह बात सर्वज्ञ परमात्मा श्री वर्धमानस्वामीजी ने कही है... यह प्रभु आशुप्रज्ञ याने सतत उपयोगवाले निरावरण केवलज्ञानवाले हैं... ज्ञानोपयोग से लोक को जानते हैं, और दर्शनोपयोग से लोक को देखते हैं... परमात्माने कहा है किएकांतवादीओं ने धर्म का स्वरूप ठीक से नहि जाना है... इत्यादि... अथवा परमात्माने कहा है कि- मुनी वाणी की गुप्ति करे या भाषा समिति में रहे... अथवा वस्तु-पदार्थ के अस्ति-नास्ति, ध्रुव-अध्रुव आदि विषय में एकांतवादवाले तीन सौ त्रेसठ (363) पाखंडीओं को प्रतिज्ञा-हेतु-दृष्टांत के द्वारा उनके मत का दूषण (दोष) प्रगट करके पराजित करें... अर्थात् इस प्रकार अन्यमतवालों को सम्यक् (अच्छा) उत्तर दें... अथवा वाणी संबंधित गुप्ति करें अर्थात् मौन रहें... अथवा वाद-विवाद के लिये आये हुए कुमतवाले वादीओं को इस प्रकार कहे कि- आप सभीने हि पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु एवं वनस्पति संबंधित आरंभ-समारंभ करना, करवाना एवं अनुमोदन के स्वरूप से स्वीकारा है, अर्थात् मान्य रखा है अथवा तो निषेध न करने के कारण से स्वीकृत है; ऐसा अर्थ निकलता है... अत: पापानुष्ठान आपको मान्य (संमत) है, जब कि- हमको यह पापानुष्ठान मान्य नहि है, क्योंकि- हम इस पापानुष्ठानो का त्याग करतें हैं... और यह हि हमारा विवेक है, तो अब मैं सभी प्रकार से प्रतिषिद्ध अर्थात् आश्रव वालों से संभाषण कैसे करूं ? यदि संभाषण हि नहि करना है; तो फिर वाद-विवाद की तो बात हि कहां ? अर्थात् हम विवाद नहि करतें... __ वादी प्रश्न करता है कि- अन्य मतवाले किस प्रकार से पापी अज्ञानी मिथ्यादृष्टि अनाचारी या अतपस्वी हैं ? क्योंकि- वे अकृष्ट भूमि- वनवासी हैं, मूल-कंदाहारी हैं और वृक्ष आदि में निवास करते हैं... ___ आचार्यजी उत्तर देते हैं कि- मात्र अरण्यवास आदि से धर्म संभवित नहि है, किंतु . जीव एवं अजीव आदि के परिज्ञान एवं ज्ञान पूर्वक के अनुष्ठान से हि धर्म संभवित है... और कुमतवादीओं को ऐसा ज्ञान एवं अनुष्ठान नहि है; इसलिये वे हमारे असमनोज्ञ है... तथा सद् एवं असद् के विवेकवालों को हि धर्म है, चाहे वे गांव में हो या अरण्य में हो, क्योंकि Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका // 1-8-1-4 (213) // 111 धर्म की प्राप्ति में गांव या अरण्य निमित्त नहि है, किंतु जीव एवं अजीव का परिज्ञान एवं अनुष्ठान हि धर्म के आलंबन कहे हैं... अत: “माहण” परमात्माने कहे हुओ धर्म को जानो... तथा मनन याने मति अर्थात् सभी पदार्थों के परिज्ञान को मति कहते हैं, ऐसे मतिवाले अर्थात् केवलज्ञानी परमात्माने यह धर्म कहा है... तथा याम याने व्रत... तीन याम याने प्राणातिपात विरमण, मृषावादविरमण और परिग्रह विरमण... अदत्तादान एवं मैथुन का परिग्रह में हि समावेश होने से तीन व्रत कहे हैं... अथवा याम याने वय (उम्र) विशेष... वह इस प्रकार- आठ वर्ष से लेकर तीस वर्ष तक की उम्र यह पहला याम... तथा तीस से लेकर साठ (60) वर्ष पर्यंत दुसरा याम... और साठ वर्ष से उपर की उम्र तीसरा याम... यहां अतिबाल याने जन्म से लेकर आठ साल की उम्रवाले एवं अतिवृद्ध याने अपने कार्य में असमर्थ वृद्ध-उम्रवालों का ग्रहण नहि कीया है... अथवा संसार की परिभ्रमणा का जिससे विराम हो; वह याम याने सम्यग्दर्शन-ज्ञान एवं चारित्र स्वरूप रत्नत्रय... त्रियाम कहे गये है... अतः यह तीन अवस्था या ज्ञानादि तीन में जो आर्य पुरुष समझ के साथ पापकार्यों का त्याग करने में उद्यम करतें हैं; वे क्रोधादि के अभाव से पापाचरण में शीतल हुए हैं अर्थात् पापाचरण में मंद रुचिवाले हुए हैं; इसलिये वे अनिदान याने भौतिक भोगोपभोगों की कामना स्वरूप नियाणा नहि कहतें.. ___ भोगोपभोग की कामना स्वरूप नियाणा कौन नहि करतें, यह बात सूत्रकार महर्षि आगे के सूत्र से कहेंगे... V. सूत्रसार : . यह हम देख चुके हैं कि- स्याद्वाद की भाषा में संशय को पनपने का अवकाश ही नहीं मिलता है। अतः स्याद्वाद की भाषा में व्यक्त किया गया सिद्धान्त ही सत्य है। यह सिद्धान्त राग-द्वेष विजेता सर्वज्ञ पुरुषों द्वारा प्ररूपित है। इसलिए जिनमत में परस्पर विरोधि बातें नहीं मिलती है और यह जिनमत समस्त प्रणियों के लिए हितकर भी है। वीतराग भगवान के वचनों में यह विशेषता है कि- वे वस्तु के यथार्थ स्वरूप को प्रकट करते हैं, और किसी भी व्यक्ति का तिरस्कार नहीं करते। उनके उपासक, श्रमण मुनि भी वाद-विवाद के समय असत्य तर्को का खण्डन कर के सत्य सिद्धांत को स्थापित करते हैं, परन्तु यदि कहीं वाद-विवाद में संघर्ष की सम्भावना हो या वितण्डावाद उत्पन्न होता हो; तो वे उसमें भाग नहीं लेते। वे स्पष्ट कह देते हैं कि- यदि तुम्हारे मन में पदार्थ के यथार्थ स्वरूप को समझने की जिज्ञासा हो तो शान्ति से तर्क-वितर्क के द्वारा हम चर्चा कर सकते हैं और तुम्हारे संशय का निराकरण कर सकते हैं। परन्तु, हम इस वितण्डावाद में भाग नहीं लेंगे। क्योंकि- हम सावध प्रवृत्ति का त्याग कर चुके हैं और विवाद में सावध प्रवृत्ति होती है। इसलिए हम इस विवाद से दूर ही रहेंगे। Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 112 // 1-8-1 - 4 (213) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन कुछ लोग कहते हैं कि- हम जंगलों में रहते हैं, कन्द-मूल खाते हैं, इसलिए हम धर्म-निष्ठ हैं। इस विषय में सूत्रकार कहते हैं कि- धर्म ग्राम या जंगल में नहीं है और कन्दमूल खाने में भी धर्म नहि है। किंतु धर्म विवेक में है, जीवाजीव आदि पदार्थों का यथार्थ बोध करके शुद्ध आचार का पालन करने में धर्म है, प्राण, भूत, जीव और सत्त्व की रक्षा करने में धर्म है। __ भगवान ने त्रियाम धर्म का उपदेश दिया है। स्थानाङ्ग सूत्र के तीसरे स्थान में कहा है कि- प्रथम, मध्यम और अन्तिम तीन याम- जीवन की तीन अवस्थाएं हैं। इन तीनों यामों में सर्वज्ञ द्वारा उपदिष्ट धर्म पया जा सकता है, मनुष्य श्रद्धानिष्ठ बन सकता है, त्याग, व्रत एवं प्रव्रज्या-दीक्षा को स्वीकार कर सकता है। आगम में दीक्षा के लिए जघन्य 8 वर्ष की आयु बताई है अर्थात् 8 वर्ष की आयु में मनुष्य संयम साधना के योग्य बन जाता है। इसी. . दृष्टि को सामने रखकर कहा गया है कि- भगवान ने त्रियाम धर्म का उपदेश दिया है। भगवान का उपदेश किसी भी देशकाल विशेष से आबद्ध नहीं है, वह धर्मोपदेश तो पाप से निवृत्त होने में हि पर्यवसित होता है। वैदिक परम्परा में सन्यास के लिए मात्र अन्तिम अवस्था निश्चित की गई है और संन्यासी अरण्यवासी होता है। परन्तु, जिनेश्वर प्रभु ने त्याग भावना को किसी काल-अवस्था या देश से बांधकर नहीं रखा। क्योंकि- मन में त्याग की जो उदात्त भावना आज उदबद्ध हई है, वह अन्तिम अवस्था में रहेगी या नहीं. ? यदि त्याग की भावना बनी भी रही; तब भी क्या पता ? कि- तब तक जीवन रहेगा या बीच में ही मनुष्य मरण के मुख में चल पड़ेगा। अत: भगवान महावीर ने कहा है कि- जब आत्मा में त्याग की भावना जगे, उसी समय उसे साकार रूप दे दो। कालमरण का कोई विश्वास नहीं है कि- वह मनुष्य को कब आकर दबोच ले, अतः शुभ कार्य में समय मात्र भी प्रमाद मत करो। किसी भी काल एवं देश की प्रतीक्षा मत करो। जिस देश और जिस काल में... काल भले ही वह बाल्यकाल हो; यौवनकाल हो या वृद्ध काल हो, वैराग्य वाले कोइ भी काल में त्याग के पथ पर बढ़े चलो। वस्तुतः, धर्म सभी काल में आराधां जा सकता है। धर्म के लिए उम्र काल आवश्यक नहीं है, किंतु आवश्यक है- मात्र पाप से, हिंसा आदि दोषों से एवं विषयकषाय से निवृत्त होना। अत: जिस समय मनुष्य पाप कार्य से निवृत्त होता है, उसी ही समय वह धर्म की साधना कर सकता है। इसके अतिरिक्त आचार्य शीलांक ने याम शब्द का अर्थ व्रत किया है और प्राणातिपात, मृषावाद एवं परिग्रह के त्याग को तीन याम कहा है और ज्ञान, दर्शन एवं चारित्र को भी तीन याम बताया है। त्रियाम का तीन व्रत के रूप में उल्लेख अपेक्षा विशेष से किया गया है। भगवान ऋषभदेव और भगवान महावीर के शासन में पांच याम-व्रत और शेष 22 तीर्थंकरों के शासन में चार याम-व्रत का उल्लेख मिलता है। इनमें परस्पर कोई विरोध नहीं है। क्योंकि Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका . 1 - 8 - 1 - 5 (214) : 113 ये सब-कथन अपेक्षा विशेष से किए गए हैं। तीन याम में अस्तेय और ब्रह्मचर्य को अपरिग्रह में समाविष्ट किया गया है... परिग्रह का अर्थ तृष्णा, लालसा एवं पदार्थों की भोगेच्छा है अतः तृष्णा के कारण से जीव चोरी करता है और तृष्णा, आकांक्षा एवं भोगेच्छा का ही दूसरा नाम अब्रह्मचर्य है। अत: चोरी एवं अब्रह्म का परिग्रह में समावेश कर लिया गया है। इससे व्रतों की संख्या तीन रह गई। चार व्रतों में ब्रह्मचर्य का अपरिग्रह में समावेश किया गया है और पांच व्रतों में सब को अलग अलग खोलकर रख दिया है, जिससे कि- साधारण व्यक्ति भी सरलता से समझ सकें! इस तरह त्रियाम, चर्तुयाम और पंचयाम में केवल संख्या का भेद है, सिद्धांत का नहीं। क्योंकि- सर्वज्ञ पुरुषों के सिद्धान्त में परस्पर विरोध नहीं होता है। इस तरह प्रस्तुत सूत्र में त्रियाम धर्म का उपदेश दिया गया है। इससे स्पष्ट होता है कि- व्यक्ति किसी भी समय में धर्म के स्वरूप को समझकर अपनी आत्मा का विकास कर सकता है। जागनेवाले के लिए जीवन का प्रत्येक समय महत्त्वपूर्ण है। “जब जागे तब ही सवेरा' इस सूक्ति के अनुसार चाहे बाल्य काल हो या प्रौढकाल उसके लिए जीवन विकास का महत्त्वपूर्ण प्रभात है। मुमुक्षु पुरुष को पापकर्म से सर्वथा निवृत्त होकर प्रति समय संयम में संलग्न रहमा चाहिए। इसी बात को विशेष प्रकार से बताते हुए सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहते हैं... I सूत्र // 5 // // 214 // 1-8-1-5 उड्ढे अहं तिरियं दिसासु सव्वओ सव्वावंति च णं पाडियक्कं जीवेहि कम्मसमारंभेणं तं परिण्णाय मेहावी नेव सयं एएहिं काएहिं दंडं समारंभिज्जा, नेवण्णेहिं एएहिं काएहिं दंडं समारंभाविजा, नेवण्णे एएहिं काएहिं दंडं समारंभंते वि समणुजाणेजा, जे चऽण्णे एएहिं काएहिं दंडं समारंभंति तेसिं पि वयं लज्जामो, तं परिण्णाय मेहावी तं वा दंडं अण्णं वा नो दंडभी दंडं समारंभिजासि तिबेमि // 214 / / // संस्कृत-छाया : ऊर्ध्वं-अधः-तिर्यक्-दिक्षु सर्वतः सर्वाः च, प्रत्येकं जीवेषु कर्मसमारम्भः, तं परिज्ञाय मेधावी नैव स्वयं एतेषु कायेषु दण्डं समारभेत, न चाऽन्यः एतेषु कायेषु दण्डं समारम्भयेत्, नैवाऽन्यान् एतेषु कायेषु दण्डं समारभमाणान् समनुजानीयात्, ये च अन्ये एतेषु कायेषु दण्ड समारभन्ते तैः अपि वयं लज्जामः, तं परिज्ञाय मेधावी तं वा दण्डं अन्यद् वा दण्डं, दण्डभी: न समारभेत इति ब्रवीमि // 214 // Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 114 1-8-1-5 (214) म श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन % 3D III सूत्रार्थ : ऊंची, नीची और तिरछी दिशाओं तथा विदिशाओं में रहने वाले जीवों में उपमर्दन रूप दंड समारम्भ को ज्ञान से जानकर मर्यादाशील भिक्षु स्वयं दंड का समारम्भ न करे और अन्य व्यक्ति से दंड समारम्भ न करावे तथा दंड समारम्भ करने वालों का अनुमोदन भी न करे। वह ऐसा माने कि- जो लोग इन पृथ्वी आदि कार्यों में दण्ड समारंभ करते हैं, उनके कार्य से हम लज्जित होते हैं। अतः हिंसा अथवा मृषावाद आदि दंड से डरने वाला बुद्धिमान साधु-पुरुष हिंसा के स्वरूप को जानकर दण्ड का समारम्भ न करे। IV टीका-अनुवाद : ऊर्ध्व अध: एवं तिर्यक् दिशाओं में और विदिशाओं में जो एकेंद्रियादि जीव हैं, उनकी विराधना स्वरूप जो आरंभ एवं समारंभ है, उनको ज्ञ परिज्ञा से जानकर एवं प्रत्याख्यान परिज्ञा से उन समारंभो का मेधावी मुनी त्याग करें... वह इस प्रकार- संयम-मर्यादा में रहा हुआ मुनी चौदह प्रकार के भूतग्राम स्वरूप पृथ्वीकायादि जीवों की विराधना स्वरूप दंड स्वयं न करें, अन्यों के द्वारा दंड-समारंभ न करावें और जो लोग पृथ्वीकायादि जीवों का दंड-समारंभ करतें हैं; उनकी अनुमोदना न करें... तथा वे मुधावी मुनी कहते हैं कि- जो लोग त्रिविध त्रिविध से दंड-समारंभ करते हैं, वे देखकर हम लज्जित होते हैं, क्योकि- पृथ्वीकायादि जीवों में कीया हुआ दंड-समारंभ बहोत भारी अनर्थ के लिये होता है... ऐसा जाननेवाले दंडभीत मेधावी मुनी जीव हिंसा स्वरूप दंड और अन्य मृषावादादि दंड का समारंभ नहि करतें... अर्थात् योग त्रिक याने मन वचन एवं काया से तथा करण त्रिक याने करण करावण एवं अनुमोदन स्वरूप दंड-समारंभ का त्याग करते हैं... यहां "इति" शब्द अधिकार की समाप्ति का सूचक है; एवं ब्रवीमि शब्द से पंचम गणधर श्री सुधर्मास्वामीजी अपने शिष्य जंबूस्वामीजी को कहतें हैं कि- वर्धमान स्वामीजी के मुखारविंद से हमने जो सुना है; वह मैं तुम्हे कहता हूं... V सूत्रसार : पूर्व सूत्र में हम देख चुके हैं कि- देश-काल की परिज्ञा करके पाप से निवृत्त होने में हि धर्म है। प्रस्तुत सूत्र में इसी बात को स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि- भिक्षु को पाप कर्म से निवृत्त होना चाहिए। क्योंकि- पाप कर्म के संयोग से चित्त वृत्तियों में चंचलता आती है। अतः मन को शान्त करने के लिए साधक को हिंसा आदि दोषों का सर्वथा त्याग कर देना चाहिए। साधु छ: काय पृथ्वी, अप, तेज, वायु, वनस्पति एवं त्रस काय के जीवों का स्वयं आरम्भ-समारम्भ न करें अन्य व्यक्ति से समारंभ न करावे और आरम्भ करने वाले अन्य व्यक्ति का समर्थन भी न करें इत्यादि... इसी तरह मृषावाद, स्तेय आदि सभी दोषों का त्रिकरण और त्रियोग से त्याग करना चाहिए। हिंसा आदि दोषों से निवृत्त होने रूप इस Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका // 1-8-1-5(214) 115 धर्म को स्वीकार करने वाला व्यक्ति ही आत्मा का विकास करके निर्वाण पद को पा सकता है। 'त्तिबेमि' की व्याख्या पूर्ववत् समझें। // इति अष्टमाध्ययने प्रथम: उद्देशकः समाप्तः // : प्रशस्ति : ___ मालव (मध्य प्रदेश) प्रांतके सिद्धाचल तीर्थ तुल्य शत्रुजयावतार श्री मोहनखेडा तीर्थमंडन श्री ऋषभदेव जिनेश्वर के सांनिध्यमें एवं श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरिजी, श्रीमद् यतीन्द्रसूरिजी, एवं श्री विद्याचंद्रसूरिजी के समाधि मंदिर की शीतल छत्र छायामें शासननायक चौबीसवे तीर्थंकर परमात्मा श्री वर्धमान स्वामीजी की पाट-परंपरामें सौधर्म बृहत् तपागच्छ संस्थापक अभिधान राजेन्द्र कोष निर्माता भट्टारकाचार्य श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी म. के शिष्यरत्न विद्वद्वरेण्य व्याख्यान वाचस्पति अभिधान राजेन्द्रकोषके संपादक श्रीमद विजय यतीन्द्रसूरीश्वरजी म. के शिष्यरत्न, दिव्यकृपादृष्टिपात्र, मालवरत्न, आगम मर्मज्ञ, श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम प्रकाशन के लिये राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी हिंदी टीका के लेखक मुनिप्रवर ज्योतिषाचार्य श्री जयप्रभविजयजी म. “श्रमण'' के द्वारा लिखित एवं पंडितवर्य लीलाधरात्मज रमेशचंद्र हरिया के द्वारा संपादित सटीक आचारांग सूत्र के भावानुवाद स्वरूप श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी हिंदी टीका-ग्रंथ के अध्ययनसे विश्वके सभी जीव पंचाचारकी दिव्य सुवासको प्राप्त करके परमपदकी पात्रता को प्राप्त करें... यही मंगल भावना के साथ... "शिवमस्तु सर्वजगतः" वीर निर्वाण सं. 2528. राजेन्द्र सं. 96. म विक्रम सं. 2058. Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 116 // 1-8-2-1(215) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन श्रुतस्कंध - 1 अध्ययन - 8 उद्देशक - 2 # अकल्पनीयपरित्यागः // आठवे अध्ययन का प्रथम उद्देशक कहा, अब दूसरे उद्देशक का प्रारंभ करतें हैं, यहां परस्पर इस प्रकार का अभिसंबंध है कि- पहले उद्देशक में निर्दोष संयम के पालन के लिये कुशील का परित्याग कहा, किंतु वह कुशील का परित्याग अकल्पनीय के त्याग के सिवा संभवित नहि है, अत: इस दुसरे उद्देशक में अकल्पनीय के परित्याग के लिये कहेंगे... इस संबंध से आये हुए दुसरे उद्देशक का यह प्रथम सूत्र है... I सूत्र // 1 // // 215 // 1-8-2-1 से भिक्खू परिक्कमिज वा चिट्ठिज वा निसीइज वा तुयट्टिज वा सुसाणंसि वा सुण्णागारंसि वा गिरिगुहंसि वा रुक्खमूलंसि वा कुंभाराययणंसि वा दुरत्था वा कहिंचि विहरमाणं तं भिक्खं उवसंकमित्तु गाहावई बूया-आउसंतो समणा ! अहं खलु तव अट्ठाए असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा वत्थं वा पडिग्गहं वा कंबलं वा पायपुंछणं वा, पाणाई भूयाइं जीवाई सत्ताई समारंभ समुद्दिस्स कीयं पामिच्चं अच्छिज्जं अनिसटुं अभिहडं आहटु चेएमि, आवसहं वा समुस्सिणोमि, से मुंजह वसह। आउसंतो समणा ! भिक्खू तं गाहावई समणसं सवयसं पडियाइक्खे आउसंतो ! गाहावई नो खलु ते वयणं आढामि नो खलु ते वयणं परिजाणामि, जो तुमं मम अट्ठाए असणं वा वत्थं वा पाणाई वा समारंभ समुद्दिस्स कीयं पामिच्चं अच्छिज्जं अनिसटुं अभिहडं आहटु चएसि आवसहं वा समुस्सिणासि, से विरओ आउसो गाहावई ! एयस्स अकरणयाए // 215 // // संस्कृत-छाया : स: भिक्षुः पराक्रमेत वा तिष्ठेद् वा निषीदेत् वा त्वग् वर्त्तयेद् वा श्मशाने वा शून्यागारे वा गिरिगुहायां वा वृक्षमूले वा कुम्भकारायतने वा अन्यत्र वा क्वचित् विहरन्तं तं भिक्षु उपसङ्क्रम्य गृहपतिः ब्रूयात्-भोः आयुष्मन् ! श्रमण ! अहं खलु तव अर्थाय अशनं वा पानं वा खादिमं वा स्वादिमं वा वस्त्रं वा पतद्ग्रहं वा कम्बलं वा पादप्रोञ्छनं वा प्राणिनः वा भूतानि वा जीवाः वा सत्त्वाः वा तान् समारभ्य समुद्दिश्य क्रीतं प्रामित्यं आच्छिद्यं अनिसृष्टिं अभ्याहृतं आहृत्य ददामि, आवसथं वा समुच्छृिणोमि, तं Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1-8-2-1(215) 117 -स भुक्ष्व वसत, हे आयुष्मन् ! श्रमण ! भिक्षो ! तं गृहपतिं समनसं सवयसं प्रत्याचक्षीत - हे आयुष्मन् ! गृहपते ! न खलु तव वचनं आद्रिये, न खलु तव वचनं परिजानामि, यः त्वं मम अर्थाय अशनं वा वस्त्रं वा प्राणिनः वा समारभ्य समुद्दिश्य क्रीतं प्रामित्यं आच्छिद्यं अनिसृष्टं अभ्याहृतं आहृत्य ददासि, आवसथं वा समुच्छृणोसि, सः विरतः हे आयुष्मन् ! गृहपते ! एतस्य अकरणतया // 215 // * III सूत्रार्थ : __. वह भिक्षु (मुनि) आहारादि या अन्य कार्य के लिए पराक्रम करे अर्थात् आवश्यकता होने पर वह खड़ा होवे, बैठे और शयन करे अथवा जब वह श्मशान में, शून्यागार में, पर्वत की गुफा में, वृक्ष के मूल में या ग्राम के बाहर अन्य किसी स्थान पर विचर रहा हो, उस समय उसके समीप जाकर यदि कोई गृहपति, इस प्रकार कहे कि- हे आयुष्मन् श्रमण ! मैं तुम्हारे लिए प्राण, भूत, जीव, सत्त्व आदि का उपा पानी, ख़ादिम-मिठाई आदि, स्वादिम-लवंग आदि, वस्त्र, पात्र, कम्बल और रजोहरण आदि बनवा देता हूं, या तुम्हारे उद्देश्य से मोल लेकर, उधार लेकर किसी से छीनकर या अन्य व्यक्ति की वस्तु को उसकी विना अनुमति के लाकर एवं अपने घर से लाकर तुम्हें देता हूं। मैं तुम्हारे लिए नया मकान-उपाश्रय बनवा देता हूं; या पुराने मकान का नवीन संस्कार करवा देता हूं। हे आयुष्मन श्रमण ! तुम अन्नादि पदार्थ खाओ और उस मकान में रहो। ऐसे वचन सुनकर वह भिक्षु गृहपति से कहे कि- हे आयुष्मन् गृहस्थ ! मैं तुम्हारे इस वचन को आदर नहीं दे सकता और मैं तुम्हारे इस वचन को उचित भी नही समझता हूं। क्योंकि- तू मेरे लिए प्राणी, भूत, जीव और सत्त्व आदि का उपमर्दन करके आहारादि पदार्थ बनाएगा या मेरे उद्देश्य से मोल लेकर, उधार लेकर, किसी से छीनकर या अन्य व्यक्ति की वस्तु उसकी विना आज्ञा लेकर और घर से लाकर देगा अथवा तू नया मकान-उपाश्रय बनवा कर या पुरातन मकान का जीर्णोद्धार करवाकर देगा। परन्तु, हे आयुष्मन् गृहस्थ ! मैं आप के इन पदार्थों को स्वीकार नहीं कर सकता हूं। क्योंकि- मैं विरत हूं, आरम्भ समारम्भ का पूर्णतः त्याग कर चुका हूं, अतः मैं आप के उक्त प्रस्ताव का न आदर करता हूं और न उसे उचित समझता हूं। IV टीका-अनुवाद : सभी सावद्य याने पापाचरण न करने की प्रतिज्ञा स्वरूप मेरू पर्वत के उपर चढा हुआ, एवं भिक्षा के द्वारा देह निर्वाह करनेवाला साधु भिक्षा के लिये या अन्य संयमानुष्ठान के लिये पराक्रम करे, अर्थात् विहार करे, स्थिरता करे, या ध्यान मग्न होकर बैठे, अध्ययन-अध्यापन करे या विहार के श्रम से लैटे, आराम करें, कहां ? तो कहते हैं कि- श्मशान भूमी में, जो कि- स्मशान भूमी में लेटना (आराम करना) संभवित नहि है, अत: जहां जो हो शके वह Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 118 // 1-8-2-1(215); श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन - यथासंभव जानीयेगा... जैसे कि- गच्छवासी स्थविर कल्पवाले साधुओं को श्मशान भूमी में रहना बैठनादि भी उचित नहि माना है, क्योंकि- प्रमादादि स्खलनाओं में व्यंतर-देव आदि के उपद्रव होवे... तथा जिनकल्प के लिये सत्त्व-भावना को भावित करनेवालों को भी स्मशानभूमी में कार्योत्सर्ग करना हि उचित माना है... जब कि- जिन्हों ने जिनकल्प प्रतिमा का स्वीकार कीया है, उनको तो विहार क्रम में जहां चतुर्थ प्रहरका प्रारंभ हो, वहां रहना होता है, चाहे वह जगह नगर हो या श्मशान हो... अथवा यह सूत्र जिनकल्पवालों की अपेक्षा से कहा गया है... इसी प्रकार अन्य सूत्रपदों में भी यथासंभव उचित विधान कीजीयेगा... ___तथा शून्यगृह में या पर्वत की गुफा में या अन्य कोइ भी गांव आदि के बाहार की भूमी-स्थान में रहे हुए साधु को देखकर कोइ प्रकृति भद्रक गृहस्थ सोचे कि- यह साधुजन आरंभ-समारंभों के त्यागी हैं तथा निर्दोष आहार प्राप्त होने पर हि भोजन करनेवाले हैं तथा पापकर्मो के पश्चातापवाले हैं और सत्य एवं शुचि धर्मवाले हैं; अत: अक्षय-पात्र के समान हैं, अतः इन्हे उचित दान देना चाहिये ऐसा सोचकर साधु के पास आकर कहता है कि- हे आयुष्मान् श्रमण ! मैं संसार-समुद्र को तैरना चाहता हूं; अतः मैंने आपके लिये आहारादि अशन पान खादिम एवं स्वादिम तथा वस्त्र, पात्र, कंबल, रजोहरण, आदि वस्तु, प्राणी, भूत, जीव एवं सत्त्वादि जीवों का मर्दन विराधन करके तैयार कीये हुए हैं... . यहां सूत्रकार आचार्यजी कहते हैं कि- आहारादि तैयार करने में कहिं चारों प्रकार के जीव या कहिं एक या दो या तीन प्रकार के जीवों की हिंसा-विराधना होती है... और साधु के लिये तैयार कीये हुए यह आहारादि अविशुद्ध कोटि के दोषवाले कहे गये हैं... जैसे कि- 1. आधाकर्म 2. औदेशिक 3. मिश्रजात 4. बादर प्राभृतिका 5. पूतिकर्म 6. अध्यवपूरक यह उद्गम के सोलह (16) दोष में से छह (6) दोष अविशुद्धकोटि है... ___ अब विशुद्ध कोटी कहते हैं... 1. क्रीत याने मूल्य से खरीदा हुआ... 2. प्रामित्य याने दुसरों के पास उच्छिना या उधार लेना... 3. आच्छिद्य याने दुसरों के पास से बल पूर्वक लेना... जैसे कि- राजा के आदेश के अन्य गहस्थ के पास से लेकर साध को देना... तथा 4. अनिसृष्ट याने अन्य की अनुमति के बिना हि अपने पास रही हुइ वस्तु-आहारादि साधु को देना... तथा 5. अभ्याहृत याने अपने घर से लाकर देता हूं; ऐसा कहे तथा और भी कहे कि- मैं आपको रहने के लिये मकान दूंगा... इत्यादि हाथ जोडकर विनंती के साथ आहारादि के लिये निमंत्रण करे... जैसे कि- इन आहारादि को वापरो (भोजन करो) और मेरे संस्कार कीये हुए इस मकान में रहो... इस परिस्थिति में सूत्रार्थ में विशारद गीतार्थ मुनी अदीन मनवाला होता हुआ उन आहारादि का निषेध करे... वह इस प्रकार- सहृदय समान Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1 - 8 - 2 - 1 (215) 119 उम्रवाले या अन्य प्रकार के उस गृहस्थ को वह साधु कहे कि- हे आयुष्मन् गृहपति ! मैं आपके इस वचन का स्वीकार नहि करूंगा और आपके इस वचन का आदर भी नहि करुंगा... क्योंकि- आपने जो हमारे लिये आहारादि एवं मकान (वसति) जीवों का वध करके बनाया है, किंतु हे आयुष्मन् गृहपति ! हम तो ऐसे सावद्य अनुष्ठानों से विरत हैं; अत: आपके इन आहारादि का हम स्वीकार नहि करेंगे... इस प्रकार साधु दोषवाले आहारादि का निषेध करे... किंतु यदि कोइ गृहस्थ साधुओं का आचार जानकर गुप्त रीति से हि आहारादि तैयार करके दे, तब भी वह साधु सावधानी से वास्तविक स्वरूप को जानकर उन आहारादि का त्याग करें... V सूत्रसार : प्रथम उद्देशक में असम्बद्ध साधु के साथ सम्बन्ध नहीं रखने का उपदेश दिया गया है। परन्तु, इसके साथ अकल्पनीय पदार्थों-आहार-पानी, स्थान, वस्त्र, पात्र, आदि का त्याग करना भी आवश्यक है। अत: साधु को किस तरह का आहार-पानी लेना चाहिए एवं कैसे स्थान में रहना चाहिए, यह बात सूत्रकार यहां कहते हैं... ___यह हम देख चुके हैं कि- साधु आरम्भ-समारम्भ से सर्वथा निवृत्त होता है। अतः वह न तो स्वयं भोजन. बनाता है और न अपने लिए बनाया हुआ आहार-पानी, वस्त्र-पात्र, मकान आदि का स्वीकार करता है। किंतु वह साधु गृहस्थ ने अपने एवं अपने परिवार के उपभोग के लिए बनाये हुए आहार-पानी आदि को अपनी मर्यादा के अनुरूप होने पर ही स्वीकार करता है। परन्तु, यदि उस साधु के निमित्त कोई गृहस्थ आरम्भ-समारम्भ करके आहारादि कोई भी पदार्थ तैयार करे, तो साधु को वह पदार्थ ग्रहण करना नहीं कल्पता है। . इसी तरह मुनि श्मशान में, शून्य स्थान में, पर्वत की गुफा में या इस तरह किसी अन्य स्थान में बैठा हो, खड़ा हो या शयन कर रहा हो, उस समय यदि कोई श्रद्धानिष्ठ भक्तगृहस्थ आकर मुनि से प्रार्थना करे कि- मैं आपके लिए भोजन तैयार करता हुं, तथा वस्त्रपात्र आदि खरीद कर लाता हूं और रहने के लिए मकान भी बनवा देता हूं। उस समय मुनि उसे कहे कि- हे देवानुप्रिय ! मुनि को ऐसा भोजन एवं वस्त्र-पात्र आदि लेना नहीं कल्पता है। क्योंकि- मैंने आरम्भ-समारम्भ का त्रिकरण और त्रियोग से त्याग कर दिया है। अत: मेरै लिए भोजन आदि बनाने, खरीदने आदि में अनेक तरह का आरम्भ होगा, अनेक जीवों का नाश होगा, इसलिए मैं ऐसी कोई वस्तु स्वीकार नहीं कर सकता हूं। ___ इस सूत्र से यह स्पष्ट होता है कि- इस तरह की प्रार्थना जैन साधु के आचार से अपरिचित व्यक्ति ही कर सकता है। यद्यपि बौद्ध आदि भिक्षु गृहस्थ का निमंत्रण स्वीकार करते हैं। तथा अन्य मत के बहुत से साधु-संन्यासी गृहस्थों का निमन्त्रण स्वीकार करते हैं। अतः उनकी वृत्ति को देखकर कोई गृहस्थ जैन मुनि को भी निमन्त्रण दे, तो मुनि उसे स्वीकार Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 120 1 - 8-2-2- (216) 9 श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन न करे। वह अपनी साधु वृत्ति से उसे परिचित कराकर अपनी निर्दोष साधना में संलग्न रहे। श्मशान आदि में ठहरने के पाठ को वृत्तिकार ने जिनकल्पी एवं प्रतिमाधारी मुनि के लिए बताया है, स्थविरकल्पी के लिए नही। यद्यपि उत्तराध्ययन सूत्र में सभी साधुओं के लिए श्मशान आदि में ठहरने का उल्लेख मिलता है। कोई भी साधक आत्म चिन्तन के लिए ऐसे स्थान में ठहर सकता है। निषिद्या परीषह के वर्णन करते समय भी श्मशान आदि शून्य स्थान में ठहरने का सभी साधुओं के लिए उल्लेख किया गया है। इससे यह स्पष्ट होता है कि- उपरोक्त निर्दोष स्थानों में स्थित साधु सदा निर्दोष वृत्ति से आहार-पानी आदि स्वीकार करके शुद्ध संयम का पालन करे। यदि कोई गृहस्थ स्नेह एवं भक्ति वश सदोष वस्तु तैयार कर दे तो साधु उसे स्वीकार न करे। साधु सदोष पदार्थों के विषय में गृहस्थ को किस तरह निषेध करे यह बात सूत्रकार महर्षि आगे के सूत्र में कहतें हैं... I सूत्र // 2 // // 216 // 1-8-2-2 से भिक्खू परिक्कमिज वा जाव हुरत्था वा कहिंचि विहरमाणं तं भिक्खुं उवसंकमित्तु गाहावई आयगयाए पेहाए असणं वा वत्थं वा जाव आहटु चेएइ, आवसहं वा समुस्सिणाइ भिक्खू परिघासेडं, तं च भिक्खू जाणिज्जा सहसम्मइयाए परवागरणेणं अण्णेसिं वा सुच्चा-अयं खलु गाहावई मम अट्ठाए असणं वा वत्थं वा जाव आवसहं वा समुस्सिणाइ तं च भिक्खू पडिलेहाए आगमित्ता आणविजा आसेवणाए त्तिबेमि // 216 // // संस्कृत-छाया : सः भिक्षु उपसङ्क्रम्य वा यावत् अन्यत्र वा क्वचित् विहरन्तं तं भिक्षु उपसङ्क्रम्य गृहपतिः आत्मगतया प्रेक्षया अशनं वा वस्त्रं वा यावत् आहत्य ददाति, आवसथं वा समुच्छृिणोति भिक्षु परिघासयितुं, तं च भिक्षुः जानीयात् स्वसन्मत्या परव्याकरणेन वा अन्येभ्यो वा श्रुत्वा-अयं खलु गृहपतिः मम अर्थाय अशनं वा वस्त्रं वा यावत् आवसथं वा समुच्छृणोति, तं च भिक्षुः प्रत्युपेक्ष्य अवगम्य ज्ञापयेत् अनासेवनया इति ब्रवीमि // 216 // III सूत्रार्थ : वह भिक्षु श्मशानादि स्थानों में ध्यानादि साधना में पराक्रम करता हो या अन्य कारण से इन स्थानों में विचरता हो, उस समय यदि कोई गृहस्थ भिक्षु के पास आकर अपने मानसिक Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1-8-2 - 3 (217) 121 भांवों को व्यक्त न करता हुआ, साधु को दान देने के लिए अन्न, वस्त्रादि लाकर या उसके निवास के लिए सुन्दर स्थान बनवाकर देना चाहता है। तब आहारादि की गवेषणा में वह भिक्षु अपनी स्व बुद्धि से अथवा तीर्थंकरोपदिष्ट विधि से या किसी अन्य परिजन आदि से उन पदार्थों के सम्बन्ध में सुनकर, यदि वह यह जान ले कि वस्तुतः यह गृहस्थ मेरे उद्देश्य से बनाए या खरीद कर लाए हुए आहार, वस्त्र और मकान आदि मुझे दे रहा है, तो वह भिक्षु उस गृहस्थ से कहे कि- ये पदार्थ मेरे सेवन करने योग्य नहीं है। अत: में इन्हें स्वीकार नहीं कर सकता। इस प्रकार मैं कहता हूं। IV टीका-अनुवाद : श्मशानादि स्थानो में विचरनेवाले उन साधुओं के पास जाकर अंजली जोडकर कोइक प्रकृति भद्रक गृहस्थ अपनी समझ के अनुसार अपने सच्चे अभिप्राय को छुपाता हुआ और कोइ सच्ची बातं न जाने इस प्रकार मैं साधुओं को आहारादि दूं, ऐसा सोचकर जीवों का वध करके आहारादि तैयार करे... क्योंकि- यदि ऐसा मैं करूं तो हि साधुजन आहारादि ग्रहण करे... वापरे... तथा साधुओं को निवास के लिये मकान बनावे. किंतु वे साधुजन अपनी सन्मति से या अन्य के कहने से या तीर्थंकरो के उपदेश अनुसार या अन्य कोइ प्रकार से जाने कियह गृहस्थ जीवों का घात करके हमारे लिये आहारादि बनाकर दे रहा है, तथा मकान बना रहा है इत्यादि... तब वह साधु पर्यालोचन करके वास्तविक सच्ची बात जानकर उस गृहस्थ को कहे कि- इस प्रकार हमारे लिये बनाये हुए आहारादि हमे अकल्पनीय है; अतः हम नहि वापरेंगे... ऐसा संक्षेप से कहे, यदि वह गृहस्थ श्रावक हो; तो संक्षेप से पिंडनियुक्ति का अर्थ कहे, और अन्य प्रकृति भद्रक गृहस्थ को संक्षेप से उद्गमादि दोषों का स्वरूप कहे, तथा प्रासुक याने निर्दोष आहारादि दान का फल कहे, और यथाशक्ति धर्मकथा भी कहे.... __वह इस प्रकार- श्रद्धावाला पुरुष शुद्ध मनोभाव से उचित काल एवं स्थान में साधुजनों का सत्कार करके साधुओं को आहारादि का दान दें... तथा गुणाधिक ऐसे सत्पुरुषों को जो मनुष्य विनय के साथ थोडा भी उचित दान देता है; उसे वह थोडा सा भी दान वटवृक्ष के समान महान् फल देता है... तथा प्राज्ञ पुरुष सुपात्र में दान देने के द्वारा दुःख-समुद्र को तैरता है, जिस प्रकार वणिक् लोग छोटी सी नौका (जहाज) से बहोत बड़े समुद्र को तैरते हैं... इत्यादि... यहां इति शब्द अधिकार की समाप्ति का सूचक है; एवं ब्रवीमि शब्द का अर्थ पूर्वोक्त स्वरूप एवं और आगे कहे जानेवाले स्वरूप है इत्यादि... Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1221 - 8 - 2 - 3 (217) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन सूत्रसार : पूर्व सूत्र में उल्लेखित विषय को स्पष्ट करते हुए प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कियदि कोई श्रद्धानिष्ठ गृहस्थ मुनि को विना बताए ही उसके निमित्त आहारादि बनाकर या वस्त्रपात्र आदि खरीद कर रख ले और आहार के समय मुनि को आहारादि के लिए आमन्त्रण करे। उस समय आहार आदि की गवेषणा करते हुए मुनि को अपनी बुद्धि से या तीर्थंकरोपदिष्ट विधि से या किसी के कहने से यह ज्ञात हो जाए कि- यह आहारादि मेरे लिए तैयार किया गया है, या खरीदा गया है, तब वह साधु उन आहारादि का स्वीकार न करे। वह साधु उस गृहस्थ को स्पष्ट शब्दों में कह दे कि- इस तरह हमारे लिए बनाया हुआ या खरीदा हुआ आहारादि हम नहीं लेते हैं। वह उसे साध्वाचार का सही बोध कराए, जिससे वह फिर कभी किसी भी तरह का सदोष आहारादि देने का प्रयत्न न करे। इस विषय को और स्पष्ट करते हुए सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहते हैं... सूत्र // 3 // // 217 // 1-8-2-3 भिक्खू च खलु पुट्ठा वा अपुट्ठा वा जे इमे आहच्च गंथा वा फुसंति, से हंता हणह खणह छिंदह दहह पयह आल्पह विलुपह सहसाकारेह विष्परामुसह, ते फासे धीरो पुट्ठो अहियासए अदुवा आयारगोयरमाइक्खे, तक्किया अंणेलिसं अदुवा वइगुत्तीए गोयरस्स अणुपुव्वेण सम्म पडिलेहए आयगुत्ते बुद्धेहिं एवं पवेइयं // 217 // II संस्कृत-छाया : भिधं च खलु पृष्ट्वा वा अपृष्ट्वा वा ये इमे आहृत्य ग्रन्था वा स्पृशन्ति, सः हन्ता, हत, क्षणुत, छिन्त, दहत, पचत, आलुम्पत, विलुम्पत सहसात् कारयत, विपरामृशत, तान् स्पर्शान् धीरः स्पृष्टः अधिसहेत, अथवा आचारगोचरं आचक्षीत, तर्कयित्वा अनीदृशं अथवा वाग्गुप्त्या गोचरस्य आनुपूा सम्यक् प्रत्युपेक्षेत, आत्मगुप्तः बुद्धैः एतत् प्रवेदितम् // 217 // III सूत्रार्थ : कोई सद्गृहस्थ, साधु को पूछकर या विना पूछे ही बहुतसा धन खर्चकर अन्नादि भोजन बना करके साधु के पास लाकर उसे ग्रहण करने की प्रार्थना करता है। परन्तु, जब साधु उसे अकल्पनीय समझकर लेने से इनकार करता है, तब क्रोध के वशीभूत होकर वह गृहस्थ यदि साधु को परिताप देता है, मारता है तथा दूसरों से कहता है कि- इस भिक्षु को मारो, इसका विनाश करो, इसके हाथ-पैर काट लो, इसको अग्नि में जला दो, इसके मांस को काटकर पकाओ, इसके वस्त्रादि छीन लो, इसका सब कुछ लूट लो और इसे विविध Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1 - 8 - 2 - 3 (217) 123 प्रकार से पीड़ित करो, जिससे इसकी जल्दी ही मृत्यु हो जाए। इत्यादि कठोर परीषहों-कष्टों की उपस्थिति में भी वह साधु उन कष्टों को बड़े धैर्य से सहन करे। यदि वे समझने योग्य हो, तब वह साधु उन्हें साध्वाचार का यथार्थ स्वरूप समझाकर शान्त करे। यदि वे अयोग्य व्यक्ति हैं, तब वह साधु वचन-गुप्ति का पालन करे-मौन रहे। वह अनुक्रम से अपने आचार का सम्यक् प्रतिलेखन करके आत्मा से गुप्त हुआ सदा उपयोग पूर्वक क्रियानुष्ठान में संलग्न रहे। तीर्थंकरों ने इस विषय में यह हि प्रतिपादन किया है। IV टीका-अनुवाद : भिक्षा के द्वारा जीवन निर्वाह करनेवाले उन साधुओं को पुछकर या बिना पुछे हि कोइ गृहस्थ कहे कि- हे श्रमण ! मैं आपके लिये आहारादि एवं मकान तैयार करुंगा... साधु आहारादि स्वीकार करने की अनुमति न दे तो भी वह गृहस्थ आहारादि तैयार करता है... और आग्रह-बल पूर्वक आहारादि ग्रहण करवाएगा... तथा साधुओं के आचार विधि को जाननेवाला कोई अन्य गृहस्थ साधु को पूछे बिना हि आहारादि तैयार करके सोचता है कि- मैं किसी भी बहाने से साधुओं को यह आहारादि ग्रहण करवाउंगा... यह विचार करके आहारादि तैयार करे... किंतु बार बार विनंती करने पर भी जब साधु वैसे दोषवाले आहारादि को ग्रहण न करे तब वह गृहस्थ गुस्से में आकर सोचे कि- सुख एवं दुःख से रहित होने के कारण से यह साधु लोग लोक व्यवहार को भी जानते नहि हैं; इत्यादि शोचकर या राजा के आदेश को लेकर साधुओं के प्रति धिक्कार के भाव को लेकर गुस्से में आकर साधुओं को लकुट-दंडादि से मारे भी... ... बहोत सारे धन का खर्च करके तैयार करके लाये हुए आहारादि जब साधु ग्रहण न करे, तब वह गृहस्थ साधुओं को विभिन्न प्रकार से दु:ख-पीडा देता है... जैसे कि- वह गृहस्थ साधुओं को स्वयं मारे या अन्य लोगों को कहे कि- इन साधुओं को दंड-लकडी से मारो... या हाथ-पाउं काटकर मार डालो, या अग्नि आदि से जलाओ, या वस्त्रादि लूट लो, या सब कुछ वस्त्र-पात्रादि लूट लो, या तत्काल मर जावे वैसा करो... इस प्रकार विभिन्न प्रकार से पीडा-दुःख देवे... इस परिस्थिति में होनेवाले उन कठोर दुःख वेदना-पीडाओं को वह धीर गंभीर साधु समभाव से सहन करे... तथा अन्य भी भूख-तरस आदि परीषहों को भी सहन करे... परंतु कभी भी उपसर्ग या परीषहों से डरकर औद्देशिकादि दोषवाले आहारादि को ग्रहण न करे... अथवा अनुकूल उपसर्गादि से भी उन दोषवाले आहारादि को ग्रहण न करे, किंतु यदि सामर्थ्य हो तो जिनकल्पिक से भिन्न स्थविर कल्पवाले साधुओं के मूलगुण एवं उत्तरगुण स्वरूप आचारविचारादि उन गृहस्थों को समझावे... यहां नय-प्रमाण से द्रव्यादि के गहन विचार न कहे, Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 124 // 1-8-2 - 3 (217) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन किंतु मूलगुण की स्थिरता के लिये उत्तर गुण कहे और उन उत्तरगुणों में पिंडैषणा याने आहारादि के दोष एवं निर्दोषता का स्वरूप कहे यहां पिंडैषणा-सूत्र के उपयुक्त भावानुवाद कहे... अन्यत्र भी कहा है कि- जहां गृहस्थ स्वयं कष्ट न पावे एवं अन्य को भी कष्ट का निमित्त न बने और जो मात्र धर्म (परमार्थ) के लिये हि दीया जावे वह दान है... इत्यादि... यह सब कुछ जिस किसी गृहस्थ को न कहें किंतु उस गृहस्थ के आचार-विचार को देखकर जो उचित हो वह कहें... जैसे कि- यह पुरुष कौन है ? कौन से देव की पूजा करता है ? तथा यह पुरुष किसी एक मत की पक्कडवाला है; या सभी मत-मतांतरों को मानता है तथा मध्यस्थ प्रकृति-भद्रक है, या सम्यग्दृष्टि है ? इत्यादि यथायोग्य जानकर यथाशक्ति समझावें... विशेष शक्ति सामर्थ्य हो, तो पंचावयव अनुमान प्रमाण से या अन्य प्रकार से समझ दें... और स्वपक्ष की स्थापना करके परपक्ष का खंडन करें, यदि वह गृहस्थ यह बात समझ न शके और कहने पर यदि गुस्सा करे तो साधु मौन हि धारण करें... यदि समझाने का सामर्थ्य हो और दाता समझना चाहे तो साधुओं के आचार दिखलावे... यदि गृहस्थ समझना न चाहे तो साधु मौन रहते हुए हि अपने संयमानुष्ठान में लीन रहकर अनुक्रम से उद्गमादि दोष न लगे इस प्रकार आहारादि की गवेषणा करे तथा आत्मगुप्त याने सतत संयमानुष्ठान के उपयोगवाला रहे... पंचम गणधर श्री सुधर्मास्वामीजी कहते हैं कि- हे जंबू ! यह कल्प्य एवं अकल्प्य की विधि वर्धमान स्वामीजी ने आत्महित के लिये कही है; अतः मैं भी तुम्हें कहता हूं... V सूत्रसार : साधना का महत्त्व सहिष्णुता में है। अत: कठिनाई के समय भी साधु को समभाव पूर्वक परीषहों को सहते हुए संयम का परिपालन करना चाहिए। परन्तु, परीषहों के उपस्थित होने पर उसे संयम से विचलित नहीं होना चाहिए। साधना की कसौटी परीषहों के समय ही होती है। यही बात प्रस्तुत सूत्र में बताई गई है कि- साधु को खाने-पीने के पदार्थों एवं वस्त्रपात्र आदि के प्रलोभन में आकर अपने संयम मार्ग का त्याग नहीं करना चाहिए। परन्तु, ऐसे समय में भी समस्त प्रलोभनों पर विजय प्राप्त करके शुद्ध संयम का पालन करना चाहिए। यदि कोई व्यक्ति स्वादिष्ट पकवान बनाकर या सुन्दर एवं कीमती वस्त्र-पात्र लाकर दे और उसे ग्रहण करने के लिए अत्यधिक आग्रह भी करे, तब भी साधु उन्हें स्वीकार न करे। वह उसे स्पष्ट शब्दों में समझाए कि- इस तरह का आहार आदि लेना हमें नहीं कल्पता है। Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1-8- 2 - 4 (218) // 125 - यदि इस पर भी वह गृहस्थ न माने-क्योंकि- कई पूंजीपति गृहस्थों को अपने वैभव का अभिमान होता है। वे चाहते हैं कि- हमारे विचारों को कोई ठुकरावे नहीं। जिन्हें वे अपना गुरु मानते हैं, उनके प्रति भी उनकी यह भावना रहती है कि- वे भी मेरे विचारों को स्वीकार करे, मेरे द्वारा दिए जाने वाले पदार्थों या विचारों को स्वीकार करे, यदि कोई साधु अकल्पनीय वस्तु को स्वीकार नहीं करता है, तो उनके अभिमान को ठेस लगती है और वे आवेश में आकर अपने पूज्य गुरु के भी शत्रु बन जाते हैं। वे साधु को मारने-पीटने एवं विभिन्न कष्ट देने लगते हैं। ऐसे समय में भी मुनि को अपने आचार पथ से विचलित नहीं होना चाहिए। मुनि को पदार्थों के लोभ में आकर अपनी मर्यादा को तोड़ना नहीं चाहिए और कष्टों से घबराकर भी संयम से विमुख नहि होना चाहिए। परन्तु हर परिस्थिति में संयम में संलग्न रहते हुए, उन्हें आचार का यथार्थ स्वरूप समझाना चाहिए। इस विषय में कुछ और अधिक बताते हुए सूत्रकार महर्षि आगेका सूत्र कहते हैं... I सूत्र // 4 // // 218 // 1-8-2-4 से समणुण्णे असमणुण्णस्स असमणं वा जाव नो पाइजा नो निमंतिजा नो कुज्जा वेयावडियं परं आढायमाणे त्तिबेमि // 218 // II संस्कृत-छाया : सः समनोज्ञः असमनोज्ञाय अश्रमणं वा यावत् न प्रदद्यात्, न निमन्त्रयेत् न कुर्यात् वैयावृत्त्यं परं आद्रियमाणः इति ब्रवीमि // 218 // III. सूत्रार्थ : समनोज्ञ साधु अमनोज्ञ साधु को आदर-सम्मान पूर्वक आहार आदि नहीं दे और उसकी वैयावृत्य भी न करे। IV टीका-अनुवाद : वह साधु गृहस्थों के पास से या कुशील वालों के पास से अकल्पनीयता के कारण से आहारादि ग्रहण न करें तथा समनोज्ञ वह साधु अन्य असमनोज्ञ साधुओं को पूर्वोक्त आहारादि न देवे... तथा यदि वे असमनोज्ञादि अतिशय आदर वाले हो; तो भी आहारादि ग्रहण करने के लिये निमंत्रण न करे, या अन्य कोइ प्रकार से उनकी वैयावच्च (सार संभाल) न करें... इति तथा ब्रवीमि शब्द अधिकार परिसमाप्ति के सूचक है... किस प्रकार का साधु किस प्रकार के साधुओं को आहारादि दे, यह बात अब सूत्रकार Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 126 ॥१-८-२-५(२१९)卐 श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन महर्षि आगे के सूत्र से कहेंगे... V सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में प्रस्तुत अध्ययन के प्रथम उद्देशक के १६४वें सूत्र में उल्लेखित विषय को दोहराया गया है। इसका विवेचन उक्त स्थान पर किया जा चुका है, अत: हम यहां पुनः कहना उचित नहीं समझते अतः पाठक गण वहीं देख लें। समनोज्ञ साधु को समनोज्ञ साधु के साथ कैसा बर्ताव रखना चाहिए, इस बात को बताते हुए सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहते हैं... I सूत्र // 5 // // 219 // 1-8-2-5 धम्ममायाणह पवेइयं माहणेण मइमया समणुण्णे समणुण्णस्स असणं वा जाव कुजा वेयावडियं परं आढायमाणे तिबेमि // 219 // II संस्कृत-छाया : धर्मं जानीत प्रवेदितं माहणेन मतिमता समनोज्ञः समनोज्ञाय अशनं वा यावत् कुर्यात् वैयावृत्त्यं परं आद्रियमाणः इति ब्रवीमि // 219 // ' III सूत्रार्थ : द आर्य ! तू सर्वज्ञ भगवान महावीर द्वारा प्ररूपित धर्म को समझ। उन्हों ने कहा है कि- समनोज्ञ साधु समनोज्ञ साधु को आदरपूर्वक आहार आदि पदार्थ दें और उनकी सेवाशुश्रूषा भी करे। ऐसा मैं हे जम्बू ! तुम्हें कहता हूं। IV टीका-अनुवाद : मतिमता याने केवलज्ञानी श्री वर्धमानस्वामीजी ने कहे हुए दान-धर्म को आप जानों... जैसे कि- समनोज्ञ याने उद्यतविहारी साधु, दुसरे समनोज्ञ याने चारित्रशील संविग्न सांभोगिक एवं एक सामाचारीवाले साधु को आहारादि एवं वस्त्रादि दे तथा निमंत्रण करें या और भी सुंदर अंगमर्दनादि वैयावच्च करे... किंतु जो ऐसे गुणवान् नहि है ऐसे गृहस्थ या कुतीर्थिक या पासत्थादि... कि- जो असंविग्न है एवं असमनोज्ञ हैं... उनको आहारादि एवं वस्त्रादि न दें... यावत् वैयावच्च भी न करें, किंतु साधु अतिशय आदरवाला होकर अन्य समनोज्ञ साधुओं को क्रिया-अनुष्ठानादि में शिथिलता-मंदता आने पर उनकी सेवा-वैयावच्च करें... इस प्रकार गृहस्थादि एवं कुशीलादि का त्याग कहा... किंतु यहां इतना यह विशेष है कि-गृहस्थों के यहां से जो कुछ एषणीय आहारादि प्राप्त हो वह ग्रहण करें और अकल्पनीय का निषेध करें... Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1- 8 - 2 - 5 (219) 127 तथा जो असमनोज्ञ हैं उनके पास से तो कुछ भी नहि लेना चाहिये... इति और ब्रवीमि शब्दों के अर्थ पूर्ववत् जानीयेगा... V सूत्रसार : ___ पूर्व सूत्र में अमनोज्ञ-शिथिलाचारी या अपने से असम्बद्ध साधु को आहार आदि देने का निषेध किया गया है। इस सूत्र में अपने समान आचार वाले समनोज्ञ साधु को आदर पूर्वक आहार आदि देने एवं उसकी वैयावृत्त्य करने का विधान किया गया है। - अपने समानधर्मी मुनि का स्वागत करना मुनि का धर्म है। इससे पारस्परिक धर्मस्नेह बढ़ता है और एक-दूसरे के संपर्क से ज्ञान, दर्शन एवं चारित्र में अभिवृद्धि होती है, संयम में भी तेजस्विता आती है। अतः साधक को समनोज्ञ मुनि का आहार-पानी से आदरसम्मान पूर्वकं सत्कार करना चाहिए। उसकी सेवा-वैयावृत्त्य करनी चाहिए। क्योंकि- सेवाशुश्रूषा से कर्मों की निर्जरा होती है और उत्कट भाव आने पर तीर्थंकर गोत्र का भी बन्ध हो सकता है। अतः साधक को सदा संयम-निष्ठ पुरुषों का स्वागत करना चाहिए। 'त्तिबेमि' की व्याख्या पूर्ववत् समझें। // इति अष्टमाध्ययने द्वितीयः उद्देशकः समाप्तः // ज卐ज : प्रशस्ति : ___ मालव (मध्य प्रदेश) प्रांतके सिद्धाचल तीर्थ तुल्य शत्रुजयावतार श्री मोहनखेडा तीर्थमंडन श्री ऋषभदेव जिनेश्वर के सांनिध्यमें एवं श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरिजी, श्रीमद् यतीन्द्रसूरिजी, एवं श्री विद्याचंद्रसूरिजी के समाधि मंदिर की शीतल छत्र छायामें शासननायक चौबीसवे तीर्थंकर परमात्मा श्री वर्धमान स्वामीजी की पाट-परंपरामें सौधर्म बृहत् तपागच्छ संस्थापक अभिधान राजेन्द्र कोष निर्माता भट्टारकाचार्य श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी म. के शिष्यरत्न विद्वद्वरेण्य व्याख्यान वाचस्पति अभिधान राजेन्द्रकोषके संपादक श्रीमद् विजय यतीन्द्रसूरीश्वरजी म. के शिष्यरत्न, दिव्यकृपादृष्टिपात्र, मालवरत्न, आगम मर्मज्ञ, श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम प्रकाशन के लिये राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी हिंदी टीका के लेखक मुनिप्रवर ज्योतिषाचार्य श्री जयप्रभविजयजी म. “श्रमण' के द्वारा लिखित एवं पंडितवर्य लीलाधरात्मज रमेशचंद्र हरिया के द्वारा संपादित सटीक आचारांग सूत्र के भावानुवाद स्वरूप श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी हिंदी टीका-ग्रंथ के अध्ययनसे विश्वके सभी जीव पंचाचारकी दिव्य सुवासको प्राप्त करके परमपदकी पात्रता को प्राप्त करें... यही मंगल भावना के साथ... "शिवमस्तु सर्वजगतः" वीर निर्वाण सं. 2528. म राजेन्द्र सं. 96. 7 विक्रम सं. 2058. Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 128 // 1-8-3 - 1 (२२०)卐 श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन %3 श्रुतस्कंध - 1 अध्ययन - 8 उद्देशक - 3 卐 अंगचेष्टास्वरूपनिर्देशः // दुसरा उद्देशक कहा, अब तीसरे उद्देशक का प्रारंभ करते हैं... यहां दुसरे एवं तीसरे उद्देशक में परस्पर इस प्रकार संबंध है कि- दुसरे उद्देशक में अकल्पनीय आहारादि का निषेध कहा...और निषेध करने पर गुस्से में आये हुए उन दाता गृहस्थों को यथावस्थित आहारादि पिंडदान की विधि कहना चाहिये... अब यहां तीसरे उद्देशक में- आहारादि के लिये गृहस्थों के घर में गये हुए गीतार्थ मुनी-साधु भगवंत के शीत आदि से अंग के कंपन को देखकर अन्य विचारवाले गृहस्थ को यथावस्थित वस्तु तत्त्व कहकर जुठी शंका (बे समझ) दूर करें... इस संबंध से आये हुए तीसरे उद्देशक का यह प्रथम सूत्र है, और वह सूत्र सूत्रानुगम में संहितादि प्रकार से शुद्ध पढ़ें... I सूत्र // 1 // // 220 // 1-8-3-1 मज्झिमेणं वयसा वि एगे संबुज्झमाणा समुट्ठिया, सुच्चा मेहावी वयणं पंडियाणं निसामिया समियाए धम्मे आरिएहिं पवेइए ते अणवकंखमाणा अणइवाएमाणा अपरिग्गहेमाणा नो परिग्गहावंती सव्यावंति च णं लोगंसि निहाय दंडं पाणेहिं पावं कम्म अकुव्वमाणे एस महं अगंथे वियाहिए, ओए जुइमस्स खेयण्णे उववायं चवणं च णच्चा // 220 // II संस्कृत-छाया : मध्यमेन वयसा अपि एके सम्बुध्यमानाः समुत्थिताः, श्रुत्वा मेधावी वचनं पण्डितानां निशम्य समतया धर्म: आर्येः प्रवेदितः, ते अनवकाङ्क्षन्तः अनतिपातयन्तः अपरिगृह्णन्त: न परिग्रहवन्तश्च सर्वस्मिन् च अपि लोके निधाय दण्डं प्राणिषु पापं कर्म अकुर्वाणः, एषः महान् अग्रन्थः व्याख्यातः, ओजः द्युतिमान् खेदज्ञः उपपातं च्यवनं च ज्ञात्वा // 220 // III सूत्रार्थ : कई एक व्यक्ति मध्यमवय में भी बोध को प्राप्त होकर धर्म में उद्यत होते हैं। बुद्धिमान तीर्थंकरादि के वचनों को सुनकर और समता भाव से हृदय में विचार कर, तीर्थंकरों के प्रतिपादन किए हुए धर्म में दीक्षित होकर वे काम-भोगों के त्यागी, प्राणियों की हिंसा से निवृत्त Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1 - 8 - 3 - 1 (220) 129 एवं धनादि परिग्रह से रहित होते हुए अपने शरीर पर भी ममत्व नहीं रखते हैं। वे महापुरुष संपूर्ण लोक में स्थित समस्त प्राणियों के दंड का परित्याग करके किसी भी प्रकार के पापकर्म का आचरण नहीं करते हैं। वे बाह्याभ्यन्तर ग्रन्थ-परिग्रह से रहित होने के कारण निर्ग्रन्थ कहे गए हैं। अत: जो साधक राग-द्वेष से रहित हैं और संयम एवं मोक्ष के ज्ञाता हैं, वे देवों के उपपात एवं च्यवन को जानकर कभी भी पापकर्म का आचरण नहीं करतें / IV टीका-अनुवाद : ' यहां उम्र के तीन विभाग कहे हैं... 1. युवान, 2. मध्यमवय: 3. वृद्ध... इन तीनों में मध्यमवय:वाले हि परिपक्वबुद्धिवाले होने के कारण से धर्माचरण के लिये योग्य कहे हैं... जैसे कि- मध्यम उम्रवाले कितनेक मनुष्य बोध पाकर धर्माचरण के लिये अच्छी तरह से समर्थ हो सकते हैं... यद्यपि प्रथम और अंतिम उम्रवाले भी धर्माचरण के लिये समर्थ हो शकतें हैं किंतु कोइ कोइ मात्र हि... जब कि- मध्यम उम्रवाले सभी समर्थ हो सकते हैं... क्योंकि- मध्यम उम्र में भोगसुखों का कुतूहल नहि रहता, इसलिये मध्यमवय हि धर्माचरण के लिये निर्दोष एवं समर्थ है इत्यादि... ... यहां बोध पानेवालों के तीन प्रकार है... 1. स्वयंबुद्ध 2. प्रत्येकबुद्ध 3. बुद्धबोधित... इन तीनों में से यहां बुद्धबोधित का अधिकार है... जैसे कि- गुरुजी की आज्ञा-मर्यादा में रहा हुआ साधु, पंडित याने तीर्थंकर आदि के हित की प्राप्ति एवं अहितकारी कार्यों का त्याग स्वरूप उपदेश वचन सुनकर एवं हृदय मे धारण करके समभाव में रहें... क्योंकि- आर्य याने तीर्थंकरादि महापुरुषों ने माध्यस्थ्य-भाव से हि श्रुत एवं चारित्र धर्म कहा है... जैसे कि- मध्यम उम्र में धर्मकथा सुनकर एवं हृदय में धर्म को धारण करके संयमाचरण के लिये तत्पर बने हुए वे मनुष्य काम-भोग की आकांक्षा को छोडकर मोक्षमार्ग में चलतें हैं... तथा जीवहिंसा नहि करतें एवं परिग्रह का भी त्याग करतें हैं... यहां प्रथम एवं पांचवे व्रत का ग्रहण कीया है, अत: बीच के मृषावादादि का भी त्याग करते हैं... याने वे साधुजन मृषावाद (झुठ) नहि बोलतें इत्यादि... ऐसे यह साधुजन अपने शरीर के उपर भी. ममत्व-भाव नहि रखतें, और संपूर्ण लोक में कोइ भी पदार्थ के उपर ममता नहि रखतें... तथा जीवों को जो पीडा दी जाय उसे दंड कहते हैं... अतः यह दंड परितापकारी है... इसलिये साधुजन जीवों के दंड का त्याग करके अट्ठारह प्रकार के पापों का भी त्याग करतें हैं... तथैव बाह्य एवं अभ्यंतर ग्रंथ याने परिग्रह साधुओं को नहि है अतः वे अग्रंथ है ऐसा तीर्थंकर एवं गणघरादि ने कहा है... तथा ओज याने राग-द्वेष रहित अद्वितीय, तथा Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 130 // 1-8-3 - 2 (221) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन द्युतिमान् याने संयमी-मुमुक्षु... अर्थात् संयम और मोक्ष के स्वरूप एवं आचरण में निपुण वह साधु देवलोक में उपपात याने उत्पन्न होना तथा च्यवन याने देवभव छोडकर अन्य भव में जाना इत्यादि जानकर सोचे कि- इस संसार में सभी स्थान अनित्य हैं, अत: मैं पापाचरण का त्याग करूं... कितनेक मनुष्य मध्यम उम्र में संयमाचरण के लिये तत्पर होने के बाद परीषह एवं इंद्रियों के विषयों में मतिमूढ होकर ग्लानि को पातें हैं यह बात अब सूत्रकार महर्षि आगे के सूत्र से कहेंगे... V सूत्रसार : द्वितीय उद्देशक में अकल्पनीय आहार आदि ग्रहण करने का निषेध किया गया है। प्रस्तुत तृतीय उद्देशक में बताया गया हैं कि- यदि भिक्षा आदि के लिए गृहस्थ के घर में प्रविष्ट साधु शीत के कारण कांप रहा हो और गृहस्थ के मन में यह शंका उत्पन्न हो गई हो कि- साधु कामेच्छा के उत्कट वेग से कांप रहा है, तो उस समय साधु को उस गृहस्थ की शंका का निवारण कैसे करना चाहिए ? इत्यादि बातें सूत्रकार महर्षि यहां क्रमशः कहेंगे... यह हम देख चुके हैं कि- मनुष्य तीनों अवस्थाओं-बाल्य, यौवन एवं वृद्ध अवस्था में साधना को कर सकता है। फिर भी यहां मध्यम अवस्था को लिया गया है। क्योंकिइस मध्यमवय में प्रायः बुद्धि परिपक्व होती है। इसलिए वह अपने हिताहित का भलीभांति विचार कर सकता है। अत: कोई व्यक्ति तीर्थंकर के या आचार्य आदि के वचनों से बोध को प्राप्त करके श्रुत और चारित्र धर्म को स्वीकार करता है। तथा समस्त प्राणियों को अपरी आत्मा के तुल्य समझकर समस्त आरम्भ-समारम्भ का त्याग कर देता है। एवं समस्त पदार्थों पर से- यहां तक कि- अपने शरीर पर से भी ममत्व हटा लेता है। अर्थात् किसी भी पदार्थ में उसको ममता नहीं रहती है। तथा वह इस बात को भली-भांति जानता है कि- ये भोग के साधन अनित्य हि हैं, और तो क्या ? देवों का विपुल ऐश्वर्य भी अस्थायी है। वे देव भी एक दिन अपनी ऐश्वर्य सम्पन्न स्थिति से च्युत हो जाते हैं। जब देवों की यह स्थिति है कि- जिन्हें लोग अमर कहते है, तो फिर मनुष्य की क्या गिनती है ? ऐसा सोचकर वे कभी भी पाप कर्म का आचरण नहीं करते हैं। समस्त सावद्य प्रवृत्तियों का त्याग कर सदा संयम साधना में संलग्न रहते हैं। ऐसे साधु ही निर्ग्रन्थ कहलाते हैं। ____ परन्तु, जो मनुष्य साधना पथ को स्वीकार करने के बाद संयम में ग्लानि पातें हैं, उनके सम्बन्ध में सूत्रकार महर्षि आगे के सूत्र से कहते हैं... I सूत्र // 2 // // 221 // // 1 // 1-8-3-2 आहारोवचया देहा परीसहपभंगुरा पासह एगे सव्विंदिएहिं परिगिलायमाणेहिं // 221 // Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका // 1-8-3 -2 (221) // 131 II. संस्कृत-छाया : ___ आहारोपचयाः देहाः परीषह-प्रभञ्जिनः पश्यत एके सर्वेन्द्रियैः परिग्लायमानैः // 221 // III सूत्रार्थ : हे शिष्य ! तू देख, यह आहार से परिपुष्ट हुआ शरीर परीषहों के उत्पन्न होने पर विनाश को प्राप्त होता है। अत: कुछ साधु भी परीषहों के उत्पन्न होने पर सब तरह से ग्लानिभाव या विनाश-भाव को प्राप्त होते हैं। IV टीका-अनुवाद : आहारादि से पुष्ट होनेवाला शरीर, आहार-पानी के अभाव में क्षीण होता है अर्थात् जीव देह का त्याग करता है... तथा परीषहों से भी शरीर का नाश होता है... जैसे किआहारादि से पुष्ट कीया हुआ शरीर ठंडी-गरमी इत्यादि परीषहो में या वात-पित्त एवं कफ के क्षोभ से देखिये ! कि- कितनेक मनुष्य क्लिबता याने परवशता को पाये हुए हैं... जैसे कि- भुख से पीडित प्राणी न कुछ देख शकता है, न सुन शकता है और न तो कुछ सुंघ शकता है इत्यादि... देखिये ! केवलज्ञानी का शरीर भी आहारादि के बिना ग्लानिभाव को प्राप्त करता है तो फिर अन्य सामान्य जीवों की तो बात हि क्या करना ? अर्थात् सभी जीवों के शरीरदेह प्रकृति से भंगुर हि है... प्रश्न- . जिन्हे केवलज्ञान प्रगट नहि हुआ है वे छद्मस्थ प्राणी (मनुष्य) अकृतार्थ होने के कारण से उनको क्षुत्-वेदनीय कर्म होने से आहार लेना चाहिये और दया आदि व्रतों का पालन करे किंतु जो केवलज्ञानी हैं वे तो निश्चित हि मोक्ष-पद पानेवाले हैं तो फिर वे क्यों शरीर धारण करतें हैं ? और शरीर को धारण करने के लिये क्यों आहार लेते हैं ? उत्तर- केवलज्ञानी को भी चार अघाती कर्म होतें हैं अत: वे सर्वथा कृतार्थ नहि है, अतः सर्व प्रकार से कृतार्थ होने के लिये हि शरीर को धारण करतें हैं और शरीर को धारण करने के लिये आहार की आवश्यकता रहती है क्योंकि- उन्हें भी क्षुवेदनीय कर्म होता है और वेदनीय कर्म के कारण से हि केवलज्ञानीओं को ग्यारह (11) परीषह होते हैं, इस कारण से हि केवलज्ञानीओं को भी आहार लेना होता है... तथा आहार के अभाव में छद्मस्थ जीवों को शरीर में एवं इंद्रियों में ग्लानता याने मंदता होती है ऐसा यहां कहा है... Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 132 // 1-8-3-3 (222) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन प्रश्न- परीषहोंकी पीडा के समय केवलज्ञानी क्या करतें हैं ? इस प्रश्न का उत्तर सूत्रकार महर्षि आगे के सूत्र से कहेंगे... V सूत्रसार : शरीर की वृद्धि अनुकूल आहार पर आधारित है। योग्य आहार के अभाव में शरीर क्षीण होता रहता है और इन्द्रिएं भी कमजोर हो जाती है। अतः शरीर से दुर्बल व्यक्ति परीषह एवं व्याधि के उत्पन्न होने पर इस शरीर का त्याग भी कर देते हैं। अत: यह शरीर क्षणिक है, नाशवान है, फिर भी धर्म साधना करने का सर्व श्रेष्ठ साधन है। मनुष्य के शरीर में ही साधक अपने मोक्ष के उद्देश्य को सफल बना सकता है। वह सदा के लिए कर्म बन्धन से छुटकारा पा सकता है। इसलिए साधक को सदा इस शरीर से लाभ उठाने का प्रयत्न करना चाहिए। किन्तु कुछ मोहांध लोग परीषहों के उत्पन्न होने पर ग्लानि का अनुभव कहते हैं। वे नाशवान शरीर पर ममत्व लाकर अपने पथ से विचलित हो जाते हैं। परन्तु, वीर पुरूष किसी भी परिस्थिति में पथ-भ्रष्ट नहीं होते। वे परीषहों के उपस्थित होने पर किसी भी प्रकार की चिन्ता नहीं करते हैं। इस विषय में सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहते हैं... I सूत्र // 3 // // 222 // 1-8-3-3 ओए दयं दयइ, जे संनिहाणसत्थस्स खेयण्णे से भिक्खू कालण्णे बलण्णे मायण्णे खणण्णे विणयण्णे समयण्णे परिग्गहं अममायमाणे कालेऽणुट्ठाइ अपडिण्णे दुहओ छइत्ता नियाइ // 222 // // संस्कृत-छाया : ___ ओजः दयां दयते, यः संनिधानशस्त्रस्य खेदज्ञः सः भिक्षुः कालज्ञः बलज्ञः मात्रज्ञः क्षणज्ञः विनयज्ञः समयज्ञः परिग्रहं अममायमानः काले अनुतिष्ठति, अप्रतिज्ञः उभयत: छेत्ता निर्याति // 222 // III सूत्रार्थ : रागद्वेष से रहित भिक्षु क्षुधा आदि परीषहों के उत्पन्न होने पर भी दया का पालन करता है। वह भिक्षु नरक आदि के स्वरूप का वर्णन करने वाले शास्त्रों का परिज्ञाता है, काल का ज्ञाता है, अपने बल का ज्ञाता है, परिमाण आदि का ज्ञाता है, अवसर का ज्ञाता है, विनय का ज्ञाता है तथा स्वमत और परमत का ज्ञाता है, परिग्रह में ममत्व नहीं रखता है और नियत समय पर क्रियानुष्ठान करने वाला है। वह साधक कषायों की प्रतिज्ञा से रहित अर्थात् कषायों Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 卐१-८-3-3 (222) 133 का निग्रह करता है और राग-द्वेष का छेदन करने वाला है और वह निश्चित रूप से संयम साधना में संलग्न रहता है। IV टीका-अनुवाद : ओजः याने एक रागादि रहित वह केवलज्ञानी प्रभु क्षुत्-पिपासादि परीषह होने पर दया याने अहिंसा का हि पालन करतें हैं, परीषहों आने पर दया याने अहिंसा का खंडन नहि करतें तथा जो छद्मस्थ साधु लघुकर्मा है वह नारकादि गति के कारण स्वरूप कर्म को कहनेवाले शास्त्र को जानते हैं अथवा तो संनिधान याने कर्म के शस्त्र-संयम को जानते हैं, वे हि भिक्षु याने साधु कालज्ञ याने उचित और अनुचित अवसर को जानतें हैं... यह सभी सूत्र लोकविजय नामने अध्ययन के पांचवे उद्देशक की व्याख्या की तरह जानीयेगा... तथा बलज्ञ याने बल को जाननेवाले, मात्रज्ञ याने मात्रा-प्रमाण को जाननेवाले क्षणज्ञ याने अवसर को जाननेवाले, विनयज्ञ याने विनय-विवेक को जाननेवाले एवं समय याने शास्त्र को जाननेवाले होतें हैं अत: परिग्रह-उपकरणों में ममत्व न करते हुए कालावसर के अनुसार पंचाचार में उद्यम करनेवाला साधु दोनों प्रकार से याने बाह्य एवं अभ्यंतर कर्मो के बंधनों को छेदता है... ऐसे प्रकार के हि साधुजन संयमानुष्ठान में निश्चित विचरतें हैं... - संयमानुष्ठान में विचरते हुए उन साधुओं को जो गुण-लाभ होता है वह अब सूत्रकार महर्षि आगे के सूत्र से कहेंगे.... V सूत्रसार : - ___ साधना का क्षेत्र परीषहों से घेरा हुआ है। साधु वृत्ति में परीषहों का उत्पन्न होना आश्चर्य जनक नहीं है, अपितु परीषहों का उत्पन्न न होना आश्चर्य का कारण हो सकता है। अतः साधक परीषहों के उत्पन्न होने पर दया भाव का परित्याग नहीं करता है। वह जीवों की दया एवं रक्षा करने में सदा संलग्न रहता है। दया संयम का मूल है, इसलिए यहां सूत्रकार ने दया शब्द का प्रयोग किया है। क्योंकि- दयाहीन व्यक्ति संयम का परिपालन नहीं कर सकता है। इसलिए प्राणान्त कष्ट उपस्थित होने पर भी साधक दयाभाव का परित्याग नहीं करता है। अर्थात् अहिंसादि महाव्रतों में हि स्थिर रहता है...' ऐसे संयम का पालन वही कर सकता है, जो कि- कर्मशास्त्र का परिज्ञाता है और संयम विधि का पूर्ण ज्ञाता है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि- मुनि को कर्म बन्ध के कारण एवं उसके क्षय करने के साधन पंचाचार का परिज्ञान होना चाहिए और यह परिज्ञान आगमों के अध्ययन, स्वाध्याय एवं चिन्तन से ही हो सकता है। स्वाध्याय एवं चिन्तन-मनन में संलग्न रहने वाला साधक ही उपयुक्त समय एवं आहार आदि की मात्रा-परिमाण का ज्ञाता हो सकता Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 134 1-8-3 - 4 (२२3)卐 श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन है। वह परिग्रह में ममत्व न रखते हुए शुद्ध संयम का पालन करता है। अतः मुनि को निष्ठा पूर्वक स्वाध्याय एवं चिन्तन में संलग्न रहना चाहिए और परीषहों के उत्पन्न होने पर भी दया भाव का त्याग नहीं करना चाहिए। इससे संयम में निष्ठा बढती है और उसकी साधना में तेजस्विता आती है। इस संबन्ध में विशेष उल्लेख करते हुए सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहते हैं... I सूत्र // 4 // // 223 // 1-8-3-4 तं भिक्खुं सीयफास परिवेवमाणगायं उवसंकमित्ता गाहावई बूया - आउसंतो ! समणा ! नो खलु ते गामधम्मा उव्वाहंति ? आउसंतो ! गाहावई ! नो खलु मम गामधम्मा उव्वाहंति, सीयफासं च नो खलु अहं संचाएमि अहियासित्तए, नो खलु मे कप्पइ अगणिकायं उज्जालित्तए वा कायं आयावित्तए वा पयावित्तए वा अण्णेसिं वा वयणाओ, सिया स एवं वयंतस्स परो अगणिकायं उज्जालित्ता पज्जालित्ता कायं आयाविज्ज वा पयाविज्ज वा, तं च भिक्खू पडिलेहाए आगमित्ता आणविज्जा अणासेवणाए तिबेमि // 223 // II संस्कृत-छाया : तं भिखं शीतस्पर्श परिवेपमानगात्रं उपसङ्क्रम्य गृहपतिः ब्रूयात् - हे आयुष्मन् ! श्रमण ! न खलु त्वां (भवन्तं) ग्रामधर्माः उद्बाधन्ते ? हे आयुष्मन् ! गृहपते ! न खलु मां ग्रामधर्माः उद्बाधन्ते, शीतस्पर्शं च न खलु अहं शक्नोमि अधिसोढुं, न खलु मह्यं कल्पते अग्निकार्य उज्ज्वालयितुं वा कायं आतापयितुं वा प्रतापयितुं वा अन्येषां वा वचनतः, स्यात् तं एवं वदन्तं परः अग्निकार्य उज्ज्वालयित्वा उज्ज्वालय्य प्रज्वालय्य कायं आतापयेत् वा प्रतापयेत् वा, तं च भिक्षुः प्रत्युपेक्ष्य अवगम्य आज्ञापयेत् अनासेवनया इति ब्रवीमि // 223 // III सूत्रार्थ : जिसका शरीर शीत के स्पर्श से कम्प रहा है, ऐसे भिक्षु के समीप आकर यदि कोई गृहस्थ कहने लगे कि- हे आयुष्मन् श्रमण ! आप विषय विकार से पीडित तो नहीं हो रहे है ? उसके इस संशय का निराकरण करने के लिए मुनि उसे कहे कि- मुझे ग्रामधर्म पीडित नहीं कर रहा है। किन्तु, मैं शीत के स्पर्श को सहन नहि कर सकता। मुझे अग्निकाय (अग्नि को) उज्ज्वलित-प्रज्वलित करना नहिं कल्पता, अग्नि से शरीर को थोडा-सा गर्म करना या अधिक गर्म करना अथवा दूसरों से करवाना इत्यादि भी नहीं कल्पता है। यदि साधु के इस प्रकार बोलने से कभी कोई गृहस्थ अग्नि को उज्ज्वलित-प्रज्वलित करके उस साधु के शरीर Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका #1-8 - 3 - 4 (223) 135 को थोंडा या अधिक गर्म करे या गर्म करने का प्रयत्न करे, तो भिक्षु उस गृहपति को इस - प्रकार प्रतिबोधित करे कि- यह अग्नि मेरे लिए अनासेव्य है अर्थात् मुझे अग्नि का सेवन करना नहीं कल्पता है। अतः मैं इसका सेवन नहीं करुंगा हूं। इस प्रकार हे जंबू ! मैं तुम्हें कहता हूं। IV टीका-अनुवाद : अंत-पांत नीरस-विरस आहारादि के कारण से निस्तेज और निष्किंचन भिक्षु याने साधु को उष्मावाली यौवनावस्था बीतने पर साधु के शरीर को उपयुक्त वस्त्रादि के अभाव से कांपता हु।। देखकर कोइक गृहस्थ कि- जो ऐश्वर्य की उष्मावाला तथा कस्तुरी के साथ केशर के लेप से लिप्त देहवाला तथा अंबर अगुरु घनसार आदि धूप से धूपित वस्त्रादि पहने हुए शरीरवाला तथा प्रौढ स्त्रीओं के परिवार से घेरा हुआ सोचे कि- क्या यह मुनी अप्सरांओ से भी अधिक रूप सौंदर्यवाली मेरी स्त्रीओं को देखकर काम-मदन के वश होकर कांपता है या ठंड के कारण से ? इत्यादि संशय करता हआ और अपनी कुलीनता को प्रगट करता हआ प्रतिषेध प्रकार से प्रश्न करे कि- हे श्रमण ! क्या आपको ग्रामधर्म याने इंद्रियों के विषय-विकार अधिक पीडा नहि करता ? इस प्रकार गृहस्थ के कहने पर साधु गृहस्थ का मनोगत अभिप्राय जानकर विचारे कि- “इस गृहस्थ को स्त्रीओं को देखने से होनेवाले कामविकार के विचार से साधु के उपर जुठी शंका हुइ है अतः मैं इस जुठी शंका को दूर करूं' ऐसा सोचकर साधु कहे कि- हे आयुष्मन् गृहपति ! मुझे ग्रामधर्म याने इंद्रियों के विकार पीडित नहि करतें... किंतु जो आप मेरा शरीर कांपता हुआ देखते हो वह शीतस्पर्श याने ठंडी के कारण से हि जानीयेगा... परंतु और कोइ.मानसिक विकार से नहि... क्योंकि- मेरा शरीर इस अतिशय ठंडी को सहन नहि कर शकता... इत्यादि... साधु के वचन को सुनकर भक्ति एवं करुणा हृदयवाला वह गृहस्थ कहे कि- आप प्रज्वलित अग्नि का सेवन क्यों नहि करतें ? तब मुनी कहे कि- हे गृहपति ! हम साधुओं को अग्नि जलाना कल्पता नहि है, और अग्नि से शरीर को तपाना भी नहि कल्पता... तथा अन्य लोगों के कहने पर भी हमे अग्नि से ताप लेना कल्पता नहि है, और अन्य लोगों को अग्नि जलाने के लिये भी कहना हमे कल्पता नहि है... इत्यादि साधु के वचन को सुनकर कदाचित् वह गृहस्थ साधु के प्रति भक्ति-करुणा से स्वयं हि अग्नि जलाकर साधु के शरीर को ठंडी से बचने के लिये आतापना दे तब वह साधु स्वयं हि अपनी सन्मति से या अन्य साधु के कहने से या अन्य कहिं शास्त्र से साधु के आचार को सुनकर उस गृहस्थ को कहे कि- “हे गृहपति ! हम को इस प्रकार आतापना लेना कल्पता नहि है... किंतु आपने तो साधु के प्रति भक्ति और अनुकंपा से बहोत सारा पुण्य उपार्जन कीया है" इत्यादि प्रकार से साधु गृहस्थ को समझावें... इति शब्द यहां अधिकार की समाप्ति का सूचक है और ब्रवीमि शब्द पूर्ववत् अर्थात् पंचम गणधर श्री सुधर्मास्वामीजी अपने शिष्य जंबूस्वामीजी को यह साधु Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 136 // 1-8-3 - 4 (223) // श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन का आचार-विचार कहते हैं... V सूत्रसार : शरीर में कंपन विकारों के वेग से होता है। विकार भी द्रव्य और भाव के भेद से दो प्रकार के होते हैं। शीत एवं ज्वर आदि द्रव्य विकार हैं, जिनके कारण शरीर में कंपन होता है। काम, क्रोध, मोह आदि भाव विकार हैं और जब इनका वेग होता है, उस समय भी शरीर कांपने लगता है। इस तरह भले ही सर्दी से, ज्वर से या काम आदि से शरीर में कम्पन हो, वह कंपन विकारजन्य ही कहलाता है। परन्तु, द्रव्य विकारों से उत्पन्न कम्पन जीवन के लिए अहितकर नहीं है। किंतु भाव विकारों के वेग से उत्पन्न कम्पन जीवन का सर्वनाश भी कर सकता है / इसलिए साधक को भाव विकारों के आवेग से सदा दूर रहना चाहिए। कुछ मनुष्यों का स्वभाव होता है कि- वे प्रत्येक मनुष्य की चेष्टा को अपनी चेष्टा के अनुरूप देखते या समझते हैं। उन्हें काम-भोगों के आवेग से कम्पन पैदा होता है तो वे दूसरे व्यक्ति को कांपते हुए देखकर उसे भी काम-विकार से पीडित समझने लगते हैं। ऐसे व्यक्ति के सन्देह को अवश्य दूर करना चाहिए। इत्यादि यही बात प्रस्तुत सूत्र में बताई गई है। __कोई साधु किसी गृहस्थ के घर भिक्षा को गया। सर्दी की अधिकता के कारण उसके शरीर को कांपते हुए देखकर यदि कोई गृहस्थ पूछ बैठे कि- क्या आपको काम-वासना का वेग सता रहा है ? तो मुनि स्पष्ट शब्दों में कहे कि- मैं वासना से प्रताडित नहीं हूं। परन्तु, सर्दी की अधिकता के कारण कांप रहा है। यह सुनकर यदि गृहस्थ कहे कि- तुम अग्नि ताप लो। यदि तुम हमारे चुल्हे के पास जाना नहीं चाहते हो, तो हम ताप का साधम यहां लाकर दे दें। उस समय मुनि कहे कि- हे देवानुप्रिय ! मुझे अग्नि तापना नहीं कल्पता है। क्योंकिवह सजीव है, इसलिए अग्नि को तापने से तेजस्कायिक जीवों की हिंसा होती है। इस तरह वह समस्त शंकाओं का निराकरण करके विशुद्ध भावों के साथ संयम साधना में संलग्न रहे। 'त्तिबेमि' की व्याख्या पूर्ववत् समझें। // इति अष्टमाध्ययने तृतीयः उद्देशकः समाप्तः // 卐卐॥ : प्रशस्ति : मालव (मध्य प्रदेश) प्रांतके सिद्धाचल तीर्थ तुल्य शत्रुजयावतार श्री मोहनखेडा तीर्थमंडन श्री ऋषभदेव जिनेश्वर के सांनिध्यमें एवं श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरिजी, श्रीमद् Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी- टीका 1-8- 3 - 4 (223) // 137 यतीन्द्रसूरिजी, एवं श्री विद्याचंद्रसूरिजी के समाधि मंदिर की शीतल छत्र छायामें शासननायक चौबीसवे तीर्थंकर परमात्मा श्री वर्धमान स्वामीजी की पाट-परंपरामें सौधर्म बृहत् तपागच्छ संस्थापक अभिधान राजेन्द्र कोष निर्माता भट्टारकाचार्य श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी म. के शिष्यरत्न विद्वद्वरेण्य व्याख्यान वाचस्पति अभिधान राजेन्द्रकोषके संपादक श्रीमद् विजय यतीन्द्रसूरीश्वरजी म. के शिष्यरत्न, दिव्यकृपादृष्टिपात्र, मालवरत्न, आगम मर्मज्ञ, श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम प्रकाशन के लिये राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी हिंदी टीका के लेखक मुनिप्रवर ज्योतिषाचार्य श्री जयप्रभविजयजी म. “श्रमण'' के द्वारा लिखित एवं पंडितवर्य लीलाधरात्मज रमेशचंद्र हरिया के द्वारा संपादित सटीक आचारांग सूत्र के भावानुवाद स्वरूप श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी हिंदी टीका-ग्रंथ के अध्ययनसे विश्वके सभी जीव पंचाचारकी दिव्य सुवासको प्राप्त करके परमपदकी पात्रता को प्राप्त करें... यही मंगल भावना के साथ... "शिवमस्तु सर्वजगतः" / वीर निर्वाण सं. 2528. राजेन्द्र सं. 96. विक्रम सं. 2058. 74 Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 138 // 1-8 -4 -1 (224) // श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन श्रुतस्कंध - 1 अध्ययन - 8 उद्देशक - 4 # वेहानसादि मरणम् // तीसरा उद्देशक कहा, अब चौथे उद्देशक का प्रारंभ करते हैं... यहां परस्पर अभिसंबंध इस प्रकार है कि- यहां तीसरे उद्देशक में गोचरी आदि के लिये गये हुए साधु का शरीर शीत आदि से कांपते हुए देखकर कुछ उलटे सुलटे विचार करनेवाले गृहस्थ की शंका-कुशंका दूर करी... किंतु यदि वहां गृहस्थ न हो और स्त्री हि उलटे-सुलटे विचार करे तब वैहानस या गार्द्धपृष्ठादि मरण को भी साधु स्वीकार करे... यदि विशेष कारण न हो तो ऐसा न करें.... इत्यादि बात कहने के लिये इस चौथे उद्देशक का प्रारंभ करते हैं... अतः इस संबंध से आये हुए इस चौथे उद्देशक का यह प्रथम सूत्र है... .. I सूत्र // 1 // // 224 // 1-8-4-1 जे भिक्खू तिहिं वत्थेहिं परिखुसिए, पायचउत्थेहिं तस्स णं नो एवं भवइ - चउत्थं वत्थं जाइस्सामि, से अहेसणिज्जाई वत्थाई जाइज्जा, अहापरिग्गहियाई वत्थाई धारिज्जा, नो धोइज्जा, नो धोयरत्ताई वत्थाई धारिज्जा, अपलिओवमाणे गामंतरेसु ओमचेलिए, एयं खु वत्थधारिस्स सामग्गियं // 224 // II संस्कृत-छाया : ___ यः भिक्षुः त्रिभिः वस्त्रैः पर्युषितः, पात्रचतुर्थैः तस्य न एवं भवति-चतुर्थं वस्त्रं याचिष्ये, सः अथ एषणीयानि वस्त्राणि याचयित्वा (याचित्वा) यथापरिगहीतानि वस्त्राणि धारयेत्, न धावेत् न धौतरक्तानि वस्त्राणि धारयेत् अपरिगोपयन्, ग्रामान्तरेषु अवमचेलिकः, एतत् खलु वस्त्रधारिण: सामण्यम् // 224 // III सूत्रार्थ : जो अभिग्रहधारी मुनि एक पात्र और तीन वस्त्रों से युक्त है। शीतादि के लगने पर उसके मन में यह विचार उत्पन्न नहीं होता है कि- मैं चौथे वस्त्र की याचना करूंगा, यदि उसके पास तीन वस्त्रों से कम हो तो वह निर्दोष वस्त्र की याचना करे और याचना करने पर . उसे जैसा वस्त्र मिले वैसा ही धारण करे। किन्तु, उसको प्रक्षालित न करे तथा रंगे हुए वस्त्र को धारण न करे। वह ग्रामादि में विचरन के समय अपने पास के वस्त्र को छुपाकर न रखे। वह वस्त्रधारी मुनि परिमाण में स्वल्प एवं थोडे मूल्यवाला वस्त्र रखने के कारण अवमचेलक Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 9 - 8 - 4 - 1 (224) 139 अल्प-वस्त्रवाला भी कहलाता है। यह वस्त्रधारी मुनि की समग्रता याने सदाचार है। IV टीका-अनुवाद : जिनशासन में प्रतिमा-प्रतिपन्न या जिनकल्पिक साधु अच्छिद्रपाणि होतें है, उनको पात्र के उपकरणों के साथ पात्र एवं तीन कपडे (वस्त्र), यह उनकी ओघ-उपधि है, औपग्रहिक नहि है... वह इस प्रकार- शिशिर (ठंडी) आदि ऋतु में सूती दो कपडे कि- जो ढाइ हाथ लंबे-चौडे होते हैं, तथा तीसरा और्णिक याने ऊनी शाल (कामली)... वह जिनकल्पिक साधु शीत (ठंडी) होने पर भी अन्य चौथे वस्त्र की इच्छा नहि करतें... वह इस प्रकार- जीस साधु के पास उपर कहे गये तीन वस्त्र हैं वह साधु जब शीत याने ठंडी पडे तब एक सूती वस्त्र पहने... एक कपडा ओढने पर भी यदि शीत सहन न होवे तब दुसरा सुती कपडा ओढे... पहने... किंतु यदि अतिशय शीत-ठंडी हो तब दो सूती कपडे के उपर गरम ऊन की कामल से शरीर को ढांक याने कामली का उपयोग करे... परंतु इतना ध्यान रहे कि- ऊन की कामली बाहार की और हि रहे... तीन वस्त्र एवं चौथा उपकरण पात्र... गिरते हुए आहारादि का जो रक्षण करे वह पात्र... पात्र ग्रहण करने से पात्र के सात निर्योग याने उपकरणों का भी ग्रहण हो जाता है... क्योंकि- पात्र के उपकरणों के बिना पात्र का ग्रहण संभवित हि नहि है... और वे पात्र के सात निर्योग याने उपकरण इस प्रकार हैं... 1. पात्र, 2. पात्रबंध, 3. पात्रस्थापन, 4. पात्रकेशरिका (चरवली), 5. पल्ले (पटलानि), 6. रजस्त्राण और 7. गुच्छक... यह सात . पात्रनिर्योग हैं... इस प्रकार पात्र के सात उपकरण तथा तीन वस्त्र एवं रजोहरण तथा मुहपत्ती इस प्रकार बारह (12) प्रकार की उपधि-उपकरणवाले जिनकल्पिक साधु को ऐसा विचार कभी भी नहि आता कि- इस शीतकाल में तीन कपडों (वस्त्र) से मेरी ठंड दूर नहि होती, अतः मैं चौथे वस्त्र की याचना करूं... यदि ऐसा विचार-अध्यवसाय हि न होवे तो फिर याचना करने की तो बात हि कहां रही ?... किंतु निर्वस्त्र ऐसे जिनकल्पवले साधु के पास यदि तीन वस्त्र नहि हैं और शीतकाल में शीत-ठंड पडे तब वे जिनकल्पवाले साधु एषणीय वस्त्रों की याचना करें, किंतु उत्कर्षण और अपकर्षण रहित ऐसे अपरिकर्मवाले वस्त्रों की हि याचना करें इत्यादि... . वस्त्रैषणा के चार प्रकार है... 1. उद्दिष्ट... 2. पह, 3. अंतर, 4. उज्झितधर्मा... इन चार में से अंतिम दो एषणा अग्राह्य है... और शेष दो एषणा को ग्राह्य कहा गया है... और उन दोनो एषणा में भी कीसी एक एषणा का अभिग्रह करें... इस प्रकार याचना से प्राप्त हुए वस्त्रों को जैसे हि ग्रहण कीया था वैसा हि पहने... किंतु उन वस्त्रों में उत्कर्षण आदि याने धोना आदि परिकर्म न करें... वह इस प्रकार- जिनकल्पवाले साधु अचित्त जल से भी वस्त्रों Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 140 9 -8 -4 - 1 (224) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन को धोवे नहि, किंतु जो गच्छवासी स्थविरकल्पवाले साधु हैं वे वर्षाकाल के पूर्व एवं ग्लानरोगादि अवस्था में अचित्त जल से जयणा के साथ वस्त्रों को धोवे... तथा धोये हुए एवं रंगे हुए कपडे-वस्त्र साधु धारण न करें... तथा एक गांव से दुसरे गांव की और जाते समय साधु वस्त्रों को छुपावे नहिं, अर्थात् गुप्त न रखें... क्योंकि- साधु के वस्त्र अंत-प्रांत याने तुच्छअसार होने के कारण से छुपाने की आवश्यकता नहि है... इस प्रकार यह साधु अवमचेलिक (अचेलक) है अर्थात् अल्प मूल्यवाले एवं प्रमाणोपेत अर्थात् गीनती के दो या तीन हि वस्त्र होतें हैं अतः यह हि प्रमाणोपेत वस्त्रधारी साधुओं का सर्वस्व-साधुपना है और यह तीन वस्त्र के साथ उत्कृष्ट से बारह प्रकार की उपधिवाले हि जिनकल्पिक साधु होतें हैं... अन्य नहि... अब कहते हैं कि- जब शीतकाल बीत जाय तब साधु उन वस्त्रों का भी त्याग करें इत्यादि बातें सूत्रकार महर्षि आगे के सूत्र से कहेंगे... V सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र अभिग्रह निष्ठ या जिनकल्प की भूमिका पर स्थित साधु के विषय में है। इसमें बताया गया है कि- जिस मुनि ने तीन वस्त्र और एक पात्र रखने की प्रतिज्ञा की है, वह मुनि शीतादि का परीषह उत्पन्न होने पर भी चौथे वस्त्र को स्वीकार करने की इच्छा न करे। वह अपनी प्रतिज्ञा का दृढता से पालन करने के लिए समभाव पूर्वक परीषह को सहन करे। परन्तु, अपनी प्रतिज्ञा एवं मर्यादा से अधिक वस्त्र संग्रह करने की भावना न रखे। यदि उसके पास अपनी की हुई प्रतिज्ञा से कम वस्त्र है, तो वह दूसरा वस्त्र ले सकता है। उस समय उसे जैसा वस्त्र उपलब्ध हो, उस का उसी रूप में उपयोग करे। न उसे पानी आदि से साफ करे और न उसे रंगकर काम में ले। वह गांव आदि में जाते समय उस वस्त्र को छुपाकर भी न रखे। उक्त मुनि के पास अल्प मूल्य के थोडे वस्त्र होने के कारण सूत्रकार ने साधु को अवमचेलक (अचेलक) अल्प वस्त्रवाला कहा है। . वृत्तिकार ने पात्र शब्द से पात्र के साथ उसके लिए आवश्यक अन्य उपकरणों को भी ग्रहण किया है। जैसे- 1. पात्र, 2. पात्र बन्धन, 3. पात्र स्थापन, 4. पात्र केसरिकप्रमार्जनिका, 5. पटल, 6. रजत्राण, 7. गोच्छक-पात्रं साफ करने का वस्त्र, ये सात उपकरण हुए और तीन वस्त्र, रजोहरण ओर मुखवस्त्रिका, इस प्रकार जिनकल्प की भूमिका पर स्थित अभिग्रह निष्ठ मुनि के 12 उपकरण होते हैं। - साधु को मर्यादित उपधि रखने का उपदेश देने का कारण यह है कि- उपधि संयम का साधन मात्र है। अत: साधु संयम की साधना के लिए आवश्यक उपधि के अतिरिक्त उपधि का संग्रह न करे। क्योंकि- अनावश्यक उपधि के संग्रह से मन में ममत्व का भाव जगेगा और उसका समस्त समय जो अधिक से अधिक स्वाध्याय, धर्मध्यान एवं चिन्तन Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 71-8-4-2 (225) // 141 मनन में लगना चाहिए, वह उसमें न लगाकर अनावश्यक उपधि को संभालने में ही व्यतीत कर देगा। इस तरह स्वाध्याय एवं चिन्तन में विघ्न न पडे तथा मन में संग्रह एवं ममत्व की भावना उबुद्ध न हो, इस अपेक्षा से साधु को मर्यादित उपकरण रखने का उपदेश दिया गया प्रस्तुत सूत्र में वस्त्र धोने का नो निषेध किया गया है, वह भी विशिष्ट अभिग्रह संपन्न मुनि के लिए ही किया गया है, ऐसा प्रतीत होता है। क्योंकि- स्थविरकल्पी मुनि कुछ कारणों से वस्त्र धो भी सकते हैं। विभूषा के लिए वस्त्र धोने का निषेध किया गया है और उसके लिए प्रायश्चित भी बताया गया है। परन्तु, भगवान महावीर के शासन के सब साधुओं के लिए-भले ही वे जिनकल्पी हों या स्थविरकल्पी, रंगीन वस्त्र पहनने का निषेध है। इस तरह अभिग्रह निष्ठ मुनि मर्यादित वस्त्र-पात्र आदि का उपयोग करे। परन्तु, ग्राम ऋतु आने पर उसे क्या करना चाहिए, इस बात का उल्लेख करते हुए सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहते हैं... I सूत्र // 2 // // 225 // 1-8-4-2 . अह पुण एवं जाणिज्जा - उवाइक्कं ते खलु हेमंते, गिम्हे पडिवण्णे अहापडिजुण्णाई वत्थाई परिट्ठविज्जा, अदुवा संतरुत्तरे अदुवा ओमचेले अदुवा एगसाडे अदुवा अचेले // 225 // // संस्कृत-छाया : अथ पुनः एवं जानीयात् - अपक्रान्तः खलु हेमन्तः, ग्रीष्मः प्रतिपन्नः, यथापरिजीर्णानि वस्त्राणि परिष्ठापयेत्, अथवा सान्तरोत्तरः अथवा अवमचेलकः अथवा एकशाटकः अथवा अचेलः // 225 // III सूत्रार्थ : - वह अभिग्रहधारी भिक्षु जब यह समझ ले कि- हेमन्त-शीत काल चला गया है और ग्रीष्मकाल आ गया है और ये वस्त्र भी जीर्ण-शीर्ण हो गये है। ऐसा समझकर वह उनको त्याग दे। यदि निकट भविष्य में शीत की संभावना हो तो मजबूत वस्त्र को धारण कर ले, अन्यथा पास में पड़ा रहने दे। शीत कम होने पर वह एक वस्त्र का परित्याग कर दे और शीत के बहुत कम हो जाने पर दूसरे वस्त्र का भी त्याग कर दे, केवल एक वस्त्र रखे जिससे लज्जा का निवारण हो सके या शरीर आच्छादित किया जा सके। यदि शीत का सर्वथा अभाव हो जावे तो वह रजोहरण और मुखवस्त्रिका को रखकर वस्त्र मात्र का त्याग करके अचेलक बन जाए। Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 142 ॥१-८-४-२(२२५)卐 श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन % 3D IV टीका-अनुवाद : यदि वे वस्त्र आनेवाले वर्ष के हेमंत ऋतु पर्यंत रहे ऐसे हो तो साधु उभय टंक उन वस्त्रों का पडिलेहण करते हुए अपनी पास रखे... किंतु यदि वे वस्त्र जीर्ण जैसे या जीर्ण हो तो उन वस्त्रों का साधु त्याग करे... परठ दे... वह इस प्रकार- जब साधु देखे कि- अब हेमंत ऋतु पूर्ण हो चुकी है, और ग्रीष्मकाल आ चुका है... अतः शीतकी पीडा अब नहि है... और यह वस्त्र भी चारों और से जीर्ण हो चूके हैं... इत्यादि जानकर साधु उन वस्त्रों का त्याग करे... यदि सभी वस्त्र जीर्ण न हुए हो तो जो वस्त्र जीर्ण हुआ हो उसका त्याग करें... और त्याग करके वह साधु नि:संग होकर विचरे... किंतु यदि शीतकाल बीत जानेके बाद भी क्षेत्र, काल, पुरुष एवं गुण की दृष्टि से शीत की पीडा हो रही हो तब साधु क्या करें ? यह बात अब कहतें हैं... . शीतकाल बीत जाने पर साधु वस्त्रों का त्याग करें... अथवा क्षेत्र आदि के कारण से हिमकणवाले शीत वायु का संचार हो तब अपने आत्मा की तुलना के लिये एवं शीत की परीक्षा के लिये साधु कभी वस्त्र पहने और कभी वस्त्र न पहनें, किंतु अपने पास रखे... परंतु शीत के कारण से साधु उन वस्त्रों का त्याग न करें... अथवा अवमचेलक याने तीन में से एक वस्त्र का त्याग करके दो वस्त्रों को धारण करे... अथवा धीरे धीरे शीत दूर होने पर दुसरे वस्त्र का भी त्याग करे... तब साधु मात्र एक हि वस्त्र को धारण करें... अथवा संपूर्ण शीत दूर होने पर साधु उस एक वस्त्र का भी त्याग करके अचेलक हि रहे... वह जिनकल्पिक साधु जघन्य से रजोहरण एवं महुपत्ती मात्र उपधिवाले होतें हैं.... वे जिनकल्पवाले साधु एक एक वस्त्र का त्याग क्यों करतें हैं ? वह अब सूत्रकार महर्षि आगे के सूत्र से कहेंगे... V सूत्रसार : वस्त्र की उपयोगिता शीत एवं लज्जा निवारण के लिए है। यदि शीतकाल समाप्त हो गया है और वस्त्र भी बिल्कुल जीर्ण-शीर्ण हो गया है, तो वह पूर्व सूत्र में कथित अभिग्रह निष्ठ मुनि उन वस्त्रों का त्याग करके एक वस्त्र रखे। यदि कुछ सर्दी अवशेष है, तो वह दो वस्त्र रखे और सर्दी के समाप्त होने पर केवल लज्जा निवारण करने के लिए और लोगों की निन्दा एवं तिरस्कार से बचने के लिए वह एक वस्त्र रखे। यदि वह लज्जा आदि पर विजय पाने में समर्थ है, तो वह पूर्णतया वस्त्र का त्याग कर दे, परन्तु मुखवत्रिका एवं रजोहरण अवश्य रखे। क्योंकि- ये दोनों जीव रक्षा के साधन एवं जैन साधु के चिन्ह है। Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी-हिन्दी-टीका 卐 1-8-4-3 (226); 143 * इससे स्पष्ट होता है कि- भगवान महावीर के शासन में सचेलक साधु भी थे या यों कहना चाहिए कि- स्थविरकल्पी साधु सवस्त्र रहते थे और सवस्त्र अवस्था में हि मुक्ति को प्राप्त करते थे। वस्त्रों के त्याग से जीवन में किस गुण की प्राप्ति होती है ? इसका उल्लेख करते हुए सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहते हैं... I सूत्र // 3 // // 226 // 1-8-4-3 लाघवियं आगममाणे तवे से अभिसमण्णागए भवइ // 226 // // संस्कृत-छाया : लाघविकं आगमयन् तपः तस्य अभिसमन्वागतं भवति // 226 // III सूत्रार्थ : वस्त्र के परित्याग से लाघवता होती है और वस्त्राभाव के कारण होने वाले परीषहों को समभावपूर्वक सहन करने से वह साधक तप के सम्मुख होता है अर्थात् वस्त्र का त्याग भी तपस्या है। IV टीका-अनुवाद : वह साधु अपनी आत्मा को कर्मभार से लघु जानता हुआ वस्त्र का त्याग करता है... अथवा शरीर एवं उपकरण में लघुता-अल्पता करता हुआ वस्त्र का त्याग करता है... इस प्रकार वस्त्र का त्याग करने पर उस साधु को कायक्लेश स्वरूप तपश्चर्या का लाभ प्राप्त होता है... अन्यत्र भी कहा है कि- पांच स्थानों में निग्रंथ श्रमण का अचेलकत्व प्रशस्त कहा है... 1. अल्प प्रतिलेखना, 2. विश्वसता रूप, 3. अनुमत तप, 4. प्रशस्त लाघवता और विपुल इंद्रिय-निग्रह... यह बात परमात्माने कही है ऐसा निर्देश सूत्रकार महर्षि आगेके सूत्र के माध्यम से स्पष्ट करेंगे... V सूत्रसार : ___ कर्म के बोझ से हल्का बनना अर्थात् उसका क्षय-नाश करना ही साधना का उद्देश्य है। हल्कापन त्याग से होता है। क्योंकि- मुनि जीवन त्याग का मार्ग है। वह सदा अपने जीवन को कम बोझिल बनाने का प्रयत्न करता है। यही बात प्रस्तुत सूत्र में बताई गई है कि- वस्तु का त्याग कर देने से जीवन में लाघवता-हल्कापन आ जाता है। वस्त्र के अभाव में शीत, Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 144 // 1-8-4 - 4 (227) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन दंशमशक-मच्छर आदि जन्तुओं का एवं तृणस्पर्श आदि परीषहों का उत्पन्न होना स्वाभाविक है। परन्तु, इन्हें समभाव पूर्वक सहन करने से तप होता है और तप से कर्मों की निर्जरा होती है। इस तरह साधक कर्म के बोझ से हल्का होता हुआ सदा आत्म अभ्युदय की ओर आगे हि आगे बढ़ता है। वस्त्र के त्याग से जीवन में लाघवता आती है। प्रतिलेखना में लगने वाला समय भी बच जाता है। इससे स्वाध्याय एवं ध्यान के लिए अधिक समय मिलने लगता है, और स्वाध्याय-ध्यान से आध्यात्मिक जीवन का विकास होता है। वस्तुत: आत्म-विकास की दृष्टि से प्रस्तुत सूत्र महत्त्व पूर्ण है। इसी भाव को लेकर स्थानाङ्ग सूत्र में 5 कारणों से अचेलकत्व को प्रशस्त बताया है- 1. इससे प्रतिलेखना कम हो जाती है, 2. वह विश्वस्त होता है, 3. कायक्लेश नामक तप होता है, 4. लाघवता होती है और 5. इन्द्रियों का निग्रह-दमन . होता है। ___ यह उपदेश तीर्थंकर भगवान द्वारा दिया गया है, इस बात को बताते हुए सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहतें हैं... I सूत्र // 4 // // 227 // 1-8-4-4 जमेयं भगवया पवेइयं तमेव अभिसमिच्चा सव्वओ सव्वत्ताए सम्मत्तमेव समभिजाणिज्जा // 227 // II. संस्कृत-छाया : ___ यदेतत् भगवता प्रवेदितं, तदेव अभिसमेत्य सर्वतः सर्वात्मतया. सम्यक्त्वमेव समभिजानीयात् // 227 // III सूत्रार्थ : भगवान महावीर ने आगम में जो अचलेक अवस्थाओं का प्रतिपादन किया है, उसे सभी तरह से, सर्वात्मतया तथा समभावपूर्वक या सम्यक्तया जाने। IV टीका-अनुवाद : . चोवीसवे तीर्थंकर श्री वर्धमान स्वामीजी ने जो कहा है उसको सर्व प्रकार से अच्छी तरह से सम्यक्तया जाने अर्थात् सचेल एवं अचेल अवस्था में तुल्यता है ऐसा जानें... और आसेवन परिज्ञा से वैसा सचेल या अचेल अवस्था का आसेवन करें... किंतु जो साधु अल्प सत्त्व गुण के कारण से प्रभु के उपदेश को अच्छी तरह से जानता नहि है वह साधु कैसे अध्यवसाय (विचार) वाला होता है ? इत्यादि बातें सूत्रकार महर्षि आगे के सूत्र से कहेंगे... Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1-8-4 - 5 (228) 145 V * सूत्रसार : अचेलकत्व और सचेलकत्व दोनों अवस्थाओं में साधक अपने साध्य की ओर आगे हि आगे बढ़ता है। वस्त्र रखना या नहीं रखना ये दोनों साध्य सिद्धि के साधन हैं। साध्य की प्राप्ति के लिए नग्नत्व का महत्त्व है, परन्तु मात्र द्रव्य नग्नत्व का हि नहीं। यह बिल्कुल सत्य है कि- जब तक आत्मा कर्म से आवृत्त रहेगी, तब तक मुक्ति नहीं हो सकती, भले ही वह वस्त्र से अनावृत्त हो। मोक्ष प्राप्ति के लिए राग-द्वेष एवं कर्मों से सर्वथा अनावृत होना आवश्यक हि नहीं, अनिवार्य ही है। आत्मा को अनावृत्त बनाने के लिए राग-द्वेष, कषाय एवं कर्म बन्धन के अन्य कारणों का त्याग करना अथवा आस्रव का निरोध करना जरूरी है, न कि- मात्र वस्त्र का त्याग करना। यदि कोई साधक लज्जा आदि को जीतने में समर्थ है, तो वह वस्त्र का भी त्याग कर सकता है और यदि वह साधु लज्जा आदि के परीषहों पर सर्वथा विजय पाने की क्षमता अभी नहीं रखता है, तो स्वल्प, मर्यादित वस्त्र रखकर भी राग-द्वेष पर विजय पाने की या आत्मा को कर्मों से सर्वथा अनावृत्त करने की साधना कर सकता है। इस तरह भगवान द्वारा प्ररूपित सचेल एवं अचेल (स्थविरकल्प-जिनकल्प) दोनों मार्गों का सम्यक्तया अवलोकनं करके साधक को अपनी योग्यतानुसार मार्ग का अनुकरण करके राग-द्वेष पर विजय पाने का प्रयत्न करना चाहिए। किसी एक मार्ग को ही एकान्त रूप से श्रेष्ठ या निकृष्ट नहीं मानना चाहिए। क्योंकि- दोनों मार्ग आत्मा को कर्मों से अनावृत्त करने के साधन हैं, अतः दोनों ही श्रेष्ठ है। इस तरह प्रबुद्ध पुरुष भगवान के वचनों पर विश्वास करके समभावपूर्वक परीषहों को सहते हुए कर्मों से अनावृत्त होने का प्रयत्न करते हैं। परन्तु, जो साधु भगवान के मार्ग को सम्यक्तया नहीं जानते हैं, और जब उनके सामने परीषह आते हैं, तब उनकी क्या स्थिति होती है ? इसका उल्लेख सूत्रकार महर्षि आगे के सूत्र से करतें हैं... I सूत्र // 5 // // 228 // 1-8-4-5 - जस्स णं भिक्खुस्स एवं भवइ - पुट्ठो खलु अहमंसि नालमहमंसि सीयफासं अहियासित्तए, से वसुमं सव्वसमण्णागयपण्णाणेणं अप्पाणेणं केइ अकरणयाए आउट्टे तवस्सिणो हु तं सेयं जमेगे विहमाइए तत्थावि तस्स कालपरियाए, से वि तत्थ विअंतिकारए, इच्चेयं विमोहायतणं हियं सुहं खमं निस्सेसं आणुगामियं त्तिबेमि // 228 // Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 146 // 1-8 - 4 - 5 (228) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन // संस्कृत-छाया : यस्य भिक्षोः एवं भवति- स्पृष्टः खलु अहं अस्मि, न अलं अहं अस्मि शीतस्पर्श अध्यासयितुम्, स: वसुमान् सर्वसमन्वागत प्रज्ञानेन आत्मना कश्चित् अकरणतया आवृत्तः तपस्विनः खलु तदेव श्रेयः, यदा एकः विहायोगमनं, तत्राऽपि तस्य कालपर्यायः, सोऽपि तत्र व्यन्तिकारकः, इत्येतत् विमोहायतनम्, हितं सुखं क्षमं नि:शेष आनुगामिकं इति ब्रवीमि // 228 // III सूत्रार्थ : जिस भिक्षु को रोगादि के स्पर्श होने से अथवा शीतादि परीषहों से इस प्रकार के अध्यवसाय होते हैं कि- में शीतादि के स्पर्श को सहन नहीं कर सकता हूं। फिर भी वह संयम एवं ज्ञान संपन्न साधु किसी भी ओषधि का सेवन न करके भी संयम में स्थित है। उस तपस्वी मुनि को ब्रह्मचर्यादि की रक्षा के लिये फांसी आदि से मृत्यु को प्राप्त करना भी श्रेयस्कर है। उस की वह मृत्यु कर्म विनाशक मानी गई है। वह मृत्यु उसके मोह को दूर करने वाली है। अतः उसके लिए वह मृत्यु हितकारी है, सुखकारी है और शक्ति एवं मोक्ष प्रदायिनी है। क्योंकि- वह संयम की रक्षा के लिए हि ऐसा कार्य करता है, अत: उससे निर्जरा एवं पुण्य बंध भी होता है। और वह पुण्य भवान्तर में साथ आता है। IV टीका-अनुवाद : ___ जिस साधु को मंद संघयण के कारण से ऐसा अध्यवसाय (विचार) हो कि- मैं रोग आतंकों से घेरा हुआ हु, अथवा शीत-स्पर्श से पीडित हुं, अथवा स्त्री आदि के अनुकूल उपसर्गों से घेरा हुआ हु, अत: इस परिस्थिति में मुझे शरीर का त्याग करना कल्याण कर है, क्योंकिमैं शीत की पीडा को सहन करने में समर्थ नहि हुं... अथवा भावशीत याने स्त्रीयों के अनुकूल उपसर्गों को सहन करने में मैं समर्थ नहि हुं अतः मुझे भक्तपरिज्ञा, या इंगितमरण या पादपोपगमन से शरीर का त्याग करना युक्तियुक्त है, किंतु मुझे अभी इन भक्तपरिज्ञा आदि का भी अवसर नहि है, क्योंकि- मेरा यह उपसर्ग कालक्षेप को भी सहन नहि कर सकेगा... अथवा रोग की पीडा को चिरकाल पर्यंत सहन करने में मैं समर्थ नहि हुं... अतः इस कारण से अभी मुझे अपवाद स्वरूप वेहानस या गार्द्धपृष्ठ मरण हि उचित है... क्योंकि- उपसर्ग की अवस्था में उन वेहानस आदि आपवादिक मरण का स्वीकार भी अनुचित नहि होगा... इत्यादि यह बात अब सूत्र के पदों से कहतें हैं... वसु याने संयमवाला वह साधु सर्वसमन्वागत ज्ञान के द्वारा जाने कि- उपसर्ग हो रहा है, तब वह साधु विशेष प्रकार से संवर भाववाला बने... अथवा तो शीतस्पर्शवाले वायु Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजे धनी आहोरी-हिन्दी-टीका 卐१-८-४-५ (228) // 147 से ठंड लगने पर भी ठंडी का प्रतिकार न करे किंतु उस ठंडी को समभाव से सहन करे... यदि वह शीत-वेदना सहन न हो शके तब अथवा तो सीमंतनी याने पत्नी-महिला उपसर्ग कर रही हो तब विष भक्षण से या उबंधन याने गले में दोरी बांधकर लटकना इत्यादि से मरण प्राप्त करे, अथवा बहोत समय पर्यंत विभिन्न उपाय से उपार्जित संयम एवं तपश्चर्यावाले उन महामुनी के ध्यानभंग के लिये अपने हि ज्ञाति के लोक पत्नी सहित कीसी -पुरुष को अपवरक याने रूम-घर में बंध करके उस मुनी को संयम भ्रष्ट करने के लिये कामावेशवाली वह स्त्री उस साधु के साथ कामक्रीडा की प्रार्थना करे तब वह साधु उस घर में से बाहार निकलने का मार्ग न मीलने पर अपने आपके गले में फांसा लगाकर विहायोगमन अनशन करे अथवा विष का भक्षण करे, अथवा उपर से कुदकर गिर पडे इत्यादि... अथवा तो दीर्घकाल पर्यंत शीत आदि सहन न हो शके तब सुदर्शन की तरह प्राणो का त्याग करे... प्रश्न- वेहानसादि मरण को बालमरण कहा है न ? और यह बालमरण तो अनर्थकारी है, तो इस बालमरण को पाना उचित कैसे हो ? क्योंकि- आगमसूत्र में भी कहा है किबालमरण से मरने के द्वारा जीव अपने आपको अनंत बार नरक गति में जाने योग्य बनाता है... यावत् अनादि-अनंत इस संसार-अटवी में अपने आपको बार बार भटकने योग्य बनाता है... इत्यादि... उत्तर- जिनमत को माननेवाले ऐसे हमें यहां दोष नहि है... क्योंकि- जिनमत में एक मैथुनक्रीडा के सिवाय अन्य किसी का भी न तो एकांत से निषेध या न तो एकांत से विधान है... किंतु द्रव्य क्षेत्र काल एवं भाव के अनुसार प्रतिषेध भी कहा है और विधान भी है... कहा है कि- कालज्ञ साधु को उत्सर्ग मार्ग जब दोष स्वरूप दीखे तब उत्सर्ग का त्याग करके गुणकारी ऐसे अपवाद मार्ग का आलंबन उचित कहा गया है... जैसे कि- दीर्घकाल तक संयम का प्रतिपालन करके संलेखना-विधि से कालपर्याय होने पर भक्तपरिज्ञादि मरण गुण के लिये होता है... किंतु कालपर्याय न होने पर इस प्रकार के उपसर्गादि के समय में वेहानस और गार्द्धपृष्ठादि मरण भी कालपर्याय हि है... अतः जिस प्रकार कालपर्याय मरण गुणकारक है, उसी प्रकार वेहानसादि मरण भी गुणकारक होते हैं... क्योंकि- बहोत सारे काल-समय में वह साधु जितने कर्मो का क्षय करता है उतने हि कर्मो को वह साधु थोडे समय में भी क्षय कर शकता है, यह बात अब कहां हैं... किमात्र आनुपूर्वी याने अनुक्रम से भक्तपरिज्ञादि को करनेवाला हि नहि किंतु उपसर्गादि के संकट में वेहानसादि मरण पानेवाला साधु भी कर्मो का अंत-विनाश करके मोक्ष पद पाता है, अत: इस स्थिति में उस साधु को वेहानसादि मरण भी उत्सर्ग हो जाता है, क्योंकि- इस प्रकार Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 148 1 -8-4 - 5 (२२८)卐 श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन के अपवाद स्वरूप वेहानसादि मरण से भी अनंत जीव सिद्ध हुए हैं और अनंत जीव सिद्ध बनेंगे... अब इस सूत्र का उपसंहार करते हुए कहते हैं कि- यह वेहानसादि मरण राग-द्वेष एवं मोह के अभाव में हितकर है... और अपाय याने उपद्रव का परिहार होने से जन्मांतर में भी सुख का हेतु-कारण होने से सुखकर है... तथा प्राप्तकाल होने से यह वेहानसादि मरण युक्ति युक्त हि है... लथा सकल कर्मो के क्षय का कारण होने से भी यह वेहानसादि मरण निःश्रेयस भी है... तथा आनुगामिक याने इस प्रकार के वेहानसादि मरण में शुभ भाव होने से पुन्यबंध याने पुन्यानुबंधि पुन्य की प्राप्ति भी होती है... इत्यादि... v सूत्रसार : साधना के मार्ग में अनेक परीषह उत्पन्न होते हैं, उन पर विजय पाने का प्रयत्न करना साधु का परम कर्त्तव्य है। परन्तु अनुकूल या प्रतिकूल परीषहों से घबरा कर संयम का त्याग करना उसके लिए श्रेयस्कर नहीं है। अपने व्रतों से विचलित होने वाला साधक अपने जीवन का विनाश करता है और भव भ्रमण को बढाता है। अतः ऐसी स्थिति आने पर विषादि खाकर या अनशन करके मर जाना उसके लिए अच्छा है, परन्तु संयम पथ का त्याग करना अच्छा नहीं है। जिस समय राजमती को गुफा के एकान्त स्थान में देखकर रहनेमि विचलित हो उठता है और उससे विषय-भोग भोगने की प्रार्थना करता है, उस समय राजमती उसे सद्बोध देते हए यही बात कहती है कि- हे मुनि ! तुझे धिक्कार है कि- तू वमन किए-त्यागे हए भोगों की पुन:इच्छा करता है। ऐसे इस जीवन की अपेक्षा से तो तुम्हें मर जाना श्रेयस्कर है। जैन आगमों में आत्महत्या करने का निषेध किया गया है। विष खाकर या फांसी लगा कर मरने वाले को बाल-अज्ञानी कहा गया है। परन्तु, विवेक एवं ज्ञान पूर्वक धर्म एवं संयम की सुरक्षा के लिए वैहानसादि मरण का स्वीकार पाप नहीं, बल्कि धर्म है। वह मृत्यु आत्मा का विकास करते वाली है। प्रस्तुत सूत्र अपवाद स्वरूप है। धर्म संकट के समय ही साधक को विषपान करने या गले में फंदा डालकर मरने की आज्ञा दी गई है। आगम में कहा गया है कि- भगवान ने उक्त दो प्रकार से मरने की आज्ञा नहीं दी है, परन्तु विशेष परिस्थिति में उस का निषेध भी नहीं किया है। इसी अपेक्षा से प्रस्तुत उद्देशक में संयम को सुरक्षित रखने के लिए मृत्यु को स्ीकार करने की आज्ञा दी है। 'त्तिबेमि' की व्याख्या पूर्ववत् समझें। Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका // 1 - 8 - 4 - 5 (228) म 149 // इति अष्टमाध्ययने चतुर्थः उद्देशकः समाप्तः // 卐卐 : प्रशस्ति : मालव (मध्य प्रदेश) प्रांतके सिद्धाचल तीर्थ तुल्य शत्रुजयावतार श्री मोहनखेडा तीर्थमंडन श्री ऋषभदेव जिनेश्वर के सानिध्यमें एवं श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरिजी, श्रीमद् यतीन्द्रसूरिजी, एवं श्री विद्याचंद्रसूरिजी के समाधि मंदिर की शीतल छत्र छायामें शासननायक चौबीसवे तीर्थंकर परमात्मा श्री वर्धमान स्वामीजी की पाट-परंपरामें सौधर्म बृहत् तपागच्छ संस्थापक अभिधान राजेन्द्र कोष निर्माता भट्टारकाचार्य श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी म. के शिष्यरत्न विद्वद्वरेण्य व्याख्यान वाचस्पति अभिधान राजेन्द्रकोषके संपादक श्रीमद् विजय यतीन्द्रसूरीश्वरजी म. के शिष्यरत्न, दिव्यकृपादृष्टिपात्र, मालवरत्न, आगम मर्मज्ञ, श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम प्रकाशन के लिये राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी हिंदी टीका के लेखक मुनिप्रवर ज्योतिषाचार्य श्री जयप्रभविजयजी म. “श्रमण' के द्वारा लिखित एवं पंडितवर्य लीलाधरात्मज रमेशचंद्र हरिया के द्वारा संपादित सटीक आचारांग सूत्र के भावानुवाद स्वरूप श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी हिंदी टीका-ग्रंथ के अध्ययनसे विश्वके सभी जीव पंचाचारकी दिव्य सुवासको प्राप्त करके परमपदकी पात्रता को प्राप्त करें... यही मंगल भावना के साथ... "शिवमस्तु सर्वजगतः" वीर निर्वाण सं. 2528. राजेन्द्र सं. 96. म विक्रम सं. 2058. Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 150 ॥१-८-५-१(२२९)म श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन श्रुतस्कंध - 1 अध्ययन - 8 उद्देशक - 5 ॐ ग्लानभक्तपरिज्ञा // चौथा उद्देशक कहा, अब पांचवे उद्देशक का प्रारंभ करते हैं... यहां परस्पर यह संबंध है कि- चौथे उद्देशक में गार्द्धपृष्ठादि बालमरण का विधान प्रसंगोपात विहित है ऐसा कहा है, अब यहां पांचवे उद्देशक में उससे विपरीत याने ग्लानभाववाले साधु को चाहिये कि- वे भक्तपरिज्ञा नाम के अनशन को हि स्वीकार करें... इत्यादि... अतः इस संबंध से आये हुए इस पांचवे उद्देशक का यह प्रथम सूत्र है... I सूत्र // 1 // // 229 // 1-8-5-1 जे भिक्खू दोहिं वत्थेहिं परिवुसिए पायतइएहिं तस्स णं नो एवं भवइ - तइयं वत्थं जाइस्सामि, से अहेसणिज्जाइं वत्थाई जाइज्जा, जाव एवं खु तस्स भिक्खुस्स सामग्गिय, अह पुण एवं जाणिज्जा, - उवाइक्कंते खलु हेमंते, गिम्हे पडिवण्णे, अहा परिजुण्णाई वत्थाई परिट्ठविज्जा, अहापरिजुण्णाइं परिठ्ठवित्ता अदुवा संतरुत्तरे अदुवा ओमचेले अदुवा एगसाडे अदुवा अचेले, लाघवियं आगममाणे तवे से अभिसमण्णागए भवइ। जमेवं भगवया पवेइयं तमेव अभिसमिच्चा सव्वओ सव्वत्ताए सम्मत्तमेव समभिजाणिया, जस्स णं भिक्खुस्स एवं भवइ-पुट्ठो अबलो अहमसि, नालमहेमंसि, गिहतरसंकमणं भिक्खायरियं गमणाए, से एवं वयंतस्स परो अभिहडं असणं वा 4 आहटु दलइज्जा, से पुव्वामेव आलोइज्जा - आउसंतो ! नो खलु मे कप्पइ अभिहडं असणं 4 भुत्तए वा पायए वा अण्णे वा एयप्पगारे // 229 // II संस्कृत-छाया : यः भिक्षुः द्वाभ्यां वस्त्राभ्यां पर्युषितः पात्रतृतीयैः, तस्य न एवं भवति-तृतीयं वस्त्रं याचिष्ये, सः अथ एषणीयानि वस्त्राणि याचेत, यावत् एवं खलु तस्य भिक्षोः सामण्यम् / अथ पुन: एवं जानीयात् - उपातिक्रान्तः खलु हेमन्तः, गीष्मः प्रत्युत्पन्नः, यथा परिजीर्णानि वस्त्राणि परिष्ठापयामि, यथापरिजीर्णानि परिष्ठाप्य अथवा सान्तरोत्तर अथवा अवमचेल: अथवा एकशाटकः, अथवा अचेलः, लाघविकं आगमयमानं तपः तस्य अभिसमन्वागतं भवति Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1 - 8 - 5 - 1 (229) // 151 - यदेतत् भगवता प्रवेदितं, तदेव अभिसमेत्य सर्वतः सर्वथा सम्यक्त्वमेव समभिज्ञाता, यस्य भिक्षोः एवं भवति - स्पृष्टः अबल: अहमस्मि, न अलं अहमस्मि, गृहान्तरसङ्क्रमणं भिक्षाचर्यां गमनाय, तस्य एवं वदतः परः अभ्याहृतं अशनं वा पानं वा खादिमं वा स्वादिमं वा आहृत्य दद्यात्, सः पूर्वमेव आलोकयेत् - हे आयुष्मन् ! न खलु मां कल्पते अभ्याहृतं अशनं वा 4 भोक्तुं वा पातुं वा, अन्यत् वा एतत्प्रकारम् // 229 // ' III. सूत्रार्थ : जो भिक्षु दो वस्त्र और तीसरे पात्र से युक्त है उसे यह विचार नहीं होता हे किमैं तीसरे वस्त्र की याचना करूंगा। यदि उसके पास दो वस्त्रों न हो तो वह निर्दोष वस्त्र की याचना कर लेता है। यह सब भिक्षु के आचार है। जब उसे यह प्रतीत हो कि- अब हेमन्त काल, शीत काल व्यतीत हो गया और ग्रीष्म काल-उष्णकाल आ गया है, तब वह जीर्ण फटे पुराण वस्त्रों का त्याग कर दे। यदि शीतादि पड़ने की संभावना हो तब साधु वह वस्त्र अपने पास रखे कि- जो अधिक जीर्ण नहीं हआ है, तथा जब शीत-ठंड न हो तब एक चादर मात्र वस्त्र अपने पास रखे या मुखवस्त्रिका और रजोहरण को छोड कर अवशिष्ट अशेष सभी वस्त्र का त्याग करके अचेलक बन जावे। वह भिक्षु लाघवता प्राप्त करने के लिए वस्त्रों का परित्याग करे। वस्त्रपरित्याग से काय क्लेश रूप तप होता है। भगवान महावीर ने जिस आचार को प्रतिपादन किया है, उसका विचार करे और सर्व प्रकार तथा सर्वात्मभाव से सम्यक्त्व या समत्व-समभाव को जाने। जिस भिक्षु को इस प्रकार का अध्यवसाय होवे है कि- मैं रोगादि के स्पर्श से दुर्बल होने से एक घर से दूसरे घर में भिक्षा के लिए जाने में असमर्थ हूं। उसकी इस वाणी को सुनकर या भाव को समझकर यदि कोई सद्गृहस्थ जीवों के उपमर्दन से सम्पन्न होने वाले अशनादि आहार साधु के लिए बनाकर या अपने घर से लाकर साधु को दे या उन आहारादि को ग्रहण करने के लिए साधु से विनंति करे, तो साधु पहले ही उस आहार को देखकर उस गृहस्थ से कहे कि- हे आयुष्यमान ! मुझे यह लाया हुआ तथा हमारे निमित्त बनाया हुआ यह सदोष आहारादि को स्वीकार करना नहीं कल्पता। अतः मैं इसे ग्रहण नहीं करुंगा...इत्यादि... IV टीका-अनुवाद : तीन वस्त्रवाले स्थविर कल्पवाले साधु हो, या जिनकल्पवाले साधु हो... किंतु दो वस्त्रवाले तो निश्चित हि जिनकल्पवाले या परिहारविशुद्धिकल्पवाले या यथालंदिक या प्रतिमा को वहन करनेवाले कोइ भी हि हो... इस सूत्र में दो कल्प-वस्त्रवाले जिनकल्पवाले साधु Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 152 // 1-8-5-1(229)" श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन का निर्देश है... कि- जो दो वस्त्र धारण करते हैं... यहां वस्त्र शब्द का प्रयोग सामान्य से है, अतः एक सूती वस्त्र एवं एक गरम (ऊन) का वस्त्र (कंबल) इन दो वस्त्रों से संयमाचरण में रहे हुए साधु... तथा तीसरा एक पात्र को धारण करनेवाला वह साधु यदि देखे कि- अभी वात-पित्त आदि रोगों से घेरा हुआ मैं संयमानुष्ठान में समर्थ नहि , तथा भिक्षा के लिये एक घर से दुसरे घर में जाने के लिये भी मैं समर्थ नहि हुं... इत्यादि परिस्थिति में रहे हुए उस ग्लान साधु को देखकर कोइक गृहस्थ... अनुकंपा एवं भक्तिभाववाला होकर साधु की तकलीफ - वेदना को देखकर पृथ्वीकायादि जीवों का उपमर्दन विराधना करके आहारादि अशन-पान-खादिम एवं स्वादिम अपने घर से लाकर साधु को दे... इस स्थिति में सूत्र एवं अर्थ के अनुसार संयमानुष्ठान आचरनेवाला वह ग्लान साधु जीवन एवं मरण की अभिलाषा न करे किंतु ऐसा अध्यवसाय करे कि- यह आहारादि निर्दोष है या दुषित है ? अथवा तो कौन सा दोष लगता है ? इत्यादि विचारे... जिनकल्पवाले या परिहारविशुद्धिकल्पवाले या यथालंदिक या प्रतिमा वहन करनेवाले वे साधु सदोष जीवन की कामना नहि करतें, किंतु सोचते हैं कि- मरण तो आयुः पूर्ण होने पर आयेगा हि... अतः मैं श्रमण जीवन को दोषों से दूषित क्यों करूं ? गृहस्थ ने लाये हुए इस आहारादि में अभ्याहत दोष लग रहा है ऐसा जानकर वह साधु गृहस्थ को कहे किहे आयुष्यमन् ! गृहपति ! अभ्याहृत याने घर से यहां लाये हुए यह आहारादि हमे भोजनपान में कल्पता नहि है... इसी प्रकार अन्य आधाकर्मादि दोषवाले आहारादि भी अकल्पनीय है इत्यादि प्रकार से दान में उद्यत उस गृहस्थ को साधु अपना आचार कहे... ' यह बात पाठांतर से इस प्रकार कही गइ है... जैसे कि- ग्लान साधु के पास आकर कोइक गृहस्थ कहे कि- हे श्रमण ! मैं आपके लिये आहारादि लाकर देता हूं.... तब वह साधु गृहस्थ की बात सुनकर कहे कि- हे आयुष्यमन ! आप जो हमारे लिये आहारादि लाने का सोचते हो, किंतु हमे ऐसे आहारादि भोजन-पान के लिये अकल्पनीय होते हैं... अन्य भी ऐसे आधाकर्मादि दोषवाले आहारादि भी अकल्पनीय होता है... इस प्रकार निषेध करने पर भी श्रावक या सज्जन (संज्ञी) या प्रकृतिभद्रक कोइ भी गृहस्थ ऐसा सोचे कि- यह साधु ग्लान (बिमार) है... भिक्षा के लिये जा नहि शकते हैं, और न तो कीसी अन्य को आहारादि लाने के लिये कहतें हैं... अतः भले हि साधु ने निषेध कीया, किंतु मैं कोइ अन्य बहाना बनाकर साधु को आहारादि ला देता हुं... ऐसा सोचकर वह श्रावकादि गृहस्थ आहारादि लाकर साधु को देवे तब वह साधु यह आहारादि अनैषणीय है ऐसा सोचकर निषेध करता है... V सूत्रसार: पूर्व सूत्र में तीन वस्त्र रखने वाले मुनि का वर्णन किया गया है। प्रस्तुत सूत्र में बताया Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1 - 8 - 5 - 2 (230) 153 - गया हे कि- दो वस्त्र एवं एक पात्र रखने वाला मुनि शीत आदि का परीषह उत्पन्न होने पर भी तीसरे वस्त्र की यचना न करे। वस्त्र संबंधी पूरा वर्णन पूर्व सूत्र की तरह किया गया है। यदि कभी वह अभिग्रह निष्ठ मुनि अस्वस्थ हो जाए और घरों में आहार आदि के लिए जाने की शक्ति न रहे तब वह भिक्षु ऐसा कहे कि- मैं इस समय एक घर से दूसरे घर में भिक्षा के लिए नहीं जा सकता। उस समय उसके वचनों को सुनकर कोई सद्गृहस्थ अपने घर से साधु के लिए भीजन बनाकर साधु के स्थान में लाकर उसे दे, तब वह साधु उसे स्पष्ट शब्दों में कहे कि- मुझे ऐसा आहार ग्रहण करना नहीं कल्पता है। साधु के लिए आरम्भ करके बनाया गया आहार तथा अभ्याहत याने साधु के लिए उसके स्थान पर लाया हुआ आहार संयमी साधु को लेना नहीं कल्पता। क्योंकि- इसमें अनेक जीवों की हिंसा होती है इसलिए साधु अस्वस्थ अवस्था में भी ऐसा सदोष आहार स्वीकार न करे परन्तु समभाव पूर्वक रोग एवं भूख के परीषह को सहन करे। . इसके अतिरिक्त अभिग्रह निष्ठ मुनि के अन्य कर्तव्यों का उल्लेख करते हुए सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहते हैं... I सूत्र // 2 // // 230 // 1-8-5-2 जस्स णं भिक्खुस्स अयं पगप्पे-अहं च खलु पडिण्णत्तो अपडिण्णत्तेहिं गिलाणो अगिलाणेहिं अभिकंख साहम्मिएहिं कीरमाणं वेयावडियं साइज्जिस्सामि, अहं वावि खलु अप्पडिण्णत्तो पडिण्णत्तस्स अगिलाणो गिलाणस्स अभिकंख साहम्मियस्स कुज्जा वेयावडियं करणाए आह? परिणं अणुक्खिस्सामि, आहडं च साइज्जिस्सामि 1, आहट्ट परिणं आणक्खिस्सामि, आहडं च नो साइज्जिस्सामि 2, आह? परिण्णं नो आणक्खिस्सामि, आहडं च साइज्जिस्सामि 3, आह? परिण्णं नो आणक्खिस्सामि, आहडं च नो साइज्जिस्सामि 4, एवं से अहाकिट्टयमेव धम्म समभिजाणमाणे संते विरए सुसमाहियलेसे तत्थावि तस्स कालपरियाए से तत्थ विअंतकारए, इच्चेयं विमोहायणं हियं सुहं खमं णिस्सेसं आणुगामियं त्ति बेमि // 230 // // संस्कृत-छाया : यस्य भिक्षोः अयं प्रकल्पः - अहं च खलु प्रतिज्ञातः अप्रतिज्ञप्तैः, ग्लान: अग्लानैः अभिकाक्ष्य साधर्मिकैः क्रियमाणं वैयावृत्त्यं स्वादयिष्यामि, अहं चाऽपि खलु अप्रतिज्ञप्तः प्रतिज्ञप्तस्य अग्लान: ग्लानस्य अभिकाक्ष्य साधर्मिकस्य कुर्याम् वैयावृत्त्यं करणाय आहृत्य प्रतिज्ञां अन्वेषयिष्यामि आहृतं च स्वादयिष्यामि 1, आहृत्य प्रतिज्ञा अन्वीक्षिष्ये आहतं च न स्वादयिष्यामि 2, आहृत्य प्रतिज्ञां न अन्वीक्षिष्ये आहृतं च Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 154 // 1-8 - 5 - 2 (230) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन स्वादयिष्यामि 3, आहृत्य प्रतिज्ञां न अन्वीक्षिष्ये आहृतं च न स्वादयिष्यामि 4, एवं स: यथाकीर्त्तितं एव धर्मं समभिजानन् शान्त: विरत: सुसमाहितलेश्यः, तत्र अपि तस्य कालपर्यायः, सः तत्र व्यन्तिकारकः, इत्येतत् विमोहायतनं हितं सुखं क्षमं निःश्रेयसं निःशेषं आनुगामिकं इति ब्रवीमि // 230 // III सूत्रार्थ : जिस साधु का यह आचार है कि- यदि मैं रोगादि से पीडित हो जाऊं तो अन्य साधु को मैं यह नहीं कहूंगा कि- तुम मेरी वेयावृत्य करो। परन्तु यदि रोगादि से रहित, समान धर्मवाला साधु अपने कर्मों की निर्जरा के लिए मेरी वैयावृत्य करेगा, तो मैं उसे स्वीकार करूंगा। जब मैं निरोग-रोगरहित अवस्था में होऊंगा तब मैं भी कर्म निजर्रा के लिए समानधर्म वाले अन्य रोगी साधु की वैयावृत्य करूंगा। इस प्रकार मुनि अपने आचार का पालन करता हुआ अवसर आने पर भक्तपरिज्ञा नाम की मृत्यु के द्वारा अपने प्राणों का त्याग करदे, परन्तु अपने आचार को खण्डित न करे। कोई साधु यह प्रतिज्ञा करता है कि- मैं साधुओं के लिए आहारादि लाऊंगा और उनका लाया हुआ आहारादि ग्रहण भी करूंगा। कोई यह प्रतिज्ञा करता है कि- मैं अन्य साधु को आहारादि लाकर दूंगा परन्तु अन्य का लाया हुआ ग्रहण नहीं करूंगा। कोई साधु यह प्रतिज्ञा करता है कि- मैं अन्य साधुओं को आहार लाकर नहीं दूंगा, किन्तु अन्य का साया हुआ ग्रहण करुंगा। कोई साधु यह प्रतिज्ञा करता है कि- मैं न तो अन्य साधु को आहारादि लाकर दंगा और न उनका लाया हआ आहार वापरुंगा. खाऊंगा. इस प्रकार भगवान द्वारा प्ररूपित धर्म को सम्यक्तया जानता हुआ उसका यथार्थरूप से परिपालन करे। क्योंकि- भगवान के कहे हुए धर्म का यथाविधि पालन करने वाले शान्त, विरत एवं अच्छी लेश्या से युक्त साधु हि भक्तपरिज्ञा अनशन के लिये योग्य कहे गये हैं... यह भक्तपरिज्ञा मोह नष्ट करने का उत्तम साधन है, यह समाधिमरण हितकारी, सुखकारी, क्षेमकारी और कल्याणकारी होने से भवान्तर में जिनशासन की प्राप्ति सुलभ होती है। इस प्रकार मैं तुम्हें कहता हूं... IF टीका-अनुवाद : परिहारविशुद्धिकल्पवाले या यथालंदिक साधु का प्रकल्प याने आचार मर्यादा इस प्रकार है... जैसे कि- अन्य साधुओं ने प्रतिज्ञा की है कि- हम इस ग्लान साधु की वैयावच्च करेंगे... इस स्थिति में वह ग्लान साधु उनकी वैयावच्च-सेवा का स्वीकार करे... क्योंकि- वह ग्लान साधु सोचे कि- मैं ग्लान हुं अतः वातादि दोषो के कारण से उग्र तपश्चर्या करने में मैं असमर्थ Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका // 1-8-5 - 2 (230) 155 हुं... और वैयावच्च करनेवाले अन्य साधु आरोग्यवाले होने से उचित कार्य करने में समर्थ हैं... यहां परिहारविशुद्धिकल्पवाले साधु की अनुपारिहारिक साधु सेवा करतें हैं अथवा तो कल्प में रहे हुए साधु की अन्य साधु वैयावच्च-सेवा करे... किंतु यदि वे साधु भी ग्लान हो तब अन्य साधु सेवा करते हैं... इसी प्रकार यथालंदिक कल्पवाले साधु की सेवा-वैयावच्च के विषय में जानीयेगा... किंतु विशेषता यह है कि- यथालंदिक साधु की सेवा अन्य स्थविर साधु करते हैं... जैसे कि- समान कल्पवाले कल्प में रहे हुए अन्य साधु-साधर्मिको की सेवा का मैं स्वीकार करुंगा... यहां साधुओं का परस्पर ऐसा आचार है, अत: उस आचार को पालन करनेवाला ग्लान साधु भक्तपरिज्ञा के द्वारा जीवित का त्याग करे किंतु आचार का खंडन कभी भी न करे... इस प्रकार अन्य साधर्मिक साधु की सेवा-वैयावच्च का स्वीकार करना मान्य है... इसी प्रकार वह साधु भी अन्य साधु की सेवा करे... जैसे कि- आरोग्यवाला ऐसा मैं अन्य ग्लान साधु न कहे तो भी कर्म-निर्जरा की कामना से एवं उपकार करने के भाव से उन ग्लान साधुओं की वैयावच्च-सेवा करूं... इस प्रकार प्रतिज्ञा लेकर भक्तपरिज्ञा से प्राणो का त्याग करे किंतु प्रतिज्ञा का त्याग न करे... अब प्रतिज्ञा के विषय में चतुर्भंगी कहते हैं... 1. सेवा करुंगा और सेवा स्वीकारुंगा... 2. सेवा करुंगा किंतु सेवा नहि स्वीकारुंगा.. 3. सेवा नहि करूंगा किंतु सेवा स्वीकारुंगा... 4. सेवा नहि करूंगा और सेवा नहि स्वीकारुंगा... जैसे कि- कोइ साधु ऐसी प्रतिज्ञा करे कि- अन्य ग्लान साधर्मिक साधु के लिये आहारादि की गवेषणा करके ग्लान साधु की सेवा-वैयावच्च करुंगा... तथा अन्य साधर्मिक साधु ने लाये हुए आहारादि का स्वीकार करुगा... इस प्रकार प्रतिज्ञा लेकर साधु अन्य साधु की वैयावच्च करे...१. तथा कोइ साधु ऐसी प्रतिज्ञा करे कि- मैं अन्य ग्लान साधु के लिये आहारादि की गवेषणा करुंगा, किंतु अन्य साधु ने लाये हुए आहारादि का स्वीकार नहि करुंगा...२. तथा कोइ साधु ऐसी प्रतिज्ञा करे कि- मैं अन्य साधु के लिये आहारादि की गवेषणा नहि करूंगा किंतु अन्य साधु ने लाये हुए आहारादि का स्वीकार करुंगा...३. तथा कोइ साधु ऐसी प्रतिज्ञा करे कि- मैं अन्य साधु के लिये आहारादि की गवेषणा नहि करूंगा और अन्य साधु ने लाये हुए आहारादि का स्वीकार भी नहि करुंगा...४. 2. Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 156 1-8-5 - 2 (230) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन इस प्रकार विभिन्न प्रकार की प्रतिज्ञा लेकर कहिं कोइ साधु ग्लान होने पर जीवित का त्याग करता है किंतु प्रतिज्ञा का लोप-विनाश नहि करता... इस अर्थका उपसंहार करते हुए कहते हैं कि- पूर्वोक्त विधि से तत्त्वज्ञ एवं शरीरादि के प्रति अनासक्त साध जिनेश्वरो ने धर्म का जो स्वरूप कहा है उस प्रकार से धर्म को जानता है एवं आसेवन परिज्ञा से धर्म का आसेवन करता है तथा चौथे उद्देशक में कहे गये लाघविक आदि गुणवाला वह साधु कषायो के क्षयोपशम से शांत तथा अनादि संसार के हेतुभूत आश्रवों के त्याग से विरत तथा सुंदर धर्मानुष्ठान से शुभ लेश्यावाला शुभ अंत:करणवाला ऐसा वह साधु पूर्वे स्वीकृत प्रतिज्ञा के पालन में समर्थ तथा ग्लान अवस्था में भी तपश्चर्या का आदर करनेवाला एवं रोगों की पीडा में भी प्रतिज्ञा का खंडन नहि करनेवाला वह साधु शरीर के त्याग के लिये भक्तप्रत्याख्यान-अनशन स्वीकारता है... यद्यपि कालपर्याय से मरण समय निकट . न आने पर भी भक्तपरिज्ञा का स्वीकार हि कालपर्याय माना गया है... जैसे कि- अपने शिष्य को गीतार्थ बना देने पर एवं संलेखना विधि से शरीर की संलेखना करने पर जो कालपर्याय याने मृत्यु का अवसर प्राप्त होता है इसी प्रकार ग्लानावस्था में भी वह भक्तपरिज्ञा कालपर्याय कहा गया है... क्योंकि- दोनों स्थिति में कर्मनिर्जरा समान हि है... वह साधु उस ग्लान अवस्था में भक्तपरिज्ञा-अनशन स्वीकार करके सकल कर्मों का क्षय करता है इत्यादि... शेष सूत्रपदों का अर्थ सुगम है... .. V सूत्रसार : साधना का जीवन स्वावलम्बन का जीवन है। साधक कभी अपने. समानधर्मी साधक का सहयोग लेता भी है, किंतु अदीनभाव से एवं उसकी सेवा स्वेच्छा पूर्वक करता है। वह न तो किसी पर दबाव डालता है और न वह दीन स्वर से गिडगिडाता है। इसी बात को स्पष्ट करते हुए सूत्रकार ने बताया है कि- परिहारविशद्ध चारित्र निष्ठ एवं अभिग्रह संपन्न मनियों को ऐसी प्रतिज्ञा होती है कि- में अस्वस्थ अवस्था में भी किसी भी समानधर्मी मुनि को वैयावृत्य-सेवा के लिए नहीं कहूंगा। यदि वह अपने कर्मों की निर्जरा के लिए सेवा करेगा तो उसे मैं स्वीकार करूंगा और इसी तरह मैं भी यथासमय उनकी सेवा करूंगा। इस तरह वह अभिग्रह निष्ठ मुनि अपनी प्रतिज्ञा का पालन करे। कठिन से कठिन परिस्थिति में भी प्रतिज्ञा का समुचित निर्वाह करे... सेवा करने के संबन्ध में चार भंग-विकल्प बताए गए हैं। कुछ मुनि ऐसी प्रतिज्ञा करते . हैं कि- मैं अपने समान धर्मी अन्य मुनियों के लिए आहारादि लाऊंगा और उनका लाया हुआ आहार ग्रहण भी करूंगा। कुछ मुनि ऐसा नियम करते हैं कि- मैं अन्य मुनियों को आहार ला दूंगा, परन्तु उनका लाया हुआ स्वीकार नहीं करूंगा। कुछ मुनि ऐसा संकल्प करते हैं Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1-8-5 - 2 (230) 157 कि- मैं दूसरों का लाया हुआ आहारादि स्वीकारुंगा, परन्तु उन्हें लाकर नहीं दूंगा। कुछ ऐसा नियम करते हैं कि- मैं न तो अन्य मुनि को आहार लाकर दूंगा और न अन्य का लाया हुआ आहार ग्रहण करूंगा। भक्त परिज्ञा अनशन द्वारा पंडित मरण को प्राप्त करनेवाले भिक्षु के लिए बताया गया है कि- वह कम से कम 6 महीने तक, मध्यम 4 वर्ष और उत्कृष्ट 12 वर्ष तक तप करे। इस तरह ज्ञान, दर्शन, चारित्र एवं तप की साधना से कर्मों की निर्जरा करके साधक अपनी आत्मा का विकास करता है। अतः समाधिमरण से प्राप्त होने वाली मृत्यु को सुखकारी, हितकारी एवं कल्याणकारी कहा है। इससे स्पष्ट होता है कि- तपस्या से पाप मल नष्ट होता है और पाप मल के नाश होने से अन्तःकरण शुद्ध होता है और शुद्ध हृदयवाला व्यक्ति ही समाधिमरण को प्राप्त करता है। निष्कर्ष यह निकला कि- प्रत्येक मुनि को अपनी ली हुई प्रतिज्ञा का दृढता से पालन करते हुए भक्तपरिज्ञा अनशन के द्वारा समाधिमरण को प्राप्त करना चाहिए। त्तिबेमि' की व्याख्या पूर्ववत् समझें। // इति अष्टमाध्ययने पंचम: उद्देशकः समाप्तः // 卐ज : प्रशस्ति : मालव (मध्य प्रदेश) प्रांतके सिद्धाचल तीर्थ तुल्य शत्रुजयावतार श्री मोहनखेडा तीर्थमंडन श्री ऋषभदेव जिनेश्वर के सानिध्यमें एवं श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरिजी, श्रीमद् यतीन्द्रसूरिजी, एवं श्री विद्याचंद्रसूरिजी के समाधि मंदिर की शीतल छत्र छायामें शासननायक चौबीसवे तीर्थंकर परमात्मा श्री वर्धमान स्वामीजी की पाट-परंपरामें सौधर्म बृहत् तपागच्छ संस्थापक अभिधान राजेन्द्र कोष निर्माता भट्टारकाचार्य श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी म. के शिष्यरत्न विद्वद्वरेण्य व्याख्यान वाचस्पति अभिधान राजेन्द्रकोषके संपादक श्रीमद् विजय यतीन्द्रसूरीश्वरजी म. के शिष्यरत्न, दिव्यकृपादृष्टिपात्र, मालवरत्न, आगम मर्मज्ञ, श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम प्रकाशन के लिये राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी हिंदी टीका के लेखक मुनिप्रवर ज्योतिषाचार्य श्री जयप्रभविजयजी म. “श्रमण' के द्वारा लिखित एवं पंडितवर्य लीलाधरात्मज रमेशचंद्र हरिया के द्वारा संपादित सटीक आचारांग सूत्र के भावानुवाद स्वरूप श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी हिंदी टीका-ग्रंथ के अध्ययनसे विश्वके सभी जीव पंचाचारकी दिव्य सुवासको प्राप्त करके परमपदकी पात्रता को प्राप्त करें... यही मंगल भावना के साथ... "शिवमस्तु सर्वजगतः" वीर निर्वाण सं. 2528. राजेन्द्र सं. 96. विक्रम सं. 2058. Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 158 // 1-8-6-1(231) // श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन श्रुतस्कंध - 1 अध्ययन - 8 उद्देशक - 6 卐 इंगितमरणम् // पांचवा उद्देशक कहा, अब छठे उद्देशक का प्रारंभ करते हैं... यहां परस्पर इस प्रकार का संबंध है कि- पांचवे उद्देशक में ग्लानावस्था में भक्तप्रत्याख्यान का विधान कहा, अब यहां धृति एवं संहननादि बलवाला साधु एकत्व भावना के द्वारा इंगितमरण-अनशन करे... इस संबंध से आये हुए इस छठे उद्देशक का सूत्रानुगम में यह पहला सूत्र है... I सूत्र // 1 // // 231 // 1-8-6-1 जे भिक्खू एगेण वत्थेण परिवुसिए पायाबिईएण, तस्स णं नो एवं भवइ बिइयं वत्थं जाइस्सामि, से अहेसणिज्जं वत्थं जाइज्जा, अहापरिग्गाहियं वत्थं धारिज्जा, जाव गिम्हे पडिवण्णे अहापरिजुण्णं वत्थं परिठ्ठविज्जा, परिट्ठवित्ता अदुवा एगसाडे अदुवा अचेले लाघवियं आगममाणे जाव सम्मत्तमेव समभिजाणीया // 231 // // संस्कृत-छाया : यः भिक्षुः एकेन वस्त्रेण पर्युषित: पात्रद्वितीयेन, तस्य च न एवं भवति-द्वितीयं वस्त्रं याचिष्ये, सः यथा एषणीयं वस्त्रं याचेत, यथापरिगृहीतं वस्त्रं धारयेत्, यावत् ग्रीष्मे प्रतिपन्ने यथा परिजीर्णं वस्त्रं परिष्ठापयेत्, परिष्ठाप्य अथवा एकशाटक: अथवा अचेल:, लाघविकं आगच्छन् यावत् सम्यक्त्वमेव समभिजानीयात् // 231 // ' III सूत्रार्थ : जो भिक्षु एक वस्त्र और दूसरे पात्र से युक्त है। उस को इस प्रकार का अध्यवसाय उत्पन्न नहीं होता कि- शीतादि के लगने पर मैं दूसरे वस्त्र की याचना करूंगा। यदि उसका वस्त्र सर्वथा जीर्ण हो गया है तो फिर वह दूसरे वस्त्र की याचना कर सकता है। याचना करने पर उसे जैसा वस्त्र मिले वह उसी रूप में धारण करे और ग्रीष्म ऋतु के आजाने पर जीर्ण वस्त्र को त्याग दे या एक शाटक-चादर रखे या अचलेक बन जाए। इस प्रकार वह लाघवता को प्राप्त होता हुआ सम्यक्तया समभाव को जाने। IV टीका-अनुवाद : सूत्रार्थ सुगम है... अभिग्रह के अनुसार एक पात्र एवं एक वस्त्र को धारण करनेवाला Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1 - 8-6- 2 (232) 159 एवं परिकर्मित मतिवाला वह साधु कर्मो की लघुता होने से एकत्व भावना के अध्यवसायवाला होता है इत्यादि... v सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में अभिग्रह निष्ठ मुनि का वर्णन करते हुए बताया गया हे कि- जिस मुनि ने एक वस्त्र और एक पात्र रखने की प्रतिज्ञा की है, वह मुनि सर्दी लगने पर दूसरा वस्त्र लेने की भावना न करे। प्रस्तुत अध्ययन के चौथे उद्देशक में तीन वस्त्र की और पांचवें उद्देशक में दो वस्त्रों की प्रतिज्ञा करने वाले मुनियों का वर्णन किया गया है और प्रस्तुत उद्देशक में एक वस्त्र रखने वाले मुनि का वर्णन है। उत्तरोत्तर वस्त्र की संख्या में कमी का उल्लेख किया गया है, शेष वर्णन पूर्ववत् ही समझीएगा... यह हम पहले बता चूके हैं कि- आत्म-विकास के लिए समभाव की आवश्यकता है। वस्त्र-पात्र आदि उपकरण शरीर सुरक्षा के लिए आवश्यक है। अत: जब तक साधक शीत आदि के परीषह को समभाव पूर्वक सहन करने में सक्षम नहीं हैं तथा लज्जा को नहीं जीत सकता है, तब तक उसे वस्त्र रखने की आवश्यकता है। इन कारणों के अभाव में अर्थात् पूर्ण सक्षम होने पर वस्त्र की आवश्यकता नहीं रहती है। अतः ऐसी स्थिति में वह मुखवस्त्रिका एवं रजोहरण (जो शरीर रक्षा के लिए नहीं किंतु जीव रक्षा के लिए हैं,) को रखकर शेष वस्त्रों का त्याग करके आत्म चिन्तन में संलग्न रहे। ____साधक को आत्म-चिन्तन कैसे करना चाहिए, इस विषय में सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहते हैं... I .. सूत्र // 2 // // 232 // 1-8-6-2 जस्स णं भिक्खुस्स एवं भवइ-एगे अहमंसि, न मे अत्थि कोइ, न याहमवि कस्स वि, एवं से एगागिणमेव अप्पाणं समभिजाणिज्जा, लाघवियं आगममाणे तवे से अभिसमण्णागए भवइ, जाव समभिजाणीया // 232 // II संस्कृत-छाया : ___ यस्य भिक्षोः एवं भवति-एकः अहं अस्मि, न मम अस्ति कः अपि, न च अहं अपि कस्य अपि, एवं सः एकाकिनं एव आत्मानं समभिजानीयात्, लाघविकं आगमयन् तपः तस्य अभिसमन्वागतं भवति यावत् समभिजानीयात् // 232 // III सूत्रार्थ : जिस भिक्षु का इस प्रकार का अध्यवसाय होता है कि- "मैं अकेला हूं, मेरा कोई Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 160 // 1-8-6-2(232) // श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन नहीं है और मैं भी किसी का नहिं हूं" इस प्रकार वह भिक्षु एकत्व भाव से सम्यक्तया आत्मा को जाने। क्योंकि- आत्मा में लाघवता को उत्पन्न करता हुआ वह तप के सम्मुख होता है। अतः वह सम्यक्तया समभाव को जाने। जिससे वह आत्मा का विकास कर सके। IV टीका-अनुवाद : __ जिस साधु को अंत:करण में ऐसा चिंतन हो कि- मैं अकेला हि हुं, इस संसार में पर्यटन-भटकनेवाले मेरे आत्मा के उपकारक परमार्थ से कोइ अन्य नहि है, और मैं भी अन्य के दुःखों को दूर करता नहि हुं, क्योंकि- संसार के सभी जीव अपने अपने कर्मो के फलों को हि भुगततें हैं... इस प्रकार वह साधु एकत्वभावना के द्वारा अपने अंतरात्मा को एकाकी स्वरूप देखे... इस जीव को नरक आदि के दुःखों से बचानेवाला अन्य और कोइ नहि है, किंतु यह जीव स्वयं हि शुभ कर्मो के द्वारा अपने आपको नरकादि से बचाता है... इस प्रकार समजनेवाला वह साधु पीडादायक रोग आदि की स्थिति में अन्य किसी के सहकार की अपेक्षा रखे बिना चिंतन करे कि- यह मेरे कीये हुए कर्मो का फल है अतः मुझे हि समभाव से सहन करना चाहिये इस प्रकार के चिंतन से उन रोगों की पीडाओं को साधु सहन करता है... यहां चौथे उद्देशक में कहे गये लाघवतादि यावत् सम्यक्त्व को अच्छी तरह से प्राप्त करे... तथा दुसरे उद्देशक में उद्गम-उत्पादना एवं एषणा दोष कहे गये है... जैसे कि- हे आयुष्मन् श्रमण ! मैं आपके लिये आहारादि या वस्त्र, पात्र, कम्बल, रजोहरण अथवा प्राणिनः भूतानि जीवान् सत्त्वान् समारभ्य समुद्देशं क्रीतं प्रामित्यं आच्छेद्यं अनिसृष्टं आहृत्य ददामि, इत्यादि सूत्रार्थ... तथा अनंतर उद्देशक में ग्रहणैषणा कही जैसे कि- ऐसा कभी हो कि- कोइ साधु बोले कि- मैं ग्लान हुं इत्यादि तब वह गृहस्थ आहारादि घर से लाकर साधु को दे... इत्यादि... अब जो ग्रासैषणा शेष रही वह अब कहतें हैं... V सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में आत्मा के एकत्व के चिन्तन का स्वरूप बताते हुए कहा गया है किसाधक को यह सोचना-विचारना चाहिए कि- इस संसार में मेरा कोई सहयोगी नहीं है और न में भी किसी को साथ दे सकता हूं। क्योंकि- प्रत्येक आत्मा अपने कृत कर्म के अनुसार सुख-दुख का वेदन करती है। अतः कोई भी उसमें परिवर्तन नहीं कर सकता है। स्वयं आत्मा ही अपने सम्यक पुरुषार्थ के द्वारा उस कर्म-बन्धन को तोडकर मुक्त बन सकता है। इसलिए यह आत्मा अकेला ही सुख-दुख का संवेदन करता है और कर्म बन्ध का कर्ता एवं हर्ता भी . यह अकेला ही है। इस प्रकार अपने एकाकीपन का चिन्तन करने वाला साधक प्रत्येक परिस्थिति में संयम में संलग्न रहता है, वह परीषहों से घबराता नहीं। अतः साधक को सदा एकत्व भावना का चिन्तन करना चाहिए। Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1-8- 6 - 3 (233) // 161 * चिन्तनशील साधक को आहार कैसे करना चाहिए। इसका उल्लेख करते हुए सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहते हैं... I सूत्र // 3 // // 233 // 1-8-6-3 से भिक्खू वा भिकखुणी वा, असणं वा ४.आहारेमाणे नो वामाओ हणुयाओ दाहिणं हणुयं संचारिज्जा आसाएमाणे, दाहिणाओ वामं हणुयं तो संचारिज्जा आसाएमाणे, से अणासायमाणे लाघवियं आगममाणे तवे से अभिसमण्णागए भवइ, जमेयं भगवता पवेइयं तमेवं अभिसमिच्चा सव्वओ सम्मत्तमेव समभिजाणीया // 233 // // संस्कृत-छाया : ___स: भिक्षुः वा भिक्षुणी वा अशनं वा 4 आहारयन् न वामतः हनुत: दक्षिणां हनु सञ्चारयेत् आस्वादयन्, दक्षिणात: वामां हनुं न सञ्चारयेत् आस्वादयन्, स: अनास्वादयन् लाघविकं आगमयन् तपः तस्य अभिसमन्वागतं भवति, यदेतत् भगवता प्रवेदितं तदेवं अभिसमेत्य सर्वतः सम्यक्त्वमेव समभिजानीयात् // 233 // III सूत्रार्थ : .. वह साधु या साध्वी आहार-पानी, खादिम और स्वादिम आदि पदार्थों का उपभोग करते समय बाएं कपोल से दहिने कपोल की और एवं दाहिने से बाएं कपोल की ओर आस्वादन करता हुआ आहार-कवल का संचार न करे। किन्तु वह आहार का आस्वादन न करता हुआ आहार की लाघवता को जानकर तप के सन्मुख होता है। जिस प्रकार श्रमण भगवान महावीर ने प्रतिपादन किया है उसे साधु सर्व प्रकार और सर्वात्मभाव से सम्यक्तया जानने का एवं समताभाव का परिपालन करने का प्रयत्न करे। IV. टीका-अनुवाद : पूर्वके सूत्रों में कहे गये साधु या साध्वीजी म. उद्गम - उत्पादन एवं एषणा के 16 , 16 + 10 = 42 दोषों से रहित आहारादि की गवेषणा करके ग्रहणैषणा से शुद्ध आहारादि प्राप्त कीये... किंतु उन आहारादि को ग्रासैषणा के अंगार आदि पांच दोषों का त्याग करके हि वापरें (आहार करें...) अंगार दोष याने सरस आहारादि में राग और धूम दोष याने नीरस आहारादि में द्वेष... इस प्रकार यदि आहारादि में सरसता हो तो अंगार दोष लगे और नीरसता लगे तो धूम दोष होता है... किंतु यदि कारण हि न हो तो कार्य भी न हो इस न्याय से कहतें हैं कि- साधु आहारादि को वापरती वख्त मुह में बायें से दायें एवं दायें से बायें की और आहारादि को स्वाद के लिये न ले जावें... क्योंकि- आहारादि को मुह में दायें से बायें और Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 162 1 -8-6-3 (२33)卐 श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन बायें से दायें की और संचारने में हि रसकी मझा आती है और यहां जो रस की मझा लेना, वह हि अंगार दोष कहा है और रस बेहुदा लगने पर द्वेष होने पर धूम दोष लगता है... अत: कीसी भी आहारादि को स्वाद की दृष्टि से न वापरें... अथवा आहारादि में आदर-राग करके मूर्च्छित या आसक्त न होवें... आहारादि को मुख में स्वाद के लिये दाये से बायें और बायें से दायें की और न घूमावें, किंतु अशन-पान, खादिम एवं स्वादिमादि चारों प्रकार के आहार को वापरने के वख्त राग एवं द्वेष का त्याग करें... तथा कभी कोई कारण से आहारादि को मुख में दायें से बायें एवं बायें से दायें की और संचारने की आवश्यकता हो तब रसास्वाद न लें अर्थात् भोजन में राग या द्वेष न करें... सामान्य से साधु को आहारादि ग्रहण करने में प्रतिमा-अभिग्रह होते हैं अतः अंतप्रांत एवं नीरस आहारादि की प्राप्ति में राग एवं द्वेष की संभावना बहोत हि कम है... इस प्रकार उस साधु को तपः अच्छी तरह से परिणत हुआ होता है... अंत-प्रांत एवं नीरस आहारादि का भोजन करने से मांस एवं लोही अल्प हो जाते हैं, शरीर में हड्डी ही हड्डी दीखाइ देती है और उस साधु को जब शरीर क्रियानुष्ठान में अनुकूल न लगे तब शरीर के त्याग की बुद्धि करता है... V सूत्रसार : यह हम देख चुके हैं कि- आसक्ति एवं तृष्णा कर्म बन्ध का कारण है। इस लिए साधक को अपने उपकरणों पर आसक्ति नहीं रखनी चाहिए। इतना ही नहीं, अपितु खाद्य पदार्थों को भी आसक्त भाव से नहीं खाना चाहिए। साधु का आहार स्वाद के लिए नहीं, परन्तु संयम साधना के लिए है या यों भी कह सकते हैं कि- संयम साधना और शरीर को व्यवस्थित रखने के लिए उसे आहार करना पडता है। इसलिए प्रस्तुत सूत्र में यह बताया गया हैं कि- साधु को जैसा भी प्रासुक एवं एषणीय आहार उपलब्ध हुआ हो वह उसे बिना स्वाद लिए ही ग्रहण करे। इसमें यह भी बताया गया है कि- रोटी आदि के ग्रास-कवल को मुंह में एक ओर से दूसरी और न ले जाए अर्थात् इतनी जल्दी निगल जाए कि- उस पदार्थ के स्वाद की अनुभूति मुंह के जिस भाग में कवल रखा है उसके अतिरिक्त दूसरे भाग को भी न हो। प्रस्तुत सूत्र में प्रयुक्त हनु' शब्द का अर्थ ठोडी नहीं किंतु गाल (मुंह का भीतरी भाग) किया गया है और यही अर्थ यहां संगत बैठता है। भोजन का ग्रास मुंह में रखा जाता है और वह मुंह में एक गाल से दूसरे गाल की ओर फिरता जाता है। Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1-8-6 - 4 (234) 163 ___ इस प्रकार अनासक्त भाव से रूक्ष आहार करने से शरीर का रक्त एवं मांस सूख जाता है, उस समय साधक के मन में समाधि मरण की भावना उत्पन्न होती है। उसी भावना का उल्लेख करते हुए सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहते हैं... I सूत्र // 4 // // 234 // 1-8-6-4 जस्स णं भिक्खुस्स एवं भवइ-से गिलामि च खलु अहं इमंमि समये इमं सरीरगं अणुपुव्वेण परिवहित्तए, से अणुपुव्वेणं आहारं संवट्टिज्जा, अणुपुव्वेणं आहारं संवट्टित्ता कसाए पयणुए किच्चा समाहियच्चे फलगावयट्ठी उट्ठाय भिक्खू अभिनिवुडच्चे // 234 // II संस्कृत-छाया : यस्य च भिक्षोः एवं भवति-यत् ग्लायामि च खलु अहं अस्मिन् समये इदं शरीरं अनुपूर्वेण (आनुपूर्व्या) परिवोढुम्। सः आनुपूर्व्या आहारं संवर्तयेत्, आनुपूर्येण आहारं संवर्त्य कषायान् प्रतनून् कृत्वा समाहितार्चः फलकावस्थायी उत्थाय भिक्षुः अभिनिर्वृतार्चः॥ 234 // III सूत्रार्थ : . जिस भिक्षु को यह अध्यवसाय होता है कि- इस समय मैं संयम साधना का क्रियानुष्ठान करते हुए ग्लानि को प्राप्त हो रहा हूं। रोग से पीडित हो गया हूं। अत: मैं इस शरीर को क्रियानुष्ठान में भी नहीं लगा सकता हूं। ऐसा सोचकर वह भिक्षु अनुक्रम से तप के द्वारा आहार का संक्षेप करे और अनुक्रमेण आहार संक्षेप करता हुआ कषायों को स्वल्प-कम करके आत्मा को समाधि में स्थापित करे। रोगादि के आने पर वह फलकवत् सहनशील बनकर पंडित मरण के लिए उद्यत हो कर शरीर के सन्ताप से रहित बने। वह भिक्षु संयम में स्थिर होकर नियमित क्रियानुष्ठान में लगा रहने से समाधि पूर्वक इंगित मरण को प्राप्त कर लेता है। IV टीका-अनुवाद : ____ एकत्व भावना से भावित साधु आहार एवं उपकरण में लाघवता को प्राप्त करता है... वह इस प्रकार... वह साधु सोचे कि- अभी इस ग्लान अवस्था में मैं ग्लानि को पाया हुआ हुं अथवा तो रुक्ष-आहारादि से होनेवाले रोगों से मैं पीडित हुं अत: रुक्ष-तपश्चर्या से यह शरीर कृश एवं दुर्बल हो चूका है दैनिक आवश्यक क्रियाओं को यथासमय करने में मैं अभी असमर्थ हुं, तो अब इस समय वह साधु अनुक्रम से उपवास छ? तप या आंबिल के द्वारा आहार का संक्षेप करे अर्थात् बारह वर्ष पर्यंत होनेवाली संलेखना विधि को यथाविधि करे... किंतु यदि ग्लान साधु को उतने समयनी संलेखना न हो शके तो अनुक्रम से तत्काल योग्य द्रव्य Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 164 1-8-6-4 (234)" श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन संलेखना स्वरूप आहार का संक्षेप करे... द्रव्य संलेखना से आहारादि का संक्षेप करके वह ग्लान साधु कषायों का भी संक्षेप करे... यद्यपि साधु को साधुजीवन में सदैव हि कषायों का संक्षेप तो करना हि है, किंतु इस संलेखना के अवसर पर विशेष प्रकार से कषायों का संक्षेप याने अल्पीभाव करे... कषायों को अल्प करने के बाद वह ग्लान साधु शरीर के नियमित क्रियानुष्ठानवाले हो, अथवा तो अर्चा याने लेश्या इस अर्थ के अनुसार वह ग्लान साधु शुभ लेश्यावाला हो... शुभ अध्यवसायवाला हो... अथवा तो अर्चा याने ज्वाला... अतः वह ग्लान साधु कषायाग्निकी ज्वाला का उपशमन करनेवाला हो... तथा फलकावस्थायी याने संसार की परिभ्रमणा स्वरूप आपदाओं में निर्वाण फल की कामनावाला... अथवा तो फलक याने लकडी का पाटीया-फलक... जिस प्रकार सुथार रंधे से लकडी के पटीये को चारों और से छोले तब लकडी न तो रोष करे न गुस्सा... इसी प्रकार ग्लान साधु को कोइ मनुष्य कठोर वचनों से तर्जन एवं ताडन करे तब भी वह ग्लान साधु कषाय के अभाव में गुस्सा न करे... अर्थात् वासीचंदनकल्प वह साधु शमभाव रखे... इस प्रकार प्रतिदिन आगारवाले पच्चक्खाण करते हुए वे ग्लान महामुनी जब प्रबल रोग का आवेग उत्पन्न हो तब मरण के लिये सावधान होते हैं... अर्थात् शरीर के संताप से रहित, निर्मम, जीवन एवं मरण के प्रति समभाववाले वे महामुनी धृति एवं संघयणबल के अनुसार पूर्व के महापुरुषों ने आचरे हुए इंगितमरण को प्राप्त करे... . v सूत्रसार : एकत्व भावना के चिन्तन में संलग्न मुनि अनासक्त भाव से रूक्ष आहार करते हुए शरीर में क्षीणता एवं दुर्बलता का अनुभव करे और अपनी मृत्यु को निकट जान ले तो उस समय वह आहार का त्याग करके कषायों को उपशान्त करने का प्रयत्न करे। इस तरह कषायों को उपशान्त करने से उसे समाधि भाव की प्राप्ति होगी। क्योंकि- चित्त में अशान्ति का कारण कषाय वृत्ति है, उसका नाश होते ही अशान्ति भी समाप्त ह्ये जाएगी और साधक परम शान्ति को प्राप्त कर लेगा। प्रस्तुत सूत्र में प्रयुक्त ‘समाहियच्चे' का अर्थ है- जिस साधक ने सम्यक्तया शरीर एवं मन पर अधिकार कर लिया है। इसका स्पष्ट अभिप्राय यह निकला कि- कषायों पर विजय पाने वाला साधक ही समाधिस्थ कहलाता है। ‘फलगावयट्ठी' शब्द से यह बात परिपुष्ट होती. है। जैसे काष्ठ फलक शीत-ताप आदि को बिना किसी हर्ष शोक सहता है तथा कारीगर की आरी के नीचे आकर कटने पर भी अपने रूप में रहता है। उसी तरह साधक को प्रत्येक Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1-8-6 - 5 (235) 165 स्थिति में समभाव पूर्वक अपनी आत्म साधना में स्थित रहना चाहिए। मान-सम्मान के समय न हर्ष करना चाहिए और अपमान-तिरस्कार एवं प्रहार के समय शोक या किसी पर द्वेष भाव नहि लाना चाहिए। इस तरह शारीरिक शक्ति का ह्रास हो जाने पर मुनि अनशन व्रत को स्वीकार करके समभाव पूर्वक समाधि मरण को प्राप्त करे। यह मरण कहां पर प्राप्त करना चाहिए, इसका उल्लेख करते हुए सूत्रकार महर्षि 'आगे का सूत्र कहते हैं... I सूत्र // 5 // // 235 // 1-8-6-5 अणुपविसित्ता गामं वा नगरं वा खेडं वा कब्बडं वा मडंबं वा पट्टणं वा दोणमुहं वा आगरं वा आसमं वा संनिवेसं वा नेगमं वा रायहाणिं वा तणाई जाइज्जा, तणाई जाइत्ता से तमायाए एगंतमवक्कमिज्जा, एगंतमवक्कमित्ता अप्पंडे अप्पपाणे अप्पबीए अप्पहरिए अप्पोसे अप्पोदए अप्पुत्तिंगपणगदगमट्टियमक्कडा-संताणए पडिलेहिय, पमज्जिय तणाई संथरिज्जा, तणाई संथरित्ता इत्थवि समए इत्तरियं कुज्जा, तं सच्चं सच्चवाई ओए तिण्णे छिण्णाकहकहे आईयढे आणाईए चिच्चा णं भेउरं कायं संविहूय विरूवरूवे परीसहोवसग्गे अस्सिं विस्संभणयाए भेरवमणुचिण्णे तत्थावि तस्स कालपरियाए जाव अणुगामियं तिबेमि // 235 // // संस्कृत-छाया : अनुपविश्य ग्रामं वा नगरं वा खेडं वा कर्बट वा मडम्बं वा पत्तनं वा द्रोणमुखं वा आकरं वा आश्रमं वा सन्निवेशं वा नैगमं वा राजधानी वा तृणानि याचेत, तृणानि याचित्वा सः तानि आदाय एकान्तं अपक्रामेत्, एकान्तं अपक्रम्य अल्पाऽण्डे अल्पबीजे अल्पहरिते अल्पावश्याये अल्पोदके अल्पोत्तिङ्ग-पनक-दक-मृत्तिका-मर्कटकसन्तानके (भूभागे) प्रत्युपेक्ष्य प्रमृज्य, तृणानि संस्तरेत्, तृणानि संस्तीर्य अत्र अपि समये इत्वरं कुर्यात् तत् सत्यं सत्यवादी ओजः तीर्णः छिन्नकथंकथ: आतीतार्थ: अनातीतः त्यक्त्वा भिदुरं कायं संविधूय विरूपरूपान् परीषहोपसर्गान् अस्मिन् विसंभणतया भैरवं अनुचीर्णः तत्राऽपि तस्य कालपर्याय: यावत् आनुगामिकं इति ब्रवीमि // 235 // III सूत्रार्थ : वह भिक्षु ग्राम, नगर, खेट, कर्बट, मडंब, पत्तन, द्रोणमुख आकर-खान, आश्रम, सन्निवेश, नैगम और राजधानी इन स्थानों में प्रवेश कर तथा अचित प्रासुक-जीवादि से रहित एवं निर्दोष घास की याचना करके उस घास को एकान्त स्थान में ले जाएं। जहां पर अण्डे, प्राणी-जीव-जन्तु, बीज, हरी, ओस, जल, चींटियां, निगोद मिट्टी और मकडी के जाले आदी Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 166 // 1-8-6-5 (235) // श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन न हो, उस स्थान को अपनी आंखो से देखकर, रजोहरण से प्रमार्जन करके उस प्रासुक घास को बिछावे और उसे बिछाकर उचित अवसर में इंगित मरण स्वीकार करे। यह मृत्यु सत्य है। मृत्यु को प्राप्त करने वाला साधक सत्यवादी है, राग-द्वेष को क्षय करने में प्रयत्नशील है। अत: वह संसार सागर से तैरने वाला है। उस ने विकथा आदि को छोड दिया है। वह जीवाजीवादि पदार्थों का ज्ञाता है और संसार का पारगामी है। वह सर्वज्ञप्रणीत आगम में विश्वास रखता है, इसलिए वह इस नाशवान शरीर को छोडकर, नाना प्रकार के परीषहोपसर्ग को सहन करके इस इंगितमरण को स्वीकार करता है। अत: रोगादि के होने पर भी उसका काल पर्याय पुण्योपार्जक होता है। अतः वह पंडितमरण भवान्तर में साथ जाने वाला है। इस प्रकार मैं कहता हूं। IV टीका-अनुवाद : बुद्धि आदि गुणो को जहां त्रास हो उसे ग्राम-गांव कहते है... अथवा अट्ठारह कर (टेक्ष) जहां लगते हो वह गांव... तथा जहां कोइ भी प्रकार का कर (टेक्ष) न लगता हो वह नकर (नगर)... तथा धूली से बने प्राकार = किल्ले से युक्त हो वह खेट... तथा जहां छोटा सा किल्ला चारों और से होवे वह कर्बट... तथा जहां अढी गाउ के अंतर पर गांव हो वह मडंब... तथा पत्तन (पाटण) दो प्रकार के होते हैं 1. जलपत्तन, 2. स्थलपत्तन... जैसे कि- काननद्वीप आदि जलपत्तन हैं, और मथुरा आदि स्थलपत्तन हैं... तथा जहां जलमार्ग एवं स्थलमार्ग होवे वह द्रोणमुख... जैसे कि- भरुच या तामलिप्ती नगरी इत्यादि... तथा सोनेलोहे आदि खदान हो वह आकर... तथा तापसों के निवास स्वरूप आश्रम... तथा यात्रा के कारण से आये हए लोगों के निवास को संनिवेश कहतें हैं... तथा जहां बहोत सारे वणिगव्यापारी लोगों का निवास हो वह नैगम... तथा राजा का जहां निवास हो वह राजधानी... इत्यादि पूर्वोक्त स्थानो में साधु जब प्रवेश करे तब संथारे के लिये प्रासुक तृण आदि जो छिद्रवाले न हो, ऐसे तृण आदि की तृण के स्वामी के पास याचना करके उन तृण आदि को लेकर निर्जन ऐसे गिरि-गुका आदि में जाकर जहां जीव-जंतु न हो ऐसी निर्जीव भूमी की पडिलेहणा (शोध) करे... अर्थात् जहां बेइंद्रियादि प्राणी न हो, नीवार श्यामाक आदि बीज न हो, दूर्वा प्रवाल आदि हरित (वनस्पति) न हो, तथा अवश्याय याने ठार के जलबिंदु न हो, तथा भूमि संबंधित या वरसाद (मेघ) संबंधित जल जहां न हो, तथा कीडीयारा, लीलफूल (निगोद) सचित्त जलवाली सचित्त मीट्टी एवं करोडीये के जाले न हो ऐसे निर्जीव महास्थंडिल भूमी को आंखो से देखकर एवं रजोहरण से प्रमार्जना करके तृण-घास का संथारा करे... तथा उच्चार याने मल एवं प्रस्रवण याने मूत्र विसर्जन करने की भूमी की भी पडिलेहणा करके पूर्वाभिमुख आसन से संथारे में बैठे... बाद में रजोहरण को दोनो हाथ में लेकर मस्तक-भाल स्थल के उपर हाथ जोडकर सिद्ध परमात्मा को नमस्कार करे... पांच बार नमस्कार करके Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका // 1-8-6-5 (235) 167 चारों प्रकार के आहारादि के त्याग स्वरूप अनशन का पच्चक्खाण करे... यहां पादपोपगमन अनशन की अपेक्षा से नियत प्रदेश में आवागमन की संभावना को देखकर वह साधु इंगितमरण स्वरूप अनशन का स्वीकार करता है... यहां इत्वर कालिक एवं आगारवाला अनशन नहि स्वीकारतें किंतु जीवन पर्यंत के आगार रहित हि अनशन का स्वीकार होता है... क्योंकिजिनकल्पादिवाले साधुओं को प्रतिदिन सामान्य से भी आगार रहित हि प्रत्याख्यान होता है... तो फिर जब जीवन पर्यंत का पच्चक्खाण करे तब तो आगार रहित हि पच्चक्खाण होवे... . इत्वर याने थोडे समय का पच्चक्खाण तो रोगवाले श्रावक करते हैं... जैसे कि- यदि मैं इस रोग से पांच-छह दिनो में मुक्त बनुं तो भोजन करुंगा... अन्यथा भोजन नहि करूंगा... अतः धृति एवं संघयणबलवाला तथा स्वयं हि शरीर को त्वगवर्तन याने थोडीसी हलनचलन क्रियावाला वह साधु जीवन पर्यंत का चतुर्विध आहार के नियम स्वरूप इंगितमरण नाम का अनशन स्वीकारता है... अन्य ग्रंथो में भी कहा है कि- साधु गुरुजी के समक्ष चारों प्रकार के आहारादि का नियम (त्याग) करता है एवं शरीर की चेष्टा को भी अल्प (नियमित) करके इंगित-प्रदेश में अनशन स्वीकारता है... तथा धृति बलवाला वह साधु शरीर की थोडी चेष्टा भी स्वयं हि करे... अन्य किसी की सहाय न ले... यह इंगितमरण सज्जनों को हितकारक होने के कारण से सत्य है... क्योंकि- इस इंगितमरण का उपदेश सर्वज्ञ प्रभु ने कहा है... तथा यह इंगितमरण सद्गति का अमोघ कारण है... अतः यह इंगितमरण सत्य एवं पथ्य है..... . तथा इस इंगितमरण को स्वीकारनेवाला साधु भी सत्यवादी है... अर्थात् शास्त्रोक्त महाव्रतों की प्रतिज्ञा का भार यावज्जीव वहन करनेवाला होता है... तथा राग एवं द्वेष रहित होता है, तथा इस संसार-समुद्र को अवश्यमेव तैरनेवाला होता है... तथा रागादि के कारणभूत विकथाओं का त्यागी होता है... अथवा तो- “मैं यह इंगितमरण स्वरूप प्रतिज्ञा का निर्वाह कैसे करूंगा” इत्यादि संशयवाली कथा-वार्तालाप से रहित होता है... और दुष्कर अनुष्ठान को निर्विवाद रूप से पूर्ण करनेवाला होता है... अत: वह साधु महापुरुष की गणना में प्रविष्ट होने के कारण से विषम स्थिति में भी आकुल-व्याकुल नहि होता है... तथा वह साधु जीव अजीव आदि पदार्थों को अच्छी तरह से जाननेवाला होता है.. तथा सभी बाह्य क्रिया-कलाप के प्रयोजन का त्यागी है... तथा अनादि अनंत स्थितिवाले इस संसार का त्याग करके अवश्य मोक्षगामी होता है... ऐसा यह साधु विनश्वर शरीर का यथाविधि त्याग करके इंगितमरण-अनशन का स्वीकार करता है... Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1681 -8-6-5 (235) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन इस इंगितमरण-अनशन की कालावधि में होनेवाले विभिन्न प्रकार के परीषह एवं उपसर्ग को सम भावसे सहन करता है तथा सर्वज्ञ परमात्माने कहे हुए विश्वासपात्र आगमशास्त्र के उपर परिपूर्ण विश्वास होने से निर्मल अध्यवसाय के द्वारा दुष्कर ऐसा भी यह इंगितमरण नाम का अनशन प्रसन्नता के साथ स्वीकारता है... यद्यपि उस साधु ने अभी रोग की पीडा के कारण से यह इंगितमरण-अनशन कीया है, तो भी उस पर्याय (परिस्थिति) के अनुरूप होने के कारण से यह इंगितमरण-अनशन संपूर्ण फल देनेवाला कहा गया है... क्योंकि- वह साधु कर्मक्षय स्वरूप कालपर्याय को अच्छी तरह से जानता है... जीवन के अंतिम क्षण स्वरूप कालपर्याय में एवं रोग की विषम परिस्थिति में यह इंगितमरण अनशन का स्वीकार सकल कर्मो के क्षय में समान रूप से कारण बनता है... यह बात पंचम गणधरश्री सुधर्मस्वामीजी अपने अंतेवासी शिष्य जंबूस्वामीजी को कहतें हैं... कि- हे जंबू ! अंतिम तीर्थंकर श्री वर्धमान स्वामीजी के मुखारविंद से मैंने जो सुना है.... वह मैं तुम्हें कहता हुं... v सूत्रसार : जीवन के साथ मृत्यु का सम्बन्ध जुडा हुआ है। मरण का आना निश्चित है। इसलिए साधक मृत्यु से घबराता नहीं। साधु को यह आदेश दिया गया है कि- ज्ञान, दर्शन, चारित्र एवं तप की साधना से वह अपने आपको पंडितमरण प्राप्त करने के योग्य बनाए। साधना करते हुए जब उसका शरीर सूख जाए, इन्द्रियां शिथिल पड जाएं शारीरिक शक्ति का ह्रास होने लगे, उस समय वह साधक जीवन पर्यन्त के लिए आहार आदि का त्याग करके समभाव पूर्वक आत्मचिन्तन में संलग्न होकर समाधिमरण की प्रतीक्षा करे। ग्राम, खेट, कोट, पत्तन, द्रोणमुख, आकर खान, सन्निवेश, राजधानी आदि स्थानों में से वह जिस किसी भी स्थान पर स्थित हो, वहां की भूमि की प्रतिलेखना कर लेनी चाहिए। भूमि प्रमार्जन के साथ पेशाब आदि का त्याग करने का स्थान भी भली-भांति देख लेना चाहिए। जहां पर जीव-जन्तु, हरी घास आदि न हों। ऐसे निर्दोष स्थान में तृण की शय्या बिछाकर और 'नमोऽत्थु णं' के पाठ से परमात्मा नो नमन करके इंगितमरण अनशन को स्वीकार करे। ___ इस तरह समभाव पूर्वक प्राप्त की गई मृत्यु हि आत्मा का विकास करने वाली है। . इससे कर्मों का क्षय होता है और आत्मा शुद्ध एवं निर्मल बनती है। इस मृत्यु को वही व्यक्ति स्वीकार कर सकता है; जिस को आगम पर श्रद्धा-निष्ठा है। क्योंकि- श्रद्धा-निष्ठ व्यक्ति ही परीषहों के उत्पन्न होने पर उन्हें समभाव पूर्वक सह सकता है और राग-द्वेष पर विजय पाने Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका // 1-8-6 - 5 (235) 169 का प्रयत्न करता हुआ अपनी साधना में संलग्न रह सकता है। यह अनशन सागारिक अनशन की तरह थोडे समय के लिए नहीं, अपितु जीवन पर्यन्त के लिए होता है। इस अनशन के द्वारा साधक समाधि मरण को प्राप्त करता है। // इति अष्टमाध्ययने षष्ठः उद्देशकः समाप्तः // 卐卐 : प्रशस्ति : मालव (मध्य प्रदेश) प्रांतके सिद्धाचल तीर्थ तुल्य शजयावतार श्री मोहनखेडा तीर्थमंडन श्री ऋषभदेव जिनेश्वर के सांनिध्यमें एवं श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरिजी, श्रीमद् यतीन्द्रसूरिजी, एवं श्री विद्याचंद्रसूरिजी के समाधि मंदिर की शीतल छत्र छायामें शासननायक चौबीसवे तीर्थंकर परमात्मा श्री वर्धमान स्वामीजी की पाट-परंपरामें सौधर्म बृहत् तपागच्छ संस्थापक अभिधान राजेन्द्र कोष निर्माता भट्टारकाचार्य श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी म. के शिष्यरत्न विद्वद्वरेण्य व्याख्यान वाचस्पति अभिधान राजेन्द्रकोषके संपादक श्रीमद् विजय यतीन्द्रसूरीश्वरजी म. के शिष्यरत्न, दिव्यकृपादृष्टिपात्र, मालवरत्न, आगम मर्मज्ञ, श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम प्रकाशन के लिये राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी हिंदी टीका के लेखक मुनिप्रवर ज्योतिषाचार्य श्री जयप्रभविजयजी म. “श्रमण' के द्वारा लिखित एवं पंडितवर्य लीलाधरात्मज रमेशचंद्र हरिया के द्वारा संपादित सटीक आचारांग सूत्र के भावानुवाद स्वरूप श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी हिंदी टीका-ग्रंथ के अध्ययनसे विश्वके सभी जीव पंचाचारकी दिव्य सुवासको प्राप्त करके परमपदकी पात्रता को प्राप्त करें... यही मंगल भावना के साथ... "शिवमस्तु सर्वजगतः" वीर निर्वाण सं. 2528. राजेन्द्र सं. 96. विक्रम सं. 2058. Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 170 ॥१-८-७-१(२38)卐 श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन - श्रुतस्कंध - 1 अध्ययन - 8 उद्देशक - 7 # पादपोपगमन-मरणम् // आठवे अध्ययन का छठ्ठा उद्देशक कहा, अब सातवे उद्देशक की व्याख्या का प्रारंभ . करतें हैं... इनका परस्पर अभिसंबंध इस प्रकार है कि- छठे उद्देशक में कहा था कि- एकत्व भावना से भावित एवं धृति तथा संघयण आदि बलवाले साधु को चाहिये कि- इंगितमरण का स्वीकार करे... और अब इस सातवे उद्देशक में वह हि एकत्वभावना प्रतिमावहन के द्वारा निष्पादन (बनानी) करनी चाहिये... इस हेतु से प्रतिमाओं का स्वरूप कहा जाएंगा... तथा . विशिष्ट शक्ति-सामर्थ्य संघयणवाले साधु को चाहिये कि- वे पादपोपगमन अनशन भी स्वीकारे... अतः इस संबंध से आये हुए सातवे उद्देशक का यह प्रथम सूत्र है... I सूत्र // 1 // // 236 // 1-8-7-1 जे भिक्खू अचेले परिवुसिए तस्स णं भिक्खुस्स एवं भवइ-चाएमि अहं तणफासं अहियासित्तए, सीयफासं अहियासित्तए, तेउफासं अहियासित्तए दंसमसगफासं अहियासित्तए, एगयरे अण्णतरे विरूवरूवे फासे अहियासित्तए, हिरिपडिच्छायणं चऽहं नो संचाएमि अहियासित्तए, एवं से कप्पइ कडिबंधणं धारित्तए // 236 // II संस्कृत-छाया : यः भिक्षुः अचेलः पर्युषितः, तस्य भिक्षोः एवं भवति- शक्नोमि अहं तृण स्पर्श अधिसोढुं, शीतस्पर्श अधिसोढुं, तेजः स्पर्श अधिसोढुं, दंशमशकस्पर्श अधिसोढुं, एकतरान् अन्यतरान् विरूपरूपान् स्पर्शान् अधिसोढुं, ह्रीप्रच्छादनं च अहं न (संत्यजामि) शक्नोमि अधिसोढुम्। एवं तस्य कल्पते कटिबन्धनं धारयितुम् // 236 // III सूत्रार्थ : जो प्रतिमासंपन्न अचेलक भिक्षु संयम में अवस्थित है और जिसका यह अभिप्राय होता है कि- में तृणस्पर्श, शीतस्पर्श, उष्णस्पर्श, डांस-मच्छरादि के स्पर्श, एक जाति के स्पर्श, अन्य जाति के स्पर्श और नाना प्रकार के अनुकूल या प्रतिकूल स्पर्शों को तो सहन कर सकता हूं किन्तु मैं सर्वथा नग्न हो कर लज्जा को जीतने में असमर्थ हूं। ऐसी स्थिति में उस मुनि को कटिबन्धन चोलपट्टा रखना कल्पता है। Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका #1-8- 7 - 1(238) // 171 IV टीका-अनुवाद : प्रतिमा याने अभिग्रह ग्रहण कीया हुआ साधु जब अभिग्रह विशेष से अवस्त्रवाला होकर हि संयमानुष्ठान में रहा हो, तब उस साधु को ऐसा विचार आवे कि- मैं तृणस्पर्श को सहन कर शकता हुं... क्योंकि- मैं धृति एवं संघयण बल से संपन्न हुं तथा मैंने वैराग्य भावना से अंत:करण को भावित कीया है, तथा आगमों के अध्ययन से नारक एवं तिर्यंच गति के दु:खों की वेदना को प्रत्यक्ष की है, अतः मोक्ष के लिये पुरुषार्थ करनेवाले मुझे यह तृणस्पर्श कोइ कष्टदायक नहि लगता... इसी प्रकार शीतस्पर्श याने ठंडी, तथा उष्णस्पर्श याने गरमीधूप-ताप... तथा दंशमसक याने मच्छर आदि जंतुओं के डंख को भी सहन कर शकता हुं... अत: इनमें से कोई एक या अनेक तथा अनुकूल या प्रतिकूल ऐसे इन विरूपादि स्वरूपवाले स्पर्शों के कष्टों को अर्थात् परीषहों को मैं सहन कर शकुंगा... किंतु लज्जा के कारण से गुह्य याने गुप्त अंगों को वस्त्र से ढांकने का त्याग नहि कर शकता... इस परिस्थिति में ऐसे लज्जागुणवाले साधु को कटिबंधन याने चोलपटक पहनना कल्पता है... किंतु वह चोलपटक लंबाइ में कटि प्रमाण हो एवं विस्तार (पहोलाइ) में एक हाथ और चार अंगुल प्रमाण एक हि वस्त्र हो... यदि यह लज्जा-कारण न हो तब अचेल याने वस्त्र रहित हि संयमानुष्ठान में उद्यमशील रहे... और अवस्त्र की स्थिति में हि शीत आदि स्पर्शों को अर्थात् परीषहों को सहन करे... v सूत्रसार : ___ प्रस्तुत सूत्र में अचेलक मुनि का वर्णन किया गया है। इसमें बताया गया है किजो मुनि शीत आदि परीषहों को सहने में तथा लज्जा को जीतने में समर्थ है, वह वस्त्र का सर्वथा त्याग करदे। वह मुनि केवल मुखवस्त्रिका एवं रजोहरण के अतिरिक्त कोई वस्त्र न रखे। परन्तु, जो मुनि लज्जा को जीतने में सक्षम नहीं है, वह कटिबन्ध अर्थात् चोल पट्टक (धोती के स्थान में पहनने का अधोवस्त्र) रखे और गांव या शहर में भिक्षा आदि के लिए जाते समय उसका उपयोग करे। परन्तु, जंगल एवं एकान्त स्थान में निर्वस्त्र होकर साधना करे। .. यह हम चौथे उद्देशक में स्पष्ट कर चुके हैं कि- साधना की सफलता अर्थात् मुक्ति नग्नता में हैं। किंतु वह नग्नता शरीर मात्र की नहीं, परंतु आत्मा की होनी चाहिए अर्थात् आत्मप्रदेशों के उपर रहे हुए कर्मो का सर्वथा अभाव... जब आत्मा कर्म आवरण से सर्वथा अनावृत्त हो जाएगी तभी मुक्ति प्राप्त होगी और उसके लिए आवश्यक है राग-द्वेष के हेतुभूत कषायों का क्षय करना। यह क्रिया वस्त्र रहित भी की जा सकती है और वस्त्र सहित भी। मर्यादित वस्त्र रखते हुए भी जो साधु समभाव के द्वारा राग-द्वेष पर विजय पाने में संलग्न है, उसकी साधना सफलता की ओर है और यदि कोई साधु वस्त्र का त्याग करके भी राग Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 172 // 1-8-7 - 2 (239) म श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन द्वेष के विषम भाव में घूमता है तो उसकी साधना मोक्ष-मुक्ति की ओर ले जाने में समर्थ नहीं है। अतः असाधुता वस्त्र के होने में नहीं किंतु कषायों के होने में हि है, तथा ममता में असाधुता है, राग-द्वेष में भी असाधुता हि है। इन विकारों से युक्त वस्त्र युक्त एवं वस्त्र रहित कोई भी साधक वास्तव में साधुता से दूर है। ___ इससे स्पष्ट होता है कि- वस्त्र केवल लज्जा एवं शीत निवारणार्थ है। इससे संयम साधना में कोई बाधकता नहीं है। क्योंकि- परिग्रह पदार्थ में नहीं, ममता में हैं। आगमों में मूर्छा को हि परिग्रह माना है। यदि शरीर पर आसक्ति है, तो वहां भी परिग्रह का दोष लगेगा और यदि शरीर पर एवं वस्त्रों पर तथा अन्य उपकरणों पर ममत्व भाव नहीं है, तो परिग्रह का दोष नहीं लगेगा। इससे यह सिद्ध होता है कि- साधुत्व अनासक्त भाव में हि हैं, रागद्वेष से रहित होने की साधना हि साधुत्व हैं। - इसी बात को और स्पष्ट करते हुए सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहते हैं... I सूत्र // 2 // // 237 // 1-8-7-2 अदुवा तत्थ परक्कमंतं भुज्जो अचेलं तणफासा फुसंति सीयफासा फुसंति तेउफासा फुसंति दंसमसकफासा फुसंति, एगयरे अण्णयरे विरूवरूवे फासे अहियासेइ, अचेले लाघवियं आगममाणे जाव समभिजाणिया // 237 // II संस्कृत-छाया : अथवा तत्र पराक्रममाणं भूयः अचेलं तृणस्पर्शाः स्पृशन्ति शीतस्पर्शाः स्पृशन्ति तेजःस्पर्शाः स्पृशन्ति, दंशमशकस्पर्शाः स्पृशन्ति, एकतरान् अन्यतरान् विरूपरूपान् स्पर्शान् अधिसहते, अचेल: लाघवं आगमयन् यावत् समभिजानीयात् // 237 // III सूत्रार्थ : यदि मुनि लज्जा को न जीत सके तो वस्त्र धारण करले और यदि वह लज्जा को जीत सकता है तो अचेलकता में पराक्रम करे। जो मुनि अचेलक अवस्था में तृणों के स्पर्श, शीत के स्पर्श, उष्ण के स्पर्श, डांस-मच्छरादि के स्पर्श एक जाति के या अन्य कोई भी प्रकार के स्पर्शों के स्पर्शित होने पर उन्हें समभाव से सहन करता है। वह कर्मक्षय के कारणों (संवरभाव) का आदर करनेवाला ज्ञाता मुनि हि सम्यग् दर्शन एवं समभाव का परिज्ञाता है... IV टीका-अनुवाद : वह प्रतिमा याने अभिग्रहवाला साधु लज्जा आदि कारण होने पर वस्त्र को धारण Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका // 1-8-7-3 (238) // 173 करे... किंतु यदि लज्जा न हो तब अवस्त्र (वस्त्र रहित) हि संयमानुष्ठान में पुरुषार्थ करे... अब वस्त्र रहित होकर साधु जब संयमानुष्ठान में उद्यम करता है, तब बार बार उन्हें तृणों का कटु स्पर्श परिताप दे, इसी प्रकार शीतस्पर्श, उष्णस्पर्श, दंशमशक आदि के स्पर्श-डंख से पीडा-कष्ट हो... तथा एक प्रकार के या अन्य कोइ भी प्रकार के विरूप स्वरूपवाले जो भी तणादि स्पर्शों का कष्ट हो तब उनको समभाव से सहन करे... और अचेल याने वस्त्ररहित अवस्था में हि वह साधु सम्यक्त्वादि रत्नत्रयी को अच्छी तरह से जानकर कष्टों को समभाव से सहन करके आत्मा को कर्मो के भार से लघु याने हलवा बनाता है अर्थात् बहोत सारे कर्मो की निर्जरा करता है... . तथा प्रतिमा स्वीकारनेवाला साधु हि विशेष अभिग्रह ग्रहण करता है, जैसे कि- मैं प्रतिमावाले हि अन्य साधुओं को आहारादि दूंगा... अथवा तो उनसे हि आहारादि ग्रहण करुंगा... इत्यादि चतुर्भगी अभिग्रहों की होती है... V सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में इस बात को और स्पष्ट कर दिया गया है कि- जो मुनि लज्जा एवं परिषहों को जीतने में समर्थ है वह वस्त्र का उपयोग न करे। इससे स्पष्ट हो गया कि- वस्त्र केवल संयम सुरक्षा के लिए है, न कि- शरीर की शोभा एवं शृंगार के लिए, अतः साधु को सदा समभाव पूर्वक परीषहों को सहते हुए संयम में संलग्न रहना चाहिए। जो मुनि साधना के स्वरूप एवं समभाव को सम्यक्तया जानता है, वह परीषहों की उपस्थिति होने पर अपने संयम पथ से विचलित नहीं होता है। अतः साधक को सदा समभाव की साधना में संलग्न रहना चाहिए। और यदि उसमें शीत आदि के परीषहों को एवं लज्जा को जीतने की क्षमता है तो उसे वस्त्र का त्याग कर देना चाहिए और यदि इतनी क्षमता नहीं है तो वह कम से कम कटिबन्ध (चोल पट्टक) या मर्यादित वस्त्र रख सकता है। इसके बाद प्रतिभासम्पन्न मुनि के अभिग्रहों का उल्लेख करते हुए सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहते हैं... I सूत्र // 3 // // 238 // 1-8-7-3 जस्स णं भिक्खुस्स एवं भवइ-अहं च खलु अण्णेसिं भिक्खूणं असणं वा 4 आहटु दलइस्सामि, आहडं च साइज्जिस्सामि 1. जस्स णं भिक्खुस्स एवं भवइ-अहं च खलु अण्णेसिं भिक्खूणं असणं वा 4 आह? दलइस्सामि, आहडं च नो साइजिस्सामि 2. जस्स णं भिक्खुस्स एवं भवइ-अहं च खलु असणं वा 4 आहटु नो दलइस्सामि आहडं च साइज्जिस्सामि 3. जस्स णं भिक्खुस्स एवं भवइ-अहं च Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 174 // 1-8-7-3 (२३८)卐 श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन खलु अण्णेसिं भिक्खूणं असणं वा 4 आहटु न दलइस्सामि आहडं च नो साइज्जिस्सामि.. अहं च खलु तेण अहाइरित्र्तण अहेसणिज्जेण अहापरिग्गहिएणं असणेण वा पाणेण वा 4 अभिकंख साहम्मियस्स कुज्जा वेयावडियं करणाए, अहं वा वि तेण अहाइरित्तैण अहेसणिज्जेण अहापरिग्गहिएणं असणेण वा पाणेण वा 4 अभिकंख साहम्मिएहिं कीरमाणं वेयावडियं साइज्जिस्सामि, लाघवियं आगममाणे जाव सम्मत्तमेव समभिजाणिया // 238 // संस्कृत-छाया : यस्य च भिक्षोः एवं भवति- अहं च खलु अन्येभ्यः भिक्षुभ्य: अशनं वा 4 (अशनं वा पानं वा खादिमं वा स्वादिमं वा) आहृत्य दास्यामि, आहृतं च स्वादयिष्यामि 1. यस्य णं भिक्षोः एवं भवति - अहं च खलु अन्येभ्यः भिक्षुभ्यः अशनं वा 4 आहृत्य दास्यामि, आहृतं च न स्वादयिष्यामि 2. यस्य च भिक्षोः एवं भवति - अहं च खलु अशनं वा 4 आहृत्य न दास्यामि, आहृतं च स्वादयिष्यामि 3, यस्य च भिक्षोः एवं भवति - अहं च खलु अन्येभ्यः भिक्षुभ्यः अशनं वा 4 आहृत्य न दास्यामि, आहृतं च न स्वादयिष्यामि। अहं च खलु तेन यथातिरिक्तेन यथैषणीयेन यथापरिगृहीतेन अशनेन वा 4 अभिकाक्ष्य साधर्मिकस्य कुर्यात् वैयावृत्त्यं करणया, अहं वाऽपि तेन यथातिरिक्तेन यथैषणीयेन यथापरिगृहीतेन अशनेन वा पानेन वा 4 अभिकाक्ष्य साधर्मिकैः क्रियमाणं वैयावृत्त्यं स्वादयिष्यामि, लाघविकं आगमयन् यावत् सम्यक्त्वमेव समभिजानीयात् // 238 // II सूत्रार्थ : जिस भिक्षु का यह अभिप्राय होता है कि- में अन्यभिक्षुओं को अन्नादि चतुर्विध आहार लाकर दूंगा और उनका लाया हुआ स्वीकार भी करूंगा 2. जिस भिक्षु का इस प्रकार का अध्यवसाय होता है कि- मैं अन्य भिक्षुओं को आहारादि लाकर दूंगा किन्तु उन का लाया हुआ स्वीकार नहीं करूंगा। 3. जिस भिक्षु का इस प्रकार का अभिग्रह होता है कि- मैं अन्नादि चतुर्विध आहार अन्य साधु को लाकर नहीं दूंगा, किन्तु उनका लाया हुआ स्वीकार करुंगा। 4. जिस भिक्षु की यह प्रतिज्ञा होती है कि- मैं अन्य भिक्षुओं को अन्नादि चारों आहार लाकर न दूंगा और न उनका लाया हुआ स्वीकार करूंगा। इसके अतिरिक्त उनके अन्य अभिग्रह का वर्णन भी किया गया। जैसे कि- में अपने लिए लाये हुए अतिरिक्त एवं यथापरिगृहीत Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका #1-8 - 7 - 3 (238) 175 आहार से निर्जरा का उद्देश्य करके या पर उपकार के लिए साधर्मिक की वैयावृत्य करूंगा या मैं अन्य के लाये हुए अतिरिक्त एवं यथापरिगृहीत आहार से निर्जरा के कारण साघर्मियों के द्वारा की जाने वाली वैयावृत्य को स्वीकार करूंगा और निर्जरा के लिए अन्य के द्वारा की जाने वाली वैयावृत्य का अनुमोदन भी करूंगा। इस तरह कर्मों की लघुता को करता हुआ यावत् सम्यग् दर्शन एवं समभाव को सम्यक्तया जाने / IV टीका-अनुवाद : सूत्र के इन पदों की व्याख्या पूर्वे की गइ है अत: मात्र संस्कृत-पर्याय हि कहतें हैं... जिस प्रतिमाधारी भिक्षु को ऐसा अभिग्रह हो कि- मैं अन्य साधुओं को आहारादि लाकर दूंगा एवं अन्य साधुओं ने लाये हुए आहारादि को वापरुंगा... यह पहला भंग...१. तथा जिस साधु को ऐसा अभिग्रह हो कि- मैं अन्य साधुओं को आहारादि लाकर दूंगा, किंतु अन्य साधु ने लाये हुए आहारादि को नहि वापरुंगा...२. तथा जिस साधु को ऐसा अभिग्रह हो कि- मैं अन्य साधुओं को आहारादि लाकर नहि ढुंगा, किंतु अन्य साधुओं ने लाये हुए आहारादि मैं वापरुंगा...३. तथा जिस साधु को ऐसा अभिग्रह हो कि- मैं अन्य साधुओं को आहारादि लाकर नहि दुंगा, एवं अन्य साधुओं ने लाये हुए आहारादि मैं नहि वापरुंगा...४. इस प्रकार के चार * अभिग्रहों में से कोई एक प्रकार का अभिग्रह साधु ग्रहण करे... - अथवा तो इन चार भंगो में से पहेले तीन प्रकार के अभिग्रहों को एक साथ कोइ साधु ग्रहण करे... जैसे कि- कोइ साधु ऐसा अभिग्रह ले कि- मैं मेरे खुद को वापरने से अतिरिक्त आहारादि के द्वारा अर्थात् पिंडैषणा के सात प्रकार में से पांच प्रकार से अग्रहण एवं दो प्रकार से ग्रहण... ऐसे एषणीय आहारादि के द्वारा तथा यथापरिगृहीत याने स्वीकार कीये हुए आहारादि के द्वारा मैं कर्मो की निर्जरा के लिये साधर्मिक साधुओं की वैयावच्च (सेवा-भक्ति) करूं, यद्यपि वे साधु प्रतिमा प्रतिपन्न होने से एक साथ आहारादि नहि वापरते, तो भी एक अभिग्रहवाले अनुष्ठान से युक्त होने से वे परस्पर सांभोगिक होते हैं, अत: “उस समनोज्ञ साधु के उपकार के लिये मैं वैयावच्च करूं' ऐसा अभिग्रह कोइ साधु ग्रहण करे... अथवा तो निर्जरा की कामनावाले उन साधर्मिक साधुओ ने लाये हुए अतिरिक्त एषणीय एवं यथापरिगृहित आहारादि की वैयावच्च (सेवाभक्ति) का स्वीकार करुंगा... तथा जो कोइ अन्य साधर्मिक साधु, कोइ अन्य साधर्मिक साधु की वैयावच्च-सेवा करता है, तो उनकी मैं अनुमोदना करुंगा... वह इस प्रकार- जैसे कि- आपने यह साधर्मिक साधु की वैयावच्च की वह अनुमोदनीय है... ऐसा वचन के द्वारा तथा काया से प्रसन्न मुख एवं दृष्टि के द्वारा तथा मन से भी शुभचिंतन के द्वारा मैं इस वैयावच्च-सेवा की अनुमोदना करता हुं... क्योंकिइस प्रकार मन-वचन एवं काया से अनुमोदना करने से आत्मा कर्मो के भार से हलवा (लघु) होता है... Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 176 // 1-8-7-4 (२३९)卐 श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन इस प्रकार पूर्वोक्त चार में से अन्यतर कोइ भी अभिग्रह ग्रहण करनेवाला साधु वस्त्रवाला हो या वस्त्ररहित हो, जब कभी शरीर में पीडा हो, या तो आयुष्य की अल्पता जानकर उद्यतमरण का स्वीकार करे इत्यादि... यब बात सूत्रकार महर्षि आगे के सूत्र से कहेंगे... v सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में अभिग्रह निष्ठ मुनि के आहार के सम्बन्ध में चारों भंग पूर्व के उदेशक की तरह ही बताए गए हैं। इसमें अन्तर इतना ही है कि- पूर्व के उद्देशक में केवल निर्जरा के लिए वैयावृत्य करने का उल्लेख किया गया था और इस उद्देशक में परोपकार एवं निर्जरा दोनों दृष्टियों से वह वैयावृत्य करता है या दूसरे समानधर्मी साधु से वैयावृत्य करवाता भी है इत्यादि... वह साधु यह भी निश्चय करता है कि- मैं अपने साधुओं की बीमारी के समय आहार आदि से वैयावृत्य करूंगा एवं जो साधु अन्य साधु की वैयावृत्त्य कर रहा है, उसकी प्रशंसा भी करूंगा। इस तरह वैयावृत्त्य में परोपकृति एवं कर्म निर्जरा दोनों की प्रधानता निहित है। __ इस तरह मन, वचन और शरीर से सेवा करने, कराने एवं अनुमोदना करने वाले साधक के मन में एक अपूर्व आनन्द एवं स्फूर्ति की अनुभूति होती है और उससे उसके कर्मों की निर्जरा होती है। अस्तु, सेवाभाव से साधक की साधना में तेजस्विता आती है और उसकी साधना अन्तर्मुखी होती जाती है। अतः कर्मों का क्षयोपशम होने से वह साधु आत्म-विकास की ओर बढ़ता है। अतः साधक को अपनी स्वीकृत प्रतिज्ञा का दृढता से परिपालन करना चाहिए। मुनि को रोग आदि के उत्पन्न होने पर घबराना नहीं चाहिए। यदि अन्तिम समय निकट प्रतीत हो तब वह साधु अन्य ओर से अपना ध्यान हटाकर समभाव पूर्वक पंडित-मरण का स्वागत करे... इस विषय का विवेचन करते हुए सूत्रकार महर्षि आगेका सूत्र कहते हैं... I सूत्र // 4 // // 239 // 1-8-7-4 जस्स णं भिक्खुस्स एवं भवइ-से गिलामि खलु अहं इमम्मि समए इमं सरीरगं अणुपुव्वेणं परिवहित्तए, से अणुपुव्वेण आहारं संवट्टिज्जा 2 कसाए पयणुए किच्चा समाहियच्चे फलगावयट्ठी उट्ठाय भिक्खू अभिणिव्वुडच्चे अणुपविसित्ता गामं वा नगरं वा जाव रायहाणिं वा तणाई जाइज्जा जाव संथरिज्जा // इत्थवि समए कायं च जोगं च ईरियं च पच्चक्खाइज्जा, तं सच्चं सच्चावाई ओए तिण्णे छिण्णकहकहे आईयढे अणाईए चिच्चा णं भेउरं कायं संविहुणिय विरूवरूवे परीसहोवसग्गे अस्सिं विस्संभणाए भेरवमणुचिण्णे तत्थ वि तस्स कालपरियाए, से वि Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1 - 8 - 7 - 4 (239) // 177 तत्थ विअंतिकारए, इच्चेयं विमोहाययणं हियं सुहं खमं निस्सेसं आणुगामिय त्तिबेमि // 239 // // संस्कृत-छाया : यस्य च भिक्षोः एवं भवति - अथ ग्लायामि खलु अहं अस्मिन् समये इदं शरीरं आनुपूर्येण परिवोढुम्, स: आनुपूर्येण आहारं संवर्तयेत्, संवर्त्य कषायान् प्रतनुकान् कृत्वा समाहितार्चः फलकावस्थायी उत्थाय भिक्षुः अभिनिर्वृत्तार्चः अनुप्रविश्य ग्रामं वा नगरं वा यावत् राजधानी वा तृणानि याचेत यावत् संस्तीर्यात्। / अस्मिन्नपि समये कायं च योगं च ईयर्यां च प्रत्याचक्षीत, तत् सत्यं सत्यवादी ओजः तीर्णः छिन्नकथंकथ: आतीतार्थ: अनातीत: व्यक्त्वा च भिदुरं कायं संविधूय विरूपरूपान् परीषहोपसर्गान् अस्मिन् विश्रम्भणतया भैरवं अनुचीर्णः, तत्राऽपि तस्य कालपर्यायः, स: अपि तत्र व्यन्तिकारकः। इत्येतत् विमोहायतनं हितं सुखं क्षम निःश्रेयसं आनुगामिकं इति ब्रवीमि // 239 // III सूत्रार्थ : __ जिस भिक्षु का यह अभिप्राय हो कि- मैं ग्लान हुँ रोगाक्रान्त हूं। अतः मैं इस समय अनुक्रम से इस शरीर को संयम साधना में नहीं लगा सकता हूं तब वह भिक्षु अनुक्रम से आहार का संक्षेप करे और कषायों को स्वल्प बनाए। ऐसा करके वह समाधियुक्त मुनि फलक की भान्ति सहनशील होकर मृत्यु के लिए उद्यत होकर तथा शरीर के सन्ताप से रहित होकर ग्राम, नगर यावत् राजधानी में प्रवेश करके, तृणों की याचना कर के गुफादि निर्दोष स्थान में जाकर तणादि बिछावे। इस स्थान पर भी वह साध काय के व्यापार. वाचन के व्यापार तथा मन के अशुभ संकल्पों का प्रत्याख्यान करे। यह पादोपगमन अनशन करनेवाला साधु सत्यवादी है राग और द्वेष से रहित होकर संसार समुद्र का पार होने वाला है तथा विकथाओं का त्यागी है, पदार्थो के यथार्थ स्वरूप का ज्ञाता है। संसार का अंत करने वाला है नाशवान शरीर को त्याग करने का इच्छुक है। विभिन्न प्रकार के परीषहोपसर्गों को सहन करने में समर्थ है। जैनागम में आस्था रखने वाला और दुष्कर प्रतिज्ञा का परिपालक है ! उसका कालपर्याय कर्मों का नाशक है। यह पादपोपगमन मरण मोह से रहित है। अत: यह हितकारी है, सुखकारी है, क्षेमकारी है, कल्याणकारी है अतः यह समाधिभाव भवान्तर में साथ जानेवाला है। इस प्रकार मैं तुम्हें कहता हूं। IV टीका-अनुवाद : जिस साधु को ऐसा अभिप्राय याने विचार आवे कि- अब मैं संयमयात्रा के उपयोगी Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 178 // 1-8-7 - 4 (239) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन ऐसे इस शरीर का निर्वाह करने में ग्लानि याने खेद पाता हुं अर्थात् समर्थ नहि हुं... ऐसा सोचकर तणादि की याचना करके यथाविधि संथारो करे... संथारो करके सिद्ध परमात्मा के समक्ष स्वयं हि पांच महाव्रतों का उच्चारण करके स्वयं में हि आरोपित करें, उसके बाद चारों प्रकार के आहारादि का त्याग (पच्चक्खाण) करें, उसके बाद पादपोपगमन अनशन के लिये प्रथम शरीर का त्याग (प्रत्याख्यान) करे, उसके बाद काययोग का त्याग करे... अर्थात् शरीर का संकोच करना, शरीर को लंबा करना, तथा आंखो के पलकारे उन्मेष एवं निमेष आदि तथा ईर्या याने चलना फिरना इत्यादि तथा शरीर में वाणी के द्वारा एवं मन के द्वारा संभवित सूक्ष्म और अतिसूक्ष्म अप्रशस्त (अशुभ) ईर्या का भी त्याग करे... क्योंकि- यह त्याग सत्य याने आत्महितकर है... इत्यादि सूत्रार्थ पूर्व के उद्देशक में कहे गये सूत्रार्थ की तरह जानीयेगा... इति ब्रवीमि... V सूत्रसार : साधु का जीवन साधना का जीवन है। अतः साधु को जीवन एवं मरण समान है। उसका समस्त समय साधना में बीतता है। मृत्यु भी साधना में ही गुजरती है। इसलिए उसकी मृत्यु भी सफल मृत्यु है। इस लिए आगमकारों ने साधु के मरण को पंडित मरण कहा है। रोगादि से या तपस्या से शरीर क्षीण होने पर साधक घबराता नहीं, परन्तु वह समभाव पूर्वक आने वाले परीषहों को सहता हुआ मृत्यु का स्वागत करता है। उस समय वह आहार आदि का त्याग करके शान्तभाव से पंडित मरण को प्राप्त करता है। ' प्रस्तुत अध्ययन में मरण के तीन प्रकार बताए गए हैं- 1. भक्त प्रत्याख्यान, 2. इंगित मरण और। 3. पादोपगमन। तीनों अनशन जीवन पर्यन्त के लिए होते हैं। इनमें अन्तर इतना ही है कि- भक्त प्रत्याख्यान में केवल आहार एवं कषाय का त्याग होता है, इसके अतिरिक्त अनशन काल में साधक एक स्थान से दसरे स्थान में आ जा सकता है। परन्त. इंगित मरण में भूमि की मर्यादा होती है, वह मर्यादित भूमि में हि आ जा सकता है। तथा पादोपगमन में शारीरिक अंग-उपांगों का संकोच-विस्तार एवं हलन-चलन आदि सभी क्रियाओं का त्याग होता है। इस प्रकार अंतिम समय निकट आने पर साधक तीनों प्रकार की मृत्यु में से किसी एक मृत्यु को स्वीकार करके पंडित मरण को प्राप्त करता है। 'त्तिबेमि' का अर्थ पूर्ववत् समझें। // इति अष्टमाध्ययने सप्तमः उद्देशकः समाप्तः // : प्रशस्ति : ___ मालव (मध्य प्रदेश) प्रांतके सिद्धाचल तीर्थ तुल्य शत्रुजयावतार श्री मोहमखेडा तीर्थमंडन श्री ऋषभदेव जिनेश्वर के सांनिध्यमें एवं श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरिजी, श्रीमद् Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1 - 8 - 7 - 4 (239) 179 यतीन्द्रसूरिजी, एवं श्री विद्याचंद्रसूरिजी के समाधि मंदिर की शीतल छत्र छायामें शासननायक * चौबीसवे तीर्थंकर परमात्मा श्री वर्धमान स्वामीजी की पाट-परंपरामें सौधर्म बृहत् तपागच्छ संस्थापक अभिधान राजेन्द्र कोष निर्माता भट्टारकाचार्य श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी म. के शिष्यरत्न विद्वद्वरेण्य व्याख्यान वाचस्पति अभिधान राजेन्द्रकोषके संपादक श्रीमद् विजय यतीन्द्रसूरीश्वरजी म. के शिष्यरत्न, दिव्यकृपादृष्टिपात्र, मालवरत्न, आगम मर्मज्ञ, श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम प्रकाशन के लिये राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी हिंदी टीका के लेखक मुनिप्रवर ज्योतिषाचार्य श्री जयप्रभविजयजी म. “श्रमण' के द्वारा लिखित एवं पंडितवर्य लीलाधरात्मज रमेशचंद्र हरिया के द्वारा संपादित सटीक आचारांग सूत्र के भावानुवाद स्वरूप श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी हिंदी टीका-ग्रंथ के अध्ययनसे विश्वके सभी जीव पंचाचारकी दिव्य सुवासको प्राप्त करके परमपदकी पात्रता को प्राप्त करें... यही मंगल भावना के साथ... "शिवमस्तु सर्वजगतः" वीर निर्वाण सं. 2528. राजेन्द्र सं. 96. विक्रम सं. 2058. Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1801 -8-8-1(240) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन %3 श्रुतस्कंध - 1 अध्ययन - 8 उद्देशक - 8 उत्तममरणविधिः // सातवा उद्देशक कहा... अब आठवे उद्देशक का प्रारंभ करते हैं... यहां परस्पर इस प्रकार अभिसंबंध है... जैसे कि- यहां सातवे उद्देशकमें कहा था कि- रोग आदि परिस्थिति में कालपर्याय याने आयुष्यका अंतकाल निकट आने पर साधु भक्तपरिज्ञा इंगितमरण और पादपोपगमन में से कोई भी एक प्रकार के अनशनका स्वीकार करे इत्यादि... अब यहां आठवे उद्देशकमें रोगके अभावमें अनुक्रमसे कालपर्याय याने आयुष्यके अंतकालमें करने योग्य विधिविधान कहतें हैं... अतः इस अभिसंबंधसे आये हुए इस आठवे उद्देशकका यह प्रथम सूत्र है... I सूत्र // 1 // // 240 // 1-8-8-1 अणुपुव्वेण विमोहाइं जाइं धीरा समासज्ज। वसुमंतो मइमंतो सव्वं णच्चा अणेलिसं // 240 // . // संस्कृत-छाया : आनुपूर्व्या विमोहानि यानि धीरा समासाद्य। वसुमन्त: मतिमन्तः सर्वं ज्ञात्वा अनन्यसद्दशम् // 240 // III सूत्रार्थ : ___अनशन करने के लिए जो संलेखना की विधि बताई गई है, उसके अनुसार धैर्यवान, ज्ञान संपन्न, संयम निष्ठ एवं हेयोपादेय का परिज्ञाता मुनि मोह से रहित होकर पंडित मरण को प्राप्त करे। IV टीका-अनुवाद : अनुक्रमसे याने प्रथम प्रव्रज्या (दीक्षा) ग्रहण, उसके बाद शिक्षा, सूत्र एवं अर्थका ग्रहण-कार्य पूर्ण होने पर एकाकि-विहारकी प्रतिमा याने अभिग्रह... अथवा तो अनुक्रमसे संलेखनाके विकृष्ट तप आदि चार प्रकार... याने जिस तपश्चर्यासे मोहका विनाश हो... तथा . भक्तपरिज्ञा, इंगितमरण, और पादपोपगमन अनशनविधि यथाक्रमसे प्राप्त होने पर मोहका विनाश होता है... ऐसे प्रतिमाधारी साधु धीर याने अक्षोभ्य होते है... तथा वसु याने द्रव्य अर्थात् संयमवाले... तथा मति याने हेय तथा उपादेय का अनुक्रमसे त्याग तथा स्वीकारके Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका // 1-8 - 8 - 2 (241) 181 अध्यवसायवाले साधु सभी कार्य एवं अकार्यको जानकर विवेक करनेवाले अथवा भक्तपरिज्ञा आदि मरणके प्रकारको धृति एवं संघयण आदि बलकी अपेक्षासे अद्वितीय अनशनविधिको जानकर समाधिको प्राप्त करे... V सूत्रसार : यह तो स्पष्ट है कि- जो जन्म लेता है, वह अवश्य मरता है। अतः साधक मृत्यु से डरता नहीं, घबराता नहीं। वह पहले से ही जन्म-मरण से मुक्त होने के लिए मृत्यु को सफल बनाने का प्रयत्न करना शुरु कर देता है। वह विभिन्न तपस्या के द्वारा अपनी साधना को सफल बनाता हुआ पण्डितमरण की योग्यता को प्राप्त कर लेता है। पंडितमरण के लिए चार बातों का होना जरूरी है- 1. संयम, 2. ज्ञान, 3. धैर्य, और 4. निर्मोहभाव। संयम एवं ज्ञान सम्पन्न साधक ही हेयोपादेय का परिज्ञान करके दोषों का परित्याग एवं शुद्ध संयमका पालन कर सकता है और धैर्यता के सद्भाव में ही साधक समभाव पूर्वक परीषहों को सह सकता है। वह साधु मोह से रहित हो कर ही शुद्ध संयम का पालन कर सकता है। इसका तात्पर्य यह हुआ कि- संयम, ज्ञान एवं धर्म से युक्त तथा मोह रहित साधक ही पंडितमरण को प्राप्त करता है। मृत्यु को सफल बनाने के लिए ज्ञान, धैर्यता एवं अनासक्त भाव होना आवश्यक है। इस बात को और स्पष्ट करते हुए सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहते हैं... I सूत्र // 2 // // 241 // 1-8-8-2 ___ दुविहं पि विइत्ता णं बुद्धा धम्मस्स पारगा। अणुपुव्वीइ संखाए आरंभाओ तिउदृइ // 241 // // संस्कृत-छाया : द्विविधं अपि विदित्वा बुद्धाः धर्मस्य पारगाः। आनुपूर्व्या सङ्ख्याय आरम्भात् त्रुट्यति // 241 // III सूत्रार्थ : श्रुत और चारित्र रूप धर्म का पारगामी तत्त्वज्ञ मुनि बाह्य और अभ्यन्तर तपको धारण करके अनुक्रम से संयम का आराधन करते हुए मृत्यु के समय को जानकर आठ कर्मों से मुक्त हो जाता हैं। Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 182 1-8-8 - 3 (242) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन IV टीका-अनुवाद : बाह्य एवं अभ्यंतर (दो प्रकारकी) तपश्चर्याको जानकर अर्थात् आसेवन करके... अथवा मोक्षके अधिकारमें त्याग करने योग्य शरीर आदि बाह्य उपकरणादि एवं राग-द्वेषादि अंतरंग दोषोंको सम्यग् प्रकार से जानकर त्याग करनेवाले बुद्ध याने तत्त्वको जाननेवाले तथा श्रुत एवं चारित्रधर्मके पारगामी साधु प्रव्रज्यादि क्रमसे संयमानुष्ठान का पालन करने पर जब जाने किअब यह शरीर संयमानुष्ठानके पालनमें समर्थ नहि है, तब शरीरके त्यागका अवसर हुआ है एवं मैं मरणके लिये समर्थ हुं ऐसा जानकर शरीरको संभालना, आहारादिका अन्वेषण (गवेषणा) करना इत्यादि आरंभका त्याग करते हैं... अथवा पाठांतरसे-आठों कर्मोके बंधनसे मुक्त होता है... V सूत्रसार : प्रस्तुत गाथा में बताया गया है कि- धर्म के स्वरूप का परिज्ञाता, तत्त्वज्ञ, साधक ही मृत्यु के समय को जानकर कर्मबन्धन से मुक्त हो सकता है। कर्मबन्धन से मुक्त होने के लिए ज्ञान का होना जरूरी है। ज्ञान सम्पन्न साधक वस्तु के हेयोपादेय स्वरूप को भलीभांति जान सकता है और त्यागने योग्य दोषों से निवृत्त होकर साधना में संलग्न रहता है। वह मृत्यु से डरता नहीं, अपितु मृत्यु के समय को जानकर तप के द्वारा अष्ट कर्मों को क्षय करता हुआ समाधि मरण से निर्वाण पद को प्राप्त कर लेता है। इससे स्पष्ट होता है किज्ञान पूर्वक की गई प्रत्येक क्रिया साधक को साध्य के निकट पहुंचाती है। प्रस्तुत सूत्र में प्रयुक्त “आरम्भाओ तिउट्टई" पद में भविष्यत् काल के अर्थ में वर्तमान काल का प्रयोग किया गया है। वृत्तिकार का भी यही मत है। , __ किसी प्रति में चतुर्थ पद में “कम्मुणाओ तिउट्टई" यह पाठान्तर भी उपलब्ध होता है। इसका तात्पर्य है- आठ प्रकार के कर्मों से पृथक होना। अब संलेखना के अंतरंग अर्थ को स्पष्ट करते हुए सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहते हैं... I सूत्र // 3 // // 242 // 1-8-8-3 कसाए पयणू किच्चा अप्पाहारे तितिक्खए / अह भिक्खू गिलाइज्जा आहारस्सेव अंतियं // 242 // Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका // 1-8-8- 3 (242) // 183 II संस्कृत-छाया : कषायान् प्रतनून् कृत्वा अल्पाहारः तितिक्षते / अथ भिक्षुः ग्लायेत् आहारस्यैव अन्तिकम् // 242 // III सूत्रार्थ : ___मुनि पहले कषाय की अल्पता करके फिर अल्पाहारी बने और आक्रोश आदि परीषहों को समभाव से सहन करे। यदि आहार के विना ग्लानि पैदा होती हो तो वह आहार को स्वीकार करले, किंतु यादि ग्लानि न हो तब आहार का सर्वथा त्याग करके अनशन व्रत स्वीकार करले। IV टीका-अनुवाद : अनशन-मरण के लिये तत्पर ऐसा मुनी श्रेष्ठ प्रकार की भाव संलेखना करे... वह इस प्रकार- कष याने संसार, उस संसार की प्राप्ति के कारणभूत क्रोधादि कषायों को अल्प करके साधु आहार वापरे, और वह भी बहोत हि थोडा... अर्थात् संलेखना की विधि के अनुसार छठ्ठ या अठ्ठम ,आदि तपश्चर्या करे, और जब तपश्चर्या का पारणा हो, तब भी साधु बहोत हि थोडा (अल्प) आहार ग्रहण करे... यदि थोडा (अल्प) आहारादि ग्रहण करने पर भी क्रोध उत्पन्न हो तब साधु उस क्रोध का उपशमन करे.. अर्थात् सामान्य लोगों के भी कठोर वचनों को प्रशम भाव से सहन करे, अर्थात् माफ करे... अथवा तो रोग की पीडा हो, तो उस पीडा को सहन करे... .. यदि साधु संलेखना करने की विधि में अल्प आहार प्राप्त होने पर ग्लानि का अनुभव (एहसास) करता है तब उस अल्प आहार का भी त्याग करे... अर्थात् संलेखना के क्रम को छोडकर अनशन का स्वीकार करे... किंतु आहार ग्रहण करने की इच्छा मात्र भी न करे.. वह इस प्रकार-संलेखना के वख्त अल्प आहारादि की प्राप्ति में साधु ऐसा न सोचे कि- कितनेक दिन पर्यंत जी चाहे ऐसा आहारादि ग्रहण करूं, और बाद में शेष संलेखनाकी विधि पूर्ण करुंगा... इत्यादि कुविकल्प न करे... v सूत्रसार : समाधि मरण को प्राप्त करने के लिए संलेखना करना आवश्यक है और संलेखना के लिए तीन बातों की आवश्यकता है- 1. कषाय का त्याग, 2. आहार का कम करना और 3. परीषहों को सहन करना। कष् का अर्थ संसार है और आय का अर्थ लाभ-प्राप्ति है, अतः कषाय का अर्थ है- संसार परिभ्रमण होना। आहार से स्थूल शरीर को पोषण मिलता Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 184 // 1-8-8-4 (243) // श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन है और कषाय से सूक्ष्म कार्मण शरीर परिपुष्ट होता है। और साधना का उद्देश्य है शरीर रहित होना। अतः उसके लिए स्थूल एवं सूक्ष्म शरीर को परिपुष्ट करने वाले आहार एवं कषाय को कम करना जरूरी है, क्योंकि- इनका अभी संपूर्णतः त्याग कर सकना कठिन है। अत: संलेखना काल में कषायों एवं आहार को कम करते-करते एक दिन कषायों से सर्वथा निवृत्त हो जाना यही साधना की सफलता है। कषायों पर विजय पाने के लिए सहिष्णुता का होना आवश्यक है। परीषहों के समय विचलित नहीं होने वाला साधक ही कषायों से निवृत्त हो सकता है। इस तरह कषाय एवं आहार को घटाते हुए साधक अपनी साधना में संलग्न रहे। यदि आहार की कमी से मूर्छा आदि आने लगे और स्वाध्याय आदि की साधना भली-भांति नही हो सकती हो तो साधक आहार करले और यदि आहार करने से समाधि भंग होती हो तो वह आहार का सर्वथा त्याग . करके अनशन व्रत (संथारे) को स्वीकार करले। परन्तु ऐसा चिन्तन न करे कि- मैं अभी संलेखना के तप को तोडकर आहार कर लूं और फिर बाद में तप करुंगा, इत्यादि... इसी विषय को और स्पष्ट करते हुए सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहते हैं... सूत्र // 4 // // 243 // 1-8-8-4 जीवियं नाभिकंखिज्जा मरणं नो वि पत्थए / दुहओवि न सज्जिज्जा जीविए मरणे तहा // 243 // // संस्कृत-छाया : जीवितं न अभिकाङ्क्षत, मरणं अपि न प्रार्थयेत् / उभयतोऽपि न सङ्गं विदध्यात् जीविते मरणे तथा // 243 // III सूत्रार्थ : संलेखना एवं अनशन में स्थित साधु न जीने की अभिलाषा रखे और न मरने की प्रार्थना करे। वह जीवन तथा मरण दोनों में अनासक्त रहे। IV टीका-अनुवाद : संलेखना की विधि-मर्यादा में रहा हुआ साधु सभी प्रकार से असंयमवाले जीवन की। इच्छा न करे... तथा क्षुधा (भुख) की पीडा सहन न होने पर मरण की इच्छा भी न करे... अर्थात् जीवन या मरण की इच्छा न करे किंतु समता से संलेखना काल व्यतीत करे... Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका // 1-8-8-5 (244) // 185 V - सूत्रसार : यह हम देख चुके हैं कि- आसक्ति हि कर्म के बन्ध का कारण है। अत: संलेखना एवं संथारे में स्थित साधु श्रद्धालुओं के द्वारा अपनी प्रसंशा होती हुई देखकर यह अभिलाषा न करे कि- मैं अधिक दिन तक जीवित रहूं, जिससे कि- मेरी प्रसंशा अधिक हो। तथा कष्टों से घबरा कर मरने की भी अभिलाषा न करे। वह साधु जन्म-मरण की अभिलाषा से ऊपर उठकर समभाव पूर्वक संलेखना एवं अनशन की साधना में संलग्न रहे। ऐसे साधक को संलेखना-काल में क्या करना चाहिए ? इसका उल्लेख करते हुए सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहते हैं... सूत्र. // 5 // // 244 // 1-8-8-5 मज्झत्थो निज्जरापेही समाहिमणुपालए / अंतो बहिं विउस्सिज्ज अज्झत्थं सुद्धमेसए // 244 // // संस्कृत-छाया : मध्यस्थ: निर्जरापेक्षी समाधि अनुपालयेत् / अन्त: बहिः व्युत्सृज्य अध्यात्म शुद्धं अन्वेषयत् // 244 // III सूत्रार्थ : मध्यस्थ भाव में स्थित एवं निर्जरा का इच्छुक मुनि सदा समाधि का परिपालन करे और अन्तरंग कषायों एवं बाह्य शरीरादि उपकरणों को त्याग कर मन की शुद्धि करे। IV टीका-अनुवाद : राग एवं द्वेष न करे वह मध्यस्थ, अथवा जीवन एवं मरण की इच्छा न करे वह मध्यस्थ.. ऐसा मध्यस्थ मुनी कर्मो की निर्जर हि चाहता है... और जीवन तथा मरण की अभिलाषा नहि रखता, किंतु काल-पर्याय से प्राप्त मरण-काल में समाधि रखता है.. तथा अंदर से कषायों का एवं बाहार से शरीर एवं वस्त्रादि उपकरणों का त्याग करके मात्र आत्मभाव में रहा हुआ वह मुनी सभी राग-द्वेषादि द्वंद्वों का त्याग करके तथा विस्रोतसिका याने विकारभावों का भी त्याग करके अध्यात्म याने शुद्ध अंत:करण की हि अभिलाषा रखे... सूत्रसार : साधना के पथ पर गतिशील आत्मा जीवन-मरण की आकांक्षा का त्याग करके Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1861 -8-8- 6 (245) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन संलेखना का स्वीकार करता है। अत: उसके लिए यह आवश्यक है कि- पहले वह कषायों का त्याग करे और उसके पश्चात् उपकरण एवं शरीर का भी परित्याग कर दे। कषाय का त्याग करने पर ही आत्मा में समाधि भाव की ज्योति जग सकती है और साधक त्याग के पथ पर आगे हि आगे बढकर सभी कर्मों एवं कर्म के कारणों से निवृत्त हो सकता है। इसलिए साधक को सदा अपने अन्तःकरण को शुद्ध बनाने का प्रयत्न करना चाहिए। शुद्ध हृदय वाला व्यक्ति ही संयम की सम्यक् साधना करके कर्म से मुक्त हो सकता है। इस विषय को और स्पष्ट करते हुए सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहते हैं... सूत्र // 6 // // 245 // 1-8-8-6 जं किंचुवक्कम जाणे आऊखेमस्समप्पणो / तस्सेव अंतरद्धाए खिप्पं सिक्खिज पंडिए // 245 // // संस्कृत-छाया : यं कञ्चन उपक्रमं जानीत, आयुःक्षेमं आत्मनः / तस्यैव अन्तरकाले क्षिप्रं शिक्षेत पण्डितः // 245 // II सूत्रार्थ : यदि मुनि अपनी आयु को क्षेम-समाधि पूर्वक बिताने का उपाय जानता हो तो वह उस उपाय को संलेखना के मध्य में ही ग्रहण करले। अर्थात् अकस्मात् रोग का आक्रमण हो जाए तो वह शीघ्र ही भक्तपरिज्ञा आदि तीनमेंसे कोइ भी एक मरण का स्वीकार करके पंडित मरण को प्राप्त करे। IV टीका-अनुवाद : ___पंडित याने बुद्धिमान साधु अपने आयुष्य = जीवन का सम्यक् परिपालन के लिये जो कोइ भी अच्छा उपक्रम याने उपाय जब भी प्राप्त हो तब उस उपाय का तत्काल अभ्यास करके जीवन की विशुद्धी के लिये उपाय का आदर करे... तथा संलेखन-काल में आधी संलेखना होने पर यदि अकस्मात् शरीर में वात-पित्त आदि का क्षोभ याने उपद्रव हो या मरण के हेतुभूत आतंक = तीव्र वेदना हो तब समाधिमरण की अभिलाषा के साथ उस पीडा के उपशम का उपाय, एषणीय विधि के द्वारा अभ्यंगनादि करे, और आगे की शेष संलेखना विधि पूर्ण करे... किंतु यदि अपने आयुष्य का उपक्रम याने मरण - काल निकट दिखे तब उस संलेखना-काल के बीच हि समाधि भाव में स्थिर होकर विद्वान साधु तत्काल भक्तपरिज्ञादि मरण-अनशन का स्वीकार करे... Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1 - 8 - 8 -7 (246) 187 V . सूत्रसार : यदि संलेखना के काल में कोई ऐसा रोग उत्पन्न हो जाए कि- संलेखना का काल पूरा होने के पूर्व ही उस रोग से मृत्यु की संभावना हो तो उस समय साधक संलेखना को छोडकर औषध के द्वारा रोग को उपशान्त करके फिर से संलेखना आरम्भ कर दे। यदि कोई व्याधि तेल आदि की मालिश से शान्त हो जाती हो तो वैसा प्रयत्न करे और यदि वह व्याधि शान्त नहीं होती हो किंतु उग्र रूप धारण कर लेने से ऐसा प्रतीत होता हो कि- अब जल्दी ही प्राणान्त होने वाला है, तो साधक भक्तप्रत्याख्यान आदि अनशन स्वीकार करके समाधिमरण को प्राप्त करे। इससे स्पष्ट होता है कि- साधक को आत्महत्या की अनुमति नहीं है अर्थात् जहां तक शरीर चल रहा है और उसमें साधना करने की शक्ति है, तब तक उसे अनशन करने की आज्ञा नहीं है। रोग के उत्पन्न होने पर उसका उपचार करने की अनुमति दी गई है। अनशन उस समय के लिए बताया गया है कि- जब रोग असाध्य बन गया हो एवं उसके ठीक होने की कोई आशा नहीं रही है या उसका शरीर इतना जर्जरित निर्बल हो गया है कि- अब भलीभांति स्वाध्याय आदि साधना नहीं हो रही है। तब अनशन की विधि का विधान कहा गया है... मृत्यु का समय निकट आने पर साधक को क्या करना चाहिए, इसका उल्लेख करते हुए सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहते हैं... / सूत्र // 7 // // 246 // 1-8-8-7 गामे वा अदुवा रण्णे थंडिलं पडिलेहिया / .. अप्पप्पाणं तु विण्णाय तणाई संथरे मुणी // 246 // II संस्कृत-छाया : ग्रामे वा अथवा अरण्ये स्थण्डिलं प्रत्युपेक्ष्य / अल्पप्राणं तु विज्ञाय तृणानि संस्तरेत् मुनिः // 246 // III सूत्रार्थ : ग्राम या जंगल में स्थित संयमशील मुनि संस्तारक का एवं स्थंडिल भूमी का प्रतिलेखन करे और जीव-जन्तु से रहित निर्दोष भूमि को देखकर वहां तृण बिछाए। IV टीका-अनुवाद : संलेखना के द्वारा शुद्ध शरीरवाला साधु मरणकाल निकट आने पर गांव के उपाश्रय Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1881 -8-8-8 (247) म श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन में संथारे के लिये योग्य भूमी को देखकर, अथवा अरण्य याने वन-उद्यानमें अर्थात् उपाश्रय के बाहार वन-उद्यान-गिरिगुफा आदि में जीव जंतु रहित निर्जीव भूमी की पडिलेहणा करके कालज्ञ साधु गांव-नगरादि से तृणादि की याचना करके लाये हुए तृणादि दर्भ का संथारा करे... V सूत्रसार : पूर्व के उद्देशक में अनशन करने के स्थान का जो वर्णन किया गया है, उसी को इस गाथा में दोहराया गया है। मृत्यु का समय निकट आने पर साधक जिस स्थान में ठहरा हुआ हो उस स्थान में या उससे बाहर जंगल में या अन्य स्थान में जहां उसे समाधि रहती है, वहां याचना करके निर्दोष तृण की शय्या बिछाकर उस पर अनशन व्रत स्वीकार करे। इसके साथ लघुनीति आदि का त्याग करने की भूमि का भी प्रतिलेखन कर ले। इस तरह निर्दोष भूमि पर निर्दोष तृण की शय्या बिछाकर जन्म और मरण की आकांक्षा रहित होकर अनशन व्रत को स्वीकार करे। तृण शय्या बिछाने के बाद मुनि को क्या करना चाहिए। इसका उल्लेख करते हुए सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहते हैं... सूत्र // 8 // // 247 // 1-8-8-8 ___ अणाहारो तुयट्टिज्जा पुठ्ठो तत्थऽहियासए / __णाइवेलं उवचरे माणुस्सेहिं वि पुट्ठवं // 247 // II संस्कृत-छाया : अनाहारः त्वग्-वर्त्तयेत् स्पृष्टः तत्र अध्यासयेत् / नाऽतिवेलं उपचरेत् मानुषैः अपि स्पृष्टवान् // 247 // III सूत्रार्थ : संस्तारक पर बैठा हुआ मुनि तीन व चार प्रकार के आहार का परित्याग करे। एवं यत्ना से संस्तारक शय्या पर शयन करे, और वहां होने वाले कष्टों को समभावपूर्वक सहन करे। अर्थात् मनुष्यों द्वारा स्पर्शित होने वाले अनुकूल या प्रतिकूल परीषहों की उपस्थिति होने पर संयम मर्यादा का उल्लंघन न करे एवं पुत्र एवं परिजन आदि के सम्बन्ध को याद कर आर्तध्यान भी न करे। IV टीका-अनुवाद : तृणादि दर्भ का संथारा करके साधु अपनी शक्ति-सामर्थ्य के अनुसार तिविहार या Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1 - 8 - 8 - 9 (248) 189 चोवीहार अनशन का पच्चक्खाण करके पांच महाव्रतों क पुन: उच्चारण करे तथा सभी जीवों से क्षमापना करे, एवं सुख तथा दुःख में समभाव रखे, और पूर्वोपार्जित पुन्यानुबंधि पुन्य के उदय में समाधि को पाकर संथारे में शयन करे... संथारे में शयन करने के बाद जो भी परीषह या उपसर्ग प्राप्त हो, तब देह के प्रति निर्मम ऐसा वह साधु उन परीषहादि के कष्टों को समभाव से सहन करे... वहां मनुष्यों के द्वारा अनुकूल या प्रतिकुल उपसर्ग होवे तब व्याकुल न होवे किंतु साधु जीवन की मर्यादा में हि रहे... संयम मर्यादा का उल्लंघन न करे... तथा पुत्रपत्नी आदि परिवार के लोगों को याद करके आर्तध्यान भी न करे.. तथा प्रतिकूल परीषह की परिस्थिति में भी वह साधु क्रोधान्ध न होवे इत्यादि... v सूत्रसार : संस्तारंक-तृण शय्या बिछाकर मुनि उस पर बेठकर तिविहार याने तीनों आहार-पानी को छोडकर शेष सबं खाद्य पदार्थों का अथवा चोविहार याने चारों आहार-पानी सहित सभी खाद्य पदार्थों का त्याग करे। यदि उसे तृण आदि के स्पर्श से कष्ट होता हो या कोई देव, मनुष्य एवं पशु-पक्षी कष्ट दे तब वह साधु उसे समभाव पूर्वक सहन करे। परन्तु, उस परिषह से घबराकर अपने व्रत का भंग न करे एवं अपने साधना मार्ग का त्याग न करे किंतु अनुकूल एवं प्रतिकूल सभी परीषहों को समभाव पूर्वक सहन करे। कठिनता के समय पर भी अपने मार्ग पर स्थिर रहने में ही साधना की सफलता है। इसलिए साधक को पुत्र, माता आदि परिजनों की ओर से ध्यान हटाकर समभाव पूर्वक अपनी साधना में ही संलग्न रहना चाहिए . अनशन को स्वीकार करने वाला साधक परीषहों के उत्पन्न होने पर भी क्रोध न करे किंतु समभाव पूर्वक उन्हें सहन करे, इसका उपदेश देते हुए सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहते हैं... I सूत्र // 9 // // 248 // 1-8-8-9 संसप्पगा य जे पाणा जे य उड्ढमहाचरा / भुंजंति मंससोणियं न छणे न पमज्जए // 248 // II संस्कृत-छाया : संसर्पका: च ये प्राणिनः, ये च ऊर्ध्वं अधश्चराः / भुञ्जन्ते मांस-शोणितं न हन्यात् न प्रमार्जयेत् // 248 // . III सूत्रार्थ : अनशन व्रत को स्वीकार करने वाले मुनि के शरीर में स्थित मांस एवं रक्त को यदि Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1901 - 8 - 8 - 10 (249) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन कोई भी चींटी मच्छर आदि जन्तु, या गृध आदि पक्षी एवं सिंह आदि हिंसक पशु खाए या पीए तो भी मुनि न तो उन्हें हाथ से मारे और न रजोहरण से दूर करे। IV टीका-अनुवाद : संसरणशील याने कीडी, मंकोडे आदि तथा सिंह, वाघ शियाल आदि प्राणी... आकाश में उड़नेवाले गीध, पोपट आदि पक्षी... भूमी में बील निवासी सर्प आदि प्राणी... उनमें से सिंह-वाघ आदि मांस का भक्षण करते है, तथा मच्छर आदि जंतु लोही (शोणित) पीते है.... एसे प्राणी जब साधु के पास आकर उपद्रव करे तब चिलातीपुत्र, अवंतिसुकुमाल एवं सुकोशल आदि मुनीओं की तरह साधु उन प्राणीओं को मारे नहिं तथा जब वे जीव-जंतु लोही या मांस खाने लगे तब साधु रजोहरण आदि से शरीर का प्रमार्जन भी न करें... v सूत्रसार : यह हम देख चुके हैं कि- समभाव पूर्वक परीषहों को सहन करने वाला मुनि ही कर्मों से मुक्त हो सकता है। प्रस्तुत सूत्र में भी यही बताया गया हे कि- अनशन व्रत को स्वीकार करने वाले मुनि को उत्पन्न होने वाले सभी परीषहों को समभाव पूर्वक सहन करना चाहिए। यदि कोई चींटी, मच्छर आदि जन्तु, सर्प-नेवला आदि हिंसक. प्राणी, गृध आदि पक्षी और सिंह, शृंगाल आदि हिंसक पशु अनशन व्रत को स्वीकार किए हुए मुनि के शरीर पर डंक मारते हैं या उसके शरीर में स्थित मांस एवं खून को खाते पीते हैं, तब उस समय मुनि उस वेदना को समभाव पूर्वक सहन करे। किन्तु, अपने हाथ से न किसी को मारे, न परिताप दे और न किसी जंतु को रजोहरण से हटाए। इस सूत्र में साधक की साधना की पराकाष्ठा बताई गई हैं। साधक साधना करते हुए ऐसी स्थिति में पहुंच जाता है कि- उसका अपने शरीर पर कोई ममत्व नहीं होता है। ऐसी उत्कट साधना को साधकर ही साधक कर्म बन्धन से मुक्त होता है। अतः उसे सदा परीषहों को सहने का प्रयत्न करना चाहिए। इस विषय में कुछ और बातें बताते हुए सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहते हैं... I सूत्र // 10 // // 249 // 1-8-8-10 - पाणा देहं विहिंसन्ति ठाणाओ न विउब्भमे / आसवेहिं विवित्तेहिं तिप्पमाणोऽहिसासए // 249 // // संस्कृत-छाया : प्राणिनः देहं विहिंसन्ति स्थानात् न उद्ध्मेत् / आश्रवै: विविक्तैः तृप्यमानः अध्यासयेत् // 249 // Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1 - 8 - 8 - 10 (249) 191 III सूत्रार्थ : * हिंसक प्राणियों द्वारा शरीर का विनाश होने की परिस्थिति में भी मुनि उनके भय से उठकर अन्य स्थान पर न जाए। आस्रवों से रहित होने के कारण जो मुनि शुभ अध्यवसाय वाला है, वह उस हिंसा जन्य वेदना को अमृत के समान समझकर सहन करे। IV टीका-अनुवाद : साधु सोचे कि- यह सिंह, वाघ, मच्छर आदि प्राणी-जंतु मात्र मेरे देह (शरीर) का विनाश हि करतें हैं, किंतु मैं (आत्मा) तो ज्ञान, दर्शन, चारित्र स्वरूप हुं अत: मेरा तो कुछ भी नुकशान नहि होता है... इत्यादि सोचकर साधु उन सिंह आदि प्राणीओंका निवारण न करे, परंतु देह की ममता त्याग कर आत्म-भाव में हि रहे, उस स्थान से भाग-दौड भी न करे परंतु वहां हि आत्म-भाव में लीन होकर स्थिर खडा रहे... तथा वह साधु प्राणातिपातादि, एवं विषय-कषायादि आश्रवों का सर्वथा त्याग करके शुभ अध्यवसाय में रहकर आत्मगुण स्वरूप अमृत से तृप्त होता हुआ, उन सिंह आदि प्राणीओं को उपकारक मानता हुआ, हो रही वेदना-पीडाको सहन करे... v सूत्रसार : पूर्व की गाथा में हिंसक जन्तुओं द्वारा दिए गए परीषहों को सहन करने का उपदेश दिया गया है। इस गाथा में बताया गया हे कि- किसी भी हिंसक जन्तु को सामने आते देखकर अनशन व्रत की साधना में संलग्न मुनि उस स्थान से उठकर अन्यत्र न जाए। किंतु उनके द्वारा उत्पन्न होने वाली वेदना को अमृत के समान समझे। इससे यह स्पष्ट किया गया है कि• 'अनशन व्रत को स्वीकार करने वाला साधक आत्म चिन्तन में इतना संलग्न हो जाए कि उसे अपने शरीर का ध्यान भी न रहे। शरीर पर होने वाले प्रहारों की वेदना मनुष्य को तब तक परेशान करती है जब तक साधक का मन शरीर पर स्थित है। जब साधक आत्म चिन्तन में गहरी डुबकी लगा लेता है, तब उसे शारीरिक पीडाओं की कोई अनुभूति नहीं होती और वह साधु हि समभाव पूर्वक उस वेदना को सह लेता है। वह उसे कटु नहीं, अपितु अमृत तुल्य मानता है। जैसे अमृत जीवन में अभिवृद्धि करता है, उसी तरह वेदना को समभाव पूर्वक सहन करने से आत्मा के ऊपर से कर्म मल दूर होने से आत्म ज्योति का विकास होता है, आत्मा के गुणों में अभिवृद्धि होती है और आत्मा समस्त कर्म बन्धनों से मुक्त होकर सदा के लिए अजर-अमर हो जाती है। अत: साधक को पूर्णतः निर्भीक बन कर आत्मसाधना में संलग्न रहना चाहिए। इस बात को और स्पष्ट करते हुए सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहते हैं... Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 192 // 1-8-8-11 (250) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन I सूत्र // 11 // // 250 // 1-8-8-11 गंथेहिं विवित्तेहिं आउकालस्स पारए / पग्गहियतरगं चेयं दवियस्स वियाणओ // 250 // II संस्कृत-छाया : . ग्रन्थैः विविक्तैः आयुः कालस्य पारगः / प्रगृहीततरकं चेदं द्रविकस्य विजानतः // 250 // III सूत्रार्थ : बाह्य और आभ्यन्तर ग्रन्थ याने परिग्रह का त्याग करने से मुनि आयुपर्यन्त समाधि धारण कर शकता है, एवं आचाराङ्गादि विविध शास्त्रों के द्वारा आत्म-चिन्तन में संलग्न रहता हुआ समय का ज्ञाता बने अर्थात् जीवन पर्यंत समाधि रखे। प्रस्तुत गाथा के अन्तिम दो पादों में सूत्रकार ने इंगित मरण का वर्णन किया है। यह इंगित मरण भक्तपरिज्ञा से विशिष्टतर है अत: उसकी प्राप्ति संयमशील गीतार्थ मुनि को ही हो सकती है अन्य को नहीं। IV टीका-अनुवाद : शरीर आदि बाह्य एवं राग-द्वेषादि अंतरंग ग्रंथ याने परिग्रह से मुक्त तथा अंगप्रविष्ट द्वादशांगी और अनंगप्रविष्ट याने उपांगादि सूत्र एवं प्रकरणादि ग्रंथों से अंतरात्मा को भावित करनेवाले साधु धर्मध्यान एवं शुक्लध्यान में रहकर मृत्युकाल का पारगामी होते हैं... अर्थात् अंतिम उच्छ्वास-नि:श्वास पर्यंत शुभ-भाव समाधि में रहकर देवलोक या मोक्ष पद को पाते हैं... इस प्रकार भक्तपरिज्ञा मरण की बात हुइ... ___ अब इंगितमरण की बात कहतें है... भक्तप्रत्याख्यान की अपेक्षा से चारों प्रकार के आहारादि का त्याग करके विशिष्ट धृति एवं संघयण बलवाले साधु इंगित प्रदेश में संथारा प्रमाण भूमी में आवागमन की मर्यादा करके इंगितमरण नामक अनशन करते हैं... यह इंगितमरण के लिये वह साधु योग्य है कि- जिन्हों ने कम से कम नव पूर्व का अध्ययन करके गीतार्थता पायी है अर्थात् सूत्र-अर्थ तदुभय में परिपूर्ण हैं... इस इंगित मरण-अनशन स्वीकारने के पूर्व संलेखना एवं तृण संस्तारकादि जो पूर्व भक्तपरिज्ञा के अधिकार में कहा है वह सब कुछ यहां भी जानीयेगा... सूत्रसार : प्रस्तुत गाथा में भक्तप्रत्याख्यान और इंगितमरण अनशन स्वीकार करने वाले मुनि Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका // 1-8 - 8 - 12 (251) म 193 की योग्यता का उल्लेख किया गया है। उक्त अनशनों को स्वीकार करेन वाला मुनि बाह्य एवं अभ्यन्तर ग्रन्थि से मुक्त एवं आचारांग आदि आगमों का ज्ञाता होना चाहिए। क्योंकि आगम ज्ञान से संपन्न एवं परिग्रह तथा कषायों से निवृत्त मुनि ही निर्भयता के साथ आत्मचिन्तन में संलग्न रह सकता है एवं परीषहों को समभाव पूर्वक सहन कर सकता है। इंगित मरण अनशन के लिए कहा गया है कि- गीतार्थ मुनि ही इंगितमरण अनशन का स्वीकार कर सकता है। इस अनशन में मर्यादित भूमि से बाहर हलन-चलन एवं हाथपैर आदि का संकोच एवं प्रसारण नहीं किया जा सकता है। अतः इस अनशन को श्रुतज्ञान सम्पन्न एवं दृढ संहनन वाला मुनि ही ग्रहण कर सकता है। इसी बात को बताने के लिए सूत्रकार ने 'दवियस्स वियाणओ' इन दो पदों का उल्लेख किया है। इनका अर्थ वृत्तिकार ने इस प्रकार किया है कि- “इंगितमरण अनशन व्रतको स्वीकार करने वाला मुनि कम से कम नव (9) पूर्व का ज्ञाता हो।” इससे यह भी स्पष्ट हो जाता है कि- इतना ज्ञान प्राप्त करने वाले मुनि का संहनन बल कितना दृढ होगा? अर्थात् वे दृढ संहननवाले होते हैं... इस विषय को और स्पष्ट करते हुए सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहते हैं... I सूत्र // 12 // // 251 // 1-8-8-12 अयं से अवरे धम्मे नायपुत्तेण साहिए / आयवज्जं पडीयारं विजहिज्जा तिहा तिहा // 251 // ___ II संस्कृत-छाया : अयं सः अपरः धर्मः ज्ञातपुत्रेण कथितः / आत्मवर्ज प्रतिचारं विजह्यात् त्रिधा त्रिधा // 251 // III सूत्रार्थ : इस भक्तप्रत्याख्यान से भिन्न इंगितमरण रूप धर्म का प्रतिपादन भगवान महावीर ने किया है। इसे स्वीकार करने वाला मुनि आत्म-चिन्तन के अतिरिक्त अन्य क्रियाओं का तीन करण और तीन योग से परित्याग करे। IV टीका-अनुवाद : भक्तपरिज्ञा से इंगित मरण में यह विशेष विधि है कि- जो वर्धमान स्वामीजी ने बारह पर्षदा को देशना में कही है... जैसे कि- प्रथम प्रव्रज्यादि विधि... तथा पूर्वोक्त विधि से संलेखना... तथा उपकरणादि का त्याग करके निर्जीव स्थंडिल भूमी में जाकर आलोचना एवं Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 194 // 1-8-8-13 (252) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन प्रतिक्रमण करके पुनः पांच महाव्रतों का उच्चारण करे और चारों प्रकार के आहारादि का पच्चक्खाण करके संथारे में रहे... यहां यह विशेष है कि- साधु अपने आत्मा के हेतु को छोडकर अन्य कोइ भी हेतु से अंग याने हाथ-पैर आदि के संचालन का त्रिविध-त्रिविध से त्याग करें... अर्थात् मनवचन एवं काया से तथा करण-करावण एवं अनुमोदन के भेद से त्रिविध-त्रिविध से अंगसंचालन का त्याग करें... अर्थात् अपने आत्मा के व्यापार के सिवा अन्य कायादि के हेतु से संभवित सभी व्यापार का त्याग करें... अर्थात् वह साधु खुद अपने आत्मा के लिये शरीर का उद्वर्तन एवं परिवर्तनादि करें तथा सर्व प्रकार से प्राणि-संरक्षण अर्थात् प्राणातिपातादि का विरमण भी करें... यह बात आगे की गाथा से सूत्रकार महर्षि कहेंगे... V सूत्रसार : यह हम देख चुके हैं कि- इंगितमरण भक्तप्रत्याख्यान से भिन्न है और इसकी साधना भी विशिष्ट है। भगवान महावीर ने इसके लिए बताया है कि- शारीरिक क्रियाओं के अतिरिक्त नियमित भूमि में कोई भी कार्य न करे और मर्यादित भूमि के बाहर शारीरिक क्रियाएं भी न करे। आत्मा के प्रत्येक प्रदेश पर कर्मो की अनन्त वर्गणाएं स्थित हैं, उन्हें आत्म प्रदेशों से सर्वथा अलग करना साधक के लिए अनिवार्य है और उन्हें अलग करने का साधन हैज्ञान और संयम। जैसे जल एवं साबुन से वस्त्र का मैल दूर करने पर वह स्वच्छ हो जाता है। इसी तरह ज्ञान और संयम की साधना से आत्मा पर से कर्म हट जाता है और आत्मा अपने शुद्ध रूप को प्राप्त कर लेती है। अतः साधक को सदा ज्ञान एवं संयम की साधना में ही संलग्न रहना चाहिए। इन गुणों की प्राप्ति का मूल संयम की साधना हि है। अत: उसका उल्लेख करते हुए सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहते हैं... I सूत्र // 13 // // 252 // 1-8-8-13 . हरिएसु न निवज्जिज्जा, थंडिले मुणियासए / विओसिज्जा अणाहारो पुट्ठो तत्थ अहियासए // 252 // II संस्कृत-छाया : हरितेषु न शयीत, स्थंडिलं मत्वा शयीत / व्युत्सृज्य अनाहारः, स्पृष्टः तत्र अध्यासयेत् // 252 // Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1 - 8 - 8 - 14 (253) ; 195 III सूत्रार्थ : __ अनशन करने वाला मुनि हरित तृणादि वनस्पति पर शयन न करे। किंतु शुद्ध निर्दोष भूमि देखकर उस पर शयन करे, तथा बाह्याभ्यन्तर उपधि को छोड़कर, आहार से रहित होता हुआ विचरे और यदि वहां पर कोई परीषह उत्पन्न हो तो उसे समभाव पूर्वक सहन करे। IV. टीका-अनुवाद : हरित याने दुर्वा अंकुर आदि वनस्पति के उपर साधु न बैठे, न शयन करे, किंतु निर्जीव (स्थंडिल) भूमी के उपर हि बैठे या शयन करे... तथा बाह्य उपधि वस्त्र-पात्र आदि तथा अभ्यंतर उपधि मिथ्यात्व एवं कषायादि का त्याग कर के, अनशन का स्वीकार करनेवाला साधुः संथारे की परिस्थिति में संभवित परीषह एवं उपसर्गो को शमभाव से सहन करे... V सूत्रसार : अनशन व्रत को स्वीकार करने वाला मुनि किसी भी प्राणी को पीड़ा न दे। सभी प्राणियों की रक्षा करना मुनि का धर्म है। क्योंकि- वह छ: काय का रक्षक कहलाता है। इसलिए मुनि को अपनी तृण शय्या ऐसे स्थान पर बिछानी चाहिए जहां हरियाली बीज, अंकुर आदि न हो। इसी तरह सचित्त मिट्टी एवं जल आदि तथा छोटे-मोटे जंतुओ की भी विराधना न हो / मुनि को चाहिए कि- वह आहार आदि का त्याग करके सर्वथा निर्दोष भूमि पर तृण शय्या बिछाकर अनशन करे एवं उस समय उत्पन्न होने वाले परीषहों को समभाव पूर्वक सहन करता हुआ आत्म चिन्तन में संलग्न रहे। .. इस विषय पर और प्रकाश डालते हुए सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहते हैं... सूत्र // 14 // // 253 // 1-8-8-14 इंदिएहिं गिलायंतो, समियं आहारे मुणी / तहावि से अगरिहे, अचले जे समाहिए // 253 // संस्कृत-छाया : इन्द्रियैग्ायमानः शमितमाहारयेत् मुनिः / तथाप्यसौ अगर्दाः, अचलो यः समाहितः॥ 253 // III सूत्रार्थ : आहार न करने के कारण इन्द्रियों द्वारा ग्लानि को प्राप्त हुआ मुनि अपनी प्रतिज्ञा Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 196 1 -8- 8 - 15 (254) म श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन पर अटल है, यदि वह नियमित भूमि में अङ्गोपांग का प्रसारण करता है तब भी वह निन्दाका पात्र नहीं बनता है। IV टीका-अनुवाद : अनशन को आदरनेवाला मुनि आहार के अभाव में इंद्रियों की क्षीणता होने पर भी आत्मभाव में रहकर सौम्यता का आलंबन लें... अर्थात् मुनि आर्तध्यान न करें... किंतु समाधिभाव में रहें... वह इस प्रकार-यदि शरीर की संकुचित स्थिति से उद्वेग होवे तो हाथपैर आदि को लंबा करें... यदि इस स्थिति में भी असमाधि हो तब संथारे में बैठ जाये... अथवा इंगित प्रदेश में धीरे धीरे आवागमन करें... इंगितमरण अनशन की विधि का पूर्णतया पालन करे... वह इस प्रकार-अचल परिणामवाला मुनि इंगित प्रदेश में अपने आप शरीर से हलन-चलन अर्थात् स्वीकृत इंगितमरण की विधि में सावधान... अचल... तथा समाहित याने धर्मध्यान एवं शुक्लध्यान में अपना मन लगाया होने से स्थिर मनवाला वह साधु भाव से अचल होने के साथ इंगित प्रदेश में आवागमन भी करें... V सूत्रसार : इंगित मरण स्वीकार करने वाले मुनि के लिए बताया गया है कि- यदि शरीर में ग्लानि उत्पन्न हो तो उसे उस वेदना को समभाव पूर्वक सहन करना चाहिए और अपने चिन्तन को आत्मा की ओर लगाना चाहिए। यदि वह मुनि अपने मर्यादित प्रदेश में हाथ-पैर आदि को संकोच या प्रसार करता है तो भी वह अपने व्रत से नहीं गिरता है। क्योंकि- उसने मात्र मर्यादित स्थान से बाहर जाकर अंग संचालन करने का त्याग किया है। अतः मर्यादित भूभाग में अंगों का संचालन करना अनुचित नहीं है। इस तरह वह अपनी मर्यादा को ध्यान में रखते हुए समभाव पूर्वक साधना में संलग्न रहे... इसी विषय को और स्पष्ट करते हुए सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहतें हैं... सूत्र // 15 // // 254 // 1-8-8-15, अभिक्कमे पडिक्कमे, संकुचए पसारए / काय साहारणट्ठाए, इत्थं वावि अचेयणो // 254 // II संस्कृत-छाया : अभिक्रामेत् प्रतिक्रामेत् संकोचयेत् प्रसारयेत् / कायसाधारणार्थं अत्रापि अचेतनः // 254 // Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1 - 8 - 8 - 15 (254) 197 IIF सूत्रार्थ : उक्त अनशन को स्वीकार करने वाला मुनि शरीर की समाधि के लिए मर्यादित भूमि में अङ्गोपांग का संकुचन-प्रसारण करे। यदि उसके शरीर में शक्ति हो तो वह इंगितमरण अनशन में अचेतन पदार्थ की तरह क्रिया एवं चेष्टा रहित होकर स्थिर रहे। IV टीका-अनुवाद : , इंगितमरण अनशन के आदर करनेवाला मुनि अपने संथार में से उठकर प्रापक आचार्य के पास जावे... तथा गुरुवंदन एवं हितशिक्षा प्राप्त करके वह मुनी पुनः अपने संथारे में आवे... अर्थात् नियत प्रदेश में आवागमन करें... तथा अपने संथारे में बैठा हुआ वह मुनी अपनी भुजा आदि अंगोपांग का संकोच एवं प्रसारण करें... और वे इस प्रकार- काय याने प्रकृति से सुंदर शरीर के संधारण के लिये... क्योंकि- शरीर के संधारण से आयुष्य में उपक्रम का परिहार होता है, अर्थात् अपने आयुष्य पर्यंत अनशन विधि की शुद्ध उपासना करके आयुष्य के क्षय होने पर मरण को प्राप्त करते हैं, यद्यपि वे मुनी महासत्त्वशाली होते हैं, अतः शरीर को पीडा-कष्ट होने पर भी उन महामुनीओं के मन में आर्तध्यान नहि होता.... प्रश्न- शरीर की सभी चेष्टाओं का निरोध करनेवाले एवं शुष्क काष्ठ की तरह अचेतन की भांति रहनेवाले उन महामुनिओंको प्रचुरतर पुन्य की प्राप्ति होती है या नहिं ? . उत्तर- यह कोइ एकान्त नियम नहि है... क्योंकि- संशुद्ध अध्यवसाय के कारण से यथाशक्ति आरोपित भार का निर्वाह करनेवाले मुनी को विधि अनुसार काया के संकोच एवं विस्तार करने पर भी कर्मक्षय हि होता है... यहां वा शब्द से यह ज्ञात होता है किपुण्यानुबंधि पुण्य भी हो सकता है... तथा इंगितमरण अनशन की स्थिति में विधि अनुसार सक्रिय होने पर भी वह महामुनी अचेतनवत् अक्रिय हि है... अथवा तो इंगितभरण अनशन में सामर्थ्य होने पर वह महामुनी अचेतन ऐसे शुष्क-काष्ठ की तरह पादपोपगमन की भांति रहे... सूत्रसार : प्रस्तुत गाथा में भी पूर्व गाथा में उल्लिखित बात को हि पुष्ट किया गया है। इप्समें बताया गया है कि- यदि शरीर में ग्लानि का अनुभव होता हो तो वह मर्यादित भूमि में घूमफिर सकता है। यदि उसे ग्लानि की अनुभूति न होती हो तो स्थिर होकर शान्तभाव से आत्म चिन्तन में संलग्न रहना चाहिए। जहां तक हो सके हलन-चलन कम करते हुए या निश्चेष्ट रहते हुए साधना में संलग्न रहना चाहिए एवं उत्पन्न होने वाले सभी परीषहों को समभाव पूर्वक सहन करना चाहिए / Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 198 // 1-8 - 8 - 16 (255) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन यदि आत्मबल अधिक न हो तो इंगितमरण स्वीकार करने वाले गीतार्थ मुनि को क्या करना चाहिए, इसका उल्लेख करते हुए सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहते हैं... I सूत्र // 16 // // 255 // 1-8-8-16 परिक्कमे परिकिलन्ते, अदुवा चिट्टे अहायए। ठाणेण परिकिलन्ते, निसीइज्जा य अंतसो // 255 // II संस्कृत-छाया : परिक्रामेत् परिक्लान्तः, अथवा तिष्ठेत् यथायतः। स्थानेन परिक्लान्तो निषीदेत् च अन्तशः // 255 // III सूत्रार्थ : यदि अनशन स्वीकार करने वाले मुनि के शरीर को कष्ट होता हो तो वह नियत भूमि पर घूमे। यदि उसे घूमने से थकावट होती हो तो बैठ जाये और बैठने से भी कष्ट होता हो / तो लेट जाए। इसी प्रकार पर्यंकासन, अर्ध पर्यंकासन बैठना चलना शयन करना इत्यादि... जिस तरह से उसे समाधि रहे वैसा करे। IV टीका-अनुवाद : इंगितमरण की विधि वाला वह साधु जब भी बैठे हो या खडे हो, तब उस स्थिति में यदि देह में पीडा होती हो तब वह साधु नियमित प्रदेश में सरल गति से आवागमन करे... और जब आवागमन करने पर थक जाए तब देह में समाधि रहे उस प्रकार बैठे या खडा रहे... तथा जब बैठने की स्थिति में भी थकान लगे तब वह साधु पर्यंकासन से बैठे या अर्ध पर्यंकासन से बैठे या उत्कटुकासन से बैठे... और जब बैठने का न बने तब साधु संथारे में शयन करे... और वह शयन भी या तो सीधा उत्तानक प्रकार से या बाये पडखे शयन करे या डंड की तरह लंबा होकर शयन करे या लंगडे की भांति पैर को मोडकर शयन करे, अर्थात् जिस प्रकार देह में समाधि रहे उस प्रकार बैठने में, खडे रहने में, शयन करने में यथाविधि बदलाव करता रहे... V सूत्रसार : प्रस्तुत गाथा में बताया गया है कि- यदि इंगितमरण अनशन को स्वीकार किए हुए साधक को थकावट प्रतीत होती हो, तो वह मर्यादित भूमि में घूम-कर फिर सकता है। यदि घूमने से उसे थकावट मालूम हो, तो वह पर्यंक आसन या अर्ध पर्यंक आसन कर ले या Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1 - 8 - 8 - 17 (256) 199 बैठ जाए। कहने का तात्पर्य इतना ही है कि- जिस तरह से उसे समाधि रहती हो उस तरह उठने-बैठने की व्यवस्था कर सकता है। परन्तु; वह अपनी मर्यादा का उल्लंघन न करे। अर्थात् मर्यादित भूमि में वह खडा रहे या बैठा रहे या पर्यंक आसन करे या सीधा लेट जाए या एक ओर से लेट जाए। जिस किसी आसन से उसे समाधि रहती हो, आत्म-चिन्तन में मन लगता हो; उसी आसन को स्वीकार करके आत्म साधना में संलग्न रहे। इस विषय को और स्पष्ट करते हुए सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहते हैं... सूत्र // 17 // // 256 // 1-8-8-17 आसीणोऽणेलिसं मरणं, इन्दियाणि समीरए। कोलावासं समासज्ज वितहं पाउरेसए // 256 // II संस्कृत-छाया : आसीन: अनीदृशं मरणं, इन्द्रियाणि समीरयेत् / कोलावासं समासाद्य, वितथं प्रादुरेषयेत् // 256 // III सूत्रार्थ : - सामान्य साधक के लिए जिसका आचरण करना कठिन है ऐसे इंगित मरण में अवस्थित मुनि इन्द्रियों को विषय विकारों से हटाने का प्रयत्न करे। यदि उसे सहारा लेने के लिए लकडी-डंड की आवश्यकता का अनुभव हो तो वह जीव जन्तु से युक्त डंड के मिलने पर उसे ग्रहण न करे, किंतु जीवादि से रहित डंड-लकडी की गवेषणा करे। IV. टीका-अनुवाद : अन्य सामान्य साधु इंगितमरण के लिये असमर्थ होते हैं... ऐसा यह अतुल मरण काल जब समीप में आता है तब इंगितमरण में प्रयत्नशील साधुजन अपनी इंद्रियों को अपने अपने इष्ट या अनिष्ट विषयो में होनेवाले रागभाव या द्वेषभाव का त्याग करता है, अर्थात् पुद्गल पदार्थों में राग एवं द्वेष नहि करता... तथा चलने के लिये लकडी-डंडा की जरुरत हो, तब बिना छिद्रवाली लकडी-डंडा का टेका-आलंबन लेकर धीरे धीरे आवागमन करते हैं... सूत्रसार : प्रस्तुत गाथा में बताया गया है कि- इंगितमरण अनशन व्रत को स्वीकार किए हुए मुनि को राग-द्वेष एवं विकारों से सर्वथा निवृत्त रहना चाहिए। यदि कभी कषायों के उत्पन्न होने तथा मनोविकारों के जागृत होने की सामग्री उपस्थित हो तो मुनि अपने मन एवं इन्द्रियों Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 200 // 1-8-8-18 (257) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन को उस ओर से हटाकर आत्म-चिन्तन में लगा दे। मुनि को उस समय अपने योगों पर इतना संयम होना चाहिए कि- आत्म-चिन्तन के अतिरिक्त अन्यत्र योगों की प्रवृत्ति ही न हो। इस तरह इंगितमरण अनशन की साधना में स्थित साधक योगों का निरोध करने का प्रयत्न करे। यदि उसके उपयोग में आने वाले तख्त आदि में घुन आदि जीव-जन्तु हो तब यह साधु उस तख्त को काम में न लें, क्योकि- इससे जीवों की हिंसा होती है। अहिंसा के प्रतिपालक मुनि जीवों से संयुक्त तख्त ग्रहण न करे, किंतु जीवों से रहित अन्य तख्त-पाट की गवेषणा करे... इस तरह समस्त जीवों का रक्षण करते हुए साधक को अपने योगों को राग-द्वेष आदि मनोविकारों से रोकते हुए आत्म-चिन्तन में संलग्न रहना चाहिए। ____ अनशन करने वाले मुनि की वृत्ति कैसी रहनी चाहिए, इसका उल्लेख करते हुए सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहते हैं.... I सूत्र // 18 // // 257 // 1-8-8-18 जओ वज्जं समुप्पज्जे, न तत्थ अवलम्बए। तउ उक्कसे अप्पाणं, फासे तत्थऽहियासए // 257 // संस्कृत-छाया : यतः वज्रं (अवयं) समुत्पद्येत, न तत्र अवलंबेत / ततः उत्कर्षेद् आत्मानं, स्पर्शान् तत्र अध्यासयेत् // 257 // III सूत्रार्थ : जिससे वज्रवत् भारी कर्म बंध हो, ऐसे घुणादि से युक्त काष्ठ फलक का अवलम्बन न करे। वह साधु अपनी आत्मा को दुष्टध्यान और दुष्टयोग से दूर रखे... तथा उपस्थित हुए दुःख रूप कठोर स्पर्शों को समभावपूर्वक सहन करे। IV टीका-अनुवाद : इंगितमरण की विधि कहने के बाद अब सूत्रकार महर्षि कहते हैं, कि- जिस अनुष्ठान से या आलंबन से वज्र जैसा कठोर कर्मबंध हो, ऐसा अनुष्ठान या लकडी आदि डंडा का आलंबन न लें... तथा वह साधु उस लकडी-डंडा तख्त-पाट आदि को काययोग से उंचा नीचा न करे या फेंके भी नहि, तथा वचनयोग से कठोर-कुटु सावध वचन न बोले एवं मनोयोग से आर्तध्यानादि न करें... अर्थात् अपनी आत्मा को पापकर्मो से दूर रखें... . इंगितमरण प्राप्त वह साधु, धृति एवं संघयण बलवाला होता है, शरीर की सेवा शुश्रुषां Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1 - 8 - 8 - 18 (257) 201 नहि करता... किंतु वर्धमान शुभ अध्यवसाय कंडकवाला होता है... तथा अपूर्व अपूर्व शुभ परिणाम की श्रेणी में चढता रहता है... तथा सर्वज्ञ परमात्मा ने कहे हुए आगमवचन के अनुसार विश्व के पदार्थों के वास्तविक स्वरूप का निरूपण करने में दृढमतिवाला होता है... तथा वह साधु यह जानता हि है कि- यह शरीर त्याज्य हि है... इस शुभ अध्यवसायवाला वह साधु उस इंगितमरण अनशन काल में अनुकूल या प्रतिकूल जो कोइ उपसर्ग हो या परीषह हो अथवा वात पीत या कफ के कारण से उत्पन्न होनेवाले रोगों के कष्ट हो, तब वह साधु ऐसा सोचे कि- सकल कर्मो के क्षय के लिये तत्पर होनेवाले मुझे इन कष्टकारी परीषह एवं उपसर्गों को समभाव से सहन करने चाहिये... ___ वह मुनि ऐसा सोचे कि- यह शरीर हि मुझे कष्ट देता है, स्वीकृत कीये गये धर्माचरण तो कभी भी कष्ट नहि देते, ऐसा सोचकर मुनि उपस्थित सभी प्रकार के परीषह एवं उपसर्गो को समभाव से सहन करे, अर्थात् आर्तध्यान न करें... v सूत्रसार : प्रस्तुत गाथा में इंगितमरण अनशन का उपसंहार करते हुए बताया गया है किआवश्यकता होने पर मुनि को घूमना पडे तो वह मर्यादित भूमि में घूम फिर सकता है। यदि उसे थकावट मालूम हो तो वह किसी काष्ठ फलक का सहारा लेकर खड़ा होना चाहे तो पहले उसे यह देख लेना चाहिए कि- उसमें घुण आदि जीव-जन्तु तो नहीं है। यदि उसमें जीव-जन्तु आदि हों तो उसका सहारा न ले और जीव जंतु वाले किसी भी तख्त आदि का उपयोग भी न करे। क्योंकि- इससे जीवों की विराधना होती है और फलस्वरूप पाप कर्म का बन्ध होता है और वह पाप कर्म वज्रवत् आत्मा का विनाशक हो शकता / इसलिए जिस क्रिया से पापकर्म का बन्ध हो उस क्रिया से साधक को सदा दूर रहना चाहिए एवं ऐसी किसी भी वस्तु का उपयोग नहीं करना चाहिए कि- जिससे जीवों की हिंसा होती हो। मुनि को सदा आत्म चिन्तन में संलग्न रहना चाहिए। एवं अपनी आत्मा को कभी भी दुर्ध्यान में नहीं लगाना चाहिए। दुष्ट चिन्तन एवं बुरे विचार आत्मा के विनाशक हैं। अत: मुनि को कठिन से कठिन परिस्थिति में भी अपने चिन्तन की धारा को धर्मध्यान में हि लगानी चाहिए। परीषहों के उत्पन्न होने पर भी विचलित नहीं होना चाहिए, किंतु समभाव से सभी परीषहों को सहन करना चाहिए और अपने चिन्तन को सदा आत्म विकास में लगाए रखना चाहिए। इस तरह जीवों की रक्षा स्वरूप शुभ चिन्तन के द्वारा साधक समाधि मरण को प्राप्त करता है और फल स्वरूप स्वर्ग या मुक्ति को प्राप्त करता है। इंगित मरण के बाद पादोपगमन अनशन का वर्णन करते हुए सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहतें हैं... Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 202 // 1-8-8-19 (258) // श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन I सूत्र // 19 // // 258 // 1-8-8-19 अयं चाययतरे सिया, जो एवमणुपालए। सव्वगाय निराहेवि, ठाणाओ न विउन्भमे // 258 // II संस्कृत-छाया : अयं चायततरः स्यात्, यः एवमनुपालयेत् / सर्वगात्र निरोधेऽपि, स्थानाद् न व्यु झमेत् // 258 // III सूत्रार्थ : यह पादोपगमन अनशन भक्तपरिज्ञा और इंगितमरण से विशिष्टतर है अर्थात विशेष यतना वाला है। अतः साधु उक्त विधि से पादपोपगमन अनशन का पालन करे। अर्थात् समस्त शरीर का निरोध होने पर उपस्थित परीषहों की परिस्थिति में कभी भी प्राप्त संयमस्थान को चूके नहि, किंतु उत्तरोत्तर संयम स्थान में आगे हि आगे बढता रहे इत्यादि.. IV टीका-अनुवाद : ___ इंगितमरण का अधिकार समाप्त हुआ... अब पादपोपगमन के विषय में कहते हैं किअब जो हम प्रस्तुत मरणविधि कहेंगे वह पादपोपगमन मरण विधि शास्त्रो में बहोत हि विस्तार से कही जाएगी... अर्थात् भक्तपरिज्ञा एवं इंगितमरण की विधि विस्तृत है हि, किंतु यह पादपोपगमन की विधि तो उनसे भी विस्तृततर है अथवा तो यह पादपोपगमन की विधि भक्त परिज्ञा एवं इंगितमरण से भी अधिक प्रयत्न साध्य है... . यद्यपि यहां इंगित मरण की विधि में प्रव्रज्या तथा संलेखना आदि जो कुछ कहा है, वह सभी बातें यहां पादपोपगमन में भी जानीयेगा.. यह पादपोपगमन मरण आयततर है, क्योंकि- जो साधु पादपोपगमन मरण की विधि का स्वीकार करता है, वह साधु सर्वगात्र क निरोध करता है, अर्थात्- संपूर्ण शरीर अति उष्ण धूप (ताप) में तप रहा हो, मूर्छा आती हो अथवा मरण समुद्घात हो रहा हो तथा शियाल, गीध, चींटीयां आदि जंतु उस साधु के शरीर में से लोही, मांस खा रहे हों, तो भी महासत्त्वशाली वह साधु एक मात्र मोक्षपद की कामना से समाधि में हि रहता है... अर्थात् उस स्थान से चलित नहि होता... द्रव्य से उस स्थान (क्षेत्र) का त्याग न करे, तथा भाव से शुभ अध्यवसाय का त्याग न करें... Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1 - 8 - 8 - 20 (259) 203 V सूत्रसार : पंडित मरण को प्राप्त करने के लिए तीन तरह के अनशन बताए गए हैं... १-भक्त प्रत्याख्यान, २-इंगितमरण और ३-पादोपगमन / पहले दो प्रकार के मरण का उल्लेख कर चुके हैं। अंतिम अनशन का उल्लेख करते हुए बताया गया है कि- यह अनशन पूर्व के दोनों अनशनों से अधिक कठिन है। भक्तप्रत्याख्यान में साधक अपनी इच्छानुसार किसी भी स्थान में आ जा सकता है, परन्तु इङ्गितमरण में साधु मर्यादित स्थान से बाहर शरीर का संचालन नहीं करतें किंतु मर्यादित भूमि में आवागमन करतें हैं, जब कि-पादोपगमन में साधक बिल्कुल स्थिर रहता है। वह जिस स्थान पर जिस आसन से-बैठे हुए या लेटे हुए, अनशन स्वीकार करता है, अन्तिम सांस तक उसी आसन रहता है। इधर-उधर घूमना-फिरना तो दूर रहा, वह शरीर का संचालन भी नहीं करतें... अर्थात् काष्ठवत् सर्वथा निश्वेष्ट रहते हैं... शारीरिक हलन-चलन न करने के कारण या तो ताप आदि से मूर्छा आदि आ जाने पर उस साधु के शरीर को मृत समझ कर कोई पशु-पक्षी खाने आए, तब भी वह साधु वहां वहीं निश्चेष्ट अवस्था में रहकर समभाव पूर्वक उत्पन्न होने वाले परीषहों को सहन करे। इसका तात्पर्य यह है कि- अपने शरीर पर बिल्कुल ध्यान न दे, किंतु आत्म-चिन्तन में संलग्न रहे। यह हि इस अनशन की विशेषता है और इसी कारण यह पूर्वोक्त दोनों अनशनों से श्रेष्ठ माना गया है। इस बात का विशेष समर्थन करते हुए सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहते हैं... I सूत्र // 20 // // 259 // 1-8-8-20 * अयं से उत्तमे धम्मे, पुव्वट्ठाणस्स पग्गहे / अचिरं पडिलेहित्ता, विहरे चिट्ठे माहणो // 259 // // संस्कृत-छाया : अयं सः उत्तमो धर्मः, पूर्वस्थानस्य प्रग्रहः। अचिरं प्रत्युपेक्ष्य, विहरेत् तिष्ठेत् माहनः॥ 259 // III सूत्रार्थ : यह पादोपगमन अनशन उत्तम धर्म है और पूर्व कथित दोनों अनशनों से श्रेष्ठतर है। इस अनशन को स्वीकार करने वाले मुनि निर्जीव स्थंडिल भूमि को देखकर वहां पादपोपगमन अनशन का स्वीकार करे एवं यथाविधि परिपालन करे... Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 204 // 1-8-8-21 (२६०)卐 श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन IV टीका-अनुवाद : यह आप के सामने प्रत्यक्ष में कहा जा रहा पादपोपगमन मरण विधि उत्तम याने श्रेष्ठ मरण विधि है, सभी मरण विधिओं में विशेष हैं, क्योंकि- पूर्वोक्त भक्तपरिज्ञा एवं इंगितमरण से भी यहां विशेष विधि है, अत: मूल सूत्र में प्रग्रह शब्द का प्रयोग कीया गया है..... जैसे कि- इंगितमरण में शरीर के स्पंदन याने संभवित हलन-चलन की संमति है, जब कि- पादपोपगमन में शरीर के स्पंदन का निषेध है, छिन्नमूल वाले वृक्ष की तरह निश्चेष्ट, निष्क्रिय रहना है, तथा अग्नि से कोइ जलावे, शस्त्र से कोइ छेदे या गड्डे आदि विषम स्थान में फेंके तो भी तथैव काष्ठवत् रहना है, चिलातीपुत्र मुनि, खंधक मुनि, मेतारज मुनि, अवंतिसुकुमाल, गजसुकुमाल इत्यादि महामुनीवरों की तरह शरीर का संचार नहि करतें... जैसे कि- पादपोपगमन-अनशन स्वीकार ने वाला साधु प्रथम अचिरकालंकृत निर्जीव स्थंडिल भूमि का निरीक्षण (पडिलेहण) कर के वहां वह साधु पादपोपगमन की विधि की आचरणा करें... अर्थात संपूर्ण शरीर के अंगोपांगों का निरोध (संवर) करें. उस स्थान से अन्य स्थान में गमन न करें... वह साधु बैठे हो या खडे हो, किंतु शरीर के कोइ भी अंगोपांग का संचार या संभाल न करें, अर्थात् अचेतन (मृत) की तरह उदीसीनभाव में रहे... पादपोपगमन अनशन को स्वीकार करने के समय शरीर को जैसा स्थापित किया था वैसा हि रहने दे... साधु स्वयं शरीर का संचालन न करें... V सूत्रसार : पादोपगमन अनशन की विशेषता उसकी कठोर साधना के कारण है। उस अनशन में साधक वृक्ष से टूटकर जमीन पर पडी हुई शाखा की तरह निश्चेष्ट होकर आत्म चिन्तन में संलग्न रहता है। उक्त साधक की मनो वृत्ति का उल्लेख करते हुए सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहते हैं... I सूत्र // 21 // // 260 // 1-8-8-21 अचित्तं तु समासज्ज, ठावए तत्थ अप्पगं / वोसिरे सव्वसो कायं, न मे देहे परीसहा // 260 // II संस्कृत-छाया : अचित्तं तु समासाद्य, स्थापयेत् तत्रात्मानम् / व्युत्सृजेत् सर्वशः कायं, न मे Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका // 1-8-8-21 (260), 205 देहे परीषहाः // 260 // III सूत्रार्थ : अचित्त स्थंडिल भूमि आदि को प्राप्त करके वह अपनी आत्मा को वहां स्थापित करे। वह अपने शरीर का पूर्णत: व्युत्सर्ग करके यह सोचे कि- जब यह शरीर हि मेरा नहीं है तब इस शरीर को कष्ट परीषह आवे तब मुझे इन कष्टों से क्या ? मैं तो चेतनमय आत्मा हुं यह शरीर अचेतन पुद्गल का पिंड है, इत्यादि... भावना से वह उत्पन्न होने वाले परीषहों को सहन करे। IV टीका-अनुवाद : अचित्त याने अचेतन ऐसी स्थंडिल भूमि एवं फलक याने पाट-पाटीया इत्यादि प्राप्त करके अपने आप को स्थापित करें... कोइ साधु मात्र काष्ठ (लकडी) के थंभा का आलंबन (टेका) लेकर खडा रहे... चारों प्रकार के अशनादि आहार का त्याग कर के मेरु पर्वत की तरह निष्प्रकम्प (अचल) वह साधु आलोचनादि प्रायश्चित विधि करके गुरुजी की अनुमति प्राप्त होने पर पादपोपगमन अनशन का स्वीकार करे... ___सर्व प्रकार से देह की ममता का त्याग कीये हुए उस साधु को जो कोइ उपसर्ग एवं परीषह आवे उन्हें समभाव एवं समाधि में रहकर सहन करे अर्थात् परिज्ञान करे... और सोचे कि- यह शरीर अब मेरा नहि है, मैंने तो देह का परित्याग कीया है, अतः इन परीषह एवं उपसर्गों की बूरी असर मुझे नहि होनी चाहिये... अथवा तो यह परीषह एवं उपसर्ग मेरे लिये अहितकर नहि है, किंतु औषधोपचार की तरह मेरे आत्मा को निर्मल करनेवाले सदुपाय हि है... अत: पीडा का उद्वेग साधु को नहि होता... किंतु कर्मशत्रुओं को पराजित करने में परीषह सहायक हि हैं ऐसा वह साधु मानता है... v सूत्रसार : पादोपगमन अनशन को स्वीकार करने वाले साधक को निर्दोष तृण शय्या एवं तख्त आदि अर्थात् जीव-जन्तु आदि से रहित शय्या आदि का, एवं हरियाली, बीज, अंकुर एवं जीव-जन्त से रहित स्थंडिल भमि का उपयोग करना चाहिए। उसे अपने शरीरी की ममता का भी सर्वथा त्याग कर देना चाहिए। उसे सोचना चाहिए कि- मेरी आत्मा इस शरीर से पृथक् है। इसके उपर मेरा कोई अधिकार नहीं है। यह शरीर एक दिन अवश्य ही नष्ट होना है। और यह आत्मा सदा स्थित रहने वाला है। अत: वह शरीर की बिल्कुल चिन्ता न करते Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 206 // 1-8-8-22 (261) // श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन हुए, आत्म चिन्तन में संलग्न रहे और उस समय उत्पन्न होने वाले सभी परीषहों को समभाव से सहन करे। उपस्थित परीषहों को साधु कब तक सहन करे ? इसका उल्लेख करते हुए सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहते हैं... I सूत्र // 22 // // 261 // 1-8-8-22 जावज्जीवं परिसहा, उवसग्गा इति संखया / संवुडे देहभेयाए, इय पन्नेऽहियासए // 261 // II संस्कृत-छाया : यावज्जीवं परीषहाः, उपसर्गाः इति संख्याय / संवृत्तः देहभेदाय, इति प्राज्ञः अध्यासयेत् // 261 // III सूत्रार्थ : पादपोपगमन अनशन के विधान को जानने वाला संवृत्त साधु उपस्थित परीषह एवं उपसर्गों को जीवन पर्यन्त अर्थात् अन्तिम सांस तक समभाव से सहन करे। IV टीका-अनुवाद : अब कहतें हैं कि- यह परीषह एवं उपसर्गों को कब तब सहन करें ? इस प्रश्न के उत्तर में कहते हैं कि- यावज्जीव पर्यंत याने इस देह में जब तक आत्मा है, तब तक इन परीषह एवं उपसर्गों को समभाव से सहन करना है, ऐसा जान-समझ कर वह साधु समाधि में हि रहे... अथवा तो यह परीषह एवं उपसर्ग जीवन पर्यंत रहनेवाले नहि है, अर्थात् थोडे समय में हि अपने आप चले जाएंगे... ऐसा सोचकर समाधि में रहे... अथवा तो अब जीवन थोडा हि रहा है, अतः कभी जीवन पर्यंत भी यह परीषह एवं उपसर्ग रहे तो भी मुझे चिंता नहि है, मैं तो समाधि में हि रहुंगा... मुझे परीषहादि की पीडा नहि लगती... _ इत्यादि सोच-विचार करनेवाला वह साधु पादपोपगमन अनशन के द्वारा देह का त्याग करने के लिये कृतनिश्चय होता है... अर्थात् इस परिस्थिति में जो कोइ परीषह एवं उपसर्गों का कष्ट आवे, तब देव-गुरू के वचनों में दत्तचित्त वह साधु सम्यक् प्रकार से सहन करे... Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका // 1-8-8-23 262) 207 और समभाव-समाधि में रहे... v सूत्रसार : ____ परीषहों का संबन्ध शरीर के साथ है। शरीर के रहते हुए ही अनेक तरह की वेदनाएं उत्पन्न होती हैं, अनेक कष्ट सामने आते हैं। शरीर के नाश होने के बाद तत्सम्बन्धित कष्ट भी समाप्त हो जाते हैं। अत: साधक को जीवन की अंतिम सांस तक उत्पन्न होने वाले परीषहों को समभाव पूर्वक सहन करना चाहिए। इस गाथा में यह भी बताया गया है कि- संवृत्त आत्मा अर्थात् समस्त दोषों से निवृत्त एवं संवर में स्थित आत्मा अथवा ज्ञान संपन्न-सदसद् के विवेक से युक्त साधु ही परीषहों को समभाव से सह सकता है। क्योंकि- जो दोषों को जानता ही नहीं और जो उनसे निवृत्त ही नहीं है, वह साधना के पथ पर चल ही नहीं सकता है। इसलिए सदसद् के विवेक से संपन्न साधक ही सम्यक्तया पादोपगमन अनशन का परिपालन कर सकता है। ___ इतनी उत्कृष्ट साधना में संलग्न साधक को देखकर यदि कोई राजा उसे भोगों का निमन्त्रण दे तो उस समय उसे क्या करना चाहिए, इसका उल्लेख करते हुए सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहते हैं... I सूत्र // 23 // // 262 // 1-8-8-23 भेउरेसु न रज्जिज्जा, कामेसु बहुतरेसु वि / इच्छालोभं न सेविज्जा, धुववन्नं सपेहिया // 262 // II * संस्कृत-छाया : भिदुरेषु न रज्येत, कामेषु बहुतरेष्वपि / इच्छा लोभं न सेवेत, ध्रुववर्णं संप्रेक्ष्य // 262 // III सूत्रार्थ : यदि कोई राजा महाराजा आदि पादपोपगमन अनशन वाले मुनि को भोगोपभोगों के लिए आमंत्रित करे तब विनाशशील उन काम भोगों में राग न करे, अर्थात् उनमें आसक्त न होवे। निश्चल आत्म स्वरूप को जान कर यथावत् संयम परिपालन करने वाला यह साधु इच्छा रूप लोभ का आदर न करे। Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 208 1 -8 - 8 - 23 (262) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन IV टीका-अनुवाद : इस साधु ने पादपोपगमन अनशन स्वीकारा है, ऐसा जानकर यदि कोइ राजा आदि लोग, वस्त्र-अलंकार इत्यादि मनोज्ञ भोग सामग्री के उपभोग के लिये निमंत्रण करे... अनुकूल होकर विनय करे तब वह साधु सोचे कि- यह शब्दादि काम-गुण-भोगोपभोग समग्री विनश्वरशील है, ऐसा सोचकर अनुराग न करे.... अथवा इच्छा-मदन स्वरूप काम भोग के लिये कोइ राजादि लोग राजकुमारी कन्या का प्रदान करे... तो भी वह साधु अशुचिभावना की विभावना से गृद्धि-आसक्ति स्वरूप अनुराग न करे... अथवा इच्छा स्वरूप लोभ... अर्थात् जन्मांतर में चक्रवर्ती राजा या देव-इंद्र इत्यादि .. पद की अभिलाषा स्वरूप निदान (नियाj) वह साधु न करे... अर्थात् चक्रवर्ती की ऋद्धि देखकर वह साधु संभूति मुनि (ब्रह्मदत्त) की तरह चक्रवर्ती पद का निदान (नियाj) न करे... ___ आगमसूत्र में भी कहा है कि- साधु (अणगार) कभी भी इस लोक के चक्रवर्ती आदि की समृद्धि की आशंसा न करे, तथा परलोक में देवलोक की समृद्धि की आशंसा न करे, मैं जीवित हि रहुं ऐसी आशंसा भी न करे तथा मैं जल्दी मर जाउं ऐसी भी आशंसा न करे... और पांचों इंद्रियों के मनोज्ञ कामभोगसुख की वांछा न करे... तथा वर्ण याने संयम अथवा मोक्ष... यह वर्ण अतीन्द्रिय होने से दुर्जेय है, अथवा ध्रुव याने शाश्वत अथवा निर्दोष ऐसा जो वर्ण अर्थात् संयम और शाश्वत मोक्ष को सम्यग् देखकर... अथवा तो ध्रुव याने शाश्वत और वर्ण याने यश:कीर्ति अर्थात् चिरकालीन यश:कीर्ति वाले सिद्ध पद की पर्यालोचना कर के वह साधु काम-इच्छा-लोभ का विक्षेप याने विनाश करे... अर्थात् आत्म समाधि में रहे... V सूत्रसार : साधना का उद्देश्य ही समस्त कर्मों से मुक्त होन्म है, अतः साधक के लिए समस्त भोगों का त्याग करना अनिवार्य है। इसी बात को बताते हुए कहा गया है कि- यदि कोई राजा-महाराजा आदि विशिष्ट भोग सम्पन्न व्यक्ति उक्त साधक को देखकर कहे कि- तुम इतना कष्ट क्यों उठाते हो ? मेरे महलों में चलो में तुम्हें सभी भोग साधन सामग्री दूंगा, तुम्हारे जीवन को सुखमय बना दूंगा। इस तरह के वचनों को सुनकर साधक विषयों की ओर आसक्त न होवे। वह सोचे कि- जब भोगों को भोगने वाला शरीर ही नाशवान है, तब भोग मुझे क्या सुख देंगे ? वस्तुतः ये काम-भोग अनन्त दु:खों को उत्पन्न करने वाले हैं, संसार को बढ़ाने वाले हैं। इस तरह सोचकर वह भोगों की आकांक्षा भी न करे और न यह निदान ही Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1 - 8 - 8 - 24 (263) 209 करे.कि- मैं आगामी भव में राजा-महाराजा जैसे भोग साधनों से संपन्न बनूं। इन सभी सावध आकांक्षाओं से रहित होकर वह अपने आत्म-चिन्तन में संलग्न रहे। वह किसी भी तरह के वैषयिक भोगोपभोग के चिन्तन की ओर ध्यान न दे। भोगों की इच्छा भी नहीं करनी चाहिए; इस बात का उल्लेख करते हुए सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहते हैं... I सूत्र // 24 // // 263 // 1-8-8-24 सासएहिं निमन्तिज्जा, दिव्वमायं न सद्दहे। तं परिबुज्झ माहणो, सव्वं नूमं विहूणिया // 263 // II संस्कृत-छाया : शाश्वतैः निमंत्रयेत् दिव्यमायां न श्रद्दधीत। तां प्रतिबुध्यस्व माहनः, सर्वं नूमं (कर्म मायां वा) विधूय // 263 // III सूत्रार्थ : यदि कोई व्यक्ति आयु पर्यन्त रहने वाले अथवा प्रतिदिन दान करने से क्षय न होने वाले वैभव का भी निमंत्रण करे तब वह साधु उसे ग्रहण करने की इच्छा न करे। इसी तरह देव सम्बन्धी माया की समृद्धि एवं भोग की इच्छा नहीं करनी चाहिए। अतः हे शिष्य ! तू संसार की माया के स्वरूप को समझ और इन्हें सर्व प्रकार से कर्मबन्ध का कारण जान कर इस देवमाया से भी दूर रह अर्थात् इसमें रागभाव मत रख। IV. . टीका-अनुवाद : पादपोपगमन अनशन स्वीकारे हुए साधु को कोइक राजादि लोक विपुल धन-धान्य समृद्धि के द्वारा निमंत्रण करे कि- मैं आप को जीवन पर्यंत दानादि धर्म एवं सुखभोग के लिये अनर्गल संपत्ति देता हुं... इत्यादि... यह बात सुनकर साधु उन्हें कहे कि- हे भाग्यशाली ! शरीर सुख के लिये धन-समृद्धि चाहिए, किंतु यह शरीर हि अशाश्वत है, विनश्वर है, अतः आपका यह निमंत्रण निष्फल है... तथा यह साधु दिव्य मायाजाल में भी श्रद्धा न करे... अभिलाषा न करे... वह इस प्रकार- कोइक देव साधु के मनोभाव की परीक्षा के लिये, अथवा द्वेषभाव से, अथवा भक्तिसेवाभाव से अथवा कौतुक-कुतूहलबुद्धि से विविध ऋद्धि-समृद्धि के द्वारा निमंत्रण करे, तब वह साधुः परिज्ञा के द्वारा हेयोपादेय का विवेक भाव सुरक्षित रखकर उस दिव्य मायाजाल Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 210 1 -8-8-25 (264); श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन में श्रद्धा न करे, किंतु प्रत्युत उस देव को हि शिक्षा दे कि- हे देव ! यह दिव्य ऋद्धि समृद्धि भी अशाश्वत है, विनश्वर है, पुण्याधीन है... एवं अनर्थफलवाली है... अथवा तो साधु यह सोचे कि- यह तो देवमाया है... वास्तविक नहि है... यदि ऐसा न हो तब यहां यह पुरूष (देव) आकस्मिक कहां से आया ? और ऐसे इस क्षेत्र, काल एवं भाव में दुर्लभ ऐसी यह विपुल धन-समृद्धि कहां से दे... इत्यादि द्रव्य-क्षेत्र-काल एवं भाव की विचारणा से भी साधु जाने कि- यहां यह देवमाया हि है... ___ अथवा कोइ देवांगना (अप्सरा-देवी) दिव्य रूप बनाकर उस साधु को कामभोग की प्रार्थना करे... तब वह साधु उस देवांगना की दिव्य माया को पहचाने और अपनी संयम की समाधि में हि रहे... अंतरात्मभाव में आत्मसमृद्धि का दर्शन होने से देवांगना की दिव्यमाया को भी विफल करे... अथवा ब्राह्मण (ब्रह्मस्वरूप) ऐसा वह साधु अशेष कर्म का या मायाजाल का विधूनन करके शमरसभाव में लीन होकर समाधि में रहे... V सूत्रसार : प्रस्तुत गाथा में बताया है कि- यदि साधक को कोई देव इतना धन-वैभव दे किवह जीवन पर्यन्त समाप्त न हो, तब भी वह साधु उस वैभव. की ओर ध्यान न दे... तो फिर मनुष्य के वैभव की तो बात ही कहां ? साधु को स्वर्ग के वैभव को पाने की भी अभिलाषा नहीं रखनी चाहिए। क्योंकि- वह वैभव नाशवान है और आरम्भ-समारम्भ एवं वासना को बढ़ाता है, जिससे पापकर्म का बन्ध होता है और परिणाम स्वरूप जन्म-मरण के प्रवाह में बहना पड़ता है। इसलिए साधक को भोगों की इच्छा नहीं रखनी चाहिए। कभी-कभी मिथ्यात्वी देव उसे पथ-भ्रष्ट करने का प्रयत्न करते हैं। विभिन्न प्रलोभनों एवं कष्टों के द्वारा साधुके ध्यान को भंग करने का प्रयास करते हैं। उस समय साधक को समस्त अनुकूल एवं प्रतिकूल परीषहों को सहन करना चाहिए, परन्तु अपने ध्येय से गिरना नहीं चाहिए। देव माया को भली-भांति समझकर साधु अपने मन को सदा आत्म-चिन्तन में हि लगाए रखे... प्रस्तुत अध्ययन का उपसंहार करने हुए सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहते हैं... सूत्र // 25 // // 264 // 1-8-8-25 सव्वठेहिं अमुच्छिए, आउकालस्स पारए। तितिक्खं परमं नच्चा, विमोहन्नयरं हियं तिबेमि // 264 / / Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1 - 8 - 8 - 25 (264) 211 - II संस्कृत-छाया : सर्वाथैः अमूर्च्छितः आयुः कालस्य पारगः। तितिक्षां परमां ज्ञात्वा विमोहान्यतरं हितम् इति ब्रवीमि // 264 // III सूत्रार्थ : मुनि शब्दादि विषयों में अनासक्त रहे। वह जीवन पर्यन्त उन विषयों से निवृत्त रहे और तितिक्षा को सर्व-श्रेष्ठ जानकर मोह से रहित बने। तीनों अनशनों में यथाशक्ति किसी एक अनशन को हितकारी समझकर स्वीकार करे। ऐसा मैं तुम्हें कहता हूं। IV टीका-अनुवाद : सर्व पदार्थ याने पांच प्रकार के इंद्रियों के विषय... मनोज्ञ शब्द, रूप, गंध, रस एवं स्पर्श स्वरूप कामभोग के पदार्थ और उन पदार्थों की प्राप्ति के कारण ऐसे धन-वैभव में मूच्छा न करे, किंतु पादपोपगमन अनशन स्वीकृत वह साधु यथोक्तविधि से अपने शेष आयुष्य का क्षय करे... प्रवर्धमान शुभ अध्यवसायवाला व साधु अपने आयुष्यकाल को पार करे.. अर्थात् संयम जीवन सफल करे... इस प्रकार यहां कही गइ पादपोपगमन अनशन की विधि की समापना कर के अब उपसंहार करते हुए कहते हैं कि- भक्तपरिज्ञा, इंगितमरण एवं पादपोपगमन अनशन स्वरूप तीन प्रकार के उत्तम मरण में काल, क्षेत्र एवं पुरूषावस्था का आश्रय लेकर परस्पर तुल्य कक्षा मानी गइ है... क्योंकि- यहां समान रूप से तितिक्षा, परीषह एवं उपसगों की संभावना है... ___उपरोक्त तीनों प्रकार से मरण तुल्यफलदायक उत्तम एवं हितकर हि हैं... अतः रागद्वेष-मोहादि से रहित ऐसा साधु, काल एवं क्षेत्रादि को लेकर यथाशक्ति एवं यथा अवसर उपरोक्त तीन में से कोई भी एक मरण का स्वीकार करे... यहां "इति" शब्द अधिकार की समाप्ति का सूचक है, एवं “ब्रवीमि" शब्द पूर्ववत् अर्थात् सुधर्मस्वामीजी कहते हैं, कि- हे जंबू ! श्री वर्धमानस्वामीजी के मुखारविंद से जैसा मैंने सुना है, वैसा हि तुम्हें कहता हुं... नय-विचारादि पूर्व कह चुके हैं... और आगे भी यथावसर कहेंगे... इत्यादि... सूत्रसार : यह तो स्पष्ट है कि- जन्म ग्रहण करने वाला प्राणी मृत्यु को प्राप्त होता हि है मरना Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 212 1 - 8 - 8 - 25 (264) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन सभी को होता है। कोई भी ऐसा व्यक्ति नहीं जन्मा है और न जन्मेगा कि- जो न मरा हो और न कभी मरेगा। मरते सब हैं, परन्तु, मरने-मरने में अन्तर है। एक मृत्यु जन्म-मरण के प्रवाह को बढाती है, तो दूसरी मृत्यु उक्त प्रवाह को समाप्त कर देती है। पहली मृत्यु को आगमिक भाषा में बाल (अज्ञान) मरण और दूसरी को पंडित (सज्ञान) मरण कहते हैं। पंडितमरण जन्म-मरण को समाप्त करने वाला है और संयम साधना का उद्देश्य भी जन्ममरण के प्रवाह को समाप्त करना है। अतः साधक को अपनी संयम साधना को सफल बनाने के लिए पंडितमरण को प्राप्त करना चाहिए। यह हम देख चुके हैं कि- पंडित मरण तीन प्रकार का है- 1. भक्तप्रत्याख्यान, २इंगितमरण और ३-पादोपगमन। पादोपगमन सर्व श्रेष्ठ है और इंगितमरण मध्यम स्थिति का है और भक्तप्रत्याख्यान सामान्य कोटि का है। ये श्रेणियां साधना की कठोरता की अपेक्षा से है किंतु साधना की दृष्टि से तीनों मरण महत्त्वपूर्ण है। यदि साधक राग-द्वेष पर विजय प्राप्त करके समभाव पूर्वक परीषहों को सहन करते हुए समाधि-मरण को प्राप्त करता है, तो वह उपरोक्त प्रत्येक तीनों मरण से निर्वाण पद को प्राप्त कर सकता है। यह उसकी शारीरिक क्षमता पर आधारित है कि- वह तीनों में से किसी भी एक मरण को स्वीकार करे। परन्तु, समभाव से उसका पालन करे; अन्तिम सांस तक अपने पथ में दृढभाव बनाये रखना हि संयम साधना की सफलता है। 'त्तिबेमि' की व्याख्या पूर्ववत् समझें। // इति शस्त्रपरिज्ञायां अष्टमाध्ययने अष्टमः उद्देशकः समाप्तः // // इति अष्टममध्ययनं समाप्तम् // : प्रशस्ति : मालव (मध्य प्रदेश) प्रांतके सिद्धाचल तीर्थ तुल्य शत्रुजयावतार श्री मोहनखेडा तीर्थमंडन श्री ऋषभदेव जिनेश्वर के सांनिध्यमें एवं श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरिजी, श्रीमद् यतीन्द्रसूरिजी, एवं श्री विद्याचंद्रसूरिजी के समाधि मंदिर की शीतल छत्र छायामें शासननायक चौबीसवे तीर्थंकर परमात्मा श्री वर्धमान स्वामीजी की पाट-परंपरामें सौधर्म बृहत् तपागच्छ संस्थापक अभिधान राजेन्द्र कोष निर्माता भट्टारकाचार्य श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी म. के शिष्यरत्न विद्वद्वरेण्य व्याख्यान वाचस्पति अभिधान राजेन्द्रकोषके संपादक श्रीमद् विजय यतीन्द्रसूरीश्वरजी म. के शिष्यरत्न, दिव्यकृपादृष्टिपात्र, मालवरत्न, आगम मर्मज्ञ, श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम प्रकाशन के लिये राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी हिंदी टीका के लेखक मुनिप्रवर Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1 - 8 - 8 - 25 (264) // 213 ज्योतिषाचार्य श्री जयप्रभविजयजी म. “श्रमण' के द्वारा लिखित एवं पंडितवर्य लीलाधरात्मज रमेशचंद्र हरिया के द्वारा संपादित सटीक आचारांग सूत्र के भावानुवाद स्वरूप श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी हिंदी टीका-ग्रंथ के अध्ययनसे विश्वके सभी जीव पंचाचारकी दिव्य सुवासको प्राप्त करके परमपदकी पात्रता को प्राप्त करें... यही मंगल भावना के साथ... "शिवमस्तु सर्वजगतः" वीर निर्वाण सं. 2528. // राजेन्द्र सं. 96. म विक्रम सं. 2058. . . . Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 214 // 1-9-0-09 श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन प्रथमश्रुतस्कन्धे नवममध्ययनम् 卐. उपधानश्रुताध्ययनम् // आठवा अध्ययन कहा, अब नवमे अध्ययन का प्रारंभ करते हैं... यहां परस्पर इन अध्ययनों में यह अभिसंबंध है कि- पूर्वोक्त आठ अध्ययनों में जो कुछ कहा गया है, वह आचार, चौवीसवे तीर्थंकर श्री वर्धमान स्वामीजी ने स्वयं हि अपने श्रमण जीवन में आचरित कीया है... अतः यह बात इस नवमे अध्ययन में कही जाएगी... आठवे अध्ययन में कहा गया है कि- अभ्युद्यत मरण तीन प्रकार के हैं, उनमें से कोइ भी एक प्रकार में व्यवस्थित साधु, समवसरण में सर्व जीवों के हित के लिये धर्मदेशना देते हुए परमात्मा श्री महावीर (वर्धमान) स्वामीजी का ध्यान करे... वे श्री वर्धमान स्वामीजी कैसे हैं ? तो कहते है कि- आठ अध्ययन में कहे गये आचार का अनुष्ठान करनेवाले, अतिघोरातिघोर परीषह एवं उपसर्गों को शमभाव से सहन करेवाले, तथा ज्ञानावरणीयादि घनघाति चार कर्मो के संपूर्ण क्षय से अनंत वस्तु-पदार्थो के अनंत पर्यायों के भावों के अवभासक केवलज्ञान से विभूषित एवं मोक्षमार्ग के उपदेशक इत्यादि अनेक गुणगण से अलंकृत ऐसे श्रमण भगवान् महावीरस्वामीजी का ध्यान करें... इत्यादि... बातें कहने के लिये उपधानश्रुत नामक इस नवमें अध्ययन का प्रारंभ करते हैं... इस उपरोक्त अभिसंबंध से आये हुए उपधानश्रुत नामके इस नवमे अध्ययन के चार अनुयोग द्वार होते हैं... 1. उपक्रम, 2. निक्षेप, 3. अनुगम, एवं 4. नय... ' वहां उपक्रम-द्वार में अधिकार दो प्रकार से है... 1. अध्ययनार्थाधिकार, 2. उद्देशक अर्थाधिकार... इन दोनों में अध्ययनार्थाधिकार पहले संक्षेप में कहा गया है, उस अध्ययनार्थाधिकार को यहां नियुक्तिकार महर्षि विस्तार से कहते हैं... नि. 265 जब कभी जो कोइ तीर्थंकर परमात्मा होते हैं, वह अपने तीर्थ याने शासन में आचार की बातें कहने के बाद अंतिम अध्ययन में अपने श्रमण जीवन में की गयी तपश्चर्या का कथन करतें हैं, यह सभी तीर्थंकरों का कल्प याने आचार-मर्यादा है... प्रस्तुत आचारांगसूत्र के प्रथम श्रुतस्कंध में उपधानश्रुत नामक अंतिम अध्ययन कहा है अतः इस नवमे अध्ययन का नाम उपधानश्रुत है... Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1 - 9 - 0 - 0 215 यहां यह प्रश्न उठेगा कि- सभी तीर्थंकरो को छद्मस्थ श्रमण काल में क्षायिकभावों के हेतुभूत तपश्चर्या भी समान होती है ? या अल्पाधिक ? इस आशंका को दूर करने के लिये नियुक्तिकार महर्षि तीन गाथा कहतें हैं... नि. 277/278/279 सभी तीर्थंकरो की तपश्चर्या निरूपसर्ग कही गई है, किंतु श्रमण भगवान् महावीर परमात्मा की तपश्चर्या उपसर्ग सहित कही गइ है... दीक्षा ग्रहण के समय चौथा मन:पर्यवज्ञान जिन्हें उत्पन्न हुआ है ऐसे चार ज्ञानवाले देवपूजित तीर्थंकर प्रभु निश्चित हि अशेष घाति कर्मो का विच्छेद कर के केवलज्ञान पाकर मोक्ष पद पाने वाले हि है... तो भी बल एवं वीर्य-पराक्रम में अपूर्व पुरुषार्थ करते हुए तपश्चर्या में सतत उद्यम करते हैं... यदि तीर्थंकर परमात्मा भी तपश्चर्या में सदा उद्यम करते हैं, तो फिर अन्य सामान्य जीव ऐसे साधु-साध्वीजी म. को सुविहित आचरणा करने के लिये तत्पर बनने के साथ सकल दुःखों के क्षय में हेतुभूत. तपश्चर्या में विशेष उद्यम करना हि चाहिये.. क्योंकि- यह मनुष्य जन्म अनेक संकट-उपद्रवों से भरपूर है, इत्यादि... अध्ययनार्थाधिकार कहकर अब नियुक्तिकार महर्षि उद्देशार्थाधिकार कहतें हैं... नि. 280 (1) चर्यते इति चर्या-आचरणा... इस प्रथम उद्देशक में श्री वर्धमान स्वामीजी के विहार का अधिकार है... (2) शय्या = वसति (उपाश्रय) द्वितीय उद्देशक में श्री महावीर स्वामीजी ने जिस प्रकार की शय्या याने वसति का आश्रय लिया था, उस का अधिकार है... (3) परीषह याने बाइस प्रकार के अनुकूल एवं प्रतिकूल कष्ट-संकट.... श्री महावीर स्वामीजी को श्रमण जीवन में जो कोइ अनुकूल एवं प्रतिकूल उपसर्ग तथा परीषह आये उन को प्रभुजी ने समभाव से सहन कीया... क्योंकि- मोक्षमार्ग में अविचल रहने के लिये एवं कर्मो की निर्जरा के लिये परीषह सहन करने चाहिये... अत: इस तीसरे उद्देशक में परमात्मा को आये हुए परीषह एवं उपसर्गों का अधिकार है... (4) आतंक याने क्षुधा जन्य पीडा की चिकित्सा याने योग्य सदुपाय... अर्थात् इस चौथे उद्देशक में श्रमण परमात्मा महावीर स्वामीजी ने क्षुधा की वेदना को शांत करने के लिये विशिष्ट अभिग्रह से प्राप्त निर्दोष आहार को जिस प्रकार से ग्रहण कीया था, Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 216 // 1 - 9 - 0 -0 // श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन = वह अधिकार चौथे उद्देशक में हैं... इन चारों उद्देशक में सामान्य से तपश्चर्या का हि अधिकार अनुगत रहा हुआ है... निक्षेप के तीन प्रकार हैं, 1. ओघनिष्पन्न, 2. नामनिष्पन्न, और 3. सुत्रालापकनिष्पन्ननिक्षेप... इन में से ओघनिष्पन्न निक्षेप में अध्ययन... और नाम निष्पन्ननिक्षेप में उपधानश्रुत... यह नाम दो पद का है, 1. उपधान, 2. श्रुत... अब उपधान एवं श्रुत पद का यथाक्रम से निक्षेप करना चहिये, इस न्याय से प्रथम उपधान पद के निक्षेप, नियुक्तिकार महर्षि चतुर्दश पूर्वधर श्री भद्रबाहुस्वामीजी नियुक्ति की गाथाओं से कहते हैं... नि. 281 नाम उपधान, स्थापना उपधान, द्रव्य उपधान, एवं भाव उपधान... यह उपधान पद के चार निक्षिप हैं... श्रुत पद के भी इसी प्रकार चार निक्षेप होते हैं... नाम श्रुत, स्थापना श्रुत, द्रव्य श्रुत एवं भाव श्रुत... इत्यादि... श्रुत पद के चार निक्षेप में नाम एवं स्थापना सुगम है... तथा अनुपयोगवाले साधु का श्रुत, वह द्रव्य श्रुत, अथवा द्रव्य के लिये जिस श्रुतज्ञान का उपयोग कीया जाय वह द्रव्य श्रुत... जैसे कि- कुप्रावचनिकों का श्रुतज्ञान... तथा जिनशासन में मान्य ऐसे अंगप्रविष्ट श्रुतज्ञान तथा अंगबाह्य श्रुतज्ञान विषयक उपयोग, वह भावश्रुत.. अब उपधान पद के निक्षेपों में नाम एवं स्थापना सुगम हैं, अत: द्रव्य उपधान निक्षेप का स्वरूप नियुक्तिकार महर्षि स्वयं कहते हैं... नि. 282 उपधान पद में उप याने समीप में और धान याने धीयते इति धानम् व्यवस्थापनम्... अर्थात् आत्मा को शास्त्राज्ञा के माध्यम से आत्मा के समीप स्थापित करना, वह उपधान... द्रव्य उपधान याने शय्या आदि में सुख से शयन हो, इस लिये मस्तक के नीचे जो ओशीका रखा जाता है वह द्रव्य उपधान... द्रव्यभूतं उपधानम् = द्रव्योपधानम्... भावस्य उपधानम् = भावोपधानम्... चारित्र परिणाम के भावों को आलंबन देनेवाले ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार एवं बाह्य तथा अभ्यंतर तपश्चर्या स्वरूप तपाचार... यहां / प्रधानता से भाव उपधान स्वरूप ज्ञान, दर्शन, चारित्र एवं तपश्चर्या का हि अधिकार है... यहां प्रश्न यह होगा कि- चारित्र के उपष्टंभ ऐसे तपश्चर्या को भाव-उपधान क्यों कहा Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1 - 9 - 0 - 09 217 है ? इस प्रश्न का उत्तर नियुक्तिकार महर्षि स्वयं हि नियुक्ति की गाथाओं से कहते हैं... नि. 283 यहां उदाहरण देकर कहतें हैं कि- जिस प्रकार मलिन वस्त्र जल आदि द्रव्यों से शुद्ध होता है, इसी प्रकार आठों प्रकार के कर्मो से मलिन जीव की शुद्धि, भाव-उपधान स्वरूप छह (6) बाह्य एवं छह (6) अभ्यंतर अर्थात् बारह (12) प्रकार की तपश्चर्या से हि होती है... ____ कमों के क्षय में हतुभूत द्वादशविध तपश्चर्या को हि यहां उपधानश्रुत के माध्यम से ग्रहण कीया गया है... तथा “तत्त्वभेदपर्यायैः व्याख्या” इस न्याय से पर्याय का स्वरूप दिखाते हुए कहतें हैं कि- तपश्चर्या के अनुष्ठान के द्वारा ही कर्मो का अवधूनन याने निर्जरा अर्थात् कर्मो का क्षय होता है... नि: 284 अवधूनन... अपूर्वकरण के द्वारा कर्मो की ग्रंथी का भेद करना... यह कार्य तपश्चर्या ___के बारह भेद में से कोइ भी भेद के सामर्थ्य से हि होता है... तपश्चर्या का यह ग्रंथिभेद रूप सामर्थ्य तपश्चर्या के शेष ग्यारह भेदों में भी है, ऐसा सर्वत्र जानीयेगा... 2. धूनन... कर्मो की ग्रंथी का भेद होने के बाद अनिवृत्तिकरण के द्वारा सम्यक्त्व की प्राप्ति... नाशन... कर्मप्रकृतियों का स्तिबुकसंक्रमण के द्वारा अन्य कर्मप्रकृति में परिणमन... विसर्जन... विनाशन... शैलेशी अवस्था में सकल कर्मो का विनाश होने से आत्मप्रदेशों में कर्मो का अभाव होना ध्यापन... उपशम श्रेणी में कर्मो का उदय न होना वह ध्यापन... 6. क्षपण... क्षपकश्रेणी में अप्रत्याख्यानादि कषायों का अनुक्रम से क्षय कर के मोहनीय कर्म का सर्वथा अभाव करना... 7. शुद्धीकरण... अनंतानुबंधि कषाय के क्षय से क्षायिक सम्यक्त्व की प्राप्ति... छेदन... उत्तरोत्तर शुभ अध्यवसायों की श्रेणीमें आरोहण कर के कर्मो की स्थिति में हानि करना अर्थात् कर्मो की स्थिति को अल्प करना... भेदन... बादरसंपराय याने नवमे गुणस्थान में रहा हुआ साधु संज्वलन लोभ का खंड खंड करे... Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 218 // 1- 9 - 0-0 // श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन 10. स्फेटन... अशुभ कर्मो के चार स्थानीय रस का स्फेटन कर के तीन स्थानीय दो स्थानीय यावत् एक स्थानीय करना... 11. दहन... केवलिसमुद्घात में शुक्लध्यान स्वरूप अग्नि के द्वारा वेदनीय कर्म स्वरूप इंधन को भस्मसात् करना... और शेष नाम, गोत्र एवं आयुष्य कर्म को दग्धरज्जु के समान करना... 12. धावन... शुद्ध अध्यवसाय से मिथ्यात्व मोह के कर्मपुद्गलों को शुद्ध कर के सम्यक्त्व भाव याने क्षायोपशमिक सम्यक्त्व प्राप्त करना... आत्म प्रदेशों में रहे हुए ज्ञानावरणीयादि आठों कर्मो में उपर कही गइ बारह प्रकार की प्रक्रिया प्राय: कर के (बहुलता से) उपशमश्रेणी, क्षपकश्रेणी, केवलिसमुद्घात एवं शैलेशी कारण अवस्था में अधिकतर प्राप्त होती है, अत: उन उपशमश्रेणी आदि चार उत्तम अवस्थाओं की प्राप्ति का स्वरूप कहते हैं... उपशमश्रेणी... उपशमश्रेणी में सर्व प्रथम अनंतानुबंधि-कषायों की उपशमना कहतें हैं... इस विश्व में अविरतसम्यग्दृष्टि, या देशविरत (श्रावक), या प्रमतसंयत अप्रमत्तसंयत (साधु) इन चार में से कोई भी जीव अनंतानुबंधिकषायों की उपशमना का आरंभक होता है... वहां भी एक (प्रथम) गुणश्रेणी से दर्शनसप्तक का उपशम करतें हैं... वह इस प्रकार,तीन शुभ लेश्या तेजोलेश्या पद्मलेश्या एवं शुक्ललेश्या से विशुद्ध ज्ञानोपयोग में रहा हुआ तथा अंत:कोटाकाटि सागरोपम प्रमाण कर्मो की स्थितिवाला वह जीव परावर्त्तमान प्रकार की शुभकर्म प्रकृतियों को बांधता है, एवं प्रतिक्षण अशुभ कर्म प्रकृतियों के अनुभाग-रस को अनंतगुण हानि से क्षीण करता है तथा शुभ कर्म प्रकृतियों के अनुभाग-रस को प्रतिक्षण अनंतगुणं वृद्धि से शुभतर करता है... तथा उत्तरोत्तर भी पल्योपम के असंख्येय भाग हीन स्थिति प्रमाण कर्मबंध करने वाला यह पुण्यात्मा करण-काल से पूर्व हि अंतर्मुहूर्त काल में विशुद्ध होता हुआ तीन करण करता है... और वे प्रत्येक करण अंतर्मुहूर्त कालीन है... अब अंतर्मुहूर्त काल प्रमाण करणत्रिक एवं चौथी उपशांताद्धा का स्वरूप कहतें हैं... उन में प्रथम यथाप्रवृत्तिकरण में जीव प्रतिक्षण अनंतगुण वृद्धि से विशुद्धि का अनुभव करता है... किंतु यहां यथाप्रवृत्तिकरण में वह जीव कर्मो में स्थितिघात, रसघात, गुणश्रेणी, गुणसंक्रम तथा अपूर्वस्थितिबंध में से एक भी कार्य नहि करता... तथा द्वितीय अपूर्वकरण में वह जीव प्रतिक्षण अपूर्व अपूर्व क्रिया-काल में प्रवेश करता है और प्रथम क्षण मात्र समय में हि वह जीव कर्मो का स्थितिघात, रसघात, गुणश्रेणी और गुणसंक्रम तथा अपूर्व स्थितिबंध यह पांच कार्य युगपद् याने एक साथ करता है... और अपूर्वकरण के काल पर्यंत प्रतिक्षण यह पांच कार्य अपूर्व अपूर्व प्रकार से करता रहता है... Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1 - 9 - 0 - 0 219 तथा तीसरा अनिवृत्तिकरण जहां विवक्षित अध्यवसाय में विद्यमान जीवों के परिणाम परस्पर विभिन्न नहि होतें, अर्थात् एक समान हि होते हैं वह है अनिवृत्तिकरण... जैसे कि- अनिवृत्तिकरण के प्रथम समय में प्रविष्ट सभी जीवों का परस्पर तुल्य परिणाम (अध्यवसाय) होता है... इसी प्रकार द्वितीय समयवाले जीवों का अध्यवसाय-परिणाम परस्पर समान हि होते हैं... इसी प्रकार तृतीयादि समयों में सर्वत्र परस्पर तुल्य परिणाम होता है... यहां भी पूर्वोक्त स्थितिघातादि पांच कार्य युगपत् प्रवर्तित होते हैं... इस कारण से यथाप्रवृत्तिकरणादि तीनों करण में यथोक्त क्रम से अनंतानुबंधी कषायों का उपशमन करतें हैं... उपशमन याने कर्मरज का चलित न होना... जिस प्रकार- धूली याने रजःकण को जल से आर्द्र करने के बाद द्रघण याने घण से टीपने से रजःकण ऐसी नितांत सज्जड जम जाती है कि- प्रचंड वायु के झंझावात में भी वह धूली उड नहि शकती, इसी प्रकार कर्मरजःकण का उपशमन होने पर अर्थात् अपूर्वकरण की विशुद्धि स्वरूप जल से आर्द्र होने के बाद अनिवृत्तिकरण स्वरूप द्रुघण से टीपने से उस कर्मरजःकण में अब उदय, उदीरणा, संक्रमण, निधत्ति और निकाचनादि करण नहि लगतें... यहां प्रथम समय में उपशांत कर्मदल थोडे होते हैं... और द्वितीयादि समयों में उत्तरोत्तर असंख्यगुण अधिक अधिक उपशांत होते होते अंतर्मुहूर्त काल समय में सभी अनंतानुबंधिकषायों का उपशमन होता है... इस प्रकार एक मत से अनंतानुबंधि कषायों का उपशमन कहा, ___ अन्य आचार्य तो अनंतानुबंधि-कषायों की विसंयोजना इस प्रकार कहते हैं किचारोंगतिवाले क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टि जीव अनंतानुबंधि कषायों की विसंयोजना करते हैं, उन में अविरत सम्यग्दृष्टि नारक एवं देव तथा तिर्यंच पंचेद्रिय प्राणी अविरत सम्यग्दृष्टि एवं देशविरत, और गर्भज मनुष्य अविरतसम्यग्दृष्टि, देशविरत एवं सर्वविरत प्रमत्त और अप्रमत्त मुनी... यह सभी जीव यथासंभव विशोधि जन्य विवेक के परिणाम में परिणत होकर अनंतानुबंधि कषायों की विसंयोजना के लिये पूर्वोक्त यथाप्रवृत्ति आदि तीन करण होतें हैं... ___ इस करण त्रिक में प्रतिक्षण अनंतानुबंधि कषायों की स्थिति का अपवर्तन करते करते उन अनंतानुबंधि कषायों की पल्योपम के असंख्येय भाग प्रमाण स्थिति रहे तब तक अपवर्तन करते रहते हैं... __ अब अवशिष्ट पल्योपम के असंख्येय भाग प्रमाण उस अनंतानुबंधि कषायों को बध्यमान मोहनीय कर्म की प्रकृतिओं में प्रतिक्षण संक्रमण करते हैं... यह संक्रमण कार्य भी प्रथम समय में थोडा, और क्रमशः द्वितीयादि समयों में असंख्येयगुण अधिक अधिक होता है, इसी प्रकार अंतिम समय होते हि सर्वसंक्रमण करण के द्वारा आवलिकागत कर्मो को छोडकर शेष सभी Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2201 - 9 - 0-0 श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन अनंतानुबंधि कषायों का संक्रमण करतें हैं... तथा आवलिकागत कर्म को भी स्तिबुक संक्रमण के द्वारा वेद्यमान अन्य कर्म प्रकृतिओं में संक्रमित करते हैं... इस प्रकार अनंतानुबंधि कषायों की विसंयोजना होती हैं... अब दर्शनत्रिक का उपशमन कहते हैं... मिथ्यादृष्टि जीव अथवा क्षायोपशमिक (वेदक) सम्यग्दृष्टि जीव मिथ्यात्वमोहनीय कर्म के दलिकों का उपशमन करते हैं तथा क्षायोपशमिक (वेदक) सम्यग्दृष्टि जीव सम्यक्त्व मोह एवं मिश्रमोह के दलिकों का उपशमन करतें हैं... ___ अब मिथ्यात्वमोह के कर्मदलिकों का उपशमन करते करते उन कर्मदलिकों में अंतर (आंतरूं-गाबडु) कर के प्रथम की लघु स्थिति का विपाक के द्वारा अनुभव करता हुआ वह जीव उपशांतमिथ्यात्व होकर उपशम सम्यग्दृष्टि बनता है... अब क्षायोपशमिक (वेदक) सम्यग्दृष्टि साधु उपशमश्रेणी को प्राप्त करता हुआ सर्व प्रथम अनंतानुबंधि कषायों की विसंयोजना कर के निम्नोक्त प्रकार से दर्शनत्रिक का उपशमन करता है... वह इस प्रकार- यथाप्रवृत्तिकरणादि पूर्वोक्त तीन करण कर के अंतरकरण करता हुआ वह साधु वेदक सम्यक्त्व की प्रथम स्थिति को अंतर्मुहूर्त काल प्रमाणवाली करता है, और दुसरी स्थिति को अवलिका मात्र काल प्रमाणवाली करता है... उस के बाद कुछ न्यून मुहूर्त प्रमाणवाली स्थिति को खंड खंड कर के बध्यमान कर्मप्रकृतिओं को स्थितिबंध प्रमाण काल के द्वारा उस कर्मदलिकों को सम्यक्त्वमोह की प्रथम स्थिति में प्रक्षेप करता हुआ वह साधु सम्यक्त्व मोह के बंध के अभाव में अंतर (आंतरूं-गाबडु) करता हुआ अंतर अवकाश कर चूका होता है... यहां मिथ्यात्वमोह के कर्मदलिक एवं मिश्रमोह के आवलिका-मात्र परिणाम वाले प्रथम स्थिति के कर्मदलिकों को सम्यक्त्व मोह की प्रथम स्थिति में स्तिबुकसंक्रमण के द्वारा संक्रमित करते हैं. और उस सम्यक्त्वमोह की प्रथम स्थिति भी क्षीण होने पर वह साधु उपशांतदर्शन त्रिकवाला होता है- अर्थात् उपशमसम्यक्त्व उपशांत दर्शन मोहवाला होता है... दर्शनत्रिक के उपशमन के बाद वह साधु चारित्रमोहनीय कर्म का उपशमन करता हुआ पूर्ववत् कारणत्रिक करता है... परंतु यहां यथाप्रवृत्तिकरण अप्रमत्त नाम के सातवे गुणस्थान में होता है, तथा दुसरा अपूर्वकरण आठवे गुणस्थान में होता है... यहां अपूर्वकरण नाम के आठवे गुणस्थान में वह साधु प्रथम समय में हि स्थितिघात, रसघात, गुणश्रेणी, गुणसंक्रम एवं अपूर्वस्थितिबंध यह पांच कार्य युगपत् करता है... वहां अपूर्वकरण के संख्येय मात्र प्रमाण काल बीतने पर निद्रा एवं प्रचला (निद्राद्विक) का बंध विच्छेद होता है, उसके बाद अनेक सहस्र स्थितिकंडक बीतने पर देवभव संबंधित नाम-कर्म की तीस Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका # 1 - 9 - 0 - 0 // 221 (30) कर्मप्रकृतियों का बंधविच्छेद होता है, वे तीस कर्म प्रकृतियां यह है... 1. देवगति, 2. देव आनुपूर्वी, 3. पंचेंद्रियजाति, 4. वैक्रिय शरीर, 5. वैक्रिय अंगोपांग, 6. आहारक शरीर 7. आहारक अंगोपांग, 8. तैजस शरीर, 9. कार्मणशरीर, 10. समचतुरस्रसंस्थान, 11. वर्ण, 12. गंध, 13. रस, 14. स्पर्श, 15. अगुरूलघु, 16. उपघात, 17. पराघात, 18. उच्छ्वास, 19. शुभविहायोगति, 20. बस, 21. बादर, 22. पर्याप्तक, 23. प्रत्येक, 24. स्थिर, 25. शुभ, 26. सुभग, 27. सुस्वर, 28. आदेय, 29. निर्माण एवं 30. तीर्थंकर नाम कर्म... तथा अपूर्वकरण के अंतिम समय कालक्षण में हास्य, रति, भय एवं जुगुप्सा का बंध विच्छेद होता है तथा हास्यादि षट्क (6) का उदय विच्छेद होता है, एवं सभी कर्मप्रकृतियों के अशुभ उपशमना निधत्ति एवं निकाचनाकरण का भी विच्छेद होता है.... इस प्रकार अविरतसम्यग्दृष्टि आदि 4-5-6-7 गुणस्थानकों से लेकर अपूर्वकरण (आठवे) गुणस्थानक के अंतिम समय पर्यंत में दर्शनसप्तक स्वरूप अनंतानुबंधि आदि सात कर्मो का उपशमन होता है... ___ उस के बाद अनिवृत्तिकरण नाम के नववे गुणस्थानक का प्रारंभ होता है... इस नवमे गुणस्थानक में रहा हुआ साधु चारित्र मोहनीय कर्म की इक्कीस (21) प्रकृतियों का अंतर कर के सर्व प्रथम नपुंसकवेद की उपशमना करता है, उसके बाद स्त्रीवेद कर्म की उपशमना करता है, उस के बाद हास्यादि षट्क (6) कर्मो की उपशमना करता है, उस के बाद पुरूषवेद कर्म के बंध एवं उदय का विच्छेद करता है... उस के बाद एक समय न्यून दो आवलिका काल में पुरूषवेद का उपशम करता है, उस के बाद अप्रत्याख्यानीय एवं प्रत्याख्यानीय क्रोध द्वय की उपशमना करता है... उस के बाद संज्वलन क्रोध की उपशमना करता है... इसी प्रकार मानत्रिक, एवं मायात्रिक की उपशमना करता है, उसके बाद संज्वलन लोभ का सूक्ष्म खंड खंड करता है, और संज्वलन लोभ के खंड खंड करने के अंतिम समय में अप्रत्याख्यानीय एवं प्रत्याख्यानीय लोभ का उपशम करता है, इसी प्रकार नवमे अनिवृत्तिकरण गुणस्थानक के अंतिम समय पर्यंत में मोहनीयकर्म की उदय योग्य 28 कर्म प्रकृतिओं में से 7 + 20 = 27 कर्मो की उपशमना हो जाती है... अब संज्वलन लोभ के सूक्ष्म खंडो का अनुभव-वेदन करता हुआ वह साधु सूक्ष्मसंपराय नाम के दशवे गुणस्थानक में प्रवेश करता है... इस दशवे सूक्ष्म संपराय गुणस्थानक के अंतिम समय पर्यंत में ज्ञानावरणीय पांच, दर्शनावरणीय चार, अंतराय पांच तथा यश:कीर्ति एवं उच्चगोत्र कर्म का बंध विच्छेद होता है, और संज्वलन लोभ का भी उपशमन होता है, तब वह साधु महात्मा उपशांतवीतराग होता है, अर्थात् उपशांतमोह नाम के ग्यारहवे गुणस्थानक Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 222 // 1 - 9 - 0-0 // श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन में प्रवेश करता है... यह उपशांतमोह नाम के ग्यारहवे गुणस्थानक में वह साधु महात्मा जघन्य से एक समय एवं उत्कृष्ट से अंतर्मुहूर्त काल पर्यंत रहता है, उस के बाद या तो भवक्षय याने आयुष्य पूर्ण होने से, या तो अद्धाक्षय याने ग्यारहवे गुणस्थानक का काल पूर्ण होने पर, उस साधु महात्मा का प्रतिपात याने पडना होता है.... इस पतन की परिस्थिति में वह साधु महात्मा जिस प्रकार उत्तरोत्तर गुणस्थानकों में चढते समय बंधादि का विच्छेद करता था, उसी प्रकार पतन के समय पुनः बंधादि का प्रारंभ करता है... पडते पडते कोइ साधु महात्मा मिथ्यात्व नाम के प्रथम गुणस्थानक में भी पहुंचते हैं... तथा जो साधु महात्मा भवक्षय याने आयुष्य पूर्ण होने पर ग्यारहवे गुणस्थानक से पडता है, वह अनुत्तरविमान में देव होता है वहां प्रथम समय में हि संभवित सभी करण का प्रवर्तन होता है... कोइक साधु महात्मा एक हि भव में दो बार यह उपशमन कार्य करता है... इत्यादि... क्षपकश्रेणी... अब क्षपकश्रेणी का स्वरूप कहतें हैं... इस क्षपकश्रेणी का प्रारंभक मात्र मनुष्य हि होता है.. और वह मनुष्य आठ वर्ष से अधिक उम्रवाला होता है.. क्षपकश्रेणी का आरंभ करने वाला मनुष्य सर्व प्रथम यथाप्रवृत्तिकरण आदि तीन करण के द्वारा अनंतानुबंधि कषायों की विसंयोजना करता है, उस के बाद तीन करणों के द्वारा हि मिथ्यात्वमोह का क्षय करता है, और अवशिष्ट मिथ्यात्व मोह को मिश्रमोह में प्रक्षेप करता है, इसी प्रकार मिश्रमोह का क्षय करता है, और अवशिष्ट मिश्रमोह का सम्यक्त्व मोह में प्रक्षेप करता है... इसी प्रकार सम्यक्त्व मोह का भी क्षय करता है, और सम्यक्त्व मोह के अंतिमदलिक का क्षय करने के समय वह वेदक-सम्यग्दृष्टि होता है... उस के बाद वह मनुष्य क्षायिक सम्यग्दृष्टि होता है. ___अविरतसम्यग्दृष्टि, देशविरत, प्रमत्तसंयत एवं अप्रमत्तसंयत हि इन अनंतानुबंधि आदि सात कर्म प्रकृतिओं का क्षय करतें हैं... अब जो मनुष्य बद्धायुष्क है, अर्थात् जन्मांतर के आयुष्य का बंध कीया हुआ है, वह मनुष्य श्रेणिक-राजा की तरह यहां हि रूक जाता है... किंतु जिस मनुष्य ने जन्मांतर के आयुष्य का बंध नहि कीया है, वह मनुष्य गुणस्थानक के क्रम में आगे बढता हुआ करणत्रिक के द्वारा अप्रत्याख्यानीय एवं प्रत्याख्यानीय 4 + 4 = 8 आठ कषायों का क्षय करता है... यहां करणत्रिक याने प्रथम यथाप्रवृत्तिकरण अप्रमत्त साधु को होता है, तथा अपूर्वकरण नाम के आठवे गुणस्थानक में वह साधु पूर्ववत् स्थितिघातादि पांच कार्य करता हुआ निद्राद्विक, . Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1 - 9 - 0 - 0 // 223 देवगति आदि तीस कर्म एवं हास्यादि चार कर्मो का उपशमश्रेणी में कहे गये अनुक्रम से बंधविच्छेद करता है... तथा अनिवृत्तिकरण नाम के नवमे गुणस्थानक में थीणद्धी त्रिक तथा नरकगति, नरकानुपूवी, तिर्यंचगति, तिर्यंच आनुपूर्वी, एकेन्द्रिय जाति, बेइंद्रिय जाति, तेइंद्रिय जाति, चउरिद्रिय जाति, आतप, उद्योत, स्थावर, सूक्ष्म और साधारण 3 + 13 = 16 कर्मो का क्षय करता है... उस के बाद अप्रत्याख्यानीय एवं प्रत्याख्यानीय 4 + 4 = 8 आठ कषायों का क्षय करता है... उस के बाद नपुंसक वेद का क्षय करता है, उस के बाद हास्यादि षट्क का क्षय करता है, और उस के बाद पुरूषवेद का क्षय करता है... उस के बाद संज्वलन क्रोध, मानएवं माया का क्षय करता है, और संज्वलन लोभ का खंड-खंड कर के क्षय करता है... किंतु जब संज्वलन लोभ के बादर खंडो का क्षय करता है तब वह साधु बादर संपराय याने अनिवृत्तिकरण नाम के नववे गुणस्थानक में बिराजमान है, ऐसा माना गया है, और जब संज्वलन लोभ के सूक्ष्म खंडो का क्षय करता है, तब सूक्ष्म संपराय नाम के दशवे गुणस्थानक में अवस्थित है ऐसा कहा गया है... सूक्ष्मसंपराय नाम के दशवे गुणस्थानक के अंतिम समय में संज्वलनलोभ के उदयविच्छेद के समय ज्ञानावरणीयादि सोलह (16) कर्म प्रकृतियों का बंध विच्छेद होता है, उस के बाद वह साधु क्षीणमोह नाम के बारहवे गुणस्थानक में प्रवेश करता है... बारहवे गुणस्थानक का काल है अंतर्मुहूर्त मात्र... इस क्षीणमोह नाम के बारहवे गुणस्थानक में अंतर्मुहूर्त काल पर्यंत रह कर वह साधु द्विचरमसमय याने उपांत्य समय में निद्राद्विक का क्षय करता है, और अंतिम समय में ज्ञानावरणीय पांच, अंतराय पांच तथा दर्शनावरणीय चार एवं चौदह (14) कर्मो का क्षय कर के निरावरण ज्ञानदर्शनवाला वह साधु केवलज्ञानी होता है... यह सयोगी केवली नाम का तेरहवा गुणस्थानक है... ___ सयोगी केवली नाम के तेरहवे गुणस्थानक में वह साधु मात्र एक हि साता वेदनीय कर्म का बंध करता है... इस तेरहवे गुणस्थानक का काल, जघन्य से अंतर्मुहूर्त एवं उत्कृष्ट से देशोन अर्थात् नव वर्ष न्यून एक पूर्व क्रोड वर्ष पर्यंत का कहा गया है... __. तेरहवे गुणस्थानक का जब मात्र अंतर्मुहूर्त आयुष्य शेष रहा है, ऐसा प्रतीत हो, एवं उस समय आत्म प्रदेशों में वेदनीयकर्म के दलिक अधिक हो तब वह केवलज्ञानी साधु, वेदनीयकर्म के दलिकों को आयुष्य कर्म के समान करने के लिये समुद्घात की प्रक्रिया करता है... वह इस प्रकार... Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 224 // 1 - 9 - 0 - 0 श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन केवलिसमुद्घात की प्रक्रिया में औदारिक-काययोगी केवलज्ञानी साधु महात्मा सर्व प्रथम प्रथम समय में अपने शरीर के प्रमाण का उपर एवं नीचे अलोक पर्यंत, चौदह राजलोक परिमाण दंड बनाता है... तथा द्वितीय समय में औदारिक मिश्र काययोगी वह केवलज्ञानी अपने शरीर के प्रमाण का तीरच्छा अलोक पर्यंत विस्तृत कपाट जैसा कपाट (दिवार) बनाता है... तथा तृतीय समय में कार्मणकाययोगी वह केवलज्ञानी अन्य दो दिशाओं में तिरच्छा अलोक पर्यंत विस्तृत अन्य एक कपाट (दिवार) बनाता है... यहां तक तीन समय की प्रक्रिया के द्वारा मंथान का आकार बन चूका है... मंथान याने दहिं की छाछ बनने वाला रवैया-मंथान-झंगणी... यहां ततीय समय में आत्मप्रदेश अनश्रेणी गमन करतें हैं अत: संपूर्ण लोक प्रायः भरा गया है... मात्र लोकांत भाग में जो जो निष्कुट हैं वे अभी खाली रहे हुए है... अब चौथे समय में कार्मणकाययोगी भगवान् इन निष्कुटों में भी आत्म प्रदेश भर देते हैं... अर्थात् प्रथम के चार समयों में केवलज्ञानी अपने आत्मप्रदेशों को फैलाकर संपूर्ण लोक में छा जातें हैं... केवलिसमुद्घात का काल मात्र आठ (8) समय है, प्रथम के चार समयों में क्रमश: संपूर्ण लोक में फैल जाते हैं, और अंतिम के चार समयों में क्रमशः आत्मप्रदेशों का संहरण करते हुए पुनः अपने शरीर में समा जातें हैं... अब पांचवे समय में निष्कुटों में से आत्मप्रदेशों का संहरण करतें हैं, छठे समय में मंथान का संहरण करते हैं, सातवे समय में कपाट का संहरण करते हैं, एवं आठमे समय में दंड का संहरण कर के शरीरस्थ हो जाते हैं... अर्थात् पश्चानुपूर्वी क्रम से आत्म प्रदेशो का संहरण करते हैं... षष्ठ समय में मंथान का उपसंहार करती वख्त औदारिकमिश्रकाययोग होता है... आठ समय के केवलिसमुद्घात में... प्रथम समय दंड औदारिक-काययोग द्वितीय समय कपाट औदारिकमिश्र-काययोग तृतीय समय मंथान कार्मण काययोग चतुर्थ समय संपूर्ण लोक कार्मण काययोग पंचम समय निष्कुट संहरण कार्मण काययोग षष्ठ समय मंथान संहरण औदारिकमिश्र काययोग सप्तम समय कपाट संहरण औदारिकमिश्र काययोग अष्टम समय दंड संहरण औदारिक काययोग इस प्रकार केवलज्ञानी समुद्घात करने के बाद योग निरोध की प्रक्रिया करतें हैं... वह इस प्रकार... Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 卐 1 - 9 - 0 - 0 // 225 1. सर्व प्रथम बादर मनोयोग का रूंधन करतें हैं 2. उसके बाद बादर वचनयोग का रूंधन करतें हैं 3. उसके बाद बादर काययोग का रूंधन करतें हैं 4. उसके बाद सूक्ष्म मनोयोग का रूंधन करतें हैं 5. उसके बाद सूक्ष्म वचनयोग का रूंधन करतें हैं 6. उसके बाद सूक्ष्म काययोग का रूंधन करतें हैं सूक्ष्म काययोग का निरोध करने के समय वह केवलज्ञानी भगवान् सूक्ष्मक्रिया अप्रतिपाति नाम के शुक्लध्यान के तृतीय पाये में प्रवेश करते हैं... शुक्लध्यान के तृतीय चरण सूक्ष्मक्रिया अप्रतिपाति का ध्यान पूर्ण होने के बाद व्युपरत क्रिया अनिवर्त्ति नाम के चौथे चरण (पाये) में प्रवेश करते हैं यहां संपूर्ण प्रकार से योगों का निरोध हो चूका है, अत: वह केवलज्ञानी अब अयोगिकेवली नाम के चौदहवे (14) गुण स्थानक में बिराजमान हो चूके हैं... अयोगिकेवली नाम के चौदहवे गुणस्थानक का जघन्य एवं उत्कृष्ट, से काल अंतर्मुहूर्त मात्र है... यहां वे अयोगिकेवली भगवान बारह कर्मो का वेदन करतें हैं, अन्य आचार्यों के मत से मनुष्यानुपूर्वी के साथ तेरह (13) कर्मो का वेदन करतें ___ पांच हृस्वाक्षर उच्चारण काल याने पांच मात्रा प्रमाण कालवाले इस चौदहवे गुणस्थानक में रहे हुए वे केवलज्ञानी भगवान्, सत्तागत जिस कर्मप्रकृतियों का उदय नहि है, उन्हे वेद्यमान ऐसी अन्य प्रकृतियों में संक्रमण के द्वारा संक्रमित कर के क्षय करतें हैं... यह कार्य उपांत्य याने द्विचरम समय में होता है... अब द्विचरसमय याने उपान्त्य समय के अंत में 73 कर्मो का अभाव होता है, उन में देवगति के साथ रहनेवाली कर्मप्रकृतियां दश है... 1. देवगति, 2. देवानुपूर्वी, 3. वैक्रिय शरीर, 4. वैक्रिय अंगोपांग, 5. आहारक शरीर, 6. आहारक अंगोपांग, 7. वैक्रियबंधन, 8. वैक्रिय संघातन, 9. आहारक बंधन, 10. आहारक संघातन, तथा और अन्य भी- 11. औदारिक शरीर, 12. औदारिक अंगोपांग, 13. औदारिक बंधन, 14. औदारिक संघातन, 15. तैजस शरीर, 16. तैजस बंधन, 17. तैजस संघातन, 18. कार्मण शरीर, 19. कार्मण बंधन, 20. कार्मण संघातन, 21-26. छह (6) संघयण, 27-32. छह (6) संस्थान, 3337. पांच वर्ण, 38-39. दो गंध, 40-44. पांच रस, 45-52. आठ स्पर्श, 53. मनुष्य आनुपूर्वी, 54. अगुरुलघु, 55. उपघात, 56. पराघात, 57. उच्छ्वास, 58. शुभ विहायोगति, 59. अशुभ विहायोगति, 60. अपर्याप्तक, 61. प्रत्येक, 62. स्थिर, 63. अस्थिर, 54. शुभ, 65. अशुभ, 66. दुर्भग, 67. सुस्वर, 68. दुःस्वर, 69. अनादेय, 70. अपयश:कीर्ति, Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 226 // 1-9-1-1(265) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन 71. निर्माण, 72. नीच गोत्र, 73. साता या असाता कोइ भी एक वेदनीय, इत्यादि सभी मीलाकर यहां 73 कर्मो का क्षय होता है... तथा अंतिम समय में 1. मनुष्य गति नाम कर्म, 2. पंचेंद्रियजाति, 3. त्रस, 4. बादर, 5. पर्याप्तक, 6. सुभग, 7. आदेय, 8. यश:कीर्ति, 9. तीर्थंकरनामकर्म, 10. साता या असाता कोइ भी अवशिष्ट एक वेदनीय, 11, मनुष्य आयुष्य, और 12. उच्च गोत्र... केवलज्ञानी तीर्थंकर परमात्मा अंतिम समय में यह बारह (12) कर्मो का क्षय करते हैं... कितनेक आचार्यों के मत से मनुष्यानुपूर्वी के साथे तेरह (13) कर्मो का क्षय माना गया है... और सामन्य केवलज्ञानी ग्यारह (11) कर्म और मतांतर से बारह (12) कर्मो का क्षय करतें हैं... सकल कर्मो का क्षय होने के बाद उसी क्षण (समय) वह परम पवित्र शुद्ध आत्मा अस्पृशद्गति से सिद्धिगति नाम के लोकाग्र स्थान को प्राप्त करता है... जहां एकांत याने निश्चित, अत्यंत याने संपूर्ण और अनाबाध याने पीडा रहित, सहज आत्मिक सुख का हि एक मात्र अनुभव वेदन है... यहां तक नि. गाथा क्रमांक 284 का तात्पर्यार्थ जानीयेगा... अब उपोद्घात का उपसंहार एवं इस आचारांग सूत्र में कहे गये साधु-आचार का तीर्थंकर परमात्मा ने स्वयं आसेवन कीया है, यह बात कहते हैं.... नि. 285 यहां आचारांगसूत्र में कहे गये पंचाचार का आसेवन तीर्थंकर परमात्मा श्री महावीर स्वामीजी ने स्वयमेव कीया है, अत: इस ग्रंथ में कहे गये आचार का परिपालन कर के धीर गंभीर साधुजन निरुपद्रव एवं अचल ऐसे निर्वाण पद को प्राप्त करते हैं... उपधान भाव निक्षेप स्वरूप ज्ञानादि अथवा तपश्चर्या का स्वयं वर्धमान स्वामीजी ने जीवन में आदर कीया है और परिपालन भी कीया है, अतः अन्य मुमुक्षु भव्य जीवों को ग्रंथकार महर्षि नम्र निवेदक करतें हैं कि- इस आचारांग ग्रंथ में कहे गये आचार का आदर एवं परिपालन करे... यहां ब्रह्मचर्य अध्ययन स्वरूप प्रथम श्रुतस्कंध की नियुक्ति परिपूर्ण हुइ... अब सूत्रानुगम द्वार के प्रसंग में प्राप्त सूत्र का यथाविधि उच्चारण करना चाहिये... वह सूत्र यह है... इति नवमाध्ययने उपक्रम एवं निक्षेप... Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1 - 9 -1 - 1 (265) 227 श्रुतस्कंध - 1 अध्ययन - 9 उद्देशक - 1 // चर्या I सूत्र // 1 // // 265 // 1-9-1-1 अहासुयं वइस्सामि जहा से समणो भगवं उट्ठाए। संखाए तंसि हेमन्ते अहुणो पव्वइए रीइत्था // 265 // // संस्कृत-छाया : यथाश्रुतं वदिष्यामि, यथा सः श्रमण: भगवान् उत्थाय / संख्याय तस्मिन् हेमन्ते, अधुना प्रव्रजित: रीयते स्म // 265 // III सूत्रार्थ : आर्य सुर्धमास्वामी जम्बूस्वामी से कहते हैं कि- हे जम्बू ! मैंने जैसे श्रमण भगवान महावीर की विहार चर्या का श्रवण किया है वैसे ही मैं तुम्हें कहूंगा। जिस प्रकार श्रमण भगवान महावीर ने कर्मों के क्षय के लिये एवं तीर्थ की प्रवृत्ति के लिए संयम मार्ग में उद्यत होकर, उस हेमन्त काल में तत्काल ही दीक्षित होकर विहार किया था। IV. टीका-अनुवाद : . पंचम गणधर आर्य सुधर्मस्वामजी आपने विनीत अंतेवासी शिष्य जंबूस्वामीजी को जिज्ञासा की संतुष्टि के लिये कहते हैं कि- मैंने जो कुछ जैसा सुना है वह बात मैं उसी प्रकार से कहुंगा... अथवा हे जंबू ! मैं सूत्र के भावार्थ को यथासूत्र हि कहुंगा... वह इस प्रकार... श्रमण भगवान् श्री महावीरस्वामीजी श्रमण जीवन का स्वीकार कर के, सभी आभरणादि अलंकारों का त्याग कर के एवं पंचमुष्टि लोच कर के एवं इंद्र ने खभे पर रखे हुए एक देवदूष्य वस्त्र को धारण कर के उद्यतविहार के लिये ग्रामानुग्राम विहार करते हैं... परमात्मा श्री महावीरस्वामीजी ने सामायिक की प्रतिज्ञा की है, प्रभुजी को मनः पर्यवज्ञान प्रगट हुआ है, ऐसे वे परमात्मा ज्ञानावरणीयादि आठ कर्मो का क्षय करने के लिये एवं सकल जीवों के हितकारक तीर्थ की स्थापना करने के लिये पृथ्वीतल पे ग्रामानुग्राम विहार करतें हैं... Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2281 - 9 - 1 - 1 (265) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन __हेमंत ऋतु में मागसर वदी दशमी (गुजरात की दृष्टि से कार्तिक वदी दशमी) के दिन प्रव्रज्या ग्रहण करने के बाद तुरंत अपराह्नकाल में क्षत्रियकुंड गांव से विहार कीया... और दिवस जब एक मुहूर्त शेष रहा तब प्रभुजी करि नाम के गांव में पधारे... यहां से लेकर केवलज्ञान की प्राप्ति पर्यंत विभिन्न प्रकार के अभिग्रह से युक्त श्रमण भगवान् महावीरस्वामीजी ने घोरातिघोर परीषह एवं उपसर्गों को सहन करते हुए एवं महासत्त्वगुण से म्लेच्छ लोगों को भी शांत करते हुए बारह वर्ष से अधिक काल पर्यंत छद्मस्थावस्था में मौनव्रत के साथ तपश्चर्या की.. जब सर्वविरति सामायिक की प्रतिज्ञा परमात्माने ग्रहण की तब इंद्र ने प्रभुजी के खंधे के उपर देवदुष्य रखा था, उस वख्त परमात्मा ने नि:संग अभिप्राय से हि देखा कि- अन्य श्रमण-साधुजन धर्मोपकरण के बिना श्रमणधर्म का अनुष्ठान नहि कर शकेंगे, इस अपेक्षा से मध्यस्थभाव से हि परमात्मा ने उस देवदूष्य-वस्त्र को अपने खंघे पर हि रहने दीया... परमात्मा को उस देवदूष्य-वस्त्र के उपयोग की इच्छा नहि थी, किंतु तीर्थंकारो का कल्प एवं स्थविरकल्य के मार्ग का मात्र सूचन हि था... . V सूत्रसार : आचाराङ्ग सूत्र का प्रारंभ करते समय आर्य सुधर्मास्वामी ने यह प्रतिज्ञा की थी किहे जम्बु ! मैं तुम्हें वही बात कह रहा हूं, जो मैंने श्रमण भगवान महावीर से सुना है। इसके पश्चात् आठ अध्ययनों में इस प्रतिज्ञा को फिर से नहीं दुहराया गया परन्तु नवमें अध्ययन का प्रारम्भ करते हुए इस प्रतिज्ञा को फिर से उल्लेख किया गया है। इसका कारण यह है कि- आठ अध्ययन साध्वाचार से संबन्धित थे. इस लिए उनमें बार-बार उक्त प्रतिज्ञा को दोहराने की आवश्यकता नहीं थी। परन्तु प्रस्तुत अध्ययन भगवान महावीर की साधना से सम्बद्ध होने से यह शंका हो सकती है कि- सूत्रकार ने अपनी ओर से भगवान महावीर की स्तुति की है या उनकी विशेषता को बताने के लिए उक्त अध्ययन का कथन किया है। सूत्रकार के द्वारा आचाराङ्ग सूत्र के प्रारम्भ में की गई प्रतिज्ञा को पुनः दोहराने के बाद भी कुछ लोग प्रस्तुत अध्ययन को भगवान महावीर का गुणकीर्तन ही मानते हैं। उनका कथन है कि- यह भगवान महावीर का यथार्थ जीवन-वर्णन नहीं किन्तु गणधरों ने उनके गुणों का वर्णन किया है। इस तरह की शंकाओं का निराकरण करने के लिए सूत्रकार ने इस "अहासुयं” पद से प्रतिज्ञा सूत्र का फिर से उल्लेख किया है। सूत्रकार ने प्रस्तुत अध्ययन में यह स्पष्ट कर दिया है कि- भगवान महावीर के जीवन के सम्बन्ध में मैं अपनी ओर से कुछ नहीं कह रहा हूं। मैने भगवान महावीर से उनकी संयम Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1 - 9 - 1 - 1 (265) 229 साधना के विषय में जैसा सुना है, वैसा ही तुम्हें बता कहा हूं, अर्थात् प्रस्तुत अध्ययन भगवान की स्तुति मात्र नहीं, किन्तु, भगवान महावीर की साधना का यथार्थ चित्र है सूत्रकृतांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध के छठे अध्ययन में भगवान महावीर का गुण कीर्तन किया है और उस अध्ययन का नाम है- “वीर स्तुति' अध्ययन। यदि प्रस्तुत अध्ययन में गणधर भगवान ने स्तुति की होती तो वे सूत्रकृताङ्ग की तरह यहां भी उल्लेख करते। परन्तु उक्त अध्ययन में सूत्रकार ने अपनी ओर से कुछ नहीं कहा है। वे कहते हैं कि- जैसा भगवान महावीर ने अपनी संयम-साधना का वर्णन किया है, वही मैं तुम्हें सुनाता हूं। ___ भगवान महावीर का जन्म क्षत्रियकुण्ड नगर में हुआ था। महाराज सिद्धार्थ उनके पिता एवं महारानी त्रिशला उनकी माता थी। वे अपने किसी पूर्वभव में आबद्ध तीर्थंकर नामकर्म के कारण इस अवसर्पिणी काल के २४वें तीर्थंकर हुए। जन्म के समय ही वे मति, श्रुत एवं अवधि तीन ज्ञान से युक्त थे। वे शरीर से जितने सुन्दर थे, उससे भी अधिक उनका अंतर जीवन दया, करूणा, क्षमा, उदारता एवं वीरता आदि गुणों से परिपूर्ण था। उनका विवाह यशोदा नाम की राजकुमारी के साथ हुआ जिससे प्रियदर्शना नामक कन्या का जन्म हुआ, जिसका राजकुमार जमाली के साथ विवाह किया गया। आप संसार में रहते हुए भी संसार से अलिप्त रहते थे। आप अपनी गर्भ में की हुई प्रतिज्ञा के अनुसार माता-पिता के जीवित रहते उनकी सेवा में संलग्न रहे। उनके स्वर्गवास के पश्चात् आपने अपने ज्येष्ठ भ्राता नन्दीवर्द्धन के सामने दीक्षा लेने का विचार रखा। अभी माता-पिता का वियोग हुआ ही था और अब भाई वर्धमान के विरह की बात को एकदम वे सह नहीं सके। अत: बडे भाई नंदिवर्धन के अत्यधिक आग्रह के कारण आप दो वर्ष और गृहस्थवास में ठहर गए। और इन दो वर्षों में त्याग-निष्ठ जीवन बिताते रहे। फिर एक वर्ष अवशेष रहने पर उन्होंने प्रतिदिन 1 करोड 8 लाख सोनैयों का दीन-हीन तथा गरीब जनों को दान देना आरम्भ किया और एक वर्ष तक निरन्तर दान देते रहे। इस दान को “संवच्छरी-दान' कहा जाता है... . उसके पश्चात् मार्गशीर्ष कृष्णा दशमी के दिन, दिन के चतुर्थ प्रहर में भगवान ने गृहस्थ जीवन का त्याग करके साधु जीवन को स्वीकार किया। गृहस्थ जीवन के समस्त वस्त्राभूषण आदि को उतार कर एवं पंचमुष्टि लुंचन करके सामायिकसूत्र ‘करेमि भंते' के पाठ का उच्चारण करके समस्त सावद्य योगों से निवृत्त होकर साधना जीवन में प्रविष्ट हुए और साधना जीवन में प्रवेश करते ही उन्हें चौथा मन:पर्यवज्ञान उत्पन्न हो गया। उस समय इन्द्र ने उन्हें एक देवदूष्य वस्त्र प्रदान किया, जिसे स्वीकार करके भगवान महावीर ने वहां से कुमार ग्राम की ओर विहार कर दिया। और साढ़े बारह वर्ष से कुछ अधिक समय तक मौन साधना एवं Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2301 -9-1-2(266) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन घोर तपश्चर्या के द्वारा चार घातिकर्मों को सर्वथा क्षय करके केवलज्ञान और केवलदर्शन को प्राप्त किया। इससे स्पष्ट होता है कि- साधक को अपने स्नेही सम्बन्धियों के साथ अधिक समय तक नहीं रहना चाहिए। इससे अनुराग एवं मोह की जागृति होती है और मोह साधक के जीवन में अतिचार लगानेवाला है। अतः भगवान ने केवल उपदेश देकर ही नहीं, किंतु स्वयं उसका आचरण करके बताया कि- साधना के क्षेत्र में प्रविष्ट साधक को किस तरह ग्रामानुग्राम विचरना चाहिए। भगवान महावीर ने इन्द्र द्वारा प्रदत्त देवदूष्य वस्त्र का स्वीकार क्यों किया ? इसका विवेचन करते हुए सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहते हैं... I सूत्र // 2 // // 266 // 1-9-1-2 णो चेविमेण वत्थेण पिहिस्सामि तंसि हेमन्ते / से पारए आवकहाए, एवं खु अणुधम्मियं तस्स // 266 // संस्कृत-छाया : नो चैवानेन वस्त्रेण, पिधास्यामि तस्मिन् हेमन्ते / सः पारगः यावत्कथं, एतत् खलु अनुधार्मिकं तस्य // 266 // III सूत्रार्थ : मैं इस वस्त्र से हेमन्त काल में शरीर को शीत से बचाऊंगा इस आशय से भगवान ने वस्त्र ग्रहण नहीं किया। किन्तु पूर्व कालीन तीर्थंकरों ने इसे ग्रहण किया है, इसलिए भगवान ने भी स्वीकार किया अर्थात् एवं आचरित होने से इन्द्र प्रदत्त देवदूष्य वस्त्र को भगवान ने ग्रहण किया। II IV टीका-अनुवाद : ग्रहण की हुइ सामायिक की प्रतिज्ञा को पार पानेवाले पारग भगवान्, अथवा तो परीषहों को जितने वाले पारग भगवान्, अथवा तो चार गति स्वरूप संसार को पार उतरने में समर्थ ऐसा पारग भगवान् श्री महावीर स्वामीजी ने इंद्र द्वारा खंधे पे रखे हुए देवदूष्यवस्त्र से मैं अपने शरीर को ढांक के रखूगा ऐसा नहि सोचा था, अथवा तो हेमंत ऋतु की ठंडी से मैं इस देवदुष्य के द्वारा शरीर की रक्षा करूंगा ऐसा भी नहि सोचा था, अथवा तो लज्जा की सुरक्षा के भाव से भी उस देवदूष्य वस्त्र को धारण नहि कीया था, किंतु अन्य Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1 - 9 -1 - 2 (266) 231 तीर्थंकरों ने देवदुष्य धारण कीया था, वर्तमानकाल में धारण करते हैं, और भविष्यकाल में धारण करेंगे इस अभिप्राय से हि परमात्मा ने उस देवदूष्य को अपने खंधे पे रहने दीया था... ____ आगम सूत्र में भी कहा है कि- हे जंबू ! मैं (सुधर्मस्वामीजी) तुम्हे यह कहता हूं कि- मैंने परमात्मा के मुख से सुना है, कि- अतीतकाल के वर्तमानकाल के एवं भविष्यत्काल के जो कोइ अरिहंत भगवान् प्रव्रजित हुए हैं, होतें हैं, और होएंगे, वे सभी सोपकरण धर्म कहतें हैं... इस अभिप्राय से तीर्थधर्म के प्रवर्तन के लिये अनुधार्मिकता याने परंपरागत त्रैकालिक यह आचरण है, कि- एक देवदुष्य लेकर सभी तीर्थंकर परमात्मा प्रव्रजित हुए हैं, होते हैं, और प्रव्रजित होएंगे... इत्यादि... ___ अन्यत्र भी कहा है कि- सवस्त्र याने उपकरणवाला धर्म महान् है, इस बात की प्रतीति शिष्य को हो, इस अभिप्राय से हि श्रमण भगवान् महावीर स्वामीजीने देवदूष्य-वस्त्र को धारण कीया था... अन्य कोइ लज्जा आदि कारणों से नहि... v सूत्रसार : प्रस्तुत गाथा में बताया गया है कि- दीक्षा लेते समय इंद्रप्रद्रत देवदूष्य को धारण करने में प्रयोजन क्या है ? सामन्य से वस्त्र स्वीकार करने के प्राय: तीन कारण होते हैं- 1. हेमन्त, सर्दी में शीत से बचने के लिए, 2. लज्जा ढकने के लिए और 3. जुगुप्सा को जीतने का सामर्थ्य न हो तो। किंतु भगवान ने इन तीनों कारणों से वस्त्र को स्वीकार नहीं किया था क्योंकिवे समस्त परीषहों को जीतने में समर्थ थे परन्तु पूर्व कालीन तीर्थंकरों द्वारा आचरित परम्परा को निभाने के लिए या अपने संघ में होने वाले साधु-साध्वियों के लिए सोपकरण मार्ग स्पष्ट करने के लिए उन्होंने देवदूष्य को स्वीकार करके अपने कन्धे पर रहने दीया...। ____ सभी साधकों की बाहरी सहिष्णुता एक समान नहीं होती। सभी साधक महावीर नहीं बन सकते। इसलिए स्थविर कल्प मार्ग की आचार परम्परा को स्पष्ट करने के लिए उन्होंने वस्त्र ग्रहण किया। क्योंकि- साधना का सम्बन्ध आत्मा के विशुद्ध भावों से है, राग-द्वेष को क्षय करने से है। वस्त्र रखने एवं नहीं रखने से उसमें कोई अन्तर नहीं पड़ता। इसलिए भगवान महावीर ने न तो वस्त्र रखने का निषेध किया और न वस्त्र त्याग का ही निषेध किया। किंतु उन्होंने तीर्थपरम्परा को अनवरत चालू रखने के लिए वस्त्र को ग्रहण किया। इससे स्पष्ट होता है कि- भगवान ने अभिनव धर्म की स्थापना नहीं की, किंतु पूर्व से चले आ रहे धर्म को आगे बढ़ाया। पूर्व के समस्त तीर्थंकरों द्वारा प्ररू पित त्रैकालिक सत्य का उपदेश दिया, जनता को धर्म का यथार्थ मार्ग बताया। इस प्रकार “अणुधम्मियं' पद से स्पष्ट होता है कि- भगवान महावीर ने पूर्व परम्परा के अनुसार आचरण किया। वृत्तिकार Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 232 // 1-9-1-3 (267) // श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन ने भी इसी बात का समर्थन किया है और आगम के पाठ का उद्धरण देकर वस्त्र रखने की परम्परा का समर्थन किया है। “अनुधर्मिता" शब्द का अर्थ चूर्णि में गर्तानुगत किया है। इसका अभिप्राय यह है कि- भगवान ने दीक्षा के समय एक वस्त्र रखने की परम्परा का पालन किया हैं... तथा चूर्णि में इसका एक दुसरा पाठ ‘अनुकालधम्म' भी दिया गया है और उसका अभिप्राय यह है कितीर्थंकर परमात्मा सोपधिक-(वस्त्र-पात्र आदि उपधि सहित) धर्म का उपदेश देते हैं... अनुधर्मिता शब्द का प्रयोग संस्कृत कोष में नहीं मिलता, किन्तु पालिकोष को देखने से ज्ञात होता है कि- पालि में यह शब्द 'अनुधम्मता' रूप से मिलता है। कोष में इसका अर्थ-धर्म सम्मतता, (धर्म के अनुरूप) किया गया है। पालि में ‘अनुधम्म' शब्द का भी प्रयोग मिलता है। उसका भी (नियम के अनुसार), (धर्म सम्मतता), (सम्बन्ध), (सार), (दृढता, अनुकूलता), (सच्चाई) अर्थ किया गया है। पालि में 'धम्माणुधम्म' शब्द का प्रयोग भी मिलता है। उसका अर्थ है- मुख्य-गोण सभी प्रकार का धर्म। इन शब्दों के प्रयोग और उनके अर्थों पर ध्यान दिया जाए तो ‘अनुधार्मिकता' का अर्थ होता हे कि- भगवान महावीर ने धर्म के अनुकूल आचरण किया। और चूर्णिकार एवं टीकाकार ने भी जो अर्थ किया है, वह.भी असंगत नहीं है। क्योंकिअब यह प्रश्न उठता है कि- धर्म कौन सा ? तब उत्तर यही मिलता है- 'जो पूर्व में आचरण का विषय बना हो।' अत: वह केवल धर्म नहीं बल्कि अनुधर्म-परम्परा से प्रवहमान धर्म है। चूर्णिकार का ‘अनुकालधर्म' भी सामर्थ्य लब्ध अर्थ माना जा सकता है। जैसा उन्होंने स्वयं आचरण किया, वैसा आचरण दूसरे साधु भी करें। इस अपेक्षा से ‘अनुकालधर्म' भी असंगत नहीं कहा जा सकता है। इससे यह स्पष्ट हो गया कि- भगवान महावीर ने शीत आदि निवारण करने की भावना से वस्त्र को स्वीकार नहीं किया। क्योंकि- दीक्षा लेते ही उन्होंने यह प्रतिज्ञा धारण कर ली थी कि- मैं इस वस्त्र का हेमन्त में उपयोग नहीं करूंगा अर्थात् सर्दी के परीषह से निवृत्त होने के लिए इससे अपने शरीर को आवृत्त नहीं करूंगा। दीक्षा लेने के पूर्व भगवान के शरीर पर चन्दन आदि सुगन्धि पदार्थों का विलेपन किया गया था। उस सुगन्ध से आकर्षित होकर भ्रमर आदि जन्तु भगवान को कष्ट देने लगे। उसका वर्णन करते हुए सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहते हैं... I सूत्र // 3 // // 267 // 1-9-1-3 चत्तारि साहिए मासे, बहवे पाणाजाइया अभिगम्म / Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 卐१- 9 -1-3 (267) // 233 * अभिरुज्झ कायं विहरिंसु, आरूसिया णं तत्थ हिंसिसु // 267 // - II संस्कृत-छाया : चतुरः समर्धिकान् मासान्, बहवः प्राणिजातयः समागत्य / आरुह्य कायं विजहुः, आरुह्य तत्र हिंसन्ति स्म // 267 // III सूत्रार्थ : - भगवान महावीर के शरीर एवं देवदूष्य वस्त्र से निकलने वाली सुवास से आकर्षत होकर बहुत सी जातियों के भ्रमर आदि क्षुद्र जंतु उनके शरीर पर बैठने एवं रहने लगे और करीबन साढ़े चार महीने तक उनके शरीर पर डंक मारते रहे। IV टीका-अनुवाद : प्रव्रज्या ग्रहण करने के वख्त देवों ने परमात्मा के शरीर के उपर जो दिव्य सुगंधि चंदन आदि का विलेपन कीया था, उस सुगंध से आकर्षित हुए भ्रमर आदि अनेक क्षुद्र जंतु चार महिने से अधिक समय पर्यंत लोही एवं मांस के भक्षण के लिये परमात्मा के शरीर पे आये और यहां वहां चारों तरफ डंख दीये... V. सूत्रसार : दीक्षा के पूर्व भगवान को सुगन्धित द्रव्यों से मिश्रित जल से स्नान कराया गया था और उनके शरीर पर चन्दन आदि सुगन्धित पदार्थ लगाए थे। उन पदार्थों एवं देवदूष्य वस्त्र से निकलने वाली सुवास से आकर्षित होकर भ्रमर, मधु-मक्खी आदि अनेक जंतु उनके शरीर पर बैठने लगे एवं सुगंध का आनन्द लेने के साथ-साथ भगवान के शरीर पर डंक भी मारने लगे। कुछ जंतुओं ने तो भगवान के शरीर को ही आवास स्थान बना लिया। इतना कष्ट होने पर भी भगवान उन्हें हटाते नहीं थे। वे शारीरिक चिन्तन से ऊपर उठकर केवल आत्म चिन्तन धर्मध्यान में संलग्न रहते थे। स्वयंसंबुद्ध भगवान महावीर की साधना विशिष्ट साधना है। सामान्य साधक अपने शरीर पर बैठने वाले मच्छर आदि जन्तुओं को यतना पूर्वक हटा भी देता है। वह साधु इतना ध्यान अवश्य रखता है कि- अपने शरीर का बचाव करते हुए दूसरे के शरीर का नाश न हो। इसलिए साधक प्रमार्जनी के द्वारा धीरे से उस जंतु को बिना आघात पहुंचाए अपने शरीर से दूर कर देता है। परन्तु, विशिष्ट साधक उन्हें हटाने का प्रयत्न नहीं करते। वे अपने मन में भी उनको दूर करने की कल्पना तक नहीं करते। क्योंकि- वे शरीर पर से अपना ध्यान हटा चुके हैं। उनका चिन्तन केवल आत्मा की ओर लगा हुआ है। इस तरह भगवान महावीर Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 234 // 1- 9 - 1 - 4 (268) // श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन ने साढ़े चार महीने तक जन्तुओं के परीषहों को समभाव पूर्वक सहन किया। ध्यान एवं आत्म-चिन्तन में संलग्न प्रत्येक साधक के लिए यह बताया गया है किउस समय वह शरीर पर से ध्यान हटाकर आत्मभाव में स्थित रहे। ध्यान को कायोत्सर्ग भी कहते हैं। कायोत्सर्ग का अर्थ है- काय (शरीर) का त्याग कर देना। यहां शरीर त्याग का अर्थ- मर जाना नहीं, किन्तु शरीर से अपना ध्यान हटा लेना होता है। उस समय कोई भी जीव-जन्तु उसके शरीर पर डंक भी मारे तब भी वह साधक अपनी साधना से विचलित न होते हुए ओर उस जंतु को न हटाते हुए समभाव पूर्वक अपनी साधना एवं चिन्तन में संलग्न रहे। इस प्रकार की आत्म साधना से कर्मों का क्षय होता है। भगवान महावीर ने यह साधना केवल कायोत्सर्ग ध्यान के समय ही नहीं, किंतु सदा-सर्वदा चालू रखी। वह देवदूष्य वस्त्र भगवान के पास कब तक रहा इसका उल्लेख करते हुए सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहते हैं... I सूत्र // 4 // // 268 // 1-9-1-4 संवच्छरे साहियं मासं, जं न रिक्कासि वत्थगं भगवं। . अचेलए तओ चाइ तं वोसिज्ज वत्थमणगारे // 268 // // संस्कृत-छाया : सम्वत्सरं साधिकं मासं यन्न त्यक्तवान् वस्त्रं भगवान् / अचेलकः ततः त्यागी, तत् व्युत्सृज्य वस्त्रमनगारः // 268 // III सूत्रार्थ : भगवान 13 महीने तक वस्त्र को धारण किए हुए रहे तत्पश्चात् वस्त्र को छोडकर वे अचेलक हो गए। IV टीका-अनुवाद : श्रमण भगवान् महावीर स्वामीजी के शरीर के उपर इंद्र ने रखा हुआ देवदूष्य-वस्त्र एक वर्ष एवं कुछ दिन अधिक एक महिना अर्थात् तेरह महिने से कुछ अधिक समय पर्यंत रहा... वस्त्र धारण करना यह स्थविरकल्प है, इस अभिप्राय से परमात्मा ने वस्त्र को धारण कीया... और उस के बाद उस देवदूष्य-वस्त्र का त्याग कर के श्रमण भगवान् श्री महावीर स्वामीजी वस्त्र रहित अचेलक अणगार (साधु) बने. Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1- 9 -1 - 5 (269) 235 - यहां वस्त्र त्याग का प्रसंग ऐसा उपस्थित हुआ कि- सुवर्णवालुका नदी में पाणी के पूर से आये हुए कांटे में वह देवदूष्य-वस्त्र लगने से गिर पडा, और ब्राह्मण ने उस वस्त्र को ले लिया... V सूत्रसार : प्रस्तुत गाथा में बताया गया है कि- इन्द्र द्वारा प्रदत्त देवदूष्य वस्त्र भगवान के पास साधिक तेरह महिने रहा। उसके पश्चात् भगवान ने उसका त्याग कर दिया और वे सदा के लिए अचेलक हो गए। सभी तीर्थंकरों की यही मर्यादा है कि- वे देवदूष्य वस्त्र के अतिरिक्त अन्य किसी वस्त्र को स्वीकार नहीं करते। उसका त्याग होने के बाद वे अचेलक ही रहते हैं। भगवान महावीर ने भी उसी परम्परा का अनुकरण किया। इस गाथा में ‘चाई' और 'वोसिज्ज' दो पद दिए हैं। पहले पद का अर्थ है त्यागी। इसका तात्पर्य यह हुआ कि- त्याग करने पर ही त्यागी होता है। और साधक अपनी साधना का विकास करने के लिए या विशिष्ट साधना के लिए सदा कुछ न कुछ त्याग करता ही है। इसका यह अर्थ नहीं है कि- वह पदार्थ उसकी साधना को दूषित करनेवाला है, इसलिए वह उसका त्याग करता है। किंतु यहां तात्पर्य इतना ही है कि- विशिष्ट साधना के लिए साधक परिग्रह का त्याग करता है। जैसे तपश्चर्या की साधना करनेवाला साधक आहार-पानी का त्याग कर देता है। इससे यह समझना गलत एवं भ्रान्त होगा कि- आहार संयम का बाधक है, इत्यादि... वह साधु संयम पालन के लिए आहार का त्याग नहीं करता, किंतु विशेष तप साधना के लिए आहार का परित्याग करता है। इसी तरह नि:स्पृह भाव से वस्त्र रखते हुए भी शुद्ध संयम का पालन हो सकता है। फिर भी कुछ विशिष्ट साधक विशिष्ट साधना या शीत-ताप एवं दंशमशक आदि परीषहों को सहन करने रूप तप की विशिष्ट साधना के लिए वस्त्र का त्याग करते हैं; जैसे कि- भगवान महावीर ने किया था। भगवान ने वस्त्र का कैसे परित्याग किया इसका विस्तृत विवेचन कल्पसूत्र की सुबोधिका टीका में किया गया है। यहां वृत्तिकार ने इतना ही बताया है कि- एक बार भगवान सुवर्णबालुका नदी के किनारे चल रहे थे। उस समय उसके प्रवाह में बहकर आए हुए कांटों में फंसकर वह वस्त्र उनके कन्धे पर से गिर गया। भगवान ने उसे उठाने का प्रयत्न नहीं किया। वे उसे वहीं छोडकर आगे बढ़ गए। और एक ब्राह्मण ने उस वस्त्र को उठा लिया। अब भगवान के विहार का वर्णन करते हुए सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहते हैं... सूत्र // 5 // // 269 // 1-9-1-5 अदु पोरिसिं तिरियं भित्तिं चक्खुमासज्ज अंतसो झायइ। Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 236 // 1-9-1-5 (269) // श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन अह चक्खुभीया संहिया ते हन्ता हन्ता बहवे कंदिसु // 269 // II संस्कृत-छाया : अथ पौरुषी तिर्यग्भित्तिं, चक्षुरासाद्य अन्त:ध्यायति। अथ चक्षुर्भीताः संहिता, यो हत्वा हत्वा बहवः चक्रन्दुः // 269 // III सूत्रार्थ : श्रमण भगवान महावीर, पुरुष प्रमाण आगे के मार्ग को देखते हुए अर्थात् रथकी धुरी प्रमाण भूमि को देख कर ईर्यासमिति में ध्यान देकर चलते हैं। उनको चलते हुए देख कर उनके दर्शन से डरे हुए बहुत से बालक इकट्ठे होकर भगवान पर धूल फेंकते हैं और वे अन्य बालकों को बुलाकर कहते हैं कि- देखो देखो ! यह मुंडित कौन है ? वे इस प्रकार कोलाहल करते हैं। IV टीका-अनुवाद : अब प्रात:काल होने के बाद जब प्रथम पोरसी पूर्ण हुइ उस वख्त शरीर प्रमाण छाया (पडछायो) रही तब परमात्मा ईर्यासमिति से गमन करतें हैं... यहां “ईर्यासमिति से गमन करना" यह हि धर्मध्यान है... ___ अब ग्रामानुग्राम विहार कर रहे परमात्मा को देखकर कितनेक अबुध किशोर लकडे डरकर दौडतें हैं, और बाद में अनेक लडके मीलकर परमात्मा के प्रति धूल-रेत. उडातें हैं, पत्थर फेंकतें हैं और पोकार करते हैं, तो कितनेक लडके आक्रोश के साथ बोलते हैं कियह नग्न एवं मुंडन कीया हुआ कौन है ? कहां से आया है ? इत्यादि कलकलारव करतें हैं... V सूत्रसार : साधना का जीवन निवृत्ति का जीवन है। परन्तु, शरीर युक्त प्राणी सर्वथा निवृत्त नहीं हो सकता। उसे आवश्यक कार्यों के लिए कुछ न कुछ प्रवृत्ति करनी होती है। इसलिए साधना के क्षेत्र में भी निवृत्ति के साथ प्रवृत्ति का उल्लेख किया गया है। अतः निवृत्ति साधना की तरह सहायक समिति प्रवृत्ति भी धर्म है। फिर भी, दोनों में अंतर इतना ही है कि- निवृत्ति उत्सर्ग और प्रवृत्ति अपवाद है। या यों कहिए कि- निवृत्ति के लिए आवश्यक या अनिवार्य कार्य होने पर ही प्रवृत्ति समिति का उपयोग किया जाए। जैसे मौन रखने के लिए बोलने की आवश्यकता होने पर ही साधु भाषासमिति के द्वारा निर्दोष एवं मर्यादित भाषा का प्रयोग करे। . __इस निवृत्ति और प्रवृत्ति के लिए गुप्ति एवं समिति शब्द का प्रयोग किया गया है। समिति प्रवृत्ति का प्रतीक है और गुप्ति निवृत्ति जीवन का संसूचक है। प्रत्येक साधक की साधना Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका #1-9-1-6 (270) 237 संमिति एवं गुप्ति से युक्त होती है / भगवान महावीर भी समिति-गुप्ति से युक्त थे। वे जब भी चलते थे तब ईर्यासमिति के साथ चलते थे। इससे रास्ते में विद्यमान किसी भी जीव की विराधना नहीं होती थी। वे रास्ते में आने वाले प्रत्येक जीव-जंतुओ को बचाकर अपना मार्ग तय कर लेते थे। यदि दृष्टि में एकाग्रता न हो तो रास्ते में आने वाले छोटे-बडे जंतुओं की हिंसा से बच सकना कठिन है। इस लिए यह नियम बना दिया गया है कि- साधक को ईर्यासमिति से विवेक पूर्वक चलना चाहिए। भगवान महावीर ने इसका स्वयं आचरण करके बताया कि- साधक को किस प्रकार चलना चाहिए। भगवान महावीर केवल उपदेशक हि नहीं थे किंतु उन्होंने उपदेश देने से पहले स्वयं आचरण करके साधना के मार्ग को बनाया है... भगवान महावीर को पथ से गुजरते हुए देखकर बहुत से बालक डर कर कोलाहल मचाते और अन्य बालकों को बुलाकर भगवान पर धूल फेंकते और हो-हल्ला मचाते। इससे भगवान का कुछ नहीं बिगडता। वे उनकी ओर दृष्टि उठाकर भी नहीं देखते परंतु वे समभाव पूर्वक अपने पथ पर विचरते रहते। इस तरह सभी परीषहों को सहते हुए भगवान ईर्यासमिति के द्वारा मार्ग को देखते हुए विचरते थे। पहले महाव्रत-अहिंसा का वर्णन करके अब सूत्रकार चौथे महाव्रत के विषय में आगे के सूत्र से कहते हैं... I सूत्र // 6 // // 270 // 1-9-1-6 सयणेहिं वितिमिस्सेहिं इथिओ तत्थ से परिन्नाय / सागारियं न सेवेइ य, से सयं पवेसिया झाइ // 270 // संस्कृत-छाया : शयनेषु व्यतिमिश्रेषु, स्त्रियः तत्र सः परिज्ञाय। सागारिकं न सेवेत, स स्वयं प्रवेश्य ध्यायति // 270 // III सूत्रार्थ : जब गृहस्थों एवं अन्यमत के सन्तों से मिश्रित वस्तियों में ठहरे हुए भगवान को देखकर वहां रही हुइ महिलाएं यदि विषय भोग के लिए प्रार्थना करती तब भगवान् मैथुन के विषम परिणाम को जानकर उसका सेवन नहीं करते थे। वे स्वयं अपनी आत्मा से वैराग्य मार्ग में प्रवेश करके सदा धर्म एवं शुक्ल ध्यान में हि संलग्न रहते थे। Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 238 // 1- 9 - 1 - 7 (271) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन IV टीका-अनुवाद : कभी गृहस्थलोग एवं अन्यतीर्थिक साधुओं से मिश्रित वसति में श्रमण भगवान् महावीर स्वामीजी कायोत्सर्ग ध्यान करते हैं, तब कभी कोइ स्त्रीजन कामराग से कामक्रीडा के लिये प्रार्थना करे तब परमात्मा यह सोचते हैं कि- यह स्त्रीजन शुभमार्ग में अर्गला के समान विघातक हैं, इत्यादि सोचकर परमात्मा ज्ञ परिज्ञा से जानकर प्रत्याख्यान परिज्ञा से उन स्त्रीजनों की प्रार्थना का परिहार करते हुए कामविकार का सेवन नहिं करतें... अर्थात् मैथुनक्रीडा नहिं करतें... तथा कभी शून्य वसति में ठहरे हो, तब भी कामविकारों के भाव का त्याग कर के परमात्मा स्वयं अपने आत्मा से हि अपनी आत्मा को वैराग्यमार्ग में जोडकर धर्मध्यान एवं शुक्लध्यान का आलंबन लेते हैं... V सूत्रसार : यह हम देख चुके हैं कि- भगवान महावीर सदा-सर्वदा आत्म-चिन्तन में संलग्न रहते थे। वे प्रायः गांव के बाहर या जंगल में ही ठहरते थे। फिर भी इधर-उधर से गुजरते समय उनके रूप-सौंदर्य को देखकर कुछ कामातुर स्त्रियां उनके पास पहुंचकर भोग-भोगने की इच्छा प्रकट करती थी। वे अनेक तरह के हाव-भाव प्रदर्शित करके उन्हें अपनी ओर आकर्षित करने का प्रयत्न करती थी। परन्तु भगवान उस ओर ध्यान ही नहीं देते थे। क्योंकि- वे विषयवासना के विषाक्त परिणामों से परिचित थे। वे जानते थे कि- ये भोग ऊपर से मधुर प्रतीत होते हैं, परन्तु इनका परिणाम बहुत भयावना होता है। जैसे किंपाक फल देखने में सुन्दर लगता है, उसकी सुवास भी बडी सुहावनी होती है, उसका स्वाद भी मधुर होता है और उसका उपयोग करने वाले व्यक्ति को वह बडा प्रिय लगता है। परन्तु, खाने के बाद जब उसका परिणमन होता है. तब मनुष्य को प्राणांत कष्ट होता है। इस तरह रूप आदि में सुन्दर प्रतीत होने वाला वह फल परिणाम की दृष्टि से भयंकर है, उसी प्रकार काम-भोग बाहर से मनोज्ञ प्रतीत होने पर भी परिणाम की दृष्टि से दुःखद ही हैं। वे अनेक रोगों के जन्मदाता है, शारीरिक शक्ति का ह्रास करने वाले हैं और आत्मा को संसार में परिभ्रमण कराने वाले हैं। इसलिए भगवान ने न तो स्त्रीजन की ओर आंख उठाकर देखा और न उनकी बातों पर ही ध्यान दिया। वे सदा-सर्वदा समभाव पूर्वक अपने आत्म-चिन्तन में संलग्न रहते थे। इसी विषय को और अधिक स्पष्ट करते हुए सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहते हैं... सूत्र // 7 // // 271 // 1-9-1-7 जे केइमे अगारत्था, मीसीभावं पहाय से झाइ। पुट्ठोवि नाभिभासिंसु गच्छइ नाइवत्तइ अंजू // 271 // Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1-9-1-7(271) 239 II संस्कृत-छाया : ये केचन इमे अगारस्था मिश्रीभावं प्रहाय स ध्यायति / पृष्टोऽपि नाभिभाषते, गच्छति नातिवर्तते ऋजुः // 271 // III सूत्रार्थ : - गृहस्थों से मिश्रित स्थान प्राप्त होने पर भी भगवान मिश्रभाव को छोडकर धर्मध्यान में ही रहते थे। गृहस्थों के पूछने या न पूछने पर भी वे नहीं बोलते थे। अपने कार्य की सिद्धि के लिए गमन करते थे। और किसी के कहने पर भी मोक्षमार्ग या आत्मचिन्तन का त्याग नहीं करते थे। अथवा ऋजु परिणामी भगवान संयम मार्ग में विचरते रहते थे। IV टीका-अनुवाद : अगार याने घर... घर में रहनेवाले गृहस्थों से मिश्रित वसति में जब कभी ठहरे हुए हो, तब परमात्मा द्रव्य एवं भाव से मिश्रभाव का त्याग कर के मात्र एक धर्मध्यान में हि लीन होते हैं... तथा कोइ निमित्त से गृहस्थों के पुछने पर या बिना पुछे हि परमात्मा कुछ भी नहि बोलतें... किंतु सदा मौनभाव में रहते हैं, और अपने कर्तव्यानुष्ठान के अनुसार यथाकाल विहार करते हैं... यहां सारांश यह है कि- परमात्मा संयम स्वरूप मोक्षमार्ग में अविचलित हि रहतें हैं... कभी भी कहिं पापानुष्ठान में अनुमति नहि देतें... किंतु मौन हि रहतें V. सूत्रसार : .. भगवान महावीर प्रायः जंगल में या गांव के बाहर शून्य स्थानों में ठहरते थे। कभी वे परिस्थितिवश गृहस्थों से युक्त स्थान में अथवा शहर या गांव के बीच भी ठहरते थे। परन्तु; ऐसे स्थानों में भी वे उनके संपर्क से दूर रहते थे। वे अपने आत्मचिन्तन में इतने संलग्न थे कि- उनका मन गृहस्थों की ओर जाता ही नही था। यदि कोई व्यक्ति उन्हें बुलाने का प्रयत्न करता, उनसे कुछ पूछना चाहता तो भी वे नहीं बोलते थे। न उनकी बातों को सुनते थे और न उसका कोई उत्तर भी देते थे। इसका यह तात्पर्य नहीं कि- गृहस्थों के शब्द उनके कर्ण-कुहरों में प्रविष्ट ही नहीं होते थे। शब्द तो उनके कानों में पड़ते थे, परन्तु, उन्हें ग्रहण करने वाला मन या चित्तवृत्ति आत्मचिन्तन में लगी हुई थी, इसलिए उन्हें उनकी अनुभूति ही नहीं होती थी। क्योंकि- मन जब तक किसी विषय को ग्रहण नहीं करता तब तक केवल इन्द्रिया उन विषयों में व्याकुल नहि हो सकतीं। भरत चक्रवर्ती के समय की बात है कि- सुनार के मन में स्थित संदेह- "भरत चक्रवर्ती Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2401 - 9 -1 - 7 (271) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन मेरे से अल्प परिग्रही कैसे हैं ?' को दूर करने के लिए उसे एक तैल का कटौरा भरकर दिया और सुसज्जित बाजार का चक्कर लगाकर आने का आदेश दिया। साथ में यह भी सूचित कर दिया कि इस कटोरे से एक भी बन्द नीचे नही गिरनी चाहिए। यदि तैल का एक बन्द भी गिर गया तो यह साथ में जाने वाले सिपाही ही तुम्हारे मस्तक को धड़ से अलग कर देंगे। वह पूरे बाजार में घूम आया। बाजार खूब सजाया हुआ था। स्थान-स्थान पर नृत्यगान हो रहे थे। परन्तु, वह जैसा गया था वैसा ही वापिस लौट आया। जब भरत ने पूछा कि- तुमने बाजार में क्या देखा ? तुम्हें कौन सा नृत्य या गायन पसन्द आया ? तो उसने कहा महाराज मैं ने बाजार में कुछ नहीं देखा और कुछ नहीं सुना। यह नितान्त सत्य है किमेरी आंखे खुली थी और कानों के द्वार भी खुले थे। नृत्य एवं गायन की ध्वनि कानों में पड़ती थी और दृष्टि पदार्थों पर गिरती थी, परन्तु मेरा मन, मेरी चित्तवृत्ति तैल के कटोरे में ही केन्द्रित थी। इसलिए उस ध्वनि को मेरा मन पकड़ नहीं पाया। जैसे समुद्र की लहरें किनारे से टकराकर पुन: समुद्र में विलीन हो जाती हैं, उसी तरह वह ध्वनि कर्ण कुहरों से टकराकर पुनः लोक में फैल जाती थी। भरत ने उसे समझाया कि- तेरी और मेरी चित्तवृत्ति में यही अंतर है। तुम्हारा मन भय के कारण अपने आप में केन्द्रित था। परन्तु मेरा मन विना किसी भय एवं आकांक्षा के अपनी आत्मा में केन्द्रित है। मैं संसार में रहते हुए भी संसार से अलग अपनी आत्मा में स्थिर होने के लिए प्रयत्नशील हूं, सदा आत्मा को सामने रख कर ही कार्य करता हूं। इसलिए भगवान ऋषभदेव ने मुझे अल्प परिग्रही बताया है। कहने का तात्पर्य यह है कि- जब इन्द्रियों के साथ मन, चित्तवृत्ति या परिणाम की धारा जुडी हुई होती है, तभी हम किसी विषय को ग्रहण कर सकते हैं। परन्तु, जब मन आत्मा के साथ संलग्न होता है, तो हजारों विषयों सामने आने पर भी हमें उनकी अनुभूति नहीं होती। आत्म-चिन्तन हि मन एवं परिणामों की धारा को विषय चिन्तन से रोकने के लिए महत्त्वपूर्ण साधन है। भगवान महावीर का मन अपनी आत्मा में इतना संलग्न था, कि- गृहस्थों की बातों का उन पर कोई असर नहीं होता था। वे उनके किसी भी प्रश्न का उत्तर-प्रत्युत्तर नहीं देते थे। इससे स्पष्ट होता है कि- उनका चिन्तन जंगल एवं शहर में समान रूप से चलता था। किसी भी तरह के बाह्य वातावरण का उनके मन पर असर नहीं होता था। इस तरह वे गृहस्थों के मध्य में रहते हुए भी मौन रहते थे और सदा सर्वदा आत्म चिन्तन में संलग्न रहते थे। भगवान की सहिष्णुता का उल्लेख करते हुए सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहते हैं... Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1-9-1-8 (272) 241 I. सूत्र // 8 // // 272 // 1-9-1-8 णो सुकरमेयमेगेसिं, नाभिभासे य अभिवायमाणो / हयपुव्वे तत्थ दण्डेहिं लूसियपुव्वे अपुण्णेहिं // 272 // II संस्कृत-छाया : नो सुकरमेतदेकेषां, नाभिभाषते च अभिवादयतः / हतपूर्वः तत्र दण्डै: लूषितपूर्वः अपुण्यैः // 272 // II सूत्रार्थ : जब भगवान महावीर अनार्य देश में विहार कर रहे थे, उस समय पुण्यहीन अनार्य व्यक्तियों ने भगवान को डंडों से मारा-पीटा एवं उन्हें विविध कष्ट दिए, फिर भी वे अपनी साधना में संलग्न रहे। अभिवादन करने वाले व्यक्ति पर प्रसन्न होकर न तो उससे बात करते थे और न तिरस्कार करने वाले व्यक्ति पर क्रोध करते थे। वे मान एवं अपमान को समभाव पूर्वक सहन करते थे। अतः प्रस्तुत अध्ययन में उल्लिखित भगवान महावीर की साधना जन साधारण के लिए सुगम नहीं थी अर्थात् सामान्य साधक इतनी उत्कृष्ट साधना नहीं कर सकता... IV टीका-अनुवाद : सामान्य मनुष्यों के लिये जो कार्य सुकर नहि है, ऐसा दुष्कर कार्य परमात्मा सहज भाव से करते हैं... जैसे कि- कितनेक लोग विनय नम्रभाव से अभिवादन करे, नमस्कार करे, तो भी परमात्मा मौन हि करते हैं... और कितनेक लोग अभिवादन-नमस्कार न करे तो भी कोप, नहि करतें, किंतु मौनभाव में हि रहतें हैं... तथा अनार्यदेश में कितनेक अनार्य लोग प्रतिकूल भाव से उपसर्ग करे, लकडी-दंडे से मारे, या अन्य कष्ट दे, तो भी परमात्मा द्वेष भाव नहि करतें, किंतु शुभध्यान याने धर्मध्यान में हि लीन रहते हैं... V सूत्रसार : प्रस्तुत गाथा में भगवान महावीर की साधना का उल्लेख किया गया है। इसमें बताया है कि- भगवान सदा सभी प्राणियों पर समभाव रखते थे। उनका किसी भी प्राणी के प्रति रागद्वेष नहीं था। वे न तो किसी के वन्दन-अभिवादन आदि से प्रसन्न होते थे और किसी के द्वारा मान-सम्मान या वन्दन न मिलने पर उस पर क्रुद्ध भी नहि होते थे। जब भगवान अनार्य देश में गए तो वहां के लोग भगवान की साधना से परिचित नहीं थे। वे धर्म के मर्म को नहीं जानते थे। अत: वे भगवान की मखौल उडाते, उन्हें गालिएं Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 242 1- 9 - 1 - 9 (273) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन देते, उनके शरीर पर डंडे से प्रहार करते और उनके ऊपर शिकारी कुत्तों को छोड़ देते थे। इस तरह वे अबोध मनुष्य भगवान को घोर कष्ट देते थे / फिर भी भगवान महावीर उन पर कभी क्रोध नहीं करते थे। वे समभावपूर्वक समस्त परीषहों को सहते हुए विचरण करते थे। यह बात स्पष्ट है कि- कृतकर्म कभी भी निष्फल नहीं होते हैं... परंतु महापुरुष उस कर्मविपाक को समभाव पूर्वक सहन कर लेते हैं और अबधव्यक्ति हाय-हाय करके उसका वेदन करते हैं। जो व्यक्ति समभाव पूर्वक कृतकर्मों का फल सहन कर लेता है, वह समभाव की साधना से नए कर्मों के आगमन को रोक लेता है और पुरातन कर्म को क्षय करके मोक्ष पथ पर बढ़ जाता है। और जो आर्तरौद्रध्यान करता हुआ कृत कर्म के फल का संवेदन करता है, वह नए कर्मों का बन्ध करके संसार में परिभ्रमण करता रहता है। भगवान महावीर इस बात को भली-भांति जानते थे। अत: वे परीषहों को अपने कृत कर्म का फल समझकर समभाव. . पूर्वक सहन करते रहे। ऐसा कहा जाता है कि- भगवान महावीर के कर्म, इस काल चक्र में हुए सभी तीर्थंकरों से अधिक थे, 23 तीर्थंकरों के कर्मों की अपेक्षा से भगवान महावीर का कर्मसमूह प्रायः अधिक था। अत: उसे क्षय करने के लिए भगवान महावीर ने कठोर तप एवं अनार्य देश में विहार किया। अनार्य देश के लोग धर्म एवं साधु जीवन से अपरिचित होने के कारण उन्हें अधिक . परीषह उत्पन्न होतें थे और उनको समभाव पूर्वक सहन करने से कर्मो की अधिक निर्जरा होती थी। आबद्ध कर्मों का क्षय करने के लिए भगवान अनार्य देश में पधारे और वहां उन्होंने समभाव से अनेक कष्टों को सहन क्रिया, परन्तु किसी भी व्यक्ति पर क्रोध एवं द्वेष नहीं किया। भगवान महावीर की यह उत्कृष्ट साधना सब के लिए सुकर नहीं है। इस विषय को और स्पष्ट करते हुए सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहते हैं... सूत्र // 9 // // 273 // 1-9-1-9. फरुसाई दुत्तितिक्खाई, अइअच्च मुणी परक्कममाणो / अघायनदृगीयाई, दंडजुद्धाइं मुट्ठिजुद्धाइं // 273 // II संस्कृत-छाया : परूषाणि दुस्तितिक्षाणि, अतिगत्य मुनिः पराक्रममाणः / आख्यातनृत्यगीतानि, दण्डयुद्धानि मुष्टियुद्धानि // 273 // Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका // 1-9-1-10 (274) 243 III सूत्रार्थ : ___ भगवान महावीर अनार्य पुरुषों के द्वारा कथित कठोर एवं असह्य शब्द से प्रतिहत न होकर, उन शब्दो को समभाव पूर्वक सहन करने का प्रयत्न करते थे। और प्रेम पूर्वक गाए गए गीतों एवं नृत्य की ओर ध्यान भी नहीं देते थे और दंडयुद्ध एवं मुष्टियुद्ध को देखकर विस्मित भी नहि होते थे। IV टीका-अनुवाद : सामान्य मनुष्य जो सहन न कर शके ऐसे कठोर कर्कश दुष्ट वचनों को जगत् के स्वभाव को जाननेवाले श्रमण भगवान् महावीरस्वामीजी शमभाव से सहन करतें थे है... और मोक्षमार्ग में निरंतर पराक्रम करते रहते थे... तथा प्रसिद्ध गीत-नृत्य के प्रसंग में परमात्मा को कौतुक स्वरूप कुतूहल नहि होता था... और जब कभी लोग परस्पर दंडयुद्ध या मुष्टियुद्ध करे, तब भी परमात्मा कुतूहलभाव नहि करते थे... किंतु सदा आत्मभाव में लीन रहकर धर्मध्यान हि करते थे... v सूत्रसार : साधक के लिए आत्म चिन्तन के अतिरिक्त सभी बाह्य कार्य गौण होते हैं। अतः वह अपनी निन्दा एवं स्तुति में उदासीन रहकर आत्म साधना में संलग्न रहता है। भगवान महावीर भी सदा अपनी साधना में संलग्न रहते थे। कोई उन्हें कठोर शब्द कहता, कोई गालियां देता, तब भी वे उस पर क्रोध नहीं करते थे। वे उसे समभाव पूर्वक सह लेते थे। इसी तरह कोई उनकी प्रशंसा करता या कहीं नृत्य-गान होता या मुष्टि युद्ध होता तो भी भगवान उस ओर ध्यान नहीं देते। क्योंकि- इस से रागद्वेष की भावना उत्पन्न होती है और राग-द्वेष से कर्म बन्ध होता है। अतः भगवान समस्त प्रिय-अप्रिय विषयों की ओर ध्यान नहीं देते हुए तथा अनुकूल तथा प्रतिकूल सभी परीषहों को समभाव पूर्वक सहते हुए आत्म-साधना में संलग्न रहते थे। उनकी सहिष्णुता का उल्लेख करते हुए सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहते हैं... सूत्र // 10 // // 274 // 1-9-1-10 गढ़िए मिहुकहासु समयंमि, नायसुए विसोगे अदक्नु / एयाइ से उरालाई गच्छइ, नायपुत्ते असरणायाए // 274 // Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 244 1 -9 - 1 - 10(274) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन II संस्कृत-छाया : ग्रथितः मिथ: कथासु समये ज्ञातपुत्रः विशोकः अद्राक्षीत् / एतानि सः उरालानि, गच्छति ज्ञातपुत्रः अशरणाय // 274 // III सूत्रार्थ : ___ जहां कहीं लोग शृंगार रस से युक्त कथाएं करते थे या महिलाएं परस्पर कामोत्पादक कथाओं में प्रवृत्त होतीं, तो उन्हें देखकर भगवान महावीर के मन में हर्ष एवं शोक उत्पन्न नहीं होता था। और अनुकूल एवं प्रतिकूल कैसा भी उत्कृष्ट परीषह उत्पन्न हो फिर भी वे दीनभाव से या दुःखित होकर किसी की शरण स्वीकार नहीं करते थे। परन्तु उस समय समभावपूर्वक संयम साधना में संलग्न रहते थे। IV टीका-अनुवाद : स्त्रीकथा या भोजन (भक्त) कथा आदि स्वरूप विकथा के वार्तालाप में मग्न दोपांच मनुष्यों या महिलाओं को देखकर, भगवान् महावीरस्वामजी न तो अनुराग करतें, और न तो अप्रीति स्वरूप द्वेष करतें, किंतु मध्यस्थ भाव में हि रहकर तटस्थ रहते थे... तथा मनोज्ञ पदार्थों को देखकर भी परमात्मा अनुराग नहि करतें, किंतु मध्यस्थ भाव में स्थिर रहते थे... ऐसे और भी अन्य अनुकूल या प्रतिकूल उपसर्गों के प्रसंग में तथा परीषहों की परिस्थिति में श्रमण भगवान् महावीर स्वामीजी न तो राग करतें, और न तो द्वेष करतें, किंतु सर्वत्र मध्यस्थवृत्ति में रहते हुए संयमानुष्ठान में पराक्रम करते थे... , ज्ञातपुत्र याने क्षत्रियपुत्र श्री महावीर स्वामीजी अशरण याने संयम के लिये हि सदा उद्यमवंत रहते थे... यहां शरण शब्द का अर्थ है घर... और अशरण शब्द का अर्थ है संयम... यहां शिष्य प्रश्न करता है कि- हे गुरूजी ! परमात्मा श्रमण भगवान् महावीरस्वामीजी तो अतुलबल पराक्रमवाले हैं, तो फिर आप ऐसा क्यों कहतें है, कि- परमात्मा प्रव्रज्या ग्रहण करने के बाद सदा संयम में पराक्रम करतें हैं... इत्यादि... इस प्रश्न के उत्तर में गुरुजी कहतें हैं कि- हे विनेय ! यहां पराक्रम का अर्थ है, पुरूषार्थ करना, सावधान रहना, और उद्यमशील रहना... इत्यादि... यद्यपि श्रमण भगवान् महावीरस्वामीजी ने प्रव्रज्या ग्रहण नहि की थी उस अंतिम दो वर्ष के समय में भी परमात्मा अचित्त प्रासुक आहारादि का उपयोग करते थे, और निरवद्य जीवन के भाववाले थे... इत्यादि... Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1 - 9 - 1 - 10 (274) 245 * इस विषय में ऐसा सुना जाता है कि- श्रमण भगवान् श्री महावीरस्वामीजी जब त्रिशला माता की कुक्षि में थे तब मां के आक्रंदन को देखकर प्रतिज्ञा की थी, कि- मात-पिताजी के जीवितकाल में प्रव्रज्या ग्रहण नहि करूंगा... इत्यादि... अब जब पिताजी सिद्धार्थ महाराज एवं माताजी त्रिशलादेवी जब स्वर्गलोक पधारे तब महावीरस्वामीजी की प्रतिज्ञा पूर्ण हो चूकी थी, और प्रव्रज्या ग्रहण करने की अभिलाषा व्यक्ति की थी, तब ज्ञातिजन एवं विशेष प्रकार से वडिलबंधु नंदिनवर्धनजी ने कहा कि- हे वर्धमान ! आप अभी प्रव्रज्या की बात कर के हमे अधिक दु:खी न करें, क्योंकि- अभी मात-पिताजी के विरह की अपार वेदना हमें हो रही है... इस परिस्थिति में यदि आप प्रव्रज्या की बात करोगे तब तो यह क्षते क्षारम् के न्याय से लगे हुए घाव में नमक डालने के समान हमारी वेदना और अधिक बढ़ जाएगी... ____ उस समय श्रमण परमात्मा महावीरस्वामीजी ने भी अवधिज्ञान के उपयोग से जाना कि- इस परिस्थिति में यदि मैं प्रव्रज्या ग्रहण करता हुं, तब अनेक ज्ञातिजन एवं बंधुवर्ग विक्षिप्त चित्तवाले होकर प्राण त्याग देंगे... इत्यादि देखकर परमात्मा ने बंधुजनों से कहा कि- मुझे अब यहां कितना समय रहना चाहिये ? तब बंधुजनों ने कहा कि- आप दो वर्ष तक यहां हि रहीयेगा... तब तक हमारा मात-पिताजी के विरह संबंधित शोक दूर हो जाएगा... यह बात सनकर भट्टारक श्री महावीर स्वामीजीने बंधवर्ग की बात का स्वीकार कीया. और कहा कि- आज से मैं आहारादि क्रिया स्वेच्छानुसार करुंगा... आप बंधुवर्ग में से कोइ भी, मुझे आहारादि कार्यों में मेरी इच्छा से प्रतिकूल आग्रह नहि करेंगे... बंधुवर्ग ने भी महावीरस्वामीजी की यह बात मान ली... उन्हों ने यह सोचा कि- किसी भी प्रकार से महावीरस्वामजी घर में तो रहेंगे हि... भले हि वे अपनी इच्छा के अनुसार हि रहे... इत्यादि... V सूत्रसार : - भगवान महावीर के सामने कई तरह के प्रसंग आते थे। वे अब कभी भी शहर या गांव के मध्य में ठहरते तब वहां स्त्री-पुरुषों की पारस्परिक कामोत्तेजक बातें भी होती थीं, परन्तु भगवान उनकी बातों की ओर ध्यान नहीं देते थे। वे विषय-विकार बढ़ाने वाली बातों को सुनकर न तो हर्षित होते थे और विषयों के अभाव का अनुभव करते दुःखित भी नहिं होते थे। वे हर्ष और शोक से सर्वथा रहित होकर आत्म-साधना में संलग्न रहते थे। क्योंकिवे भली-भांति जानते थे कि- विषय-वासना मोह का हि कारण है और मोह समस्त कर्मों में प्रबल है, वह सभी कर्मों का राजा है। उसका नाश करने पर शेष कर्मों का नाश सुगमता से किया जा सकता है। यही कारण है कि- सर्वज्ञता को प्राप्त करने वाले महापुरुष सबसे पहले मोहनीय कर्म का क्षय करते हैं, उसके बाद शेष तीन घातिकर्मों का नाश करते हैं। अत: भगवान महावीर विषय-विकारों को मोह बढ़ाने का कारण समझकर उसमें रस नहीं लेते थे। किंतु वे उस विषय-विकारों के वातावरण में भी अपनी आत्म-साधना में ही संलग्न रहते थे। Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 246 // 1 - 9 - 1 - 11 (275) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन भगवान की निस्पृहता का उल्लेख करते हुए सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहते है... सूत्र // 11 // // 275 // 1-9-1-11 अवि साहिये दुवे वासे सीओदं अमुच्चा निक्खंते / एगत्तगए पिहियच्चे से अहिन्नाय दंसणे संते // 275 // II संस्कृत-छाया अपि साधिके द्वे वर्षे, शीतोदकमभुक्त्वा निष्क्रान्तः / एकत्वगतः पिहितार्चः सः अभिज्ञातदर्शन: शान्तः // 275 // III सूत्रार्थ : दो वर्ष से कुछ अधिक समय तक गृहस्थ जीवन में रहते हुए महावीरस्वामीजी सचित्त जल का उपयोग नहि करते थे। और उन्होंने एकत्व भावना में संलग्न रहते हुए क्रोध की ज्वाला को शान्त किया था, अतः ज्ञान दर्शन से युक्त, शुद्ध अन्त:करण वाले और शान्तचित्तवाले भगवान महावीर गृहवास में विचरते थे। IV टीका-अनुवाद : अब जब दो वर्ष बीत चूके तब बंधुजनों का वचन परिपूर्ण हुआ, और अवधिज्ञान से अपने निष्क्रमण का अवसर जानकर तथा संसार की असारता को पहचानकर महावीरस्वामीजी तीर्थ प्रवर्तन के लिये सावधान बने... वह इस प्रकार... बंधुजनों के आग्रह से महावीरस्वामीजी दो वर्ष से कुछ अधिक समय पर्यंत घर में रहे, किंतु इस काल के दरम्यान परमात्मा ने सचित्त जल का पान नहि कीया, अर्थात् अचित्त जल का पान करते थे और अन्य हाथ-पैर धोने की क्रिया भी अचित्त जल से हि करते थे... यहां महावीरस्वामीजी ने जिस प्रकार प्राणातिपात का त्याग कीया था, उसी प्रकार शेष व्रतों का भी पालन कीया था... अतः घरवास के अंतिम दो वर्ष में महावीरस्वामीजी एकत्व भावना से भावित अंत:करणवाले होने से उन्हों ने विषय-सुखों के त्याग के साथ साथ क्रोधादि कषायों का भी त्याग कीया था... अवधिज्ञानी श्री महावीरस्वामीजी सम्यक्त्व भावना से भावित अंत:करणवाले थे, शांत . थे और पांच इंद्रिय एवं मन के विकारों से रहित थे, अतः हम कहते हैं कि- हे शिष्य ! गृहवास में भी महावीरस्वामीजी ऐसे शांत उपशांत एवं सावद्यारंभ के त्यागी थे, तो फिर प्रव्रज्या ग्रहण करने के बाद की तो बात हि क्या कहें ? अर्थात् प्रव्रज्या ग्रहण करने के बाद वे संयम Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सबोधनी आहोरी-हिन्दी-टीका 1-9 -1 - 12/13 (276-277) 247 में विशेष पराक्रम करते रहते थे... V सूत्रसार : भगवान महावीर का जीवन सदा त्याग निष्ठ जीवन रहा है। जब वे गर्भ में आए तब उन्होंने सोचा कि- हाथ-पैर आदि के संचारण से माता को पीड़ा होगी। इसलिए अंगोपांगों को संकोच कर वे स्थिर हो गए। इससे माता को गर्भ के मरने या गलने या गिरने का संदेह हो गया और सुख के स्थान में शोक जनित दःख की वेदना बढ़ गई। इस बात को जानकर भगवान ने पन: अपने शरीर संचरण का आरम्भ कर दिया। तब सारे घर में खशी एवं आनन्द का वातावरण छा गया। उस समय भगवान ने यह प्रतिज्ञा की थी कि- जब तक माता-पिता जीवित रहेंगे, तब तक मैं दीक्षा नहीं लूंगा। इस कारण भगवानने 28 वर्ष तक दीक्षा की बात नहीं की। 28 वर्ष की अवस्था में माता-पिता का स्वर्गवास हो जाने पर आपने अपने ज्येष्ठ भ्रातासे दीक्षा की आज्ञा मांगी तो उन्होंने कुछ समय तक और ठहरने का आग्रह किया और भाई की बात को मानकर आप दो वर्ष और ठहर गए / परन्तु ये दो वर्ष अपनी साधना में ही बिताए। और इन दिनों में सचित्त पानी को नहीं पिया। वे सदा एकत्व भावना में संलग्न रहते थे। इससे आत्मा के साथ संबद्ध राग-द्वेष आदि विकारों को क्षय करने में प्रबल सहायता मिलती है और साधना में तेजस्विता आती है। आत्मा के शुद्ध स्वरूप के चिन्तन के कारण ही वे परीषहों को सहन करने में सक्षम बने। क्योंकिवे आत्मा के अतिरिक्त समस्त साधनों को क्षणिक, नाशवान एवं संसार में प्ररिभ्रमण कराने वाले समझते थे। इस कारण भगवान सभी भोगोपभोग के साधनों से अलग होकर अपने एकत्व स्वरूप के चिन्तन में ही संलग्न रहते थे। - प्रस्तुत गाथा में प्रयुक्त ‘पिहिच्चे' का अर्थ है- जिसने क्रोध रूप ज्वाला को शान्त कर दिया है या जिसका शरीर गुप्त है- वस्त्र के अभाव में भी नग्न दिखाई नहीं देते हैं। इससे भगवान की निस्पृहता स्पष्ट होती है। उन्होंने केवल वस्त्र आदि का ही त्याग नहीं किया था, किंतु क्रोध आदि कषायों से भी वे सर्वथा निवृत्त हो चुके थे। कठिन से कठिन परिस्थिति में भी उनके मन में क्रोध की भावना नहीं जगती थी। वे शान्त भाव से सदा आत्मशोधन में संलग्न रहते थे। उनके त्यागनिष्ठ जीवन का वर्णन करते हुए सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहते हैं... सूत्र // 12/13 // // 276-277 // 1-9-1-12/13 पुढविं च आउकायं च, तेउकायं च वायुकायं च। पणगाई बियहरियाई तसकायं सव्वसो नच्चा // 276 // Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 248 1 - 9 - 1 - 12/13 (276-277) // श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन एयाइं सन्ति पडिलेहे, चित्तमंताई से अभिन्नाय परिवज्जिय विहरित्था, इय संखाए से महावीरे // 277 // संस्कृत-छाया : पृथिवीं च अप्कायं च, तेजस्कायं च, वायुकायं च / पनकानि बीजहरितानि, त्रसकायं च सर्वशः ज्ञात्वा // 276 // एतानि सन्ति प्रत्युपेक्ष्य, चित्तमंतानि सः अभिज्ञाय / परिवर्त्य विहृतवान्, इति संख्याय स: महावीरः // 277 // III सूत्रार्थ : भगवान महावीर पृथ्वीकाय, अप्काय, तेजस्काय, वायुकाय पनक-निगोद, बीज, हरी वनस्पति एवं त्रस काय के जीवों को सर्व प्रकार से जानकर इन सभी जीवों की सदा रक्षा करते हुए विचरते थे। भगवान महावीर पृथ्वीआदि के जीवों को सचेतन जानकर और उनके स्वरूप को भली-भांति अधिगत करके उनके आरम्भ-समारम्भ से सर्वथा निवृत्त होकर विचरते थे। IV टीका-अनुवाद : श्रमण भगवान् श्री महावीरस्वामीजी सचित्त पृथ्वीकायादि जीवों के आरंभ (विराधना) का त्याग करते हुए ग्रामानुग्राम विचरतें हैं... ___पृथ्वीकाय जीवों के दो भेद हैं... 1. सूक्ष्म पृथ्वीकाय एवं 2. बादर पृथ्वीकाय... उन में सूक्ष्म पृथ्वीकाय जीव इस विश्व में सर्वत्र रहे हुए हैं... और बादर पृथ्वीकाय जीवों के दो भेद है... 1. श्लक्ष्ण (मृदु) बादर पृथ्वीकाय, एवं 2. कठिन बादर पृथ्वीकाय... उन में श्लक्ष्ण बादर पृथ्वीकाय के जीव शुक्लादि पांच वर्णवाले होतें हैं, तथा कठिन बादर पृथ्वीकाय के जीव पृथ्वी, शर्करा, वालुका इत्यादि छत्तीस (36) भेदवाले होते हैं.. इन छत्तीस (36) भेदों का स्वरूप शस्त्रपरिज्ञा नाम के प्रथम अध्ययन में कहे गये हैं... अप्काय जीवों के भी दो भेद हैं... 1. सूक्ष्म अप्काय एवं 2. बादर अप्काय... उनमें सूक्ष्म अप्काय जीव शुक्लादि पांच वर्णवाले होते हैं, और बादर अप्काय के जीव शुद्धजल आदि भेद से पांच प्रकार के होते हैं... अग्निकाय जीवों के भी दो भेद हैं... 1. सूक्ष्म अग्निकाय एवं 2. बादर अग्निकाय... उन में सूक्ष्म अग्निकाय जीवों के शुक्लादि वर्ण भेद से पांच प्रकार के हैं, और बादर अग्निकाय Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1 - 9 -1 - 12/13 (276-277) : 249 अंगारादि भेद से पांच प्रकार के होते हैं... वायुकाय जीवों के भी दो भेद हैं... 1. सूक्ष्म वायुकाय एवं 2. बादर वायुकाय.... उन में सूक्ष्म वायुकाय शुक्लवर्णादि भेद से पांच प्रकार के होते हैं, और बादर वायुकाय के जीव उत्कलिकादि भेद से पांच प्रकार के हैं... .. वनस्पतिकाय के भी दो भेद हैं... 1. सूक्ष्म वनस्पतिकाय एवं 2. बादर वनस्पतिकाय... उन में सूक्ष्म वनस्पतिकाय के जीव इस लोक में सर्वत्र रहे हुए हैं, और बादर वनस्पतिकाय सामान्य से छह (6) प्रकार के होते हैं... 1. अग्रबीज... 2. मूलबीज, 3. स्कंधबीज, 4. पर्वबीज 5. बीज एवं 6. संमूर्च्छन... पुनः बादर वनस्पतिकाय के दो भेद होते हैं... 1. प्रत्येक बादर वनस्पतिकाय, एवं 2. साधारण बादर वनस्पतिकाय... उन में प्रत्येक बादर वनस्पतिकाय के जीव वृक्ष, गुच्छ आदि भेद से बारह (12) प्रकार के होते हैं... और साधारण बादर वनस्पतिकाय जीवों के कंद-मूल आदि अनेक भेद होते हैं... इस प्रकार विभिन्न भेदवाले वनस्पतिकाय के सूक्ष्म जीव संपूर्ण लोक में सर्वत्र रहे हुए हैं, एवं वे अतींद्रिय हैं, अर्थात् इंद्रिय के विषय में नहि आते... तथा बादर वनस्पतिकाय पनक याने बीज-अंकुरादि भाव (स्वरूप) से रहित लीलफुल-निगोद आदि... तथा बीज याने अग्रबीज आदि... और हरित शब्द से शेष सभी प्रकार के बादर वनस्पतिकाय का ग्रहण करें... - इत्यादि पूर्वोक्त बादर पृथ्वीकाय के जीव इस विश्व में यथास्थान में रहे हुए हैं, वे सचित्त याने सजीव हैं, अतः उन को पीडा-कष्ट न हो इस प्रकार इर्यासमिति संपन्न श्रमण भगवान् महावीरस्वामीजी पृथ्वीतल पे ग्रामानुग्राम विहार करते थे... V. सूत्रसार : भगवान महावीर की साधना प्राणी जगत के हित के लिए थी। आगम में बताया गया है कि- समस्त प्राणियों की रक्षारूप दया के लिए भगवान ने अपना प्रवचन दिया था। वे सभी प्राणियों के रक्षक थे। उन्हें समस्त प्राणियों के स्वरूप का परिज्ञान था। क्योंकि- जीवों की योनियों का अवबोध होने पर ही साधक उनकी रक्षा कर सकता है। इसलिए प्रस्तुत गाथा में समस्त जीवों के भेदों का वर्णन किया गया है। समस्त जीव 6 प्रकार के हैं- 1. पृथ्वीकाय, 2. अप्काय, 3. तेजस्काय, 4. वायुकाय, 5. वनस्पतिकाय और 6 त्रसकाय। पहले पांच प्रकार के जीव स्थावर कहलाते हैं और इनको केवल एक स्पर्श इन्द्रिय होती है। इस अपेक्षा से जीव दो श्रेणियों में विभक्त हो जाते हैं- 1. त्रस और 2. Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 250 // 1-9-1-12/13 (276-277) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन स्थावर। स्थावर जीव सूक्ष्म और बादर के भेद से पुनः दो प्रकार के होते हैं। सूक्ष्म जीव समस्त लोक में व्याप्त है बादर पृथ्वीकाय श्लक्षण और कठिन के भेद से दो प्रकार की है। श्लक्षण पृथ्वीकाय सात प्रकार की है- 1. कृष्ण, 2. नील, 3. लाल, 4. पीत, 5. श्वेत, 6. पंडुक और 7. मटिया और कठोर पृथ्वीकाय के शर्करा आदि 36 भेद बताए हैं। बादर अपकाय के शुद्ध उदक (जल) आदि 5 भेद हैं। बादर तेजस्काय (अग्नि) के भी अंगारा आदि 5 भेद हैं। बादर वायु के भी उत्कालिक आदि 5 भेद है। बादर वनस्पति काय के 6 भेद है- 1. अग्रबीज, 2. मूलबीज, 3. पर्वबीज, 4. बीजबीज, 5. संमूछिम और 6. स्कन्ध बीज / वनस्पति काय प्रत्येक और साधारण शरीर की अपेक्षा से दो प्रकार की है। जिस वनस्पति में एक शरीर में एक जीव रहता हो वह प्रत्येक शरीर वनस्पति कहलाती है और जिस के एक शरीर में अनन्त जीव रहते हों वह साधारण वनस्पतिकाय कहलाती है। प्याज, लहसुन, मूली, गाजर, शकरकंद आदि जमीन में पैदा होने वाले कंद मूल साधारण वनस्पतिकाय या अनन्त काय कहलाते हैं / शेष सभी प्रकार की वनस्पति के जीव प्रत्येक शरीर वनस्पतिकाय कहलाते हैं। त्रसकाय के 4 भेद हैं- द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पञ्चेन्द्रिय। इनके भी अवान्तर भेद अनेक हैं। इन सभी का परिज्ञान करके भगवान महावीर स्वामीजी समस्त प्राणियों की रक्षा करते हए विचरते थे। वर्तमान काल में वैज्ञानिक लोग अनुमान एवं उपमा की सहायता से स्थावर जीवों की चेतना को जानने का प्रयत्न करतें हैं। वनस्पति की सजीवता तो हमे स्पष्ट रूप से दिखती हि है... परन्तु, 2500 वर्ष पहले श्रमण भगवान महावीर ने अपने दिव्यज्ञान के द्वारा इन जीवों की सजीवता का प्रत्यक्षीकरण किया था। भगवान की साधना के संबन्ध में वर्णन करते हुए सूत्रकार कहते हैं कि श्रमण भगवान महावीर पृथ्वी आदि पांचों को सजीव मानते थे। उन्होंने अपने ज्ञान के द्वारा उनकी सजीवता का प्रत्यक्षीकरण किया था। आगम एवं अनुमान के द्वारा छद्मस्थ प्राणी भी उनमें सजीवता की सत्ता का अनुभव कर सकता है, उसे प्रत्यक्ष देखने की शक्ति सर्वज्ञ पुरूषों में ही है। जैनदर्शन में पृथ्वी आदि को सचेतन और अचेतन दोनों तरह का माना है। इस सम्बन्ध में हम प्रथम अध्ययन में विस्तार से वर्णन कर चुके हैं। इन स्थावर जीवों में संख्यात, असंख्यात एवं अनन्त जीव पाए जाते हैं। जीवों की विचित्रता का उल्लेख करते हुए सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहते हैं... Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1 - 9 - 1 - 14 (278) 251 F सूत्र // 4 // // 278 // 1-9-1-14 अदु थावरो य तसत्ताए तसा य थावरत्ताए / अदुवा सव्व जोणिया सत्ता कम्मुणा कप्पिया पुढो बाला // 278 // संस्कृत-छाया : II अथ स्थावराश्च त्रसतया, त्रसाश्च स्थावरतया / अथवा सर्वयोनिकाः सत्त्वाः कर्मणा कल्पिता: पृथक् बालाः // 278 // III सूत्रार्थ : स्थावर जीव त्रस में उत्पन्न होते हैं और त्रसजीव स्थावरकाय में जन्म ले सकते हैं। या यों कहिए, संसारी प्राणी सब योनियों में आवागमन करते वाले हैं। और अज्ञानी जीव अपने कर्म के अनुसार विभिन्न योनियों में उत्पन्न होते है। IV टीका-अनुवाद : पृथ्वीकायादि स्थावर जीव एवं बेइंद्रियादि त्रस जीवों के भेद-प्रभेद कहकर, अब वे पृथ्वीकायादि स्थावर जीव उदयागत कर्म के अनुसार जन्मांतर में बेइंद्रियादि त्रस जीव के परिणाम को प्राप्त करतें हैं. तथा बेइंद्रियादि त्रस जीव उदयागत कर्मो के अनुसार जन्मांतर में स्थावर पृथ्वीकायादि के परिणाम को भी प्राप्त करते हैं। ___ अन्यत्र भी कहा है कि- भगवन् ! पृथ्वीकायादि स्थावर जीव क्या त्रसकायादि परिणाम को प्राप्त करतें हैं ? इस प्रश्न के उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं कि- हे गौतम ! हां, पृथ्वीकायादि स्थावर जीव कर्म परिणाम से त्रसकाय के परिणाम को प्राप्त करते हैं, और त्रसकाय के जीव कर्म परिणाम से पृथ्वीकायादि स्थावर परिणाम को प्राप्त करतें है... यह विपरिणाम एक बार नहि किंतु बार बार अर्थात् अनंत बार भूतकाल में प्राप्त कर चुके हैं... __ अथवा योनि याने जीवों का उत्पत्ति स्थान... अर्थात् सभी जीव कालक्रम से चोरासी लाख (84,00,000) योनिओं में अनंतबार उत्पन्न हो चूके हैं... ऐसा होने में स्वकृत कर्म हि प्रधान कारण है अन्यत्र भी कहा है कि- इस चौदह राज प्रमाण संपूर्ण लोक (विश्व) में ऐसा कोइ वालाग्र मात्र याने सूक्ष्म से सूक्ष्म क्षेत्र (जगह) नहि है, कि-जहां पृथ्वीकायादि सर्व संसारी जीव अनेक बार जन्म-मरणादि दुःख पाये न हो... इस विश्व स्वरूप रंगमंच में सभी संसारी जीवों ने विभिन्न प्रकार के कर्म स्वरूप नेपथ्य Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 252 // 1- 9 - 1 - 15 (279) // श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन याने गणवेष को धारण कर के अनेक बार अनेक प्रकार के नृत्य कीया है... अर्थात् कर्मपरिणाम नामक महाराजा के आदेश से सभी जीवों ने विभिन्न प्रकार के देव, मनुष्य, तिर्यंच एवं नरक के पात्र का. नाट्य कर्म कीया है... V सूत्रसार : दुनिया में प्रत्येक प्राणी अपने कतकर्म के अनुसार विभिन्न योनि को प्राप्त करता है। स्थावर काय में स्थित जीव अनन्त पुण्य का संचय करके त्रस काय में जन्म ले लेते हैं और पाप कर्म के द्वारा त्रस जीव स्थावर योनि में उत्पन्न हो जाते है / इसी तरह मनुष्य तिर्यञ्च, नरक, एवं देव-जीव, मनुष्य आदि किसी भी गति में उदयागत कर्मानुसार जन्म धारण कर सकता है / कुछ लोग यह मानते हैं कि- जो व्यक्ति जैसा होता है, उसी रूप में जन्म लेता है। जैसे स्त्री सदा स्त्री के रूप में ही रहती है और पुरुष सदा पुरुष के लिंग में ही जन्म लेता है / परन्त. यह मान्यता कर्म सिद्धान्त एवं अनुभव के आधार पर सत्य सिद्ध नहीं होती। यदि लैंगिक रूप कभी बदलता ही नहीं या उसका अस्तित्व कभी समाप्त ही नहीं होता, तो फिर ये समस्त कर्म निष्फल माने जाएंगे और यह हम प्रत्यक्ष हि देखते हैं कि- कर्म कभी निष्फल नहीं जाते। अतः हम कहते हैं कि- संसार परिभ्रमण में कभी भी एकरूपता नही रह सकती / जैसे कि- वर्तमानकालीन पुरुष जीव कर्मानुसार कभी स्त्री एवं नपुंसक के लिंग में जन्म धारण कर सकता है। और वर्तमानकालीन स्त्री जीव भी नपुंसक और पुरुष के लिंग में जन्म ले सकते हैं किंतु जब सकल कर्मोका क्षय होता है जब कोइभी जीव अलिंग अर्थात् सिद्ध स्वरूप को भी प्राप्त कर सकते है / जब व्यक्ति अपने ज्ञान एवं तप के द्वारा समस्त कर्मो का नाश कर देता है; तब वह जीवात्मा जन्म मरण के बन्धनों से सर्वथा मुक्त हो जाता है / इससे यह स्पष्ट होता है कि- जब तक आत्मा में अज्ञान एवं राग-द्वेष हैं तब तक वह कर्मो का बन्ध करती है और उदयागत कर्मानुसार संसार सागर में परिभ्रमण करती रहती है। अतः 84,00,000 योनियों में परिभ्रमण करने का मूल कारण कर्म है। इस विषय को और स्पष्ट करते हुए सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहते हैं... सूत्र // 15 // // 279 // 1-9-1-15 भगवं च एवमन्नेसिं, सोवहिए हु लुप्पइ बाले। कम्मं च सव्वसो नच्चा तं पडियाइक्खे पावगं भगवं // 279 // Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1 - 9 - 1 - 15 (279) 253 II संस्कृत-छाया : ___ भगवान् च एवमज्ञासीत्, सोपधिकः हु लुप्पते बालः। कर्म च सर्वशः ज्ञात्वा तत् प्रत्याख्यातवान् पापक भगवान् // 279 // III सूत्रार्थ : भगवान ने यह जान लिया कि- अज्ञानी आत्मा कर्म रूप उपधि-बंधन से आबद्ध हो जाता है। अतः कर्म के स्वरूप को जानकर भगवान ने पापकर्म का परित्याग कर दिया / IV टीका-अनुवाद : श्री महावीरस्वामीजी यह बात जानते थे कि- कर्म स्वरूप द्रव्य एवं भाव उपधि वाले संसारी जीव, संसार में विभिन्न प्रकार के क्लेश-कष्ट का अनुभव करते हैं, अतः जीव का सच्चा शत्रु एक मात्र कर्म हि है... इस बात को सभी प्रकार से जानकर श्रमण भगवान् महावीरस्वामीजी ने कर्म का परित्याग कीया है, तथा उस कर्म के कारणभूत पापाचरण का भी सर्वथा त्याग कीया है... v सूत्रसार : कर्म के कारण ही संसारी जीव सुख-दुःख का अनुभव करते हैं। वे विभिन्न योनियों में विभिन्न तरह की वेदनाओं का संवेदन करते हैं। अज्ञानी जीव अपने स्वरूप को भूल कर पापकर्म में आसक्त रहते हैं, इससे वे संसार में परिभ्रमण करते हैं। इस लिए भगवान ने कर्म के स्वरूप को समझकर उसका परित्याग कर दिया / इस तरह भगवान ज्ञान, दर्शन एवं चारित्र से युक्त थे। क्योंकि- कर्मो के स्वरूप को जानने का साधन ज्ञान है और दर्शन से उसका निश्चय होता है और त्याग का आधार चारित्र है। इस तरह रत्नत्रय की साधना से आत्मा निष्कर्म हो जाती है। आगम में बताया गया है कि- आत्मा ज्ञान के द्वारा पदार्थो के यथार्थ स्वरूप को जानता है, सम्यग् दर्शन से उस परिज्ञात स्वरूप पर विश्वास करता है, चारित्र से आने वाले नए कर्मो के द्वार को रोकता है और तप के द्वारा पूर्व काल में बन्धे हुए कर्मो को क्षय करता हैं। भगवान महावीर भी इन चारों तरह की साधना से युक्त थे और ज्ञान दर्शन चारित्र एवं तप से समस्त कर्मो को क्षय करके उन्होंने निर्वाण पद को प्राप्त किया। उपधि द्रव्य एवं भाव के भेद से दो प्रकार की है। आत्मा के साथ पदार्थो का संबन्ध द्रव्य उपधि है और राग-द्वेष आदि विकारों का सम्बन्ध भाव उपधि है। भाव उपधि से द्रव्य उपधि प्राप्त होती है और द्रव्य उपधि भाव उपधि-राग-द्वेष को बढ़ाने का कारण भी बनती है। इस तरह दोनों उपधियें संसार का कारण हैं।दोनों उपधियों का नाश कर देना ही मुक्ति Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 254 // 1 - 9 - 1 - 16 (280) प्र . श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन है। संसार परिभ्रमण का मूल कारण भाव उपधि है, भाव उपधि का नाश होने पर द्रव्य उपधि अर्थात् का नाश सुगमता से हो जाता है। इसलिए सर्वज्ञ पुरुष पहले भाव उपधि-राग-द्वेष के हेतुभूत घातिकर्मो का नाश करके वीतराग बनते हैं और उसके बाद द्रव्य उपधि के हेतुभूत अघातिकर्मो का क्षय करके सिद्ध पद को प्राप्त करते हैं / इसी विषय को और स्पष्ट करते हुए सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहते हैं... I सूत्र // 6 // // 280 // 1-9-1-16 दुविहं समिच्च मेहावी, किरियमक्खायऽणेलिसं नाणी / आयाण सोयमइ-वायसोयं, जोगं च सव्वसो णच्चा // 280 // II संस्कृत-छाया : द्विविधं समेत्य मेधावी, क्रियामाख्यातमनीदृशं ज्ञानी। आदानं स्त्रोतः अतिपातस्त्रोतः योगं च सर्वशः ज्ञात्वा // 280 // III सूत्रार्थ : मेधावी ज्ञानी भगवान ने ईर्यापथिक और साम्परायिक क्रिया कर्मबंध के कारण है, ऐसा जानकर अनुपम और कर्मो का नाश करने वाले संयमानुष्ठान रूप पंचाचार का निर्देश कीया है / तथा कर्मो के आने के स्त्रोत जैसे कि- प्राणातियातादि आश्रव एवं मन-वचन काया के अशुभ योग को कर्म बन्धन का कारण रूप जानकर संयमानुष्ठान का प्रतिपादन किया है। IV टीका-अनुवाद : क्रिया के दो प्रकार हैं, १-ईर्याप्रत्यय कर्म तथा 2- सांपरायिक कर्म इन दोनों प्रकार के कर्मो को जानकर मेधावी साधु श्रमण भगवान् श्री महावीरस्वामीजी ने उन क्रियाओं का विच्छेद करनेवाली संयमानुष्ठान स्वरूप पंचाचार की अतुलक्रिया दीखाइ है... केवलज्ञानी परमात्मा ने कहा है, कि-दुर्दात इंद्रियगण हि कर्मबंध के कारण होने से आदान है, और यह आदान हि स्त्रोत स्वरूप आश्रव द्वार है, तथा जीवों के प्राणों का अतिपात याने विनाश अर्थात् हिंसा भी आश्रव है... तथैव मृषावाद अदत्तादान मैथुन एवं परिग्रह भी आश्रव है... तथा मन, वचन एवं काया के अशुभ योग भी सर्व प्रकार से कर्मबंध के कारण स्वरूप आश्रव है, अतः इन आश्रवों के निरोध के लिये संवर स्वरूप पंचाचार याने संयमानुष्ठान का उपदेश दीया है... Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका #1- 9 - 1 - 97 (281) 255 V - सूत्रसार : प्रस्तुत गाथा में दो प्रकार की क्रिया का वर्णन किया गया है- 1. साम्परायिक और 2. ईर्यापथिक। कषायों के वश जो क्रिया की जाती है, वह साम्परायिक क्रिया कहलाती है। उससे सात या आठ कर्मों का बन्ध होता है इस से आत्मा संसार में परिभ्रमण करता है। तथा राग द्वेष और कषाय रहित भाव से यतना पूर्वक की जाने वाली क्रिया ईर्यापथिकी क्रिया कहलाती है। यह ईर्यापथिकी क्रिया सयोगी केवली गुणस्थानक में हि होती है अतः इस क्रिया से संसार नहीं बढ़ता है। भगवान महावीर दोनों प्रकार की क्रियाओं के स्वरूप को भली भांति जानते थे। वे साम्परायिक क्रिया का सर्वथा उन्मूलन करने के लिये हि संयमानुष्ठान में प्रयत्नशील थे। क्रियां के सम्बन्ध में वर्णन करते हुए आगम में कहा है कि- अयतना-विवेक रहित गमनागमन आदि कार्य करते हुए प्रमादी जीव साम्परायिक क्रिया के द्वारा कर्मों का बन्ध करता है और आगम के अनुसार यतना-विवेक पूर्वक क्रिया करने से संवर होता है। इससे स्पष्ट है कि- कषाय युक्त भाव से की जाने वाली क्रिया संसार परिभ्रमण कराने वाली है और कषाय रहित अनासक्त भाव से की जाने वाली क्रिया संसार का विच्छेद करनेवाली होती है... इसी विषय को और स्पष्ट करते हुए सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहते हैं... I सूत्र // 17 // // 281 // 1-9-1-17 अइवत्तियं अणाउटिं, सयमन्नेसिं अकरणयाए। जस्सित्थिओ परिन्नायाः सव्व कम्मावहाउ से अदक्खु // 281 // II संस्कृत-छाया : ____ अतिपातिकाम् अनाकुटि-स्वयं अन्येषां अकरणतया। यस्य (येन) स्त्रियः परिज्ञाताः, सर्वकर्मावहाः स एवमद्राक्षीत् // 281 // II सूत्रार्थ : भगवान ने स्वयं निर्दोष अहिंसा का आचरण किया और अन्य व्यक्तियों को हिंसा नहीं करने का उपदेश दिया। भगवान स्त्रियों के यथार्थ स्वरूप एवं उनके साथ होनेवाले भोगोपभोग के परिणाम से परिज्ञात थे अर्थात् काम-भोग समस्त पाप कर्मों के कारण भूत हैं, ऐसा जानकर भगवान ने स्त्री-संसर्ग का परित्याग कर दिया। Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 256 // 1 - 9 - 1 - 97 (281) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन IV टीका-अनुवाद : आकुट्टि याने हिंसा और अनाकुट्टि याने अहिंसा... क्योंकि- यह अहिंसा का आचरण जगत के जीवों को पीडा नहि देता, अतः यह अहिंसा निर्दोष है, इसलिये श्रमण भगवान् महावीरस्वामीजीने इस अहिंसा का स्वयं आदर के साथ आश्रय लेकर अन्य जीवों को भी कहा है, कि- हिंसा का त्याग कर के अहिंसा का हि आश्रय लीजीये... परमात्मा ने स्त्रीजनों को ज्ञ परिज्ञा से जाना एवं प्रत्याख्यान परिज्ञा से उन के संपर्क स्वरूप संबंध का त्याग कीया है... क्योंकि- पुरूष के लिये स्त्रीजनों का दर्शन एवं स्पर्शन तथा सहवास मोह का हेतु होता है... यह मोह अज्ञान एवं अविवेक स्वरूप होने से सर्व प्रकार के पाप-कर्मो के उपादान का कारण है इत्यादि प्रकार से यथावस्थित संसार के स्वभाव को जाननेवाले परमात्मा स्त्रीजनों के वास्तविक स्वरूप के ज्ञाता है, एवं उन के संसर्ग का / त्यागी है... अतः एव परमात्मा परमार्थदर्शी है... V सूत्रसार : संयम साधना का मूल अहिंसा है। हिंसक व्यक्ति साधना में प्रवृत्त नहीं हो सकता है। क्योंकि- उसके मन में प्राणियों के प्रति दया भाव नहीं रहता है। अतः भगवान महावीर ने स्वयं अहिंसा व्रत का पालन किया। उन्होंने साधना काल में न किसी प्राणी की हिंसा की और अन्य किसी व्यक्ति को हिंसा करने की प्रेरणा भी न दी। उनके हृदय में प्रत्येक प्राणी के प्रति दया करूणा का स्त्रोत बहता था। उन्होंने सभी जीवों को अभयदान दिया। साधक के लिए हिंसा की तरह मैथुन भी त्याज्य है। इससे मोह की अभिवृद्धि होती है और मोह से पाप कर्म का बन्ध होता है। इसलिए भगवान ने मैथुन के हेतुभूत स्त्री संसर्ग का सर्वथा त्याग कर दिया। साधु के लिए स्त्री का एवं साध्वी के लिए पुरूष-संसर्ग का त्याग होना जरूरी है। क्योंकि- दोनों के लिए दोनों मोह को जगाने का कारण हैं और मोह केउदय से महाव्रतों का नाश होता है। अत: भगवान ने अब्रह्म का सर्वथा त्याग करके ब्रह्मचर्य व्रत को स्वीकार किया। ___ संयम साधना में प्रथम और चतुर्थ दो महाव्रत मुख्य है। दोनो में अन्य तीनों महाव्रतों का समावेश हो जाता है। पूर्ण अहिंसक एवं पूर्ण ब्रह्मचारी साधक को झुठ बोल ने की आवश्यकता नहि है एवं चोरी और परिग्रह की आकांक्षा भी नही रहती... अत: दो महाव्रतों में पांचों महाव्रतों का समावेश हो जाता है। ___मूल गुणों की व्याख्या करके अब सूत्रकार महर्षि आगे के सूत्र से उत्तर गुणों का उल्लेख करते हैं... Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1 - 9 - 1 - 18 (282) // 257 I - सूत्र // 18 // // 282 // 1-9-1-18 अहाकडं न से सेवे, सव्वसो कम्मणा य अदक्खू। जं किंचि पावगं भगवं, तं अकुव्वं वियर्ड भुंजित्था // 282 // // संस्कृत-छाया : यथाकृतं न असौ सेवते, सर्वशः, कर्मणा च अद्राक्षीत् / यत्किंचित् पापकं भगवान् तदकुर्वन् विकटमभुंक्त // 282 // III सूत्रार्थ : आधाकर्म आहार को सभी तरह से कर्मबन्ध का कारण जान कर भगवान ने उसका सेवन नहीं किया। यह सदोष आहार भविष्य में दुःख का कारण होने से भगवान ने निर्दोष आहार ही ग्रहण किया। IV टीका-अनुवाद : ___ मूलगुणों का कथन कर के अब उत्तरगुणों के स्वरूप को कहते हैं... परमात्मा आधाकर्मादि दोषवाले आहार का सेवन नहिं करतें, क्योंकि- आधाकर्मादि दोषों के सेवन से जीव को आठ प्रकार के कर्मोका बंधन होता है, एसा ज्ञान में देखा है... अन्य भी ऐसे आहार संबंधि दोषों का सेवन, निश्चित हि पापाश्रव स्वरूप है, इस कारण से परमात्मा प्रासुक अर्थात् अचित्त एवं निर्दोष आहार का सेवन करते थे... V . . सूत्रसार : संयम साधना के लिए शरीर का स्वस्थ रहना आवश्यक है और शरीर को स्वस्थ रखने के लिए आहार आवश्यक है और आहार के बनने में हिंसा का होना भी प्रत्यक्ष दिखाई देता है। ऐसी स्थिति में पूर्ण अहिंसक साधक अपनी संयम साधना कैसे कर सकता है ? इसके लिए यह बताया गया है कि- साधु पाचन क्रिया से सर्वथा दूर रहे। वह न स्वयं आहार आदि बनाए और न अपने लिए किसी से बनवाए और अपने (साधु के) निमित्त बनाकर या खरीद कर लाया हुआ आहार आदि का स्वीकार भी न करे। परन्तु गृहस्थ के घर में गृहस्थ ने अपने परिवार के लिए जो भोजन बनाया है, उसमें से अनासक्त भाव से सभी दोषों को टालते हुए थोड़ा सा आहार ग्रहण करे, जिससे उस गृहस्थ को किसी तरह का कष्ट न हो एवं अपने खाने के लिए पुनः भोजन न बनाना पड़े। इस तरह कई घरों से निर्दोष आहार लेकर साधु अपने शरीर का निर्वाह करे। परन्तु जिव्हा के स्वाद के लिए या शारीरिक पुष्टि आदि के लिए Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 258 // 1- 9 -1 - 19 (२८3)卐 श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन वह साधु आधाकर्म आदि सदोष आहार न ले। जो आहार साधु के लिए बनाया जाता है, उसे आधाकर्म कहते हैं। उस आहार को ग्रहण करने से उसमें हुई हिंसा का पाप साधु को भी लगता है। अतः साधु अनासक्त भाव से निर्दोष आहार की हि गवेषणा करे। भगवान महावीर ने केवल यह उपदेश ही नहीं दिया, किंतु उनहोंने स्वयं इस नियम का परिपालन किया। उन्होंने कभी भी आधाकर्म आदि दोषों से युक्त आहार को स्वीकार नहीं किया। इस तरह भगवान सदा निर्दोष आहार की गवेषणा करते और संयम की मर्यादा के अनुसार निर्दोष आहार उपलब्ध होने पर उसे स्वीकार करते थे। इसी तरह भगवान ने अन्य सावध सदोष व्यापार का भी सर्वथा त्याग कर दिया था। वे सारे पाप कर्मों से निवृत्त होकर सदा निर्दोष सयंम साधना में संलग्न रहते थे। उनकी साधना के संबन्ध में उल्लेख करते हुए सूत्रकार महर्षि आगे का सुत्र कहते हैं.... I सूत्र // 19 // // 283 // 1-9-1-19 णो सेवइ य परवत्थे परपाएवि से न भुंजित्था / परिवज्जियाणं ओमाणं गच्छइ संखडिं असरणायाए // 283 // II संस्कृत-छाया : नो सेवते च परवस्त्रं, परपात्रेऽपि स न भुक्ते / परिवाऽपमानं गच्छति, संखडिं अशरणाय // 283 // III सूत्रार्थ : भगवान ने दूसरे व्यक्ति के वस्त्र का सेवन नहीं किया, और दूसरे व्यक्ति के पात्र में भोजन भी नहि किया, वे मान अपमान को छोडकर बिना किसी के सहारे निर्दोष भिक्षा के लिए यथाकाल गृहस्थों के घर जाते थे। IV टीका-अनुवाद : परमात्मा पर याने अन्य के वस्त्र का आसेवन नहि करतें, अथवा पर याने प्रधान, श्रेष्ठ वस्त्र का आसेवन नहि करतें... तथा अन्य के पात्र (बरतन) में परमात्मा आहार (भोजन) नहि लेतें... तथा संखडि याने जहां प्राणीओं का खंडन-विनाश होता है वह संखडी... अर्थात् अहार के पाकगृह (रसोडा) का परित्याग कर के, अदीनमनवाले परमात्मा अशरण याने संयम के लिये उद्यम करते हुए परीषहों को जीतने के लिये विहार करते हैं... Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका // 1-9 - 1 - 20(284) // 259 V. सूत्रसार : भगवान महावीर ने अपने साधना काल में न तो किसी भी व्यक्ति के पात्र में भोजन किया और दूसरे व्यक्ति के वस्त्र का उपयोग भी नहि किया। यह हम देख चुके हैं कि- भगवान ने दीक्षा लेते समय केवल एक देवदुष्य वस्त्र के अतिरिक्त कोई उपकरण का स्वीकार नहीं किया था और वह देवदूष्य वस्त्र भी 13 महीने के बाद उनके कन्धे पर से गिर गया। और जब तक वह देवदूष्य-वस्त्र उनके पास रहा, तब तक भी उन्होंने शीत आदि निवारण करने के लिए उसका उपयोग नहीं किया। आगम से यह बात भी स्पष्ट है कि- वे अकेले ही दीक्षित हुए थे और संयम साधना काल में भी अकेले ही रहे थे। बीच में कुछ काल के लिए गोशालक उनके साथ अवश्य रहा था। परन्तु, परमात्मा ने गोशाले को साथ में रहने की संमति नहि दी थी... ऐसी स्थिति में किसी अन्य साधु के वस्त्र आदि स्वीकार करने या न करने का प्रश्न ही पैदा नहीं होता। . इससे स्पष्ट होता है कि- भगवान ने अपने साधना काल में न किसी गृहस्थ के पात्र में भोजन किया और सर्दी के मौसम में किसी गृहस्थ के वस्त्र का भी नहि स्वीकार किया। यद्यपि अन्य मत के साधु-संन्यासी गृहस्थ के बर्तन में भोजन कर लेतें है एवं गृहस्थ के वस्त्रों को भी अपने उपयोग में ले लेते हैं। परन्तु जैन साधु आज भी अपने एवं अपने से सम्बन्धित साधुओं के वस्त्र-पात्र के अतिरिक्त अन्य किसी के वस्त्र पात्र का स्वीकार नहीं करते हैं। भगवान ने भिक्षा के लिए जाते समय किसी भी व्यक्ति का सहारा नहीं लिया, वे सदा-मान-अपमान को छोडकर निर्दोष भिक्षा के लिए यथाकाल गृहस्थों के घर जाते थे। वे किसी दानशाला या महाभोजनशाला के सहारे भी अपना जीवन निर्वाह नहीं करते थे। क्योंकिइससे कई दीन-हीन व्यक्तियों को अन्तराय होता है और वहां आहार भी निर्दोष नहीं मिलता है। इस लिए वे अदीनमन होकर भिक्षा के लिए गृहस्थ के घर जाते और जैसा भी निर्दोष आहार उपलब्ध होता, वही स्वीकार करके अपनी संयम साधना में संलग्न रहते थे। उनकी साधना के सम्बन्ध में और उल्लेख करते हुए सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहते हैं... सूत्र // 20 // // 284 // 1-9-1-20 मायण्णे असणपाणस्स नाणुगिद्धे रसेसु अपडिन्ने। अच्छिंपि नो पमज्जिज्जा, नोवि य कंडूयए मुणी गायं // 284 // Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 260 // 1- 9 - 1 - 20(284) // श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन II संस्कृत-छाया : मात्रज्ञः अशनपानस्य, नानुगृद्धः रसेषु अप्रतिज्ञः / अक्ष्यपि नो प्रमार्जयेत्, नापि च कण्डूयते मुनि: गात्रम् // 284 // III सूत्रार्थ : श्रमण भगवान महावीर अन्न पानी के परिमाण को जानने वाले थे, रसों में अमूर्च्छित थे, सरस आहार के लेने की प्रतिज्ञा से रहित थे, आंख में रज कण पडने पर भी उसे नहीं निकलते थे। तथा खुजली आने पर भी शरीर को नहीं खुजालते थे। IV टीका-अनुवाद : आहार के परिमाण (मात्रा) को जाननेवाले परमात्मा शाली ओदन आदि अशन तथा द्राक्षपान आदि जल की मात्रा के ज्ञाता थे... एवं घी, दुध, आदि विगइओं में आसक्त नहि थे... अर्थात् गृहस्थावस्था में भी परमात्मा आहारादि पदार्थों में अनासक्त हि थे, जब किअभी तो परमात्मा ने प्रव्रज्या ग्रहण की है, अत: अभी परमात्मा उन आहारादि में विशेष प्रकार से अनासक्त है... तथा “आज मैं सिंहकेशर मोदक हि ग्रहण करुंगा" ऐसी प्रतिज्ञा परमात्मा नहि करतें... परंतु “आज यदि कुल्मास (अडद के बाकुले) का आहार प्राप्त होगा, तो हि मैं आहार करुंगा" ऐसी प्रतिज्ञा अवश्य करतें थे... तथा कभी आंखों में रजःकण (कचरा) पडे तो परमात्मा उस रजःकण को आंखों में से दूर करने का उद्यम नहि करते... तथा जब कभी शरीर में कहिं भी खुजली (खजाल) की पीडा हो, तब परमात्मा काष्ठादि (सली) से खुजालते नहि थे... . v सूत्रसार : भगवान महावीर का जीवन उत्कृष्ट साधना का जीवन था। वे केवल संयम साधना के उद्देश से ही आहार ग्रहण करते थे, स्वाद एवं शरीर को हृष्ट-पुष्ट बनाने के लिए नहीं। इसलिए उन्होंने कभी भी सरस एवं प्रकाम आहार की गवेषणा नहीं की। वे नीरस आहार ही स्वीकार करते थे और वह भी निरन्तर प्रतिदिन नहीं लेते थे। कभी चार चार महीने का, कभी 6 महीने का, कभी एक महीने का, कभी 15 दिन का तप तो कभी और कुछ तप कर देते थे। इस तरह उनका जीवन तपमय था। कहने का तात्पर्य यह है कि- भगवान ने कभी सरस एवं स्वादिष्ट आहार ग्रहण करने की प्रतिज्ञा नहीं की थी। इस लिए उन्हें अप्रतिज्ञ कहा है। Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1 - 9 - 1 - 21 (285) 261 - परन्तु, यह “अप्रतिज्ञ" शब्द सापेक्ष है। क्योंकि- परमात्मा ने सरस आहार की प्रतिज्ञा नहीं की, किन्तु, नीरस आहार की प्रतिज्ञा अवश्य की थी। जैसे उड़द के बाकले लेने की प्रतिज्ञा की थी। इससे उन्होंने साधना काल में आहार के सम्बन्ध में कोई प्रतिज्ञा नहीं की ऐसी बात नहीं है फिर भी सूत्रकार ने जो ‘अप्रतिज्ञ' शब्द का प्रयोग किया है, उसका तात्पर्य इतना ही है कि- सरस आहार की प्रतिज्ञा न करने या इच्छा न रखने से उन्हें अप्रतिज्ञ ही कहा है। क्योंकि- शरीर का निर्वाह करने के लिए आहार लेना आवश्यक है। यदि सरस एवं प्रकाम भोजन ग्रहण करते हैं तो उसमें आसक्ति पैदा हो सकती है और अधिक परिमाण में खाने से शरीरमें विकृतियां भी हो सकती है। परन्तु, नीरस एवं रूक्ष आहार में न आसक्ति होती है और न विकारों को उत्पन्न होने का अवसर मिलता है और नीरस आहार हि स्वाद एवं विकारों पर विजय प्राप्त करने का साधन है। लगभग 6 महिने के लम्बे तप के बाद रूक्ष उड़द के बाकले खाना साधारण बात नहीं है। इसके लिए मन में विवेक करना होता है। उस समय हमारा मन दूध आदि स्निग्ध एवं सुपाच्य आहार की इच्छा रखता है। उस समय रुक्ष उडद के उबले हुए दाने और वह भी नमक-मिर्च से रहित स्वीकार करके समभाव पूर्वक खा लेना जबरदस्त साधक का ही काम है। इस तरह भगवान ने स्वाद एवं अपने योगों पर विजय प्राप्त कर ली थी। इसी कारण उनकी नीरस आहार की प्रतिज्ञा को अभिगृह माना है। क्योंकि- वह आहार स्वाद एवं शक्ति बढ़ाने के लिए नहीं, अपितु साधना में तेजस्विता लाने के लिए करते थे। इस अपेक्षा से 'अप्रतिज्ञ' शब्द का प्रयोग हुआ होता है। भगवान महावीर का लक्ष्य शरीर पर नहीं किंतु आत्मा पर था। वे सदा आत्मा का ही ध्यान रखते थे। यदि कभी आंख में तृण या रेत के कण आदि गिर जाते तो उन्हें निकालने का प्रयत्न नहीं करते थे और शरीर में कभी खुजली आती थी तो भी वे नहि खुजालते थे। वे शरीर की चिन्ता नहीं करते थे। शरीर की ओर उनका ध्यान ही नहीं जाता था। वे सदा आत्म-चिन्तन में संलग्न रहते थे। उनके विचरण करने की विधि का उल्लेख करते हुए सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहते हैं... I सूत्र // 21 // // 285 // 1-9-1-21 . .. अप्पं तिरियं पेहाए अप्पिं पिट्ठओ पेहाए। अप्पं बुइएऽपडिभाणी, पंथपेहि चरे जयमाणे // 285 // संस्कृत-छाया : अल्पं तिरश्चीनं प्रेक्षते, अल्पं पृष्ठतः प्रेक्षते। अल्पं ब्रूते अप्रतिभाषी, पथप्रेक्षी Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 262 // 1-9-1-22 (२८६)卐 श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन चरेद् यतमानः // 285 // III सूत्रार्थ : श्रमण भगवान महावीर चलते हुए न तिर्यग् दिशा को देखते थे, न खड़े होकर पीछे की तरफ देखते थे और न मार्ग में किसी के पुकारने पर बोलते थे। किन्तु मौन वृत्ति से यतना पूर्वक मार्ग को देखते हुए चलते थे। IV टीका-अनुवाद : यहां अल्प शब्द अभाव अर्थ में है... परमात्मा जयणा (यतना) से विहार करते हुए जीवों के रक्षण में प्रयत्न करते थे मार्ग में चलते हुए तिरच्छा नहि देखतें, तथा चलते चलते रूक कर पीछे की और नहि देखतें... और मार्ग में कोई भी पुछे (प्रश्न करे) तब भी परमात्मा कुछ भी नहि बोलतें... अर्थात् मौनभाव से हि अपने मार्ग में विचरतें हैं... V सूत्रसार : साधना का मूल उद्देश्य है- विषयों में परिभ्रमण करने वाले योगों को आत्म-चिन्तन में केन्द्रित करना। इसके लिए समिति और गुप्ति की साधना बताई है। समिति का परिपालन करते समय साधक अपने आवश्यक कार्य में प्रवृत्त होता है। इसलिए वह जिस संयमानुष्ठान में प्रवृत्त होता है, उसी में अपने योगों को केन्द्रित कर लेता है। योगों को आत्म-चिन्तन में केन्द्रित करने का यह सबसे अच्छा उपाय है कि- साधक अपने मन-वचन काया के योगों को समिति-पूर्वक किए जाने वाले अपने आवश्यक कार्य में केंद्रित करे। भगवान महावीर ने ऐसा ही किया था। जब वे चलते थे तो अपनी चित्तवृत्ति एवं योगों को ईर्यापथ में केन्द्रित कर लेते थे। उस समय उनका इधर-उधर या पीछे की और ध्यान नहीं जाता था। वे न कभी दाएं-बाएं देखते थे और न खडे होकर पीछे देखते थे तथा मर्यादित भूमि से आगे या ऊपर आकाश में भी नहि देखते थे। वे किसी से संभाषण नहि करते थे। एवं किसी के पूछने पर भी कोई उत्तर नहीं देते हुए ईर्यासमिति से अपने मार्ग पर बढ़ते रहते थे। उनके विचरण के सम्बन्ध में कुछ और विशेष बातें बताते हुए सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहते हैं... सूत्र // 22 // // 286 // 1-9-1-22 सिसिसि अद्धपडिवन्ने तं वोसिज्ज वत्थमणगारे। पसारित्तु बाहुं परक्कमे नो अवलम्बियाण कंधंमि // 286 // Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 卐१ - 9 - 1 - 23 (287) // 263 - II - संस्कृत-छाया : शिशिरे अध्वप्रतिपन्ने, तद् व्युत्सृज्य वस्त्रमनगारः। प्रसार्य बाहू पराक्रमते, नो अवलम्ब्य स्कन्धे (तिष्ठति) // 286 // III सूत्रार्थ : . शीतकाल में मार्ग में चलते हुए भगवान इन्द्र प्रदत्त वस्त्र त्याग के बाद दोनों भुजायें फैला कर चलते थे किन्तु शीत से सन्तप्त होकर अर्थात् शीत के भय से भुजाओं का संकोच नहीं करते थे तथा हाथ कंधे में लगाकर खडे नहि रहते थे... IV टीका-अनुवाद : ग्रामानुग्राम विहार करते करते जब शिशिर ऋतु काल आवे तब परमात्मा देवदूष्यवस्त्र का त्याग कर के बाहु (हाथ) फैलाकर कायोत्सग-ध्यान में उद्यम करतें हैं... कडकडती ठंड में शीत की पीडा से परमात्मा कभी भी शरीर के अंगोपांगों का संकोच नहि करतें, तथा हाथ को खंधे पे रखकर शीत को दूर करने का प्रयत्न नहि करतें... किंतु समभाव से शीतपरीषह को सहन करतें हैं... .. V सूत्रसार : भगवान महावीर की साधना विशिष्ट साधना थी। भगवान ने अपने साधना काल में अपवाद को स्थान ही नहीं दिया है। वे परीषहों पर सदा विजय पाते रहे, सर्दी के समय शीत के परीषह से घबराकर न तो कभी उन्होंने वस्त्र का उपयोग किया और न कभी शरीर को या हाथों को संकोच कर रखा। यद्यपि दीक्षा स्वीकार करने के पश्चात् 13 महीने तक उनके कन्धे पर देव दूष्य वस्त्र पड़ा रहा। फिर भी उन्होंने उससे शीत निवारण करने का प्रयत्न नहीं किया। वे दोनों हाथों को फैला कर चलते थे और दोनों हाथों को फैला कर ही खड़े होते थे। न चलते समय उन्होंने कभी हाथों का संकोच कीया और न कंधे पर हाथ रखा। वे सदा अपनी प्रतिज्ञा पर दृढ़ रहे और साधना में उत्पन्न होने वाले सभी परीषहों को समभाव पूर्वक सहते रहे। इससे स्पष्ट होता है कि- उनका अपने योगों पर पूरा अधिकार था। प्रस्तुत उद्देशक का उपसंहार करते हुए सूत्रकार महर्षि अंतिम सूत्र कहते हैं... सूत्र // 23 // // 287 // 1-9-1-23 एस विहि अणुक्कन्तो माहणेण मइमया। बहुसो अपडिन्नेण भगवया एवं रियंति त्तिबेमि // 287 // Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 264 1-9-1-23 (287) म श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन II संस्कृत-छाया : एष विधिः अनुक्रान्तः, माहनेन मतिमता। बहुशः अप्रतिज्ञेन, भगवता एवं रीयन्ते इति ब्रवीमि // 287 // III सूत्रार्थ : प्रबुद्ध साधक भगवान महावीर ने इस विहार विचरण चर्या (विधि) को स्वीकार किया / था और उन्होंने बिना निदान कर्म-किसी प्रकार के भौतिक सुखों की कामना के बिना इस विहारचर्या विधि का आचरण किया और दुसरे साधकों को भी इस पथ पर चलने का आदेश दिया। इस लिए मुमुक्षु पुरुष इस विहारचर्या का आचरण करके मोक्ष मार्ग पर कदम बढ़ाते हैं। IV टीका-अनुवाद : अब इस प्रथम उद्देशक का उपसंहार करते हुए ग्रंथकार महर्षि कहते हैं कि- इस प्रथम उद्देशक में कही गइ चर्या-विधि की सम्यग् आचरणा श्री वर्धमान स्वामीजी ने अपने छद्मस्थ काल में बार बार की है... मतिमान् याने बुद्धिशाली, भगवान् याने ऐश्वर्यादि गुणवाले श्री महावीरस्वामीजीने कभी भी पौद्गलिक सुख प्राप्ति का निदान (नियाणा) नहि किया...अतः अन्य मुमुक्षु साधुओं का भी यह कर्त्तव्य होता है कि- परमात्मा की आचरणा के अनुसार अशेष कर्मो के क्षय के लिये इस चर्या-विधि की सम्यम् आचरणा करें... इति शब्द अधिकार की समाप्ति का सूचक है... और त्तिबेमि पद का अर्थ पूर्ववत् / V सूत्रसार : प्रस्तुत उद्देशक में साधक के लिए जो विचरण करने की विधि बताई है, वह केवल भगवान महावीर द्वारा उपदिष्ट ही नहीं है, अपितु, उनके द्वारा आचरित भी है इस गाथा में यह बताया है कि- भगवान महावीर ने जिस संयम-साधना का उपदेश दिया है उसे पहले उन्होंने स्वयं आचरित किया था। इससे यह स्पष्ट होता है कि- साधना के द्वारा प्राप्त सर्वज्ञत्व से पहले भगवान महावीर भी एक साधारण साधु थे। उन्होंने भी भूतकाल में अनन्त काल तक संसार में परिभ्रमण किया था। अनेकों बार नरक एवं निगोद के अनन्त दुःखों का संवेदन किया था। इस तरह संसार में भटकते हुए शुभयोग मिलने पर ज्ञान को प्राप्त किया और अपने आत्म स्वरूप को समझकर साधना पथ पर आगे बढे और उसी के द्वारा आत्मा का विकास करते हुए पंचाचार के परिपालन से सर्वज्ञत्व एवं सिद्धत्व को प्राप्त किया। भगवान द्वारा आचरित साधना ही आत्मा को सिद्धत्व पद पर पहुंचाती है। जैन धर्म का पूर्ण विश्वास Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका // 1-9-1-23 (287) // 265 है कि- प्रत्येक आत्मा में सिद्ध बनने की शक्ति है, प्रत्येक आत्मा सिद्धों के जैसी ही आत्मा , है और संयम साधना पथ को स्वीकार करके सिद्ध बन सकती है। 'त्तिबेमि' का विवेचन पूर्ववत् समझें। // इति नवमाध्ययने प्रथमः उद्देशकः समाप्तः // : प्रशस्ति : __ मालव (मध्य प्रदेश) प्रांतके सिद्धाचल तीर्थ तुल्य शत्रुजयावतार श्री मोहनखेडा तीर्थमंडन श्री ऋषभदेव जिनेश्वर के सांनिध्यमें एवं श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरिजी, श्रीमद् यतीन्द्रसूरिजी, एवं श्री विद्याचंद्रसूरिजी के समाधि मंदिर की शीतल छत्र छायामें शासननायक चौबीसवे तीर्थंकर परमात्मा श्री वर्धमान स्वामीजी की पाट-परंपरामें सौधर्म बृहत् तपागच्छ संस्थापक अभिधान राजेन्द्र कोष निर्माता भट्टारकाचार्य श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी म. के शिष्यरत्न विद्वद्वरेण्य व्याख्यान वाचस्पति अभिधान राजेन्द्रकोषके संपादक श्रीमद् विजय यतीन्द्रसूरीश्वरजी म. के शिष्यरत्न, दिव्यकृपादृष्टिपात्र, मालवरत्न, आगम मर्मज्ञ, श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम प्रकाशन के लिये राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी हिंदी टीका के लेखक मुनिप्रवर ज्योतिषाचार्य श्री जयप्रभविजयजी म. “श्रमण'' के द्वारा लिखित एवं पंडितवर्य लीलाधरात्मज रमेशचंद्र हरिया के द्वारा संपादित सटीक आचारांग सूत्र के भावानुवाद स्वरूप श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी हिंदी टीका-ग्रंथ के अध्ययनसे विश्वके सभी जीव पंचाचारकी दिव्य सुवासको प्राप्त करके परमपदकी पात्रता को प्राप्त करें... यही मंगल भावना के साथ... "शिवमस्तु सर्वजगतः" वीर निर्वाण सं. 2528. राजेन्द्र सं. 96. विक्रम सं. 2058. Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 266 // 1- 9 -2-1(288) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन श्रुतस्कंध - 1 अध्ययन - 9 उद्देशक - 2 // शय्या है प्रथम उद्देशक कहा, अब द्वितीय उद्देशक का प्रारंभ करतें हैं... यहां परस्पर यह अभिसंबंध है कि- पहेले उद्देशक में परमात्मा की चर्या-विधि कही, अब इस चर्याविधि में अवश्य कोइ भी प्रकार की शय्या की संभावना होती है, अतः शय्या के स्वरूप को कहने के लिये इस द्वितीय उद्देशक का प्रारंभ करतें हैं... इस अभिसंबंध से आये हुए द्वितीय उद्देशक का यह प्रथम सूत्र है... I सूत्र // 1 // // 288 // 1-9-2-1 चरियासणाई सिज्जाओ, एगइयाओ जाओ बुइयाओ / आइक्ख ताई सयणासणाई जाइं सेवित्था से महावीरे // 288 // II संस्कृत-छाया : चर्यासनानि शयनानि एकै कानि यानि अभिहितानि / आचक्ष्व तानि शयनासनानि यानि सेवितवान् स महावीरः // 288 // III सूत्रार्थ : विहार के समय में भगवान महावीर ने जिस शय्या एवं आसन का सेवन किया, उसके संबन्ध में जम्बूस्वामी के पूछने पर पंचमगणघर श्री सुधर्मास्वामी ने इस प्रकार कहा। IV टीका-अनुवाद : चरम केवली श्री जंबूस्वामीजी अपने गुरूदेव श्री सुधर्मस्वामीजी को विनम्रभाव से पुछतें हैं, कि- हे गुरूजी ! चर्या में शय्या अवश्य होती हि है, अत: हे गुरूजी ! श्रमण भगवान् महावीर स्वामीजीने कौन से प्रकार के शय्या एवं फलकादि आसन का उपयोग (सेवन) कीया था ? इस प्रथम सूत्र की व्याख्या चिरंतन टीकाकार महर्षिने नहि की है... अत: यहां कारण क्या है ? सुगम होने के कारण से ? या सूत्र के अभाव से ? क्योंकि- सूत्र-पुस्तकों में यह गाथा दीखाइ देती है... यहां वास्तविक कारण (अभिप्राय) क्या है ? वह हम नहि जानतें... Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका // 1- 9 - 2 -2 (289) 267 ऐसा श्री शीलांकाचार्यजी म. कहते हैं... V सूत्रसार : प्रस्तुत गाथा प्रतिज्ञा सूत्र है। इसमें सूत्रकार यह प्रतिज्ञा करता है कि- इस उद्देशक में मैं यह बताऊंगा कि- भगवान ने विहार काल में कैसी वसती एवं शय्या आदि का सेवन किया था। यह गाथा अपने आप में इतनी स्पष्ट है कि- इसके लिए व्याख्या की आवश्यकता ही नहीं है। चूर्णिकार ने प्रस्तुत उद्देशक की इस गाथा को उद्धृत करके उसके विषय में “ऐसा पूछा अर्थात् यह प्रश्न है।" ऐसा कहा है। परन्तु, इसकी व्याख्या नहीं की किन्तु, आचार्य शीलांक ने लिखा है कि- प्रस्तुत गाथा सूत्रपुस्तक में उपलब्ध होती है। परन्तु चिरन्तन टीकाकार ने इसकी व्याख्या नहीं की है। इसका कारण गाथा की सुगमता है या उन्होंने इसे मूलसूत्र रूप नहीं माना। इस सम्बन्ध में कुछ नहीं कह सकते। आचार्य शीलांक ने किसी टीकाकार के नाम का उल्लेख नहीं करके केवल चिरन्तन टीकाकार शब्द का प्रयोग किया है। इससे ऐसा लगता है कि- चिरन्तन टीकाकार शब्द से चूर्णिकार अभिप्रेत हो सकते हैं। क्योंकि- उन्होंने इस गाथा को उद्धृत तो किया है, परन्तु, उसकी व्याख्या नहीं की और चूर्णिकार के अतिरिक्त अन्य टीकाकार भी अभिप्रेत हो सकते हैं। जिनकी टीका उनके युग में प्रचलित रही हो, और आज उपलब्ध न हो। परन्तु, इतना स्पष्ट है कि- आचार्य शीलांक से भी पूर्व आचाराङ्ग पर टीका लिखी जा चुकी थी। इस तरह जैनागमों पर और भी अनेक टीका, चूर्णि एवं भाष्य आदि लिखे गए हैं। परन्तु, आज वे अनुपलब्ध हैं... वर्तमान में प्राप्त टीका ग्रन्थ अपने युग में प्रचलित प्राचीन टीका ग्रन्थों के आधार पर ही संक्षिप्त एवं विस्तृत रूप से रचे गए हैं। किसी किसी टीकाकार ने तो अपने पूर्व टीकाकार के भावार्थ ही नहीं, किंतु श्लोक एवं गाथाएं भी ज्यों की त्यों उद्धृत कर ली हैं। इससे यह कहना समुचित होगा कि- पुरातन टीकाएं कुछ अंश रूप वर्तमान टीकाओं में सुरक्षित हैं। प्रस्तुत गाथा में शय्या आदि के सम्बन्ध में उठाए गए प्रश्न का समाधान करते हुए सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहते हैं... सूत्र // 2 // // 289 // 1-9-2-2 आवेसणसभापवासु पणियसालासु एगया वासो। अदुवा पलियठाणेसु पलाल पुंजेसु एगया वासो // 289 // Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2687 1 - 9 - 2 -2 (289) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन II संस्कृत-छाया : आवेशनसभाप्रपासु, पण्यशालासु एकदा वासः। अथवा कर्म स्थानेषु, पलालपुंजेषु एकदा वासः // 289 // III सूत्रार्थ : ___भगवान महावीर ने शून्य घर में, सभा भवन में, जल के प्याऊ में, दुकान में, लुहार की शाला में या जहां पलाल का समूह एकत्रित कर रखा हो ऐसे स्थान में निवास किया, अर्थात् ऐसे विभिन्न स्थानों में विहार-चर्चा में विचरते हुए भगवान महावीर ठहरे थे। IV टीका-अनुवाद : / प्रथम सूत्र में पुछे गये प्रश्न का उत्तर देते हुए श्री सुधर्मस्वामीजी कहते हैं कि- हे जंबू ! श्रमण भगवान् श्री महावीरस्वामीजी को आहार के अभिंग्रह की तरह प्रतिमा विशेष को छोडकर शय्या के विषय में प्रायः कोइ अभिग्रह नहि थे... किंतु जहां कहिं भी चरम (अंतिम) पोरसी होती थी, वहां प्राप्तवसति में अनुज्ञा लेकर प्रभुजी कायोत्सर्ग ध्यान में खडे रहते थे... वह स्थान कभी आवेशन स्वरूप शून्यगृह, या सभागृह हो, प्रपा याने जल की परब हो, या पण्यशाला याने बाजार (दुकानें) हो अथवा तो लुहार की लोहशाला हो, या सुथार का घर हो, कोइ भी स्थान में प्रभुजी वसति ले कर के कायोत्सर्ग ध्यान में लीन रहते थे... सूत्रसार : प्रस्तुत गाथा में उस युग के निवास स्थानों का वर्णन किया गया है जिन में लोग रहते थे या पथिक विश्राम लेते थे। शून्य घर-जिस मकान में कोई न रहता हो तो उसे शून्य घर कहते हैं। आज कई प्राचीन शहरों एवं जंगलों में शून्य खण्डहर एवं मकान मिलते हैं। भगवान महावीर भी कभी ऐसे स्थानों में ठहर जाते थे। ये स्थान एकान्त एवं स्त्री-पशु आदि से रहित होने के कारण साधना एवं आत्मचिन्तन में अनुकूल होते हैं। सभा-गाव या शहर के लोगों के विचार-विमर्श करने के लिए एक सार्वजनिक स्थान होता था। बाहर गांवों से आने वाले यात्री भी उसमें ठहर जाते थे। आज भी अनेक गांवों में पथ से गुजरते हुए पथिकों के ठहरने के लिए एक स्थान बना होता है और शहरों में ऐसे स्थानों को धर्मशाला कहते हैं। उस युग में उसे सभा कहते थे। भगवान Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीकाम 1 - 9 - 2 - 3 (290) // 269 महावीर भी कभी कभी ऐसी सभाओं में रात्रि व्यतीत करते थे। प्रपा (प्याऊ)- जहां राहगीरों को पानी पिलाया जाता है, उसे प्रपा या प्याउ कहते हैं। रात के समय यह स्थान प्रायः खाली रहता है अतः आत्म चिन्तन के लिए ऐसे प्याउ के स्थान अनुकूल होने से अनुमति लेकर प्रभुजी प्याउ में भी कभी कभी वसतिनिवास करते थे. पण्यशाला (दुकानें)- जहां लोगों को जीवन के लिए आवश्यक खाद्य पदार्थ एवं वस्त्र आदि बेचे जाते हैं, उन्हें पण्यशाला कहते हैं। ये स्थान भी रात में खाली रहते हैं। जबकि दुकानदार अपनी दुकान को जिस में सामान भरा रहता है, ताला लगा देता है, फिर दुकान के आगे का छप्पर या वरंडा खाली पड़ा रहता है। अतः भगवान कई बार ऐसे स्थानों में भी ठहरे थे... कर्मस्थान - जहां लुहार, सुथार आदि अपना व्यवसाय करतें हैं ऐसी लुहारशाला सुथारशाला आदि में भी प्रभुजी अनुमति लेकर ठहरतें थे... पलाल पुंज- जहां पर पशुओं के लिए चार खंभों के सहारे घास का समूह बिछाया जाता है उसे पलाल पुंज कहते है। ये स्थान भी साधक के ठहरने योग्य हैं। इस तरह भगवान महावीर ने अपने साधना काल में ऐसे स्थानों में निवास किया। इससे साधु जीवन की कष्टसहिष्णुता एवं निस्पृहता का तथा उस समय के लोगों की उदार मनोवृत्ति का पता लगता है। प्रत्येक गांव में आगंतुक व्यक्ति भूखा प्यासा, एवं निराश्रित नहीं रहता था। सार्वजनिक स्थानों के अतिरिक्त लुहार एवं बढ़ई आदि श्रमजीवी लोगों की इतनी उद्योग शालाएं थीं कि- कोई भी यात्री विश्रान्ति कर सकता था। इससे उस युग के ऐतिहासिक रहन-सहन एवं उद्योग-धन्धे का भी पता चलता है। उस यग का रहन-सहन सादा था, मकान भी सादे होते थे। धनाढ्यों के भवनों को छोड़कर साधारण लोग मिट्टी के बने साधारण घरों में ही रहते थे / औद्योगिक एवं कृषि कार्य अधिक था। गांवों के लोग प्रायः कृषि कर्म पर ही आधारित रहते थे। बडे-बडे वाणिक् भी कृषि कर्म करते या करवाते थे। आगमों में आनंद आदि श्रावकों का वर्णन आता है कि- उन्होंने अपनी-अपनी इच्छा के अनुसार 500 हल या इससे कम-ज्यादा खेती करने की मर्यादा रखी थी। कहने का तात्पर्य इतना ही है कि- भगवान ऐसे स्थानों में ठहरते थे कि- जहां किसी को किसी तरह का कष्ट न हो और अपनी साधना भी चलती रहे। वे अपने उपर आने वाले समस्त परीषहों को समभाव पूर्वक सह लेते थे, परन्तु, अपने जीवन से किसी भी प्राणी को कष्ट नहीं देते थे। Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 270 // 1-9 - 2 -3 (290) // श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन जहां भगवान ठहरे थे, ऐसे और स्थानों को बताते हुए सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहते हैं... I सूत्र // 3 // // 290 // 1-9-2-3 आगन्तारे आरामागारे तह य नगरे व एगया वासो। सुसाणे सुण्णागारे वा रुक्खमूले व एगया वासो // 290 // II संस्कृत-छाया : आगन्तारे आरामागारे तथा च नगरे वा एकदा वासः। श्मशाने शून्यागारे वा वृक्षमूले वा एकदा वासः // 290 // III सूत्रार्थ : जहां पर नगर और ग्राम से बाहिर प्रसंगवशात् लोग आकर ठहरते हों ऐसे आस्थानगृह में उद्यानगृह में तथा कभी कभी नगर में, श्मशान में, शून्यगृह में और वृक्ष के मूल में भी भगवान महावीर ने निवास किया / IV टीका-अनुवाद : अथवा तो आगंतुक मनुष्यों को ठहरने के लिये गांव या नगर के बाहार बनी हुइ धर्मशाला हो या बगीचे (उद्यान) में बने हुए घर (मकान) हो, कहिं भी महावीरस्वामीजी वसति करतें थें... कभी नगर में वसती करतें हैं, कभी श्मशानभूमि में, कभी शून्यगृह में, और कभी वृक्ष के नीचे श्रमण भगवान् महावीरस्वामीजी वसति करते थे... अर्थात् वहां अनुज्ञा लेकर कायोत्सर्ग ध्यान में लीन होते थे... V सूत्रसार : __ प्रस्तुत गाथा में भी भगवान महावीर के ठहरने के स्थानों का वर्णन किया गया है। जहां श्रमजीवी लोग विश्राम करते हों, या बीमार व्यक्ति स्वच्छ वायु का सेवन करने के लिए कुछ समय के लिए आकर रहते हों, ऐसे स्थानों को 'आगन्तार' कहते हैं। ये स्थान प्रायः शहरों गांवो के बाहर होते हैं। क्योंकि- शहरों के बाहर ही शुद्ध वायु उपलब्ध हो सकती है। इसके अतिरिक्त शहर के बाहर जो बाग-बगीचे होते हैं, जहां लोगों को एवं पशु-पक्षियों को विश्राम-आराम मिलता है, उन्हें आराम कहते हैं और उनमें बने हुए मकानों को आरामागार कहते हैं। इसके अतिरिक्त श्मशान, शून्य मकान एवं और कुछ नहीं तो वृक्ष की छाया तो Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 卐१-९-२-४(२९१)॥ 271 % यत्र-तत्र-सर्वत्र सुलभ हो ही जाती है। उपरोक्त सभी स्थान एकान्त एवं निर्दोष होने के कारण संयम साधना के लिए बहुत उपयुक्त माने गए हैं। उस युग के साधकों की साधना में भी परस्पर अन्तर था और आज के युग की साधना में भी अन्तर रहा हुआ है। इस लिए साधक को व्यवहार शुद्धि के लिए निर्दोष स्थान में ठहरना चाहिए। इसी वृत्ति का उपदेश देने के लिए समस्त विकारों एवं परीषहों पर विजय पाने में समर्थ भगवान महावीर भी चित्त को समाधि देने वाले एवं आत्म-चिन्तन में प्रगति देने वाले स्थानों में ठहरे। भगवान का आचार हमारे लिए जीवित शास्त्र है, जो हमारी साधना में स्फूर्ति एवं तेजस्विता लाने वाला है। यहां एक प्रश्न हो सकता है कि- भगवान महावीर का छद्मस्थ काल कीतना है ? इस प्रश्न का उत्तर देते हुए सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहते हैं... I सूत्र // 4 // // 291 // 1-9-2-4 एएहिं मुणी सयणेहिं समणो आसि पतेरसवासे। राइं दिवंपि जयमाणे अपमत्ते समाहिए झाइ // 291 // // संस्कृत-छाया : एतेषु मुनिः शयनेषु श्रमणः आसीत् प्रत्रयोदशवर्षम् / रात्रिं दिवापि यतमानः, अप्रमत्तः समाहितः ध्यायति // 291 // III सूत्रार्थ : श्रमण भगवान महावीर इन पूर्वोक्त स्थानो में अप्रमत्तभाव से तप साधना कहते हुए 12 वर्ष, 6 महीने और 15 दिन तक निद्रा आदि प्रमादों से रहित होकर समाधि पूर्वक धर्म एवं शुक्ल ध्यान में संलग्न रहे। IV टीका-अनुवाद : उपरोक्त स्थानों में, ऋतुबद्ध काल हो या वर्षाकाल, सर्वदा निश्चलमनवाले परमात्मा श्रमण भगवान् महावीर स्वामीजी, बारह वर्ष से अधिक समय पर्यंत रात-दिन संयमानुष्ठान में उद्यम करते हुए, एवं निद्रादि प्रमाद रहित समाधि में रहे हुए धर्मध्यान या शुक्लध्यान में लीन रहते थे.. Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2721 -9 - 2 - 5 (292) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन v सूत्रसार : भगवान महावीर ने 12 वर्ष 6 महीने और 15 दिन तक पूर्व सूत्रों में उल्लिखित स्थान-वसतिओं में वर्षावास एवं रात्रिवास किया। इतने समय तक भगवान छद्मस्थ अवस्था में रहे और सदा आत्म-चिन्तन में संलग्न रहे। इतने लम्बे काल में भगवान ने कभी भी निद्रा नहीं ली और प्रमाद का सेवन भी नहि किया। क्योंकि- प्रमाद से संयम साधना दूषित होती है। इसलिए साधक को सदा सावधानी के साथ विवेक पूर्वक क्रिया करने का आदेश दिया गया है। आदेश ही नहीं, प्रत्युत भगवान महावीर ने अपने साधना काल में अप्रमत्त रहकर साधक के सामने प्रमाद से दुर रहने का आदर्श रखा है। भगवान की अप्रमत्त साधना का और उल्लेख करते हुए सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहते हैं... I सूत्र // 5 // // 292 // 1-9-2-5 निपि नो पगामाए, सेवइ भगवं उट्ठाए। जग्गावेइ य अप्पाणं इसिं साई य अपडिन्ने // 292 // // संस्कृत-छाया : निद्रामपि न प्रकामतः, सेवते भगवान् उत्थाय। जागरयति च आत्मानं, ईषच्छायी च अप्रतिज्ञः // 292 // II सूत्रार्थ : भगवान महावीर निद्रा का सेवन नहीं करते थे। यदि कभी उन्हें निद्रा आती भी तो वे सावधान होकर आत्मा को जगाने का यत्न करते। वे कभी भी निद्रा लेने की इच्छा नहि करते थे। IV टीका-अनुवाद : श्रमण भगवान श्री महावीरस्वामीजी अपने श्रमण जीवन में अप्रमत्त भाववाले थे, अत: निद्रा का प्रकाम भाव से सेवन नहि करते थे... कहा है कि- छद्मस्थ काल के साढे बारह वर्ष के समय में मात्र अंतर्मुहूर्त काल पर्यंत का निद्रा प्रमाद हुआ था... वह इस प्रकार- अस्थिक गांव के व्यंतर देव के मंदिर में जब परमात्मा वसति कर के कायोत्सर्ग ध्यान करते थे, तब रात्रि में व्यंतर देव ने प्रभुजी के उपर उपसर्ग कीये थे, उस वख्त अंतमुहूर्त्तकाल प्रमाण- निद्रा में प्रभुजी ने दश स्वप्न देखें थे... जब निद्रा खुल गइ तब परमात्मा ने अपनी आत्मा को Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी-हिन्दी-टीका 卐१-९-२-६ (293) // 273 कुसलानुष्ठान में प्रवृत्त कीया.. छद्मस्थकाल में ग्रामानुग्राम विचरते हुए प्रभुजी जहां कहिं शय्या-वसति करतें थे वहां निद्रा के अभिप्राय से शयन नहि करतें थे... V सूत्रसार : . प्रस्तुत गाथा में बताया गया है कि- भगवान ने कभी भी निद्रा नहीं ली। क्योंकि यह भी प्रमाद का एक रूप है। इसलिए भगवान सदा इससे दूर करने का प्रयत्न करते थे। निद्रा दर्शनावरणीय कर्म के उदय से आती है। उस कर्म का क्षय होने के बाद निद्रा नहीं आती और भगवान उस कर्म को क्षय करने के लिए प्रयत्नशील थे। अतः जब भी निद्रा आने लगती थी तब वे सावधान होकर जागृत होने का प्रयत्न करते। इस से स्पष्ट है कि- उन्होंने कभी भी निद्रा लेने का प्रयत्न नहीं किया... ऐसा वर्णन आता है कि- एक बार भगवान को क्षण मात्र के लिए झपकी-निद्रा आ गई थी और उसमें उन्होंने 10 स्वप्न देखे थे। परन्तु, उन्होंने निद्रा लेने का कभी प्रयत्न नहीं किया... ___ वे निद्रा को कैसे दूर करते थे, इसका वर्णन करते हुए सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहते हैं... I सूत्र // 6 // // 293 // 1-9-2-6 संबुज्झमाणे पुणरवि आसिंसु भगवं उट्ठाए। . निक्खम्म एगया राओ बहि चंकमिया मुहत्तगं // 293 // II संस्कृत-छाया : संबुध्यमानः पुनरपि, अवगच्छन् भगवान् उत्थाय। निष्क्रम्य एकदा रात्रौ, बहिश्चंक्रम्य मुहूर्त्तकम् // 293 // III सूत्रार्थ : निद्रा रूप प्रमाद को संसार का कारण जानकर भगवान सदा अप्रमत्त भाव से संयम साधना में संलग्न रहते थे। यदि कभी शीत काल में निद्रा आने लगती तो भगवान मुहूर्त मात्र के लिए बाहर निकल कर चंक्रमण करने लगते। वे थोड़ी देर घूम-फिर कर पुनः ध्यान एवं आत्मचिन्तन में संलग्न हो जाते। Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 274 // 1 - 9 - 2 - 7/8 (294-295) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन IV टीका-अनुवाद : निद्रा-प्रमाद से निवृत्तचित्तवाले महावीरस्वामीजी ऐसा जानते थे कि- यह निद्रा स्वरूप प्रमाद आत्मा को संसार में भटकने का कारण है, अत: संयम के भाव को जाग्रत कर के सदा संयमानुष्ठान में लीन रहते थे.. . जैसे कि- एक बार शीतकाल की रात्रि में जब निद्रा-प्रमाद की संभावना हो रही थी, तब परमात्मा निद्रा-प्रमाद को दूर करने के लिये मुहूर्त्तमात्रकाल पर्यंत वसति के बाहार लटार मारने स्वरूप थोडा सा घूम-घूमाकर पुनः कायोत्सर्ग ध्यान में लीन हुए थे... V सूत्रसार : यह हम देख चुके हैं कि- भगवान महावीर सदा प्रमाद से दुर रहे हैं। उन्होंने कभी भी निद्रा लेने का प्रयत्न नहीं किया। क्योंकि- निद्रा दर्शनावकरणीय कर्म के उदय से आती है और दर्शनावरणीय कर्म संसार परिभ्रमण का कारण है। अतः भगवान उसे नष्ट करने के लिए उद्यत हो गए। निद्रा आने के मुख्य कारण हैं- अति भोग विलास और अति आहार। भगवान ने भोगों का सर्वथा त्याग कर दिया था और आहार भी वे स्वल्प ही करते थे। उनके बहुत से दिन तो तपस्या में बीतते थे, पारणे के दिन भी वे रूक्ष एवं स्वल्प आहार ही स्वीकार करते थे। इससे उनकी अप्रमत्त साधना में तेजस्विता बढ़ती गई। फिर भी यदि कभी उन्हें निद्रा आने लगती तब वे खड़े होकर उसे दूर करते थे, यदि सर्दी के दिनों में गुफा में या किसी मकान में स्थित रहते हुए निद्रा आने लगती तो वे बाहर खुले में आकर थोड़ी देर चंक्रमण करने-टहलने लगते। इस तरह भगवान सदा द्रव्य एवं भाव से जागृत रहे। द्रव्य से उन्होंने कभी निद्रा का सेवन नहीं किया और भाव से सदा रत्नत्रय की साधना में संलग्न रहे। ___ भगवान की विहार चर्या में उत्पन्न होने वाले कष्टों का उल्लेख करते हुए सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहते हैं... सूत्र // 7 // // 8 // // 294-295 // 1-9-2-7/8 सयणेहिं तत्थुवसग्गा भीमा आसी अणेगरूवा य। संसप्पगा य जे पाणा अदुवा जे पक्खिणो उवचरंति // 294 // अदु कुचरा उवचरंति, गामरक्खा य सत्ति हत्था य। अदु गामिया उवसग्गा, इत्थी एगइया पुरिसां य // 295 // Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1-9-2-7/8 (294-295) 275 II संस्कृत-छाया : शयनेषु तत्रोपसर्गा भीमा: आसन् अनेकरूपाश्च। संसर्पकाश्च ये प्राणाः अथवा ये पक्षिणः उपचरन्ति // 294 // अथ कुचरा उपचरंति, ग्रामरक्षकाश्च शक्तिहस्ताश्च / अथ ग्रामिका उपसर्गाः स्त्रिय एकाकिन: पुरुषाश्च // 295 // III सूत्रार्थ : उन शून्य स्थानों में जहां सर्पादि विषैले जन्तु एवं गृध्रादि मांसाहारी पक्षी रहते थे, उन्होने भगवान महावीर को अनेक कष्ट दिए। इसके अतिरिक्त चोर, सशस्त्र कोतवाल, ग्रामीण मुग्ध मनुष्य तथा विषयोन्मत्त स्त्रियों एवं दुष्ट पुरुषों के द्वारा भी एकाकी विचरण करने वाले भगवान महावीर को अनेक उपसर्ग प्राप्त हुए। IV टीका-अनुवाद : ____ जहां उत्कटुकासन याने उभडक पगे बैठना इत्यादि शय्या याने आश्रय स्थान में प्रभुजी ठहरतें थे, तब जो कोइ अनेक प्रकार के भयानक. उपसर्ग (अनुकूल या प्रतिकूल उपसर्ग) होतें थे.. या शीत, उष्ण आदि परीषह उपस्थित होते थे अथवा शून्यगृहादि में सर्प, नेउले इत्यादि क्षुद्रजंतुओं का उपद्रव होता था, अथवा श्मशानादि वसति में गीध आदि पक्षी प्रभुजी के शरीर में से मांस आदि खातें थे तब भी परमात्मा अपने धर्मध्यान से विचलित नहि होतें .... - तथा कभी कुत्सितचर याने चौर या परदारागमन करनेवाले दुष्ट लोग, शून्यगृहादि वसति में कायोत्सर्गध्यान करते हुए प्रभुजी को उपसर्ग करे... या तो गांव या नगर के तीन रास्ते या चार रास्ते वाले चौक में काउस्सग्ग ध्यान करते हुए प्रभुजी को कोटपालादि ग्रामरक्षक लोग छुरी, त्रिशूल एवं भाले आदि से ताडन करे... या तो कोइक स्त्री प्रभुजी के रूप-सौभाग्यादि गुणों को देखकर कामातुरता से आलिंगनादि स्वरूप अनुकूल उपसर्ग करे, या कोइ पुरुष द्वेषभावसे प्रतिकूल उपसर्ग करे, तब भी परमात्मा अपने धर्मध्यान से विचलित नहि होतें थे... V सूत्रसार : प्रस्तुत गाथाओं में बताया गया है कि- भगवान महावीर को साधना काल में अनेक कष्ट उत्पन्न हुए। भगवान महावीर प्राय: शून्य मकानों, जंगलों एवं श्मशानों में विचरते रहे हैं। शून्य घरों में सर्प, नेवले आदि हिंसक जन्तुओं का निवास रहता ही है। अत: वे भगवान Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 276 1 - 9 - 2 - 9 (296) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन को डंक मारते, काटते और इसी तरह श्मशानों में गधादि पक्षी उन पर चोंच मारते थे। इसके अतिरिक्त चोर-डाकू एवं धर्म-द्वेषी व्यक्तियों तथा व्यभिचारी पुरुषों एवं भगवान के सौंदर्य पर मुग्ध हुई कामातुर स्त्रियों ने भगवान को अनेक तरह के कष्ट दिए। फिर भी भगवान अपने ध्यान से विचलित नहीं हुए। साधना में स्थित साधक अपने शरीर एवं शरीर संबन्धी सुख दुःख को भूल जाता है। ध्यानस्थ अवस्था में उसका चिन्तन आत्मा की ओर लगा रहता है, अतः क्षुद्र जन्तुओं द्वारा दिए जाने वाले कष्ट को वह अनुभव नहीं करता। साधक के लिए बताया गया है किध्यान के समय यदि कोई जन्तु काट खाए तो उसे उस समय अपनी साधना से विचलित नहीं होना चाहिए। साधक को उत्पन्न होने वाले कष्ट को समभाव पूर्वक सहन करना चाहिए। क्योंकि- इससे केवल शरीर को कष्ट पहुंचता है और यदि कोई मनुष्य शरीर का ही विनाश करने लगे तब भी यही सोचना चाहिए कि- ये मेरे शरीर का नाश कर रहे हैं, परन्तु मेरी आत्मा शरीर से भिन्न है, अविनाशी है उसका नाश करने में कोई समर्थ नहीं है। इस तरह आत्मा का चिन्तन करते हुए भगवान सभी कष्टों को समभाव पूर्वक सहते हुए कर्मों का नाश करने लगे। ..हिंसक पशु-पक्षी एवं अधार्मिक व्यक्ति भी एकान्त स्थान पाकर प्रभुजी को कष्ट पहुंचाते ओर कुछ कामुक स्त्रिएं भी एकान्त स्थान पाकर प्रभुजी से कामक्रीडा की याचना करतीं। भगवान उनकी प्रार्थना का स्वीकार नहि करते तब वे उन्हें विभिन्न तरह के कष्ट देतीं। इस तरह प्रभुजी को अनेक अनुकूल एवं प्रतिकूल कष्ट आए। ऐसे घोर कष्टों को सहन करना साधारण व्यक्ति के सामर्थ्य से बाहर है। प्रतिकूल उपसर्गों की अपेक्षा अनुकूल उपसर्गों को सहन करना अत्यधिक कठिन है। परन्तु, भगवान महावीर समभाव से उन सब कष्टों पर विजय पाते रहे। इस विषय को और स्पष्ट करते हुए सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहते हैं... I सूत्र // 9 // // 296 // 1-9-2-9 इहलोइयाइं परलोइयाइं भीमाई अणेगरूवाई। अवि सुब्भिदुब्भि गन्धाइं सद्दाइं अणेगरूवाई // 296 // // संस्कृत-छाया : ऐहलौकिकान् पारलौकिकान् भीमान् अनेकरूपान्। अपि सुरभिदुरभि गन्धान्, शब्दान् अनेकरूपान् // 296 // Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 卐१-९-२-९ (२९६)卐 277 III. सूत्रार्थ : भगवान महावीर देव, मनुष्य एवं पशु-पक्षियों द्वारा दिए गए उपसर्गों को समभावपूर्वक सहन करते थे और सुगन्धित एवं दुर्गधि पदार्थों से आने वाली सुगन्ध एवं दुर्गन्ध तथा कटु एवं मधुर शब्द सुनकर उन पर हर्ष एवं शोक नहीं करते थे। IV टीका-अनुवाद : इहलोक संबंधि ऐहलौकिक याने मनुष्यों ने कीया हुआ उपसर्ग... तथा पारलौकिक याने देव तथा तिर्यंचो ने कीये. हुए उपसर्ग... जैसे कि- अस्त्र एवं शास्त्रादि से कीये गये ताडन स्वरूप कठोर स्पर्श के दुःखों को प्रभुजी धैर्यता के साथ सहन करतें हैं..." __अथवा इस जन्म में होनेवाले दंडप्रहारादि प्रतिकूल उपसर्ग तथा जन्मांतर में होनेवाले दुर्गति के भयानक दुःखों के ज्ञाता परमात्मा श्री महावीरस्वामीजी अनुकूल या प्रतिकूल जो भी उपसर्ग होते थे, उन्हे समभाव से सहन करते थे... ' तथा पुष्पमाला एवं चंदन आदि सुगंधवाले अनुकूल उपसर्ग तथा दुर्गंधवाले प्रतिकूल उपसर्गों में भी प्रभुजी अपने धर्मध्यान में सदा अविचलित हि रहते थे... इसी प्रकार वीणा, वेणु, मृदंगादि के मनोज्ञ शब्द तथा मनुष्य के कठोर आक्रोशादि एवं उंट, गद्धे आदि के अमनोज्ञ शब्दों को भी परमात्मा समभावसे सहन करतें थे.. . v सूत्रसार : " भगवान महावीर ने साधना काल में सबसे अधिक कष्ट सहन किए। कहा जाता है कि- उपसर्गों का प्रारम्भ एक ग्वाले की अज्ञानता से हुआ और अंत भी ग्वाले के हाथ से हुआ। पहला और अन्तिम कष्टप्रदाता ग्वाला था। बीच में अनार्य देश में मनुष्यों के द्वारा भी भगवान को अनेक कष्ट हुए... 6 महिने तक संगम देव ने भगवान को निरन्तर कष्ट दिया। एक रात्रि में उसने भगवान को 20 तरह के कष्ट दिये। फिर भी भगवान अपनी साधना में मेरु पर्वत की तरह स्थिर रहे। भगवान का हृदय वज्र से भी अधिक कठोर था, अतः वह दुःखों की महा आग से भी पिघला नहीं और मक्खन से भी अधिक सुकोमल था। कहा जाता है कि- संगम के कष्टों से भगवान बिल्कुल विचलित नहीं हुए। परन्तु जब वह जाने लगा तो भगवान के नेत्रों से भी आंसू के दो बून्द ढुलक पड़े। संगमक के बढ़ते हुए कदम रुक गए और उसने भगवान से पूछा कि- मैं जब आपको कष्ट दे रहा था तब आपके मन में दु:ख का संवेदन नहीं देखा। अब तो में जा रहा हूं, फिर आप के नेत्रों में आंसु की बून्दें क्यों ? भगवान ने कहा- हे संगम ! मुझे कष्टों का बिल्कुल दु:ख नहीं है। परन्तु, जब तुम्हें इन Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 278 // 1-9-2-10(297) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन कर्मों का फल भोगना पड़ेगा तब तुम्हारी क्या स्थिति होगी, तुम्हारी उस अनागत काल की स्थिति को देखकर आंखो से अश्रु बह रहे है। यह है भगवान महावीर की करुणा... उनकी कष्ट सहिष्णुता के विषय में सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहतें हैं... सूत्र // 10 // // 297 // 1-9-2-10 अहियासए सया समिए फासाई विरूवरूवाई। अरई रई अभिभूय रीयइ माहणो अबहुवाइ // 297 // II संस्कृत-छाया : ___ अध्यासयति सदा समितः, स्पर्शान् विरूपरूपान्। अरतिं रतिं अभिभूयते माहनः अबहुवादी // 297 // III सूत्रार्थ : भगवान महावीर विविध परीषहों को सहन करते थे। वे सदा पांचों समिति से युक्त रहते थे। उन्होंने रति-अरति पर विजय प्राप्त कर ली थी। इस प्रकार संयमानुष्ठान में स्थित भगवान महावीर बहुत कम बोलते थे। IV टीका-अनुवाद : ईर्यासमिति आदि पांच समितिओं में सावधान तथा संयम के कष्टों से होनेवाली अरति एवं उपभोगादि के भौतिक पदार्थों में होनेवाली रति का त्याग करनेवाले परमात्मा अबहुभाषी याने कभी एक, दो बात करने के सिवा सदा मौन हि रहकर संयमानुष्ठान में उद्यम करतें थे... V सूत्रसार : भगवान महावीर संयम साधना काल में सदा समिति गुप्ति में दृढ थे। न उन्हें भोगों के प्रति अनुराग था और न संयम में अति थी। ये दोनों महादोष साधक को साधना पथ से विचलित करने वाले हैं अतः भगवान ने इन दोनों का सर्वथा त्याग कर दिया था। वे साधना काल में अत्यन्त कम बोलते थे। जैसे कि- गोशालक ने पुछा कि- इस तिल के पौधे में कितने बीज या जीव हैं ? इस प्रश्न का उत्तर देने तथा तेजोलेश्या के प्राप्त होने की विधि बताने के लिए ही वे बोले थे... इसके अतिरिक्त वे सदा मौन ही रहते थे और इस तरह . साधना में संलग्न रहते हुए उन्होंने सभी परीषहों पर विजय प्राप्त कीया / भगवान के ऊपर हुए उपसर्गों का विश्लेषण करते हुए सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहते हैं... Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका // 1 - 9 - 2 - 11 (298) // 279 I सूत्र // 11 // // 298 // 1-9-2-11 स जणेहिं तत्थ पुच्छिंसु एगचरा वि एगया राओ। अव्वाहिए कसाइत्था पेहमाणो समाहिं अपडिपन्ने // 298 // II संस्कृत-छाया : स जनस्तत्र (पृष्टः) अप्राक्षि एकचरा अपि एकदा रात्रौ। अव्याहृते कषायिता: प्रेक्षमाणः समाधिमप्रतिज्ञः // 298 // III सूत्रार्थ : . उन, शून्य स्थानों में स्थित भगवान को राह चलते व्यक्ति एवं दुराचार का सेवन करने के लिए एकान्त स्थान का खोज करने वाले व्यभिचारी व्यक्ति पूछते कि- तुम कौन हो ? यहां क्यों खड़े हो ? भगवान उनका कोई उत्तर नहीं देते। इससे वे क्रोधित होकर उन्हें मारनेपीटने लगते, तब भी भगवान शान्त भाव से परीषहों को सहन करते। परन्तु, प्रभुजी उनसे प्रतिशोध वैर का बदला लेने की भावना नहीं रखते थे। IV टीका-अनुवाद : - श्रमण भगवान् महावीरस्वामीजी छद्मस्थकाल के साढे बारह वर्ष दरम्यान ग्रामानुग्राम विहार करते हुए जब कभी शून्यगृहादि में ठहरते तब क्यों ठहरे हो ? आप कहां के रहनेवाले हो ? इत्यादि कोइ भी प्रश्न करे तब परमात्मा मौनभाव को हि धारण करते थे, प्रभुजी कभी भी किसी के भी ऊपर वैरानुबंध के भाव नहि करतें... इत्यादि... V सूत्रसार : - भगवान महावीर साधना काल में प्रायः शून्य घरों में ठहरते और वहीं ध्यान में संलग्न रहते। ऐसे स्थानों में प्रायः चोर या व्यभिचारी या जुआरी आदि व्यसनी लोग छुपा करते थे या दुर्व्यसनों का सेवन किया करते थे। इसलिए कुछ लोग प्रभुजी को चोर समझकर मारतेपीटते एवं अनेक तरह स कष्ट देते। कुछ दुर्व्यसनी एवं व्यभिचारी व्यक्ति वहां अपनी दुर्वृत्ति का पोषण करने पहुंचते तब वहां भगवान को खड़े देखकर उन्हें पूछते कि- तुम कौन हो ? और यहां क्यों खड़े हो ? भगवान उसका कोई उत्तर नहीं देते। तब वे प्रभुजी को अपने दुराचार के पोषण में बाधक समझ कर आवेश में आकर अनेक तरह के कष्ट देते। इस तरह अनेक व्यक्ति भगवान को अनेक कष्ट देते थे। फिर भी वह महापुरुष सुमेरू पर्वत की तरह अपनी संयम साधना में स्थिर रहे / वचन और शरीर से तो क्या ? किंतु मन Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 280 1 - 9 - 2 - 12 (299) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन से भी प्रभुजी कभी भी विचलित नहीं हुए। इस तरह कष्ट देने वाले प्राणियों पर भी मैत्री भाव रखते हुए भगवान घोर कष्टों को समभाव से सहते रहे। इस संयम साधना से भगवान ने कर्म समूह का नाश कर दिया। अत: कर्मों की निर्जरा के लिए यह आवश्यक है कि- साधक अपने ऊपर आने वाले परीषहों को समभाव से सहन करे। साधक को सदा-सर्वदा ध्यान रखना चाहिए कि- संयम साधना काल में सदा मौन रहे, एवं परीषहों के समय सहिष्णु रहे... किसी भी व्यक्ति के द्वारा अधिक आग्रहपूर्वक पूछने पर भगवान ने क्या उत्तर दिया; इस सम्बन्ध में सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहते हैं... I सूत्र // 12 // // 299 // 1-9-2-12 अयमंतरंसि को इत्थ ? अहमंसित्ति भिक्खु आह१। तुयमुत्तमे से धम्मे, तुसिणीए कसाइए झाइ // 299 // II संस्कृत-छाया : अयमन्तः कोऽत्र ? अहमस्मीति भिक्षुः व्याहृत्य। अयमुत्तमः सः धर्मः, तूष्णीकः कषायितेऽपि ध्यायति // 299 // Im सूत्रार्थ : इस स्थान के भीतर कौन है ? इस प्रकार वहां पर आए हुए व्यभिचारी व्यक्तियों के पूछने पर भगवान मौन रहते। यदि कोई विशेष कारण उपस्थित होता तो वे इतना ही कहते कि- मैं भिक्षु हूं। इतना कहने से भी यदि वे उन्हें वहां से चले जाने को कहते तो भगवान उस स्थान को अप्रीति का कारण समझकर वहां से अन्यत्र चले जाते। और यदि वे उन पर क्रोधित होकर उन्हें कष्ट देते तो भगवान समभाव पूर्वक उसे सहन करते और ध्यान रूप धर्म को सर्वोत्तम जानकर उन गृहस्थों के क्रोधित होने पर भी प्रभुजी मौन रहते हुए अपने ध्यान से विचलित नहीं होते थे। IV टीका-अनुवाद : परमात्मा जब कभी शून्यगृहादि में वसति कर के काउस्सग्ग ध्यान करते थे, तब दुष्टलोग या कर्मचारी आदि पुछते थे कि- यहां अंदर कौन खडा है ? इत्यादि... तब भगवान् श्री महावीरस्वामीजी मौनभाव हि धारण करतें थे... और कभी अधिक दोषों की संभावना हो तब उन दोषों का निवारण करने के लिये परमात्मा कहते थे कि- मैं भिक्षु (साधु) हुं Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1 - 9 - 2 - 13 (300) 281 इत्यादि... ऐसा कहने पर यदि वे उपद्रव नहिं करतें तब प्रभुजी वहां स्थिर रहते थे... किंतु यदि वे लोग क्रोधायमान होकर कहा कि- तुम यहां से जल्दी से जल्दी बाहार निकल जाओ... तब परमात्मा यह सोचते थे कि- जहां अप्रीति हो वहां नहि ठहरना चाहिये, ऐसा सोचकर परमात्मा वहां से विहार करतें थे... और कभी परमात्मा वहां हि खडे खडे काउस्सग्ग ध्यान में स्थिर रहते हैं, और वे लोग क्रोध करें तब परमात्मा मौनभाव धारण कर के, जो कुछ हो रहा है, उस को अनुप्रेक्षा से देखतें रहते हैं किंतु अपने कायोत्सर्ग ध्यान से विचलित नहि होते थे... V सूत्रसार : प्रस्तुत गाथा में पूर्व माथा की बात को ही दुहराया गया है। कुछ दुर्व्यसनी व्यक्तियों द्वारा पूछने पर कि- तुम कौन हो ? यहां क्यों खडे हो ? तब भगवान मौन रहते। यदि वे अधिक आग्रहपूर्वक पूछते और उन्हें उत्तर देना आवश्यक होता तो भगवान इतना ही कहते कि- 'मैं भिक्षु हूं।' यदि इस पर भी वे सन्तुष्ट नहीं होते और भगवान को वहां से चले जाने के लिए कहते तो भगवान शांत भाव से चले जाते। और यदि वे जाने के लिए नहीं कहते तो भगवान वहीं अपने ध्यान एवं चिन्तन में संलग्न रहते और उनके द्वारा दिए गए परीषहों को समभाव से सहते। साधक जिस स्थान में स्थित है, यदि वह स्थान अप्रीति का कारण बनता है तो साधक को अन्य स्थान में चले जाना चाहिए। और यदि वह स्थान अप्रीति का कारण नहीं बनता हो, तब साधु वहां पर हि अपनी साधना में संलग्न रहते हुए परीषहों को सहन करे... . भगवान की शीतकाल की साधना का उल्लेख करते हुए सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहते हैं... I. सूत्र // 13 // // 300 // 1-9-2-13 जंसिप्पेगे पवेयन्ति सिसिरे मारुए पवायन्ते। तंसिप्पेगे अणगारा हिमवाए निवायमेसन्ति // 300 // // संस्कृत-छाया : ___ यस्मिन्नप्येके प्रवेपन्ते (प्रवेदयन्ति) शिशिरे मारुते प्रवाति / तस्मिन्नप्येके अनगारा: हिमवाते निवातमेषयन्ति // 300 // III सूत्रार्थ : जिस समय शीत पडता है, तब कई एक शाक्यादि श्रमण साधु के शरीर काम्पने लगते Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 282 // 1-9-2-94 (301) // श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन हैं। शिशिर काल में जब शीतल पवन चलता है उस समय कई एक अनगार हिम के पड़ने पर निर्वात अर्थात् वायु रहित स्थान की गवेषणा करते हैं। IV टीका-अनुवाद : जब कभी शिशिरादि ऋतु में वस्त्रादि के अभाव से शरीर दंतवीणा बजाते हुए ध्रुजतें हैं, अर्थात् साधु शीत के कष्ट को अनुभव करतें हैं... आर्तध्यान परवश होते हैं... ऐसे हिमकण जैसे शीतल वायु के स्पर्श में हो रही शीतपीडा के निवारण के लिये कितनेक शाक्यादि साधु अग्नि जलाते हैं... अथवा जलती हुइ सगडी (चूले) की शोध करतें हैं... अथवा वस्त्रादि की याचना करते हैं... ____ अथवा तेवीसवे तीर्थंकर पार्श्वनाथ प्रभुजी के तीर्थ में प्रव्रजित हुए साधु “हम अणगार हैं" इत्यादि सोचकर गच्छवासी ऐसे वे साधु शीत की पीडा होने पर वातायन याने खिडकी न हो ऐसे घंघशाला (लुहार की कर्मशाला) आदि की गवेषणा करते हैं... . I सूत्र // 14 // // 301 // 1-9-2-14 संघाडीओ पवेसिस्सामो एहा य समादहमाणा। पिहिया व सक्खामो अइदुक्खे हिमगसंफासा // 301 // // संस्कृत-छाया : _____ संघाटी: प्रवेक्ष्यामः एधांश समादहन्तः। पिहिताः वा शक्ष्यामः अतिदुःखं हिम संस्पर्शाः // 301 // III सूत्रार्थ : ___ शीतकाल में जब ठंडी हवा चलती है एवं बर्फ गिरती है, उस समय सर्दी को सहन करना कठिन होता है। उस समय कई शाक्यादि श्रमण साधु यह सोचते हैं कि- सर्दी से बचने के लिए वस्त्र पहनेंगे या बन्द मकान में ठहरेंगे कई अन्य मत के साधु-संन्यासी शीत निवारणार्थ अग्नि जलाने के लिए इंधन खोजते हैं एवं कम्बल धारण करते हैं। IV टीका-अनुवाद : संघाटी शब्द का अर्थ है, शीत की पीडा को निवारण करने में समर्थ ऐसे दो या तीन वस्त्र... अत: शीत से पीडित ऐसे हम इस संघाटी को ग्रहण करें... क्योंकि- स्थविरकल्प में शीत से पीडित साधु संघाटी को धारण करते हैं... इत्यादि... Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1 - 9 - 2 - 15 (302) 283 __किंतु अन्य शाक्यादि मतवाले साधुलोग तो ऐसा सोचते हैं कि- काष्ठादि इंधन को . जलाकर अग्नि के ताप से हि हम इस शीत की पीडा को सहन कर शकेंगे... अथवा वस्त्रादि से अर्थात् कंबलादि से शरीर को ढांकतें हैं... क्योंकि- हिम के स्पर्श से होनेवाली शीत की वेदना वास्तव में दुःसह होती है... सामान्य लोग ऐसी शीत की पीडा को सहन नहि कर शकतें... क्योंकि- शीत की पीडा सब से अधिक दुःखदायक है... I सूत्र // 15 // // 302 // 1-9-2-15 तंसि भगवं अपड़िन्ने अहे विगड़े अहीयासए। दविए निक्खम्म एगया राओ ठाइए भगवं समियाए // 302 // // संस्कृत-छाया : तस्मिन् भगवान अप्रतिज्ञः अधो विकटे अध्यासयति / द्रविकः निष्क्रम्य, एकदा रात्रौ स्थितो भगवान समतया // 302 // III सूत्रार्थ : श्रमण भगवान महावीर शीतकाल में वायु रहित चारों तरफ से बन्द मकान में ठहरने की प्रतिज्ञा से रहित होकर विचरते थे। वे चारों ओर दीवारों से रहित केवल ऊपर से आच्छादित स्थान में ठहरतें थे, एवं सर्दी में बाहर आकर शीत परीषह को समभाव पूर्वक सहन करते थे। IV टीका-अनुवाद : पूर्वोक्त शिशिर ऋतुके काल में यथोक्त धर्मानुष्ठान में रहे हुए जिनमत एवं अन्य मतवाले साधुजनों के बीच श्रमण भगवान् महावीरस्वामीजी विशिष्ट संघयणादि ऐश्वर्यादि गुणवाले होने से शीत की पीडा को सहन करते हैं... ऐसी स्थिति में श्री महावीरस्वामीजी कभी भी निर्वात स्थान की चाहना नहि करतें थे... कर्मो की ग्रंथी का जो द्रवण करे वह द्रव याने संयम... ऐसा संयम जिस के पास है वह द्रविक याने संयमी... ऐसे संयमी श्री महावीरस्वामीजी शीतकाल में शीत की पीडा होने पर वसति में से बाहार निकल कर खुले आकाश में दो घडी (मुहूर्त) तक खडे रहकर पुनः वसति में काउस्सग्ग ध्यान करते हैं... परमात्मा शमभाव में या समता में रहे हुए होने से उस शीतस्पर्श की पीडा को रासभ के दृष्टांत से सहन करतें थे... रासभ याने गद्धा... कुंभार गद्धे के पास जिस कुनेह के काम लेता है, वैसी हि कुनेह-चतुराइ से साधु अपने शरीर से धर्मध्यानादि का काम लेतें हैं... Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 284 1 -9-2-16 (303)" श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन V सूत्रसार : प्रस्तुत तीन गाथाओं में शीत परीषह का वर्णन किया गया है। इसमें बताया गया है कि- जब हेमन्त ऋतु का प्रारंभ होता है, सर्दी पडने लगती है उस समय सब लोग कांपने लगते हैं। जब शीतकाल की ठण्डी हवा चलने लगती है तो सब लोग घबरा कर बंध स्थानों में रहने का प्रयत्न करते हैं। शाक्यादि श्रमण साधु भी बर्फ पडने एवं ठण्डी तथा बर्फीली हवा के चलने पर निर्वात अनुकूल स्थानों में चले जाते हैं... उस समय पार्श्वनाथ भगवान के शासन में रहे हुए साधु भी सर्दी की मौसम में अनुकूल स्थान ढूंढने का प्रयत्न करते थे। अन्य संप्रदायों के साधु भी बंध स्थानों की खोज में फिरते रहते थे। ___ कई एक साधु शीत से बचने के लिए वस्त्र-चादर-कम्बल आदि रखते थे। कुछ अन्य मत के साधु अग्नि तापते थे। इस तरह वे शीत निवारण के लिए मकान, वस्त्र, कम्बल एवं अग्नि आदि का सहारा लेते थे। कहने का तात्पर्य यह है कि- शीत परीषह को सहन करना कठिन है। कोई मुनि निर्दोष साधनों से यथाशक्य शीत से बचने के प्रयत्न करते हैं, तब जीवाजीवादि ज्ञान से रहित एवं अपने आप को साधु मानने वाले कुछ सन्यासी-तापस आदि सदोष-निर्दोष साधनों के द्वारा शीत से बचने का प्रयत्न करते हैं। . परन्तु, ऐसे समय में भगवानमहावीर शीत परीषह पर विजय प्राप्त करके अपने आत्मचिन्तन में संलग्न रहते थे। हेमन्त काल में निर्वात मकान में नहीं ठहरते थे। और शीत निवारण के लिए अपने शरीर पर वस्त्र भी नहीं रखते थे दीक्षा ग्रहण करते समय भगवान ने जो देवदूष्य वस्त्र का स्वीकार किया था, वह उनके पास 13 महीने तक रहा। उसके बाद तो उन्होंने वस्त्र का स्वीकार ही नहीं किया। इस तरह भगवान सर्दी से बचने के लिए बंध मकान नहिं ढूंढते, वस्त्र धारण नहि करते और अग्नि भी नहि जलाते एवं तापते भी नहि... कोई भी जैन मुनि शीत निवारण के लिए अग्नि का आरम्भ नही करते हैं। प्रस्तुत उद्देशक का उपसंहार करते हुए सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहते हैं... I सूत्र // 16 // // 303 // 1-9-2-16 एस विहि अणुक्कन्तो माहणेण मइमया। बहुसो अपडिण्णेण भगवया एवं रीयन्ति त्तिबेमि // 303 // II संस्कृत-छाया : एष विधिः अनुक्रान्तः, माहनेन मतिमता। बहुशः अप्रतिज्ञेन भगवता एवं रीयन्ते इति ब्रवीमि // 303 // Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका // 1-9-2-16 (303) // 285 %3 III सूत्रार्थ : परम मेधावी भगवान महावीर ने निदान रहित होकर अनेकवार इस वसति-शय्या विधि का परिपालन किया अतः अपनी आत्मा का विकास करने के लिए अन्य साधु भी इस शय्याविधि का यथाविधि आचरण करते हैं। ऐसा मैं तुम्हें कहता हूं। IV टीका-अनुवाद : इस तीसरे उद्देशक का उपसंहार करते हुए ग्रंथकार महर्षि कहतें हैं कि- मतिमान् श्रमण भगवान् श्री महावीरस्वामीजी इस वसति-शय्या विधि का यथाविधि पालन करते हुए ग्रामानुग्राम विहार करते थे... अत: अन्य मुमुक्षु साधुओं को भी इस शय्या-विधि का अनुष्ठान यथाविधि करना चाहिये... क्योंकि- यह शय्या-विधि हि कर्मो की निर्जरा के लिये असाधारण कारण माना गया है... . ___ इति शब्द अधिकार के समाप्ति का सूचक है, एवं ब्रवीमि का अर्थ है, हे जंबू ! मैं (सुधर्मस्वामी) तुम्हे कहता हूं... इत्यादि पूर्ववत्... V सूत्रसार : . प्रस्तुत उद्देशक में बताई गई वसति-शय्या-विधि का भगवान महावीर ने स्वयं पालन किया था। प्रथम उद्देशक के अन्त में भी उक्त गाथा दी गई है। अत: इसकी व्याख्या वहां की गई है। पाठक वहीं से देख लें। . 'त्तिबेमि' की व्याख्या पूर्ववत् समझें। // इति नवमाध्ययने द्वितीयः उद्देशकः समाप्तः // % % % : प्रशस्ति : मालव (मध्य प्रदेश) प्रांतके सिद्धाचल तीर्थ तुल्य शत्रुजयावतार श्री मोहनखेडा तीर्थमंडन श्री ऋषभदेव जिनेश्वर के सानिध्यमें एवं श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरिजी, श्रीमद् यतीन्द्रसूरिजी, एवं श्री विद्याचंद्रसूरिजी के समाधि मंदिर की शीतल छत्र छायामें शासननायक चौबीसवे तीर्थंकर परमात्मा श्री वर्धमान स्वामीजी की पाट-परंपरामें सौधर्म बृहत् तपागच्छ संस्थापक अभिधान राजेन्द्र कोष निर्माता भट्टारकाचार्य श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी म. के शिष्यरत्न विद्वद्वरेण्य व्याख्यान वाचस्पति अभिधान राजेन्द्रकोषके संपादक श्रीमद् विजय यतीन्द्रसूरीश्वरजी म. के शिष्यरत्न, दिव्यकृपादृष्टिपात्र, मालवरत्न, आगम मर्मज्ञ, श्री राजेन्द्र Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2861 -9-2-16 (303) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन यतीन्द्र जैनागम प्रकाशन के लिये राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी हिंदी टीका के लेखक मुनिप्रवर ज्योतिषाचार्य श्री जयप्रभविजयजी म. “श्रमण' के द्वारा लिखित एवं पंडितवर्य लीलाधरात्मज रमेशचंद्र हरिया के द्वारा संपादित सटीक आचारांग सूत्र के भावानुवाद स्वरूप श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी हिंदी टीका-ग्रंथ के अध्ययनसे विश्वके सभी जीव पंचाचारकी दिव्य सुवासको प्राप्त करके परमपदकी पात्रता को प्राप्त करें... यही मंगल भावना के साथ... "शिवमस्तु सर्वजगतः" वीर निर्वाण सं. 2528. // राजेन्द्र सं. 96. // विक्रम सं. 2058. Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1-9 - 3 - 1 (304) 287 श्रुतस्कंध - 1 अध्ययन - 9 उद्देशक - 3 卐 परीषहः // द्वितीय उद्देशक कहा, अब तीसरे उद्देशक का प्रारंभ करतें हैं, इस का यहां यह अभिसंबंध है... कि- दुसरे उद्देशक में श्रमण भगवान् महावीरस्वामीजी की शय्या याने वसति का स्वरूप कहा... अब कहतें हैं, कि- उन वसति में रहने पर परमात्मा को जो कोइ उपसर्ग एवं परीषह आये, तब परमात्मा ने भी उन को समभाव से परास्त कीये... इत्यादि अतः परीषह की बात कहने के लिये इस तीसरे उद्देशक का आरंभ करतें हैं... अतः इस पूर्वापर संबंध से आये हुए इस. तीसरे उद्देशक का यह प्रथम सूत्र है... सूत्र // 1 // // 304 // 1-9-3-1 . तणफासे सीयफासे य तेउफासे य दंसमसगे य। अहियासए सया समिए, फासाइं विरूवरूवाइं // 304 // II संस्कृत-छाया : तृणस्पर्शान् शीतस्पश्चि तेजःस्पांश्च दंशमशकांश्च / अध्यासयति सदा समितः, स्पर्शान् विरूपरूपान् // 304 // III सूत्रार्थ : ___ समिति-गुप्ति से युक्त श्रमण भगवान महावीर तृण स्पर्श, शीतस्पर्श, उष्णस्पर्श, दंशमशक स्पर्श और नाना प्रकार के स्पर्शों को, सदा समभाव पूर्वक सहन करते थे। IV टीका-अनुवाद : तृण याने कुश-दर्भ इत्यादि के तीक्ष्ण स्पर्श... तथा शीतकाल में शीत का स्पर्श... और गरमी के दिनो में (उनाले में) उष्ण-स्पर्श... तथा दंशमशकादि मच्छर आदि क्षुद्र जंतुओं का उपद्रव... इत्यादि विभिन्न प्रकार के तृणस्पर्शादि परीषहों को पांच समितिवाले श्रमण भगवान् महावीरस्वामीजी समता से सहन करतें थे... सूत्रसार : एस्तुत एएए में बताए एएए है कि- एखार को तृए स्पर्श, शीत एक आदि के Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 288 1 -9-3-2(305) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन परीषह उत्पन्न होते थे। भगवान ने दीक्षा लेते समय जो देवदूष्य वस्त्र ग्रहण किया था, उसके अतिरिक्त अन्य वस्त्र नहीं लिया। वह वस्त्र भी 13 महीने तक रहा था। उसके रहते हए भी भगवान उस से शरीर को चारों ओर से ढकते नहिं थे / इसी तरह वस्त्र का उपयोग न करने के कारण भगवान को सर्दी एवं गर्मी का कष्ट भी होता था और मच्छर आदि भी डंक मारते थे। इस तरह भगवान को यह विभिन्न परीषह उत्पन्न होते थें / फिर भी भगवान अपने ध्यान से विचलित नहीं होते थे। वे समस्त परीषहों को समभाव पूर्वक सहते हुए आत्मचिन्तन में संलग्न रहते थे। इतना ही नहीं, किंतु भगवान ने अनेक बार परीषहों को आमंत्रण भी दिया अर्थात् / परीषह सहने के लिए ही भगवान ने लाट-अनार्य देश में भी विहार किया। इस सम्बन्ध में सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहते हैं... सूत्र // 2 // // 305 // 1-9-3-2 अह दुच्चरलाढमचारी वज्जभूमिं च सुब्भभूमिं च / पंतं सिज्जं सेविंसु आसणगाणि चेव पंताणि // 305 // // संस्कृत-छाया : अथ दुश्चरलाढं चीर्णवान् वज्रभूमिं च शुभ्रभूमिं च। प्रान्तां शय्यां सेवितवान्, आसनानि चेव प्रान्तानि // 305 // III सूत्रार्थ : भगवान ने दुश्चर लाढदेश की वज्र और शुभ्रभूमि में विहार किया और प्रान्तशय्या एवं प्रान्तआसन का सेवन किया। IV टीका-अनुवाद : श्रमण भगवान् श्री महावीरस्वामीजी जब दुश्चर ऐसे लाढ (अनार्य) देश में ग्रामानुग्राम विचरते थे तब परमात्मा को बहोत हि कष्टदायक वसति में ठहरना होता था... वहां ऐसी वसति प्राप्त होती थी कि- जहां धूली के ढेर, कंकर एवं लोष्ट (ढेफे) बहोत होतें थे, तथा दुर्घटित काष्ठवाले पाट एवं आसन प्राप्त होते थे तथा शून्यगृहादि स्वरूप वसति और भी अन्य अनेक उपद्रवों से युक्त होती थी... लाढ (अनार्य) देश वज्रभूमी एवं शुभ्रभूमी ऐसे दो प्रकार का है, उन दोनों प्रकार के लाढ देश में प्रभुजी ने समता भाव से विहार कीया था... Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1-9 - 3 - 3 (308) 289 %3 V - सूत्रसार : यह हम पहले देख चुके हैं कि- भगवान महावीर के कर्म इस काल चक्र में हुए शेष सभी तीर्थंकरों से अधिक था। अतः उन कठोर कर्मो को तोडने के लिए भगवान ने अनार्य देश में भी विहार किया। एक दिन ग्वाले ने भगवान पर चाबुक का प्रहार किया था। उस समय इंद्र ने आकर भगवान से प्रार्थना की थी कि- प्रभो ! साढ़े बारह वर्ष तक आपको देव-मनुष्यों द्वारा अनेक कष्ट मिलने वाले हैं, अत: आपकी आज्ञा हो तो मैं आपकी सेवा में रहूं। उस समय भगवान ने कहा- हे इन्द्र ! जितने भी तीर्थंकर हुए हैं, से सभी अपने कर्मों को तोडने के लिए देव या देवेन्द्र या किसी अन्य व्यक्ति का सहारा नहीं लेते हैं। वे स्वयं अपनी शक्ति से अपने कर्मों का नाश करते हैं। अनार्य उस देश में भगवान के विचरण का वर्णन करते हुए सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहते हैं... / सूत्र // 3 // // 306 // 1-9-3-3 लाढ़ेहिं तस्सुवस्सग्गा बहवे जाणवया लूसिंसु। अह लूहदेसिएं भत्ते कुक्कुरा तत्थ हिंसिंसु निवइंसु // 306 // II संस्कृत-छाया : लाढेषु तस्योपसर्गा: बहवः जानपदा: लूषितवन्तः। अथ रुक्षदेश्यं भक्तं, कुर्कुरा: तत्र जिहिंसुः निपेतुः // 306 // III. सूत्रार्थ : लाढ़ देश में श्री भगवान को बहुत से ऊपसर्ग हुए, बहुत से लोगों ने उन्हें मारापीटा एवं दान्तों तथा नखों से उनके शरीर को क्षत-विक्षत किया। उस देश में भगवान ने रूक्ष अन्न-पानी का सेवन किया। वहां पर कुत्तों ने भगवान को काटा। कई कुत्ते क्रोध में आकर भगवान को काटने के लिए दौड़ते थे। IV टीका-अनुवाद : लाढ यह जनपद याने देश विशेष है... वज्रभूमी एवं शुभ्रभूमी स्वरूप दोनों प्रकार के लाढ देश में विहार करने के वख्त प्रभुजी को प्रायः आक्रोश ताडन तर्जन एवं श्वभक्षणादि अनेक प्रकार के प्रतिकूल उपसर्ग हुए थे... क्योंकि- अनार्य ऐसे लाढ देश के निवासी अनार्य लोग, प्रभुजी को दंतभक्षण (दांतों Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 290 // 1-9 -3 - 4 (307) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन से बचके भरना) एवं दंड प्रहार (ताडन) इत्यादि अनेक प्रकार से उपसर्ग कहते थे... तथा वहां प्रभुजी को आहार भी अंत-प्रांत (लुखा-सुका) तुच्छ असार हि प्राप्त होता था... वे अनार्य मनुष्य अतिशय क्रोधी होते हैं और कपास (रूइ) आदि के अभाव से वे अनार्य लोग तृण वल्कल आदि स्वरूप वस्त्र पहनतें थें अत: निर्लज्ज ऐसे वे अनार्य लोग परमात्मा के साथ बहोत हि विरूप याने अनुचित व्यवहार (आचरण) करतें थे... तथा वहां के कुत्ते भी प्रभुजी के उपर आक्रमण कर के काटते थे... प्रभुजी को चारों और से घेर कर दांतो से काटते थे... ऐसे विषम उपसर्गों में भी परमात्मा अपने धर्मध्यान से विचलित नहि होतें थें... किंतु समभाव में रहते हुए अपने संयमानुष्ठान में दृढ लगे रहते थे... V सूत्रसार : भगवान महावीर जब लाढ़ देश में पधारे तो वहां के लोगों ने उनके साथ क्रूरता का व्यवहार किया। उन्होंने भगवान को डंडों से, पत्थरों से मारा, दान्तों से काटा और कुत्तो की तरह उन पर टूट पडे। इस तरह वहां के निवासियों ने भगवान को अनेक कष्ट दिए। अनार्य व्यक्तियों के हृदय में दया, प्रेम-स्नेह एवं आतिथ्य-सत्कार की भावना कम होती है। इस तरह अनेक कष्ट सहने पर भी भगवान को उपयुक्त आहार नहीं मिलता था। उनका बहुत सा समय तप में ही बीतता था और पारणे के दिन भी तुच्छ एवं रूक्ष आहार उपलब्ध होता था। इतना कष्ट होते हुए भी भगवान ने कभी दु:ख की अनुभूति नहीं की। उन्होंने दुःखो को निवारण करने का प्रयत्न नहीं किया। यदि वे चाहते तो सारे बाह्य कष्टों को भगा सकते थे। उनमें बडी शक्ति थी। परन्तु महान् पुरुष वही होता है जो अपनी शक्ति का उपयोग शरीर के लिए न करके आत्मा के अनन्त सुखों को प्राप्त करने के लिए करता है... अथवा जो सामर्थ्य होते हुए भी आने वाले कष्टों को हंसते हुए सह लेता है, वह हि महान् है... भगवान महावीर अपने ऊपर आने वाले कष्टों को समभाव पूर्वक सहते हुए लाढ देश में विचरे, इसका उल्लेख करते हुए सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहते हैं... I सूत्र // 4 // // 307 // 1-9-3-4 अप्पे जणे निवारेइ लूसणए सुणए दसमाणे। छुच्छुकारिंति आहंसु समणं कुक्कुरा दसंतुत्ति // 307 // संस्कृत-छाया : अल्पः जनः निवारयति लूषकान् दशतः। सीत्कुर्वन्ति हत्वा श्रमणं कुर्कुरा दशन्तु Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1- 9 - 3 - 5 (308) 29 इति / / 307 // III सूत्रार्थ : उस प्रदेश में ऐसे व्यक्ति बहुत ही कम थे, जो भगवान को काटते हुए कुत्तों से छुडाते थे। प्रायः वहां के लोग काटते हुए कुत्तों को छू-छू करके काटने के लिए और अधिक प्रोत्साहित करते थे। वे ऐसा प्रयत्न करते थे कि- ये कुत्ते श्रमण भगवान महावीर को काटें। IV टीका-अनुवाद : उस लाढ (अनार्य) देश में एक भी मनुष्य ऐसा नहि था, अथवा बहोत हि अल्प मनुष्य थे, कि- जो प्रभुजी को काटते हुए कुत्तों का निवारण करे... किंतु वहां के अनार्य मनुष्य प्रभुजी को दंडों के प्रहार से मारकर, उन कुत्तों को सीत्कार आदि चेष्टा कर के प्रभुजी की उपर दौडातें थे... वें अनार्य लोग ऐसा चाहते थे कि- यह कुत्ते प्रभुजी को दांतों से काटे... ऐसें अनार्य देश में महावीरस्वामीजी ने छह (6) महिने पर्यंत ग्रामानुग्राम विहार कीया था... और ऐसे विषम उपसर्गों में भी निरतिचार संयामानुष्ठान का परिपालन कीया था... v सूत्रसार : - पूर्व गाथा में बताया गया हे कि- अनार्य लोग भगवान पर कुत्तों की तरह दान्तों का प्रहार करते थे। प्रस्तुत गाथा में बताया गया है कि- वे अनार्य मनुष्य जब किन्हीं कुत्तों को भगवान पर झपटते हुए देखते तो उन्हें दूर नहीं हटाते, किंतु तमाशा देखने के लिए वहां खडे हो जाते और उन्हें छू-छू करके और अधिक काटने की प्रेरणा देते थे। ऐसे क्रूर हृदय के लोगों में कभी कोई एक-आध व्यक्ति ही ऐसा निकलता, जो कुत्तों को दूर करता था। भगवान स्वयं कुत्तों को हटाते नहीं थे। वे इस कार्य को निर्जरा का कारण समझकर समभाव पूर्वक सहन करते थे। यह उनकी सहिष्णुता एवं वीरता का एक अनूठा उदाहरण है। उस प्रदेश में दिए गए कष्टों के विषय में सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहते हैं... I. सूत्र // 5 // // 308 // 1-9-3-5 . एलिक्खए जणा भुज्जो, बहवे वज्जभूमि फरुसासी। लट्ठिं गहाय नालियं, समणा तत्थ य विहरिंसु // 308 // संस्कृत-छाया : ईदृक्षाः जनाः भूयः बहवः वज्रभूमौ परुषाशिनः / यष्टिं गृहीत्वा नालिका, श्रमणाः तत्र विजह्वः॥ 308 // Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 292 // 1- 9 - 3 - 6 (309) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन III सूत्रार्थ : इस प्रकार के अनार्य देश में श्रमण भगवान ने पुनः 2 विहार किया था। उस वज्र भूमि में निवसित क्रोधी मनुष्य भिक्षुओं के पीछे कुत्ते छोड देते थे / अतः परिव्राजक आदि साधु अपने शरीर से चार अंगुल अधिक लम्बी लाठी या नालिका लेकर उस देश में विचरते थे। जिससे कुत्ते उन पर प्रहार न कर सकें। IV टीका-अनुवाद : यहां कहे गये क्रूर स्वभाववाले अनार्य लोग जहां रहते हैं, ऐसे अनार्यदेश में प्रभुजी ने बार बार विहार कीया था... उस वज्रभूमी में अधिकतर लोग रूक्ष असार भोजन खानेवाले होने से वे अनार्य लोग प्रकृति से हि क्रोधी थे, इस कारण से श्रमण भगवान महावीरस्वामीजी . . को देखकर वे अनार्य लोग कदर्थना-उपसर्ग करतें थे... ___ यद्यपि उस देश में अन्य शाक्यादि श्रमण थे, किंतु वे कुत्तों को दूर करने के लिए देह प्रमाण या चार अंगुल अधिक देहप्रमाण यष्टि याने लकडी साथ में लेकर विचरतें थे... v सूत्रसार : प्रस्तुत गाथा में लाढ़ देश में लोगों के खान-पान एवं जीवन व्यवहार का वर्णन किया गया है। इसमें बताया गया हे कि- वे लोग तुच्छ एवं तामस आहार करते थे। इससे उनकी वृत्ति क्रूर हो गई थी। आहार का भी मनुष्य के जीवन पर असर होता है। तामस पदार्थों का अधिक उपभोग करने वाले व्यक्ति को क्रोध अधिक आता है। उनका स्वभाव भी अति क्रूर था। वे साधु संन्यासियों के पीछे कुत्ते छोड देते थे। इस लिए बौद्ध भिक्षु आवि साधु संन्यासी भिक्षा आदि को जाते समय अपने शरीर से 4 अंगुल ऊंचा डण्डा रखते थे। इस तरह वे कुत्तो से अपना बचाव करते थे। परन्तु, भगवान महावीर पूर्ण अहिंसक थे। वे किसी भी प्राणी को भयभीत नहीं करते थे। इसलिए अपने हाथ में डण्डा आदि कोई भी हथियार नहीं रखते थे। वे किसी भी संकट से भयभीत नहीं होते थे, वे प्रत्येक संकट का स्वागत करते थे एवं समभाव पूर्वक उसे सहन करते थे। भगवान का उस प्रदेश में भ्रमण अपने कर्मों की निर्जरा एवं अज्ञान अंधकार में भटकते हुए प्राणियों के अभ्युदय के लिए होता था। इस विषय को और स्पष्ट करते हुए सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहते हैं... सूत्र // 6 // // 309 // 1-9-3-6 एवं पि तत्थ विहरता, पुट्ठपुव्वा अहेसि सुणिएहिं। संलुञ्चमाणा सुणएहिं, दुच्चराणि तत्थ लाढ़ेहिं // 309 // Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 卐१- 9 - 3 -7 (310) 293 II संस्कृत-छाया : एवमपि तत्र विहरन्तः स्पृष्टपूर्वाः आसन् श्वभिः / संलुञ्न्यमानाः श्वभिः, दुश्चराणि तत्र लाढेषु // 309 // III सूत्रार्थ : . उस देश में बौद्धादि भिक्षु लाठी लेकर चलते थे, फिर भी इधर उधर विचरण करते हुए कुत्ते उन्हें काट खाते थे। अत: उस अनार्य भूमि में भिक्षुओं एवं साधु-सन्तों का भ्रमण करना दुष्कर था। IV टीका-अनुवाद : उस अनार्य देश में शाक्यादि श्रमण देह प्रमाण लकडी (दंड) आदि लेकर विचरतें थें, तो भी वहां कुत्ते उनको भी काटते थे, क्योंकि- कुत्तों को रोकना अशक्य होता है... अनेक कुत्ते मीलकर चारों तरफ से काटने के लिये घेर लेते थे... तथा उस अनार्य देश के गांव भी गमनागमन के लिये दुश्चर याने आना-जाना कष्टदायक हो ऐसे विषम रास्तेवाले वे गांव थे... वहा अनार्य लोग भी गमनागमन में बहोत कष्ट पातें थें... V सूत्रसार : . लाढ़ देश के लोग इतने कठोर थे कि- वहां साधुओं को अनेक तरह के कष्ट दिए जाते थे। बौद्ध भिक्षु कुत्तों से बचने के लिए अपने साथ डण्डा रखते थे, फिर भी वे पूर्णतया सुरक्षित नहीं रह पाते थे। कभी-कभी कहीं न कहीं से कुत्ते काट ही खाते थे। परन्तु, भगवान * महावीर जो अपने आत्म बल पर विचरते थे, उन्हें तो अनेक बार कुत्ते काट खाते थे। फिर भी वे उनका प्रतिकार नहीं करते थे। यहां यह प्रश्न हो सकता है कि- इतने भयंकर देश में भगवान ने क्यों विहार किया ? इसका समाधान करते हुए सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहते हैं... सूत्र // 7 // // 310 // 1-9-3-7 . निहाय दंडं पाणेहिं, तं कायं वोसिज्जमणगारे। अह गामकंटए भगवंते अहियासए अभिसमिच्चा // 310 // // संस्कृत-छाया : निधाय दंडं प्राणिषु, तं कायं व्युत्सृज्य अनगारः। अथ ग्रामकण्टकान् भगवान् अध्यासयति अभिसमेत्य // 310 // Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 294 // 1 - 9 - 3 - 7 (310) म श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन III सूत्रार्थ : श्रमण भगवान महावीर ने मन वचन और काय रूप दंड एवं शरीर के ममत्व का परित्याग कर दिया था, ग्रामीण लोगों के वचन रूप कंटकों को कर्मों की निर्जरा का कारण समझकर भगवान ने उन कष्टों को समभाव से सहन किया / IV टीका-अनुवाद : अब यहां यह प्रश्न होता है कि- ऐसे अनार्य देश में प्रभुजी ने विहार क्यों कीया ? इस प्रश्न के उत्तर में ग्रंथकार महर्षि कहतें हैं कि- पृथ्वीकायादि स्थावर जीव एवं बेइंद्रियादि त्रस जीवों को कष्ट देनेवाले मन, वचन एवं कायदंडका त्याग कर के तथा अपने शरीर की ममता का त्याग कर के ग्रामकंटक याने सामान्य तुच्छ मनुष्यों ने कीये हुए आक्रोश ताडन तर्जनादि कष्ट -उपसर्गों से होनेवाली कर्मनिर्जरा का उद्देश ध्यान में रखकर परमात्मा महावीरस्वामीजी ने उस अनार्य देश में विहार कीया था। V सूत्रसार : यह नितान्त सत्य है कि- कष्ट तभी तक कष्ट रूप से प्रतीत होता है, जब तक शरीर पर ममत्व रहता है। जब शरीर आदि से ममत्व हट जाता है, तब वह कष्ट दुःख रूप प्रतीत नहीं होता है। ममत्व भाव के नष्ट होने से आत्मा में परीषहों को सहन करने की क्षमता आ जाती है। फिर साधु के अंतरात्मा में किसी को दोष देने की वृत्ति नहीं रहती। इस तरह साधु में क्षमा की भावना का विकास होता है। इससे वह वैर-विरोध एवं प्रतिशोध की भावना से ऊपर उठ जाता है। वह कर्कश एवं कठोर शब्दों एवं डंडे आदि के प्रहारों को अपने कर्मो की निर्जरा का साधन मानकर सहन करता है। __ भगवान महावीर एक महान साधक थे। उनके मन में किसी भी प्राणी के प्रति द्वेष नहीं था। और उनके मन में प्रतिशोध की भावना भी नहि थी। परीषहों को सहने में वे सक्षम थे। संगम देव द्वारा निरन्तर 6 महीने तक दिए गए घोर परीषहों से भी वे विचलित नहीं हुए थे। वे कष्ट देने वाले व्यक्ति से भी घृणा नहीं करते थे। उसे अपने कर्मों की निज़रा करते में सहयोगी मानते थे। क्योंकि- कष्टों के सहन करने से कर्मों की निर्जरा होती थी। इस अपेक्षा से वह कष्टदाता कर्म निर्जरा में सहायक हो जाता है। इस तरह भगवान अनार्य मनुष्यों द्वारा कहे गए कठोर शब्दों एवं प्रहारों को समभाव पूर्वक सहन करते थे। भगवान की सहिष्णुता को स्पष्ट करने के लिए उदाहरण देते हुए सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहते हैं... Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1 - 9 - 3 - 8 (311) // 295 I सूत्र // 8 // // 311 // 1-9-3-8 नागो संगाम सीसे वा, पारए तत्थ से महावीरे। एवंपि तत्थ लाहिं, अलद्ध पुव्वोवि एगया गामो // 311 // II संस्कृत-छाया : नागो संग्रामशीर्षे वा पारगः तत्र स महावीरः। एवमपि तत्र लाढेषु अलब्ध पूर्वोऽपि एकदा ग्रामः // 311 // III सूत्रार्थ : जैसे रण-संग्राम भूमि में हाथी वैरी की सेना को जीत कर पारगामी होता है, उसी प्रकार भगवान महावीर भी उस लाढ़ देश में परीषह रूपी सेना को जीत कर पारगामी हुए। एक दिन उस लाढ देश में कोइ गांव न मिलने पर वे अरण्य-जंगल में ही ध्यानस्थ हो गए। IV टीका-अनुवाद : श्री महावीरस्वामीजी ने अनार्य देश में हो रहे उपसर्गों को किस प्रकार सहन कीया ? इस प्रश्न के उत्तर में ग्रंथकार महर्षि कहतें हैं कि- जिस प्रकार हाथी युद्ध के मेदान में लश्कर (सेना) के अग्रभाग में रहकर शत्रुओं की सेना का विनाश कर के अपने राजा को विजय प्राप्ति में हेतु बनता है, उसी प्रकार श्रमण भगवान् श्री महावीरस्वामीजी लाढ (अनार्य) देश में परीषह सेना के ऊपर विजय को पानेवाले हुए... ____ लाढ देश संग्रामभूमी के समान इसलिये कहा है, कि- वहां गांव बहोत हि थोडे हैं जहां देखो वहां वन जंगल पर्वत आदि हैं... एक दिन तो रात्रि-निवास के लिये परमात्मा को गांव हि न मीला... उस दिन-परमात्माने वन में हि वसति कर के कायोत्सर्ग ध्यान कीया था... V सूत्रसार : प्रस्तुत गाथा में बताया गया है कि- जैसे सुशिक्षित हाथी शत्रु के भालों की परवाह किए बिना उसके सैन्यदल को रौंदता हुआ आगे हि आगे चला जाता है और शत्रु पर विजय प्राप्त करता है, उसी तरह भगवान महावीर ने लाढ़ देश में परीषह रूपी शत्रु सेना पर विजय प्राप्त की। वे छद्मस्थ काल में परीषहों से कभी घबराए नहीं। लाढ़ देश में विचरते समय एक बार भगवान को संध्या समय गांव नहीं मिला। इससे स्पष्ट होता है कि- लाढ़ देश में गांव बहुत दूर दूर थे। रास्ते में ही संध्या हो जाने के कारण भगवान जंगल में ही ध्यानस्थ हो गए। इस तरह भगवान जंगल में घबराए नहीं और यह Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2961 - 9.- 3 -9-10 (312-313) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन भी नहीं सोचा कि- यहां जंगली जानवर मुझे कष्ट देंगे। वे निश्चिन्त होकर आत्म-चिन्तन में संलग्न हो गए। अब लाढ़ देश में अनार्य लोगों द्वारा भगवान को दिए गए परीषहों का उल्लेख करते हुए सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहते हैं... I सूत्र // 9 // // 312 // 1-9-3-9 उवसंकमन्तमपडिन्नं, गामंतियम्मि अप्पत्तं / पडिनिक्खमित्तु लूसिंसु, एयाओ परं पलेहित्ति // 312 // II संस्कृत-छाया : अपसंक्रामन्तं अप्रतिज्ञं, ग्रामान्तिकं अप्राप्तम् / प्रतिनिष्क्रम्य अलूलिषुः इतः परं पर्येहीति // 312 // III सूत्रार्थ : जब अप्रतिज्ञ भगवान भिक्षा या स्थान के लिए ग्राम के समीप पहुंचते अथवा ग्राम से बाहर निकलते हुए अनार्य लोग पहले तो भगवान को पीटते और फिर कहते कि- तुम यहां से दूर चले जाओ। IV टीका-अनुवाद : नियत-निवासादि की प्राप्ति के अभाव में या तो वसति प्राप्त होने पर परमात्मा जब भिक्षा के लिये गोचरी निकलते या तो वसति की गवेषणा के लिये निकलते तब वहां के लोग परमात्मा को कहते थे कि- तुम यहां से दूर चले जाओ... इत्यादि परिस्थिति में भी प्रभुजी ने कभी भी आर्तध्यान नहि कीया, परंतु अपने संयमानुष्ठान में हि लीन रहे थे... सूत्र // 10 // // 313 // 1-9-3-10 हयपुव्वो तत्थ दण्डेण, अदुवा मुट्ठिणा अदु कुन्तफलेण। अदु लेलुणा कवालेण हंता हंता बहवे कंदिसु // 313 // // संस्कृत-छाया : हतपूर्वः तत्र दण्डेन, अथवा मुष्टिना अथवा कुन्तफलेन / अथवा लोष्टुना कपालेन, हत्वा हत्वा बहवश्चक्रन्दुः // 313 // Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1 - 9 - 3 - 11 (314) 297 III * सूत्रार्थ : उस लाढ़ देश में ग्राम से बाहर ठहरे हुए श्रमण भगवान महावीर को अनार्य लोग पहले तो डण्डों, कुन्त फलक पत्थर और ठोकरों से मारते और उसके पश्चात् शोर मचाते कि- अरे लोगो ! आओ, देखो ! यह शिरमुण्डित नग्न व्यक्ति कौन है ? IV टीका-अनुवाद : जब कभी परमात्मा गांव के बाहार शून्यगृह आदि वसति में काउस्सग्ग ध्यान करतें थें तब वहां के लोग दंडे से या मुष्टि से या कुंत (भाले) से या लेष्ट से या कपाल याने घडे के ठिकरे से प्रभुजी को मार कर जोर जोर से चिल्लातें थें कि- “देखो ! देखो ! इस साधु का हमने कैसा हाल कीया ?" इत्यादि प्रकार से कलकलारव करते थे... v सूत्रसार : प्रस्तुत उभय गाथाओं में अनार्य लोगों के अशिष्ट व्यवहार का दिग्दर्शन कराया गया है। इसमें बताया है कि- जब भगवान विहार करते हुए रात को ठहरने के लिए या मध्याह्न भिक्षा के लिए गांव में जाते तो उस समय वहां के निवासी लोग भगवान का उपहास करते, उन्हें मारते-पीटते और अपने गांव से बाहर चले जाने को कहते। उनके द्वारा किए गए प्रहार एवं अपमान का भगवान कोई उत्तर नहीं देते, वे मौन भाव से उन परीषहों को सहन करते हुए विचरण करते थे। - जब भगवान एकान्त स्थान में ध्यानस्थ होते तो उस समय लाढ़ देश के अनार्य लोग डण्डा लेकर वहां पहुंच जाते और भगवान को डण्डे से पीटते और इधर-उधर राह चलते लोगों को इकट्ठा करके हल्ला मचाते और कहते देखो यह विचित्र व्यक्ति कौन है ? इस तरह वे अज्ञानी लोग भगवान को अनेक कष्ट देते; फिर भी भगवान उन पर रोष नहीं करते। कितना धैर्य था उनके जीवन में ? एवं सहनशीलता भी कितनी असीम थी ? / वास्तव में सहिष्णुता के द्वारा ही साधक परीषहों पर विजय प्राप्त करके निष्कर्म बन सकता है। भगवान की कष्ट सहिष्णुता का वर्णन करते हुए सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहते हैं... I सूत्र // 11 // // 314 // 1-9-3-11 मंसाणि छिन्नपुव्वाणि, उट्ठभिया एगया कायं / परिसहाई लुंचिंसु, अदुवा पंसुणा उवकरिंसु // 314 // Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 298 // 1-9-3-12(315) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन - // संस्कृत-छाया : मांसानि छिन्नपूर्वाणि, अवष्टभ्य एकदा कायं। परीषहाः च अलुञ्चिषुः अथवा पांसुना अवकीर्णवन्तः // 314 // III सूत्रार्थ : उस अनार्य देश में वहां के लोगों ने किसी समय ध्यानस्थ खडे भगवान को पकड कर उनके शरीर के मांस को काटा उन्हें विविध प्रकार के परीषहोपसर्गों से पीडित किया, और उन पर धूल फेंकते रहे। IV टीका-अनुवाद : वहां के अनार्य लोगों ने परमात्मा के शरीर में से मांस निकाला... अरे ! एक बार तो कितनेक लोग परमात्मा के शरीर पे विविध प्रकार के अनेक प्रतिकूल उपसर्ग कीये थे... और धूली से प्रभूजी को ढांक दीया... I सूत्र // 12 // // 315 // 1-9-3-12 उच्चालइय निहणिंसु, अदुवा आसणाउ खलइंसु। . . वोसट्ठकाय पणयाऽऽसी दुक्खसहे भगवं अपडिन्ने // 315 // ,' // संस्कृत-छाया : . उत्क्षिप्य निहतवन्तः, अथवा आसनात् स्खलितवन्तः। व्युत्सृष्टकायः प्रणतः आसीत्, दुःखसहः भगवान् अप्रतिज्ञः // 315 // III सूत्रार्थ : ___ कभी कभी वे लोग भगवान को ऊंचे उठाकर नीचे फेंकते, कभी धक्का मार कर आसन से दूर फेंक देते, परन्तु काया के ममत्व को त्याग कर परीषह जन्य वेदनाओं को समता पूर्वक सहन करने वाले अप्रतिज्ञ श्रमण भगवान महावीर, अपने ध्यान से विचलित नहीं हुए। IV टीका-अनुवाद : अरे ! कई बार तो वहां के अनार्य लोगों ने परमात्मा को उठाकर भूमी पे पछाडा (फेंका) था... तथा गोदोहिकासन, उत्कटुकासन और वीरासन में बैठे हुए प्रभुजी को धक्का देकर गिरा देते थे... उस समय परमात्मा क्रोध नहिं करतें, किंतु परीषह एवं उपसर्गों को सहन करने के लिये सावधान होकर पुनः स्वस्थता के साथ धर्मध्यान में लीन होते थे... Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1 - 9 - 3 - 13 (316) 299 - यहां सारांश यह है कि- श्रमण भगवान् महावीरस्वामी जी जो भी परीषह एवं उपसर्ग आते थे, उन्हें समता भाव से सहन करतें थे... उन कष्ट-पीडा की प्रभुजी चिकित्सा नहि करतें थे, किंतु धीरता के साथ उन कष्ट-पीडा को धर्मध्यान में रहकर सहन करतें थे... V सूत्रसार : प्रस्तुत उभय गाथाओं में भगवान की सहनशीलता का वर्णन किया गया है। इनमें बताया गया है कि- जहां भगवान ध्यानस्थ खडे थे वहां वे अनार्य लोग पहुंच जाते और उनके शरीर का मांस काट लेते उन्हें पकड कर अनेक तरह की यातनाएं-कष्ट देते। उन पर धूलपत्थर आदि फेंकते। फिर भी उनके चिन्तन में बिल्कुल अन्तर नहीं आता। उनके चिन्तन का प्रवाह उसी रूप में प्रवहमान रहता था। इससे यह स्पष्ट होता है कि- मुमुक्षु पुरुष को कैसी कैसी कठिन परीक्षा में उतरना पडता है। भगवान महावीर कठोर से कठोर परीक्षा में सफल रहे। वे सदा परीषहों पर विजय प्राप्त करते हुए आत्म विकास की ओर बढते रहे। इसके लिए प्रस्तुत गाथा में उनके लिए 'दुक्खसहे' और 'अपडिन्ने' दो विशेषण दिए हैं। इसमें पहले विशेषण का अर्थ दुःख पर विजय पाने वाले और दूसरे का अर्थ है-प्रतिज्ञा रहित अर्थात् भौतिक अनुकूलता की कामना से रहित। ___ इससे स्पष्ट होता है कि- भगवान महावीर समभाव पूर्वक परीषहों को सहन करते थे और उन्होंने कष्टों का कभी भी प्रतिकार नहीं किया। यह नितान्त सत्य है कि- आत्मा स्वयं ही कर्म का बन्ध करता है और स्वयं ही उन्हें तोड सकता है। दुनिया में व्यक्ति जो भी दुःख-कष्ट पाता है, वे उसके स्वयं कृत कर्म के ही फल हैं। यह समझकर भगवान महावीर उनसे घबराए नहीं, किंतु समभाव पूर्वक सहकर भगवान महावीर उन कर्मों को नष्ट करने में संलग्न रहे। जिससे वे कर्म फिर से उन्हें संतप्त न कर सके। अतः भगवान महावीर सदा कर्मों का नाश करने के लिए संयम एवं तप में संलग्न रहे। संयम-साधना से वे अभिनव कर्मों के बन्ध को रोकने का प्रयत्न करते रहे और तप से पूर्व कर्मों को क्षय करते रहे। इस तरह श्रमण भगवान् महावीरस्वामीजी निष्कर्म बनने का प्रयत्न करते रहे। उनकी इस महासाधना का उल्लेख करते हुए सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहते हैं... I सूत्र // 13 // // 316 // 1-9-3-13 सूरो संगाम सीसे वा संवुडे तत्थ से महावीरे। पडिसेवमाणे फरुसाई, अचले भगवं रीयित्था // 316 // Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 300 // 1-9-3-13 (316); श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन - II संस्कृत-छाया : शूरः संग्रामशिरसि वा संवृतः तत्र स महावीरः। प्रतिसेवमानः च परुषान्, अचल: भगवान् रीयते स्म // 316 // III सूत्रार्थ : जैसे कवच आदि से संवृत, शूरवीर पुरुष संग्राम में चारों ओर से शस्त्रादि का प्रहार होने पर भी आगे बढ़ता चला जाता है उसी प्रकार श्रमण भगवान महावीर उस देश में कठिन से कठिन परीवहों के होने पर भी धैर्य रूप कवच से संवृत होकर मेरु पर्वत की तरह स्थिर चित्त होकर संयम मार्ग पर गतिशील थे। IV टीका-अनुवाद : जिस प्रकार रण-संग्राम के अग्रभाग में रहा हुआ शूरवीर सैनिक शत्रुओं के कुंत (भाले) आदि शस्त्रों के घाव में भी अक्षुब्ध रहता है, पीछे हट नहि करता, क्योंकि- उस सुभट ने बख्तर पहना हुआ होता है... इसी प्रकार महावीर स्वामीजी ने भी धर्मध्यान स्वरूप बख्तर पहना हुआ था, इस कारण से प्रभुजी भी उन परीषह एवं उपसर्गों के समय पीछे हट नहि करतें थे, किंतु धर्मध्यान में आगे हि आगे बढते रहते थे... अर्थात् मेरु के समान अचल ऐसे श्री महावीर स्वामीजी ज्ञान, दर्शन एवं चारित्र स्वरूप मोक्षमार्ग में पुरुषार्थ करते हुए आगे हि आगे बढते रहते थे... v सूत्रसार : प्रस्तुत गाथा में भगवान महावीर की एक वीर योद्धा से तुलन की गई है। इस में बताया गया है कि- जैसे एक वीर योद्धा कवच से अपने शरीर को आवृत्त करके निर्भयता के साथ युद्ध भूमि में प्रविष्ट हो जाता है। उसी प्रकार संवर के कवच से संवृत्त भगवान महावीर परीषहों से नहीं घबराते हुए लाढ देश में विचरे। वहां के निवासियों ने उन्हें अनेक तरह के कष्ट दिए, फिर भी वे साधना पथ से विचलित नहीं हुए। किंतु ज्ञान, दर्शन एवं चारित्र की साधना में संलग्न रहे। इससे यह स्पष्ट होता है कि- साधक को परीषहों से घबराए बिना कर्म शत्रुओं को परास्त करने के लिए रत्नत्रय की साधना में संलग्न रहना चाहिए। साधना करते हुए यदि कष्ट उपस्थित हों तो उन्हें समभाव पूर्वक सहन करना चाहिए। अब प्रस्तुत उद्देशक का उपसंहार करते हुए सूत्रकार महर्षि अंतिम सूत्र कहते हैं... Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द सर्वे धनी आहोरी - हिन्दी-टीका ॐ१-९ - 3 -14 (317) 301 I सूत्र // 14 // // 317 // 1-9-3-14 एस विहि अणुक्कतो, माहणेण मइमया। बहुसो अपडिन्नेणं, भगवया एवं रीयंति // 317 // तिबेमि एष विधिः अनुक्रान्तः, माहनेन मतिमता। बहुशः अप्रतिज्ञेन, भगवता एवं रीयंते // 317 // इति ब्रवीमि III सूत्रार्थ : प्रतिज्ञा से रहित, ऐश्वर्य युक्त, परम मेधावी भगवान महावीर ने अनेक बार उपरोक्त उपशम विधि का आचरण किया, उनके द्वारा आचरित एवं उपदिष्ट इस प्रशमभाव विधि का अन्य साधक भी इसी प्रकार आचरण करते हैं। ऐसा मैं तुम्हें कहता हूं। IV टीका-अनुवाद : इस तीसरे उद्देशक का उपसंहार करते हुए ग्रंथकार महर्षि कहते हैं कि- परीषहादि के प्रसंग में कही गइ विधि के परिपालन में पराक्रम-पुरुषार्थ करनेवाले श्रमण भगवान् महावीर स्वामीजी को देखकर अन्य साधुओं को यह समझना हैं, कि- परीषहादि के प्रसंग में हमारा धर्मध्यान अखंड रहना चाहिये... इति शब्द अधिकार की समाप्ति का सूचक है... और ब्रवीमि पद का अर्थ पूर्ववत्... V. सूत्रसार : प्रस्तुत गाथा का विवेचन प्रथम उद्देशक की अन्तिम गाथा में कर चुके हैं। 'त्तिबेमि' का विवेचन पूर्ववत् समझें। // इति नवमाध्ययने तृतीयः उद्देशकः समाप्तः // 卐'卐 : प्रशस्ति : . मालव (मध्य प्रदेश) प्रांतके सिद्धाचल तीर्थ तुल्य श@जयावतार श्री मोहनखेडा तीर्थमंडन श्री ऋषभदेव जिनेश्वर के सानिध्यमें एवं श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरिजी, श्रीमद् यतीन्द्रसूरिजी, एवं श्री विद्याचंद्रसूरिजी के समाधि मंदिर की शीतल छत्र छायामें शासननायक चौबीसवे तीर्थंकर परमात्मा श्री वर्धमान स्वामीजी की पाट-परंपरामें सौधर्म बृहत् तपागच्छ Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3021 -9 - 3 -14 (317) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन - संस्थापक अभिधान राजेन्द्र कोष निर्माता भट्टारकाचार्य श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी म. के शिष्यरत्न विद्वद्वरेण्य व्याख्यान वाचस्पति अभिधान राजेन्द्रकोषके संपादक श्रीमद् विजय यतीन्द्रसूरीश्वरजी म. के शिष्यरत्न, दिव्यकृपादृष्टिपात्र, मालवरत्न, आगम मर्मज्ञ, श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम प्रकाशन के लिये राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी हिंदी टीका के लेखक मुनिप्रवर ज्योतिषाचार्य श्री जयप्रभविजयजी म. “श्रमण' के द्वारा लिखित एवं पंडितवर्य लीलाधरात्मज रमेशचंद्र हरिया के द्वारा संपादित सटीक आचारांग सूत्र के भावानुवाद स्वरूप श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी हिंदी टीका-ग्रंथ के अध्ययनसे विश्वके सभी जीव पंचाचारकी दिव्य सुवासको प्राप्त करके परमपदकी पात्रता को प्राप्त करें... यही मंगल भावना के साथ... "शिवमस्तु सर्वजगतः" वीर निर्वाण सं. 2528. राजेन्द्र सं. 96. विक्रम सं. 2058. Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1 - 9 - 4 - 0 303 % 3D श्रुतस्कंध - 1 अध्ययन - 9 उद्देशक - 4 / ___ रोगातङ्क: तृतीय उद्देशक कहा, अब चौथे उद्देशक का प्रारंभ करतें हैं, इसका यहां यह अभिसंबंध हैं कि- तीसरे उद्देशक में कहा गया है, कि- श्रमण भगवान् महावीरस्वामीजी ने परीषह एवं उपसर्गों के कष्टों को समता भाव से सहन कीया था... अब यहां चौथे उद्देशक में यह कहना है कि- परमात्मा रोगातंक की पीडा होने पर चिकित्सा न करते हुए समता भाव से सहन करते थे... अर्थात् रोगातंकादि परीषहा के समय में परमात्मा विशेष प्रकार से तपश्चर्या में हि उद्यम करतें थे... . भगवान महावीर ने बीमारी के समय कभी भी चिकित्सा नहीं की। उन्होंने शारीरिक एवं आत्मिक दोनों व्याधियों को दूर करने के लिए तप का आचरण किया। तप सारे विकारों को नष्ट कर देता है। जैसे साबुन वस्त्र के मैल को दूर हटाकर वस्त्र को स्वच्छ करता है, उसी तरह तप से शरीर एवं मन शुद्ध हो जाता है। जिनशासन में आत्म-शुद्धि एवं शरीर-शुद्धि के लिए तप को महत्त्वपूर्ण स्थान दिया गया है। इससे बाह्य एवं अभ्यन्तर विकार नष्ट हो जाते हैं और आत्मा शुद्ध बन जाती है। आगम में बताया है कि- ज्ञान से आत्मा पदार्थ के यथार्थ स्वरूप को जानता है, दर्शन से उस पर श्रद्धा करता है, चारित्र से अभिनव कर्म के आगमन को रोकता है और तप से आत्मा पूर्वकर्मों को क्षय करके शुद्ध बनता है। नाणेण जाणइ भावे, दंसणेण य सद्दहे। चरित्तेण निगिण्हाइ, तवेण परिसुज्झइ॥ 1 // श्रमण भगवान् महावीरस्वामीजी ने छद्मस्थ काल के साधिक साढे बारह वर्ष में की हुइ तपश्चर्या का संक्षिप्त दिग्दर्शन... संख्या उसके दिन वर्ष मास दिन (1) छ: मास 1 653041=180, 0 - 6 - 0 (2) पांच दिन कम छ: मास- 1 6430-5=175, 0 - 5 - 25 (3) चौमासी 9 443049=1080, 3 - 0 - 0 (4) तीन मासी 353042-180, 0 - 6 - 0 तपनाम Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 304 // 1 - 9 - 4 - 1(318) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन 0 0 0 0 / 0 (5) अढाइ मासी- 2 2 // 43042-150, 0 - 5 - 0 दो मासी 243046%360, 1 (7) डेढ मासी 2 1 // 43042=90, 0 - 3 - (8) मास क्षमण- 12 1430x12=360, 1 - 0 . (9) पक्ष क्षमण- 72 // 430472=1080, 3 - (10) सर्वतो भद्रप्रतिमा- 1 10 दिवस की=१०, 0 - 0 - (11) महाभद्रप्रतिमा- 1 4 दिवस की=४, 0 - 0 - 4 (12) अष्टम 12 3412-36, 0 - 1 - 6 (13) षष्ठ 229 24229=458, 1 - 3 - 8 (14) भद्र प्रतिमा 1 दो दिन=२. 0 - 0 - 2 (15) दीक्षा दिवस 1 एक दिन-१, (16) पारणा 349 349 दिन की=३४९,० - 11 - 19 (17) कुल दिवस 4515- वर्ष 12 मास 6 दिन 15 अतः आत्मविकास के लिए तप अत्यावश्यक है। इसी कारण भगवान महावीर ने संयम-साधना काल में कठोर तपश्चर्यां साधना की है... इस अभिसंबंध से आये हुए चौथे उदेशक का यह प्रथम सूत्र है... I सूत्र // 1 // // 318 // 1-9-4-1 ओमोयरियं चाएइ, अपुठेवि भगवं रोगेहिं। पुढे वा अपुढे वा नो से साइज्जई तेइच्छं // 318 // , II संस्कृत-छाया : अवमौदर्यं शक्नोति, अस्पृष्टोऽपि भगवान् रोगैः / स्पृष्टो वा अस्पृष्टो वा न सः स्वादयति (अभिलषति) चिकित्साम् // 318 // III सूत्रार्थ : भगवान महावीर रोगों के स्पर्श होने या न होने पर भी ऊणोदरी तप में समर्थ थे। इसके अतिरिक्त श्वानादि के काटने पर या श्वासादि रोग के होने पर भी वे औषधि सेवन की इच्छा नहीं करते थे। IV टीका-अनुवाद : ग्रंथकार महर्षि कहते हैं कि- शीत, उष्ण, दंशमशक एवं आक्रोशादि परीषह सहन Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 71 - 9 - 4 - 2 (319) 305 करना शक्य है, किंतु ऊणोदरी याने अल्प आहार करना अति मुश्केल है, श्रमण भगवान् महावीरस्वामीजी वात-पीतादि दोष स्वरूप रोगों के अभाव में भी ऊणोदरी तपश्चर्या करते थे... यद्यपि सामान्य लोग रोगों की परिस्थिति में रोगों के निवारण के लिये ऊणोदरी अवश्य करतें हैं, किंतु परमात्मा तो रोगादि के अभाव में भी ऊणोदरी तप सदा करतें थे... द्रव्यरोगों के हेतुभूत असातावेदनीयादि एवं राग-द्वेषादि भावरोगों के हेतुभूत मोहनीय कर्मादि विनाश के लिये परमात्मा सदा ऊणोदरी तप करतें थे... -- यहां शिष्य प्रश्न करता है कि- क्या परमात्मा को द्रव्य रोग की पीडा नहि सताती थी ? कि- जिस कारण से आप "भावरोगों से स्पृष्ट" ऐसी बात कहते हो ? इस प्रश्न के उत्तर में गुरूजी कहते हैं कि- सामान्य मनुष्यों को होनेवाले कास-श्वासादि रोग तीर्थंकर परमात्मा को नहि होतें, किंतु उपसर्गों से संभवित शस्त्रप्रहारादि की पीडा-वेदना स्वरूप द्रव्यरोग परमात्मा को होतें थे, तथापि महावीरस्वामीजी उस पीडा की चिकित्सा नहि करतें थे... और द्रव्यऔषधादि से रोग की पीडा दूर हो, ऐसा भी नहि चाहते थे... परंतु सदा ऊणोदरी तप करते थे... v सूत्रसार : शरीर रोगों का घर है। इसमें अनेक रोग रहे हुए हैं। जब कभी असाता वेदनीय कर्म के उदय से कोई रोग उदय में आता है तो लोग उसे उपशान्त करने के लिए औषध एवं पथ्य * का सेवन करते हैं। परन्तु, भगवान महावीर अस्वस्थ अवस्था में भी औषध का सेवन नहीं करते थे। तथा स्वस्थ अवस्था में भी स्वल्प आहार करते थे। स्वल्प आहार के कारण उन्हें कोई रोग नहीं होता था। फिर भी कुत्तों के काटने या अनार्य लोगों के प्रहार से जो घाव आदि हो जाते थे, तब भी परमात्मा उनकी चिकित्सा नहीं करते थे। यदि कभी श्वास आदि की पीडा हो तब भी वे औषध नहीं लेते थे। वे समस्त परीषहों एवं कष्टों को समभाव पूर्वक सहन करते थे और तप के द्वारा द्रव्य एवं भाव रोग को दूर करने का प्रयत्न करते थे। इसी विषय को और स्पष्ट करते हुए सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहते हैं... I सूत्र // 2 // // 319 // 1-9-4-2 संसोहणं च वमणं च, गायब्भंगणं च सिणाणं च। संवाहं च न स कप्पे दन्तपक्खालणं च परिन्नाए // 319 // संस्कृत-छाया : संशोधनं च वमनं च, गात्राभ्यंगनं च स्नानं च। संबाधनं च न तस्य कल्पते दन्तप्रक्षालनं च परिज्ञाय // 319 // Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 306 // 1-9-4-3 (3२०)卐 श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन III सूत्रार्थ : शरीर को अशुचिमय जानने वाले भगवान महावीर स्वामीजी शरीर के रोग की शान्ति के लिए एवं शरीर के संशोधन के लिये विरेचन लेना, वमन करना, शरीर पर तैलादि का मर्दन करना, स्नान करना, और दातुन आदि से दान्तों को साफ करना, इत्यादि कभी भी नहीं करते थे। IV टीका-अनुवाद : विरेचन (जुलाब) आदि से शरीर के मल का शोधन, एवं मदनफल आदि से वमन तथा सहस्रपाक तैल आदि से शरीर का अभ्यंगन एवं उद्वर्तनादि के द्वारा स्नान तथा हाथ और पैर से शरीर का संबाधन इत्यादि, परमात्मा कभी भी नहि चाहते थे... किंतु “यहं शरीर मल-मूत्रादि एवं लोही-मांसादि से युक्त होने से अशुचि स्वरूप है" इत्यादि सोचकर परमात्मा दंतकाष्ठादि (दातण) से दांतो की सफाइ स्वरूप दंतधावन भी नहि करतें थे... v सूत्रसार : भगवान महावीर का ध्यान आत्मा की ओर लगा था। शरीर पर उन्होंने कभी ध्यान नहीं दिया। वे जानते थे कि- यह शरीर नश्वर है। इसलिए वे किसी रोग के उत्पन्न होने पर उसे उपशान्त करने के लिए या भविष्य में रोग न हो इस भावना से कभी भी विरेचनजुलाब नहीं लेते थे और उन्होंने साधना काल में अपने शरीर को स्वस्थ रखने के लिए किसी भी तरह की चिकित्सा भी नहीं की। वे सदा अपनी आत्मा को हि देखते थे और आत्मा को विशुद्ध करने में ही प्रयत्नशील थे। परमात्मा के चिंतन संबंधित उल्लेख करते हुए सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहते हैं... I सूत्र // 3 // // 320 // 1-9-4-3 विरए गाम धम्मेहिं रीयइ माहणे अबहुवाई। सिसिमि एगया भगवं छायाए झाई आसी य // 320 // II संस्कृत-छाया : विरत: ग्रामधर्मेभ्यः, रीयते माहन: अबहुवादी। शिशिरे एकदा भगवान् छायायां ध्यायी आसीत् च // 320 // III सूत्रार्थ : विषय-विकारों से विरत हुए अल्पभाषी भगवान महावीर संयम में पुरुषार्थ करते हुए Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका #1- 9 - 4 - 5 (322) 307 शीतकाल में भी कभी कभी छाया में धर्म और शुक्ल ध्यान ध्याते थे। IV टीका-अनुवाद : श्रमण भगवान् महावीरस्वामीजी शब्दादि विषयों में प्रवृत्त श्रोत्रादि इंद्रियों का निग्रह कर के सदा संयमानुष्ठान में हि उद्यमशील होते थे... श्रमण भगवान महावीरस्वामीजी बहु नहि बोलतें, किंतु कभी कभी प्रश्न का उत्तर देते थे... यदि परमात्मा सर्वथा नहि बोलतें, तब ग्रंथकार ऐसा कहतें कि- “परमात्मा कुछ भी बोलतें नहिं थें' इत्यादि... तथा एकबार परमात्मा ने शिशिर ऋतु काल में छाया में हि खडे रहकर धर्मध्यान एवं शुक्लध्यान में उद्यम कीया था... V सूत्रसार : साधना के पथ पर गतिशील भगवान महावीर विषय-विकारों से सर्वथा निवृत्त हो गए थे। वे साधना काल में प्रायः मौन ही रहे थे और किसी के पूछने पर उत्तर देना अत्यावश्यक हुआ तो एक ही बार बोलते थे। वे शीत आदि की परवाह नहीं करते थे। सर्दी की ऋतु में भी छाया में खड़े रहकर हि ध्यान करते थे। इस तरह वे शरीर की चिन्ता न करते हुए सदा आत्म-चिन्तन में ही संलग्न रहते थे। संयम-साधना में योगों का गोपन करना महत्त्वपूर्ण माना गया है। मन, वचन और काया इन तीनों योगों में मन सबसे अधिक सूक्ष्म और चंचल है। उसे वश में रखने के लिए काय और वचन योग को रोक रखना आवश्यक है। वचन का समुचित गोपन होने पर मन को सहज ही रोका जा सकता है और मन आदि योगों का गोपन करने से आत्मा अपने शुद्ध स्वरूप को प्राप्त करती है। - आगम में बताया है कि- मन का गोपन करने से आत्म-चिन्तन में एकाग्रता आती है अतः साधु संयम का आराधक होता है। वचन गुप्ति से आत्मा निर्विकार होती है और निविकारता से अध्यात्म योग की साधना सफल होती है। काय गुप्ति से संवर की प्राप्ति होती है और उससे आश्रव-पापकर्म का आगमन रुकता है। इसी तरह मन समाधारणा से जीव एकाग्रता को जानता हुआ ज्ञान पर्याय को जानता है और उससे सम्यक्त्व का शोधन करता है और भिथ्यात्व की निर्जरा करता है। वचन समाधारणा से आत्मा दर्शन पर्याय को जानता है, उससे दर्शन की विशुद्धि करके सुलभ बोधित्व को प्राप्त करता है और दुर्लभ बोधिपन के हेतुभूत कर्मो कि निर्जरा करता है। कायसमाधारणा से जीव चारित्र पर्याय को जानता है और उससे विशुद्ध चारित्र को प्राप्त करता है एवं चार घातिकर्मों का क्षय करके केवलज्ञान को प्राप्त करता है और तत्पश्चात् अवशेष चार अघातिकर्मों को क्षय करके सिद्ध-बुद्ध-निरंजन Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 308 // 1- 9 - 4 - 4-5 (321-322) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन निराकार हो जाता है, अर्थात् समस्त कर्म बन्धन से मुक्त हो जाता है। इस तरह योगों का गोपन करने से आत्मा निष्कर्म बन जाता है। इस तरह भगवान महावीर भाषा का गोपन करते हुए एकाग्र मन से आत्म चिन्तन में संलग्न रहते थे। उनके चिन्तन की एकाग्रता एवं परीषहों की सहिष्णुता का वर्णन करते हुए सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहते हैं... सूत्र // 4 // // 321 // 1-9-4-4 आयावयइ गिम्हाणं, अच्छइ उक्कुड्डुए अभित्तावे। अदु जाव इत्थ लूहेणं ओयणमंथुकुम्मासेणं // 321 // II संस्कृत-छाया : आतापयति ग्रीष्मेषु, तिष्ठति उत्कुटुकः अभितापम् / अथ यापयति स्म रुक्षेण ओदन मन्थु कुल्माषेण // 321 // III सूत्रार्थ : भगवान महावीर ग्रीष्म ऋतु में उत्कुटुक आसन से सूर्य के सन्मुख होकर आतापना लेते थे। और धर्म साधना के कारण रूप शरीर के लिए चावल, बेर का चूर्ण एवं उड़द के बाकले आदि रूक्ष आहार लेकर अपना निर्वाह करते थे। IV टीका-अनुवाद : श्री महावीर स्वामीजी ने एक बार ग्रीष्मकाल में आतापना ली थी... वह इस प्रकारपरमात्मा उत्कटुकासन में रहकर ताप के अभिमुख मुख कर के आतापना लेतें थें... इत्यादि... तथा परमात्मा अंत-प्रांत रूक्ष आहारादि से देह का निर्वाह करते थे... वह इस प्रकार- ओदन याने कोदरे के चावल, मंथु याने बदरचूर्णादि... तथा कुल्माष याने उडद धान्य विशेष, किजो सेके हुए हो या बाफे हुए हो इत्यादि तुच्छ-असार आहारादि ग्रहण करते थे... I सूत्र // 5 // // 322 // 1-9-4-5 एयाणि तिन्नि पडिसेवे अट्ठमासे अजावयं भगवं। अपि इत्थ एगया भगवं अद्धमासं अदुवा मासंपि // 322 // II संस्कृत-छाया : एताणि त्रीणि प्रतिसेवते, अष्टौ मासानयापयत् भगवान। अपि अत्र एकदा Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका // 1- 9 - 4 - 4-5 (321-322) 309 - भगवान् अर्द्धमासं अथवा मासमपि // 322 // III सूत्रार्थ : श्रमण भगवान महावीर ने उक्त ओदनादि तीनों पदार्थों के द्वारा आठ मास तक समय यापन किया ! और कभी 2 भगवान ने आधे मास या एक मास तक जल पानी भी नहीं किया। IV टीका-अनुवाद : __ यहां किसी मंदमतिवाले शिष्य को प्रश्न होवे कि- क्या उपर कहे गये ओदन, मंथु एवं कुल्माष तीनों मीलाकर परमात्मा आहार करते थे ? या नहिं ? इस प्रश्न के उत्तर में ग्रंथकार महर्षि कहते हैं कि- हां, तीनों प्रकार के या कोइ भी दो या एक प्रकार का आहार परमात्मा लेते थे... और यह आहार ऋतुबद्धकाल याने आठ महिने तक लेते थे... जब कि- चौमासे के दिनों में तो परमात्मा अचित्त जल भी पंद्रह दिन या महिने में एक बार लेते थे... v सूत्रसार : प्रस्तुत उभय गाथाओं में भगवान महावीर की तपस्या का दिग्दर्शन कराया गया है। जैसे भगवान शीतकाल में छाया में ध्यान करते थे, उसी तरह ग्रीष्म काल में उत्कट आसन से सूर्य के सम्मुख स्थित होकर ध्यानस्थ होते थे और रूक्ष आहार से अपने शरीर का निर्वाह - करते थे। . आहार का मन एवं इंद्रियों की वृत्ति पर भी असर होता है। प्रकाम एवं प्रणीत आहार से मन में विकार जागृत होता है और इन्द्रिएं विषयों की ओर दौडती है। इस लिए साधक के लिए प्रकाम-गरिष्ठ आहार के त्याग का विधान किया गया है। साधक केवल शरीर का निर्वाह करने के लिए आहार करता है और वह रुक्ष आहार से भली-भांति हो जाता है। उससे मन में विकार नहीं जागते और इन्द्रिएं भी शांत रहती हैं। जिससे साधना में तेजस्विता आती है, आत्म-चिन्तन में गहराई आती हैं। अतः पूर्ण ब्रह्मचर्य के परिपालक साधु को सरस, स्निग्ध आहार नहीं करना चाहिए। संयम के लिए रुक्ष आहार सर्व-श्रेष्ठ है। भगवान महावीर ने ओदनचावल, बोर के चूर्ण एवं कुल्माष आदि का आहार किया था। ___ यह ओदन आदि का आहार भगवान ने आठ महीने तक किया और इसी बीच एक महीने तक निराहार रहे, पानी भी नहीं पिया। इससे उनकी निस्पृह एवं अनासक्त वृत्ति का स्पष्ट परिचय मिलता है। भिक्षाकाल में जैसा भी रूखा-सूखा आहार उपलब्ध हो जाता वैसा . ही वह आहार अनासक्त भाव से लेते थे। अब भगवान के विशिष्ट तप का वर्णन करते हुए सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 310 ॥१-९-४-६(323)卐 श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन कहते हैं... I सूत्र // 6 // // 323 // 1-9-4-6 अवि साहिए दुवे मासे अदुवा छप्पिमासे विहरित्था। राओवरायं अपडिन्ने अन्न गिलायमेगया भुंजे // 323 // II संस्कृत-छाया : अपि साधिकं द्वयं मासं, षडपि मासान् अथवा विहृतवान् / रात्रोपरात्रं अप्रतिज्ञः, पर्युषितं च एकदा भुक्तवान् // 323 // III सूत्रार्थ : भगवान महावीर ने दो मास से कुछ अधिक समय तक अथवा दो महिने से लेकर 6 महीने पर्यंत बिना पानी पिये समय व्यतीत किया। वे पानी पीने की इच्छा से रहित होकर रात-दिन धर्म ध्यान में संलग्न रहते थे। भगवान ने एक बार पर्युषित-अन्न पक्वान्न-खाखरा आदि कल्पनीय आहार ग्रहण किया। IV टीका-अनुवाद : अथवा दो महिने पर्यंत या यावत् छह महिने पर्यंत परमात्मा जल पीये बिना हि विचरतें थे.,, क्योंकि- निर्दोष अचित्त जल भी पीने की उन्हें ऐसी तीव्र उत्कंठा नहि थी... तथा एकदा पर्युषित (असार) रुक्ष खाखरा आदि आहार ग्रहण कीया था... V माधुसूत्रसार : शिथिलात प्रस्तुत गाथा से यह स्पष्ट होता है कि- भगवान ने सर्वोत्कृष्ट 6 महीने की तपश्चर्या की थी। भगवान ने इतनी लम्बी तपश्चर्या में पानी का भी सेवन नहीं किया। इससे स्पष्ट होता है कि- भगवान ने जितनी तपश्चर्या की थी, उसमें पानी नहीं पिया था अर्थात् चोवीहार तप करते थे। और इस तप साधना के समय एक बार भगवान ने पर्युषित-पहले दिन का बना हुआ पक्वान्न या खाखरा आदि आहार ग्रहण किया था। यही सम्बन्ध बना र . इस गाथा से यह भी स्पष्ट होता है कि- भगवान ने जितना भी तप किया था, वह सब निदान रहित किया था। उनके मन में स्वर्ग आदि की कोई आकांक्षा नहीं थी। उनका . मुख्य उद्देश्य केवल कर्मों की निर्जरा करना था। उन्होंने आगम में तप आदि की साधना के लिए जो आदेश दिया है, उस पर पहले स्वयं ने आचरण किया। आगम में कहा गया है कि- मुमुक्षु पुरुष को न इस लोक के सुखों की आकांक्षा से तप करना चाहिए, न परलोक Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका // 1-9-4-7(324) // 311 में स्वर्ग आदि प्राप्त करने की अभिलाषा से तप करना चाहिए और न यश-कीर्ति एवं मानसम्मान की कामना रखकर तप करना चाहिए, परन्तु केवल कर्मों की निर्जरा के लिए तप करना चाहिए। इस तरह भगवान महावीर बिना किसी आकांक्षा के तप करते हुए रात-दिन धर्म एवं शुक्ल ध्यान में संलग्न रहते थे। विभिन्न तप का वर्णन करते हुए सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र से कहते हैं... I सूत्र // 7 // // 324 // 1-9-4-7 छठेण एगया भुंजे, अदुवा अट्ठमेण दसमेणं / दुवालसमेण एगया भुंजे, पेहमाणे समाहिं अपडिन्ने // 324 // II संस्कृत-छाया : षष्ठेन एकदा भुंक्ते अथवा अष्टमेन दशमेन / द्वादशमेनैकदा भुक्तवान् प्रेक्षमाणः समाधि अप्रतिज्ञः // 324 // III सूत्रार्थ : श्रमण भगवान महावीर कभी दो उपवास के बाद आहार करते, कभी तीन, कभी चार और कभी पांच उपवास के बाद आहार करते थे... वे इस तरह कठोर तप-साधना करते हुए भी समाधि का पर्यालोचन करते थे। IV टीका-अनुवाद : छठु तप याने दिन में एक बार भोजन लेने के बाद दो दिन भोजन नहि लेतें... और चौथे दिन भी एक बार भोजन लेते थे... मनुष्य सामान्य व्यवहार से दिन में दो बार भोजन करता है... अतः प्रथम दिन में एक बार भोजन का त्याग... बीच के दो दिन के चार बार के भोजन का त्याग... एवं चौथे दिन भी एक बार के भोजन का त्याग होने से 1 + 4 + 1 = 6 बार के भोजन का त्याग जहां हो उसे छठ्ठ याने षष्ठभक्त तप कहते हैं... . ___ इसी प्रकार एक एक दिन की वृद्धि से अट्ठमभक्त, दशमभक्त, इत्यादि विभिन्न तपश्चर्या परमात्मा समाधि भाव में रहकर सदा करते थे... तथा परमात्मा कभी आर्तध्यान नहि करतें, और निदान याने नियाणा भी कभी भी नहि करतें थें... Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 312 // 1-9-4 -8 (3२५)卐 श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन V सूत्रसार : भगवान की तपस्या का वर्णन करते हुए बताया गया है कि- भगवान कभी दो उपवास के बाद पारणा करते थे। इसी तरह कभी तीन, कभी चार और कभी पांच उपवास के बाद पारणा करते थे। इससे भगवान की आहार एवं शरीर आदि के प्रति स्पष्ट रूप से अनासक्ति प्रकट होती है। छद्मस्थकाल में उनका अधिक समय तप एवं आत्म चिन्तन में ही लगता था। ___ प्रस्तुत गाथा में प्रयुक्त 'छट्टैण एगया भुंजे' का “दो उपवास के बाद" यह अर्थ कैसे हुआ ? इसके समाधान में यह कहा जा सकता है कि- वृत्तिकार ने इसका यही अर्थ किया है कि- उपवास के पहले दिन के दो वक्त में से एक वक्त आहार करते हैं, उपवास के प्रथम एवं द्वितीय दिन के दोनों वक्त आहार नहीं करते और पारणे में दिन भी दो वक्त में से एक वक्त आहार करते हैं, इस तरह 1 + 2 + 2 + 1 = 6 अर्थात् षष्ठभक्त का अर्थ दो उपवास होता है। भगवान की जीवन चर्या का दिग्दर्शन देते हुए सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहते हैंसूत्र // 8 // // 325 // 1-9-4-8 णच्चा णं से महावीरे, नोऽवि य पावगं सयमकासी। अन्नेहिं वा ण कारित्था, कीरंतंपि नाणुजाणित्था // 325 // , संस्कृत-छाया : . ज्ञात्वा सः महावीरः, नापि च पापकं स्वयमकार्षीत् / अन्यैः वा न अचीकरत् क्रियमाणमपि नानुज्ञातवान् // 325 // III सूत्रार्थ : हेय, ज्ञेय और उपादेय रूप पदार्थों को जान कर श्रमण भगवान महावीर ने स्वयं पापकर्म का आचरण नहीं किया, न दूसरों से करवाया और पाप कर्म करने वालों का अनुमोदन भी नहीं किया। IV टीका-अनुवाद : हेय एवं उपादेय को जाननेवाले परमात्मा श्रमण भगवान् श्री महावीरस्वामीजी कर्मो के विपाक को सहन करते हुए वे कभी भी स्वयं पापकर्म नहि करतें थे... अन्य के द्वारा भी पापकर्म नहि करवातें थें, और अन्य मनुष्य स्वयमेव पापकर्म करे तो उस पापकर्म की अनुमोदना भी नहिं करतें थें... Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका // 1- 9 -4 - 9 (326) // 313 V सूत्रसार : संयम-साधना के जीवन में प्रविष्ट होते ही मुनि सब से पहले तीन करण और तीन योग से पाप कार्य से निवृत्त होने की प्रतिज्ञा करता है। वह मन, वचन और शरीर इन तीनों योगों से न स्वयं पापकर्म करता है, न अन्य से पापकर्म करवाता है और पाप कर्म करने वाले का समर्थन भी कभी नहि करता है। क्योंकि- पापकर्म से अशुभ कर्म का बन्ध होता है, संसार परिभ्रमण बढता है। इसलिए पदार्थों के यथार्थ स्वरूप के परिज्ञाता भगवान महावीर ने दीक्षित होने के बाद कभी भी पापकर्म का सेवन नहीं किया। वे त्रिकरण और त्रियोग से पापकर्म से निवृत्त रहे। भगवान के त्याग-निष्ठ जीवन का उल्लेख करते हुए सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहते हैं... I सूत्र // 9 // // 326 // 1-9-4-9 गामं पविसे नगरं वा घासमेसे कडं परट्ठाए। सुविसुद्धमेसिया भगवं आयत जोगयाए सेवित्था // 326 // II संस्कृत-छाया : ग्रामं प्रविश्य नगरं वा, ग्रासमन्वेषयेत् कृतं परार्थाय / सुविशुद्धं एषित्वा भगवान् आयतयोगतया सेवितवान् // 326 // III सूत्रार्थ : श्रमण भगवान महावीर गांव या शहर में प्रविष्ट होकर गृहस्थ के द्वारा आपने परिवार के पोषण के लिए बनाए गए आहार में से अत्यन्त शुद्ध निर्दोष आहार की गवेषणा करते और उस निर्दोष आहार को संयमित योगों से विवेक पूर्वक सेवन करते थे। IV टीका-अनुवाद : ___ गांव या नगर में प्रवेश कर के परमात्मा आहार की गवेषणा (शोध) करतें थे... किंतु वह आहार उद्गमादि सोलह दोष रहित हो, तथा उत्पादनादि के भी सोलह दोष रहित हो ऐसे निर्दोष आहार की दश दोष रहित गवेषणा कर के मन, वचन एवं काययोग से संयत ऐसे महावीरस्वामीजी मतिज्ञान, श्रुतज्ञान अवधिज्ञान एवं मन:पर्यवज्ञान के उपयोग के द्वारा अपने तीन योगों को समाधि में रखकर ग्रालेषणा दोष का परिहार (त्याग) कर के शुद्ध आहार लेते थे... Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 314 1 - 9 - 4 - 10 (327) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन - V सूत्रसार : यह हम देख चुके हैं कि- साधु सकल दोषों से निवृत्त होता है। वह कोई ऐसा कार्य नहीं करता जिससे किसी प्राणी को कष्ट होता हो। यहां तक कि- अपने शरीर का निर्वाह करने के लिए भी वह स्वयं भोजन नहीं बनाता। क्योंकि- इसमें पृथ्वी, पानी आदि 6 काय की हिंसा होती है। अतः साधु गृहस्थ के घरों में से निर्दोष आहार की गवेषणा करते हैं। भगवान महावीर भी जब गांव या शहर में भिक्षा के लिए जाते तो वे गृहस्थ ने अपने एवं अपने परिवार के पोषण के लिए बनाए गए आहारादि में से निर्दोष आहार की गवेषणा करते। उसमें भी आहार के 42 दोषों को छोडकर शुद्ध आहार ग्रहण करते और आहार करने के 5 दोषों का त्याग कर आहार करते। इस तरह 47 दोषों का त्याग करके वे आहार करते थे। उसमें 16 उद्गम सम्बन्धी दोष हैं, जो अनुराग एवं मोह वश गृहस्थ द्वारा होते है, 16 उत्पादन के दोष हैं, जो रस लोलुपी साधु द्वारा लगाए जाते हैं और 10 एषणा के दोष हैं, जो गृहस्थ एवं साधु दोनों द्वारा होतें हैं। आहार करते समय के 5 दोष हैं, जिनका सेवन साधु के द्वारा ही अज्ञानता से या मोहमूढता से होता है। प्रस्तुत गाथा में दिए गए विभिन्न पदों से भी इन दोषों की ध्वनि निकलती है। जैसे'परट्ठाए' पद से 16 उद्गमन के दोषों का विवेचन किया गया है। ‘सुविसुद्ध' से 16 उत्पादन दोष का एवं ‘एसिया' पद से 10 एषणा के दोषों का वर्णन किया गया है और 'आयत जोगयाए सेविता' पदों से आहार करते समय के 5 दोषों का वर्णन करके यह कहा गया है कि- प्रभुजी समस्त दोषों से रहित आहार पानी की गवेषणा करते थे, एवं ऐसे शुद्ध एवं निर्दोष आहार को अनासक्त भाव से ग्रहण करके ग्रामानुग्राम विचरण करते थे। इस विषय पर और प्रकाश डालते हुए सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहते हैं... सूत्र // 10 // // 327 // 1-9-4-10 / अदु वायसा दिगिंछत्ता जे अन्ने रसेसिणो सत्ता। घाससेसणाए चिट्ठन्ति सयय निवइए य पेहाए // 327 // // संस्कृत-छाया : अथ वायसा बुभुक्षार्ताः ये चान्ये रसैषिणः सत्त्वाः। ग्रासैषणार्थं तिष्ठन्ति सततं निपतितान् च प्रेक्ष्य // 327 // Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1 - 9 - 4 -11-12 (328-329) // 315 III सूत्रार्थ : भूख से बुभुक्षित वायसादि पक्षियों को मार्ग में गिरे हुए अन्न को खाते हुए देखकर उन्हें नहीं उडाते हुए प्रभुजी विवेक पूर्वक चलते थे... IV टीका-अनुवाद : आहार (भिक्षा) के लिये गवेषणा करते हुए श्री महावीरस्वामीजी मार्ग में भूख से पीडा पा रहे वायस याने कौवें आदि... तथा जलपान की इच्छावाले कपोत-पारापत (कबूतर) आदि अपने अपने आहार एवं जल को ढंढते हए यहां वहां बेठे हुए देखकर परमात्मा यह सोचतें कि- “इन प्राणीओं को अपने इष्ट आहार-पानी की प्राप्ति में मैं अंतराय करनेवाला न बचें" इत्यादि सोचकर प्रभुजी मंद गति से चलते हुए आहारादि की गवेषणा करते थे... अर्थात् परमात्मा संयमानुष्ठान में दृढ आदरवाले थे... V सूत्रसार : साधु सब जीवों का रक्षक है। वह स्वयं कष्ट सहन कर ले, किंतु अपने निमित्त से किसी भी प्राणी को कष्ट हो ऐसे उस कार्य को वह कदापि नहीं करता... साधु के लिए आदेश है कि- वह भिक्षा के लिए जाते समय भी यह ध्यान रखे कि- उसके कारण किसी भी प्राणी की वृत्ति में विघ्न न पडे। भगवान महावीर ने स्वयं इस नियम का पालन किया था वे उस घर में या उस मार्ग से आहार के लिये नहीं जाते थे कि- जिस घर के आगे या मार्ग में काग-कुत्ते एवं गरीब भिखारी रोटी की आशा से खडे होते थे। क्योंकि- वह दातार उन गरीब भिखारियों को अनदेखा करके भगवान को आहारादि देने लगता था... इससे भिक्षुकों के मन में द्वेष उत्पन्न होना स्वाभाविक था। इसलिए भगवान ऐसे घर में भिक्षा के लिये नहीं जाते थे कि- जहां अन्य प्राणी भोजन की अभिलाषा लिए हुए खडे हों। इसी विषय में सूत्रकार और भी विशेष बात आगे के सूत्र से बताते हैं... सूत्र // 11-12 // // 328-329 // 1-9-4-11/12 अदुवा माहणं च समणं च, गामपिंडोलगं च अतिहिं वा। सोवाग मूसियारिं वा, कुकुरं वावि विट्ठियं पुरओ // 328 / / वित्तिछेयं वज्जतो, तेसिमप्पत्तियं परिहरन्तो। मंदं परक्कमे भगवं, अहिंसमाणो घासमेसित्था // 329 // Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 316 // 1-9-4 -14 (338) // श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन II संस्कृत-छाया : अथवा माहनं च श्रमणं वा ग्रामपिंडोलकं च अतिथिं वा। श्वपाकं मूषिकारिं वा कुकुरं वापि उपस्थितं पुरतः // 328 // वृत्तिच्छेदं वर्जयन् तेषामप्रत्ययं परिहरन् / मंदं पराक्रमते, भगवान् अहिंसन् ग्रासमेषितवान् // 329 // III सूत्रार्थ : श्रमण भगवान महावीर प्रभु ब्राह्मण, श्रमण, गांव के भिखारी, अतिथि, चांडाल, श्वान और विविध प्रकार के अन्यजीव यदि खडे हों तो उनकी वृत्ति का भंग न हो इस कारण से वहां भिक्षा के लिए नहीं जाते थे। भगवान महावीरस्वामीजी उन जीवों की वृत्ति का छेद न हो, एवं उनको अप्रीति भी न हो, इस प्रकार शनैः 2 चलते थे, एवं किसी भी जीव की हिंसा न हो, इस प्रकार आहारपानी आदि की गवेषणा करते थे। IV टीका-अनुवाद : अथवा आहारादि के लिये आये हुए शाक्य या आजीवक या परिव्राजक या तापस या निग्रंथ इत्यादि में से किसी को भी आहारादि में अंतराय न हो, यह बात ध्यान में रखकर परमात्मा गोचरी की गवेषणा करते थे... अथवा भिक्षा से पेट भरनेवाले द्रमक, या तो कोइ अभ्यागत-अतिथि, तथा चांडाल, एवं बील्ली, कुत्ते इत्यादि आगे रहे हुए हो, तब उनको आहारादि की प्राप्ति में अंतराय न हो, एवं उनके मन में द्वेषभाव उत्पन्न न हो, उन को कोइ भी प्रकार का त्रास-कष्ट न हो, इस बात को ध्यान में रखते थे... तथा अन्य कुंथुवे इत्यादि क्षुद्र जंतुओं की हिंसा न हो, उस प्रकार से परमात्मा आहार की गवेषणा करते थे... V सूत्रसार : इन दो गाथा में पूर्व गाथा की बात को पूरी करते हुए बताया गया है कि- किसी गृहस्थ के द्वार पर यदि कोई ब्राह्मण, बौद्ध भिक्षु; परिव्राजक, संन्यासी, शूद्र आदि खडे हो या बिल्ली, कुत्ता आदि खडे हो तब भगवान उनको उल्लंघकर के उस घर में प्रवेश नहीं करते थे। क्योंकि- इससे उनकी वृत्ति का व्यवच्छेद होता था। उनके मन में अनेक संकल्पविकल्प उठते और द्वेष-भाव पैदा होता। इसलिए भगवान इन सभी दोषों को टालते हुए आहार / के लिए गृहस्थों के घरों में प्रवेश करते थे। Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1 - 9 - 4 - 13 (330) // 317 सूत्रकार फिर से इसी विषय में आगे का सूत्र कहते हैं... सूत्र // 13 // // 330 // 1-9-4-13 अवि सूइयं वा सुक्कं वा, सीयं पिंडं पुराण कुम्मासं। अदु वुक्कसं पुलागं वा लद्धे पिंडे अलद्धे दविए // 330 // II संस्कृत-छाया : अपि सूपिकं वा शुष्कं वा, शीतं पिंडं पुराणकुल्माषं। अथ बुक्कसं पुलाकं वा, लब्धे पिण्डे अलब्धे द्रविकः // 330 // III सूत्रार्थ : दधि आदि से मिश्रित आहार, शुष्क आहार, पर्युषित आहार पुराने कुल्माष और पुराने धान्य का बना हुआ आहार, जौ का बना हुआ आहार मिलने या न मिलने पर संयम युक्त भगवान किसी प्रकार का राग द्वेष नहीं करते थे। IV टीका-अनुवाद : सूपिक याने दहिं आदि में चावल भीगोये हुए हो, तथा शुष्क याने वाल-चणे इत्यादि... तथा शीतपिंड याने पर्युषित पक्वान्न-खाखरा आदि तथा पुराणकुल्माष याने बहोत दिन से सेके या तात्काल पकाये हुए कुल्माष (ऊडद) आदि... बुक्कस याने चिरकालके धान्य-ओदन अथवा पुराना सक्तुपिंड (साथवा) अथवा बहु दिनों से भरा हुआ गोरस वाला गेहुं के मंडक... तथा पुलाक इत्यादि आहारपिंड को प्राप्त होने पर राग एवं द्वेष से रहित द्रविक याने संयमी भगवान्, अन्य भी कोइ प्रकार के आहारादि पिंड प्राप्त हो या प्राप्त न हो तो भी समता भाव रखने वाले द्रविक याने संयमी भगवान् श्री महावीरस्वामीजी प्रमाणोपेत या शोभन (अच्छा) आहारादि मीलने पर उत्कर्ष अभिमान नहि कहते थे, और प्रमाणोपेत आहारादि न मीलने पर एवं अशोभन आहारादि प्राप्त होने पर परमात्मा अपने आत्मा की, या आहारादि पिंड की, या दान देनेवाले दाता की निंदा नहि करतें थे... V सूत्रसार : साधु का जीवन आत्म-साधना का जीवन है। साधना में सहयोगी होने के कारण वह शरीर को आहार-पानी देता है। परन्तु उसमें वह इतना ध्यान अवश्य रखता है कि- अपने शरीर के पोषण में कहीं दूसरे प्राणियों का नाश न हो जाए। इस कारण वह सदा निर्दोष आहार ही स्वीकार करता है और समय पर सरस-नीरस जैसा भी आहार उपलब्ध हो उसे समभाव पूर्वक ले लेता है। वह उसमें हर्ष या शोक नहीं करता। Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 318 // 1-9-4 -14 (331) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन भगवान महावीर भी जब निर्दोष आहार उपलब्ध होता था, तब अनासक्त भाव से ले लेते थे। वे दधि आदि सरस पदार्थ मिलने पर हर्षित नहीं होते थे और कुल्माष अदि नीरस पदार्थ मिलने पर शोक नहीं करते थे। उनका उद्देश्य संयम-साधना के लिए पेट को भरना था। इसलिए यथासमय जैसा भी शुद्ध आहार मिलता उसी से संतोष कर लेते थे। इससे रसना इन्द्रिय पर सहज ही विजय प्राप्त हो जाती है। और इस वृत्ति से एक लाभ यह होता है किसाधु में दाता की निन्दा एवं प्रशंसा करने की भावना प्रगट नहीं होती। जिसकी रसों में आसक्ति होती है, वह सरस आहार देने वाले की प्रशंसा एवं नीरस आहार देने वाले व्यक्ति की निन्दा करके पाप कर्म का बन्ध कर लेता है। इसलिए साधु को समय पर सरस एवं नीरस जैसा भी आहार उपलब्ध हो उसे समभाव पूर्वक ग्रहण करना चाहिए। टीकाकार ने प्रस्तुत गाथा में आहार के विषय में प्रयुक्त शब्दों का निम्न अर्थ किया है- 1. सुइयं दध्यादिना भक्तमार्दीकृतमपि तथाभूतम्। 2. सुक्कं-वल्लचनकादि। 3. शीतपिंडंपर्युषितभक्तम्। 4. वुक्कसं-चिरन्तनधान्यौदनम्। 5. पुलागं-यवनिष्पावादि / .. इससे यह स्पष्ट होता है कि- मुनि स्वाद के लिए आहार नहीं करता, केवल संयम की साधना के लिए शरीर को स्थिर रखना होता है और इस कारण वह आहार करता है। अब साध्य प्राप्ति का उपाय बतलाते हुए सूत्रकार महर्षि. आगे का सूत्र कहते हैं... I सूत्र // 14 // // 331 // 1-9-4-14 ___ अवि झाइ से महावीरे, आसणत्थे अकुक्कुए झाणं। उड्ढं अहे तिरियं च पेहमाणे समाहिमपडिन्ने // 331 // // संस्कृत-छाया : अपि ध्यायति सः महावीरः, आसनस्थ: अकौत्कुचः ध्यानम् / ऊर्ध्वमस्तिर्यग् च प्रेक्षमाणः समाधि अप्रतिज्ञः // 331 // III सूत्रार्थ : श्रमण भगवान महावीर, स्थर आसन एवं स्थिर चित से धर्म और शुक्ल ध्यान ध्याते थे। वे उस ध्यान मुद्रा में ऊर्ध्व लोक, अधो लोक और तिर्यग् लोक में स्थित द्रव्य और उनकी पर्यायों को देखते हुए सदा ध्यान एवं आत्मचिन्तन में संलग्न रहते थे। IV टीका-अनुवाद : उपर कहे गये स्वरूपवाले आहारादि यदि निर्दोष प्राप्त होते हैं, तब प्रभुजी आहार Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1 - 9 - 4 - 14 (331) 319 करतें थे, और यदि निर्दोष आहार प्राप्त न हो, तब वे अपने धर्मध्यान में अविचलित रहतें थे... परंतु कभी भी दुष्प्रणिधानादि से आर्त्तध्यान नहि करते थे... श्रमण भगवान् श्री महावीर स्वामीजी गोदोहिकासन या वीरासनादि अवस्था में रहकर प्रसन्न मुख से सदा धर्मध्यान या शुक्लध्यान करते थे... ___ परमात्मा धर्मध्यान में अनुप्रेक्षा करते थे, वइ इस प्रकार- इस विश्व के ऊर्ध्वलोक, अधोलोक एवं तिर्यग्लोक में जो कोइ जीव एवं परमाणु आदि पदार्थ रहे हुए हैं, उन द्रव्यों का एवं उन द्रव्यों के पर्यायों के नित्य एवं अनित्यादि स्वरूप का ध्यान करते थे... तथा समाधि में रहकर अंत:करण की शुद्धि को देखते हुए धर्मध्यान करतें थे... V सूत्रसार : साधना में ध्यान का महत्त्वपूर्ण स्थान है। ध्यान के लिए सबसे पहली आवश्यकता आसन की है। ध्यान के लिए उत्कुटुक आसन, गोदोहिक आसन, आदि प्रसिद्ध है। इन आसनों से साधक शरीर को स्थिर करके मन को एकाग्र करके आत्म-चिन्तन में संलग्न होता है। भगवान महावीर भी दृढ़ आसन से धर्म एवं शुक्ल ध्यान ध्याते थे। इससे मन विषयों से हटकर आत्म-स्वरूप को समझने में लगता है, इससे कर्मों की निर्जरा होती है। ध्येय वस्तु द्रव्य और पर्याय रूप होती है। अत: वह नित्यानित्य होती है। यह हम पहले बता चूके हैं किप्रत्येक वस्तु द्रव्य रूप से नित्य है और पर्याय रूप से अनित्य है। अतः ध्यान में उसके यथार्थ स्वरूप का चिन्तन किया जाता है। पातञ्जल योगदर्शन में भी योग के आठ अंग माने गए हैं- 1. यम, 2. नियम, 3. आसन, 4. प्राणायाम, 5. प्रत्याहार, 6. धारणा, 7. ध्यान, 8. समाधि। कितनेक विभिन्न मतवाले प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि को योग का अंग मानते हैं। कई साधक उत्साह, निश्चय, धैर्य, संतोष, तत्त्वदर्शन और देश त्याग को ही योग साधना मानते हैं और कोई मन के निरोध को ही सर्व सिद्धि का कारण मानता है। ___ प्रस्तुत गाथा में आत्म विकास के लिए 3 साधन बताए हैं- 1. आसन,ध्यान और ध्येय-समाधि। आसनों के द्वारा साधक मन को एकाग्र कर लेता है। जैन योग ग्रन्थों में कुछ आसन ध्यान योग्य बताए गए हैं। जैसे- 1. पर्यंकासन, 2. अर्द्ध पर्यंकासन, 3. वज्रासन, 4. वीरासन, 5. उत्कुटुकासन, 6. गोदोहिकासन और 7. कायोत्सर्ग। इसके बाद यह बताया गया है कि- जिस आसन से सुख पूर्वक स्थित होकर मुनि मन को एकाग्र कर सके, वही सबसे श्रेष्ठ आसन है। ध्यान की विधि बताते हुए लिखा है कि- अत्यंत निश्चल सौम्यता युक्त एवं स्पन्दन से रहित दोनों नेत्रों को नाक के सामने स्थिर करे। ध्यान के समय मुख Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 320 // 1 - 9 - 4 - 14 (331) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन प्रसन्न शान्त हो। भ्रू निश्चल एवं विकार हीन हों, दोनों ओष्ठ न अधिक खुले हों और न जोर से बन्द किए हुए हों तात्पर्य यह है कि- मुख पर किसी तरह की विकृति न हो, किंतु शान्त एवं प्रसन्न हो। . जैन दर्शन में मन, वचन और शरीर को योग कहा है। इन की शुभ वृत्तियों से चित्त की शुद्धि होती है और ध्यान, ध्याता एवं ध्येय इन तीनों की एकरूपता से समाधि प्राप्त होती है। इसी प्रारंभिक विकास को पदस्थ, पिंडस्थ, रूपस्थ और रूपातीत का नाम देकर इन्हें धर्मध्यान के अन्तर्गत माना है। यह सत्य है कि- धर्मध्यान आत्म-विकास की प्रथम श्रेणी है। और शुक्ल ध्यान चरम श्रेणी है। समस्त कर्मों का क्षय करके योगों का निरोध करते समय सर्वज्ञ पुरुष शुक्ल ध्यान के चतुर्थ भेद का ध्यान करके ही योगों का निरोध करके निर्वाण पद को प्राप्त करते हैं। उस स्थिति तक पहुंचने के लिए या उस योग्यता को प्राप्त करने के लिए पहले धर्मध्यान अत्यंत आवश्यक है। ___ अन्य दर्शनों में राजयोग, हठयोग आदि प्रक्रियाएं मानी हैं। इससे कुछ काल के लिए मन का निरोध होता है। जब तक हठयोग की प्रक्रिया चलती है, तब तक मन रुका रहता है। किंतु उसकी प्रक्रिया समाप्त हुई कि- मन फिर इधर-उधर उछल-कूद मचाने लगता है। इसलिए जैन दर्शन ने हठयोग आदि की साधना पर जोर न देकर सहज योग की बात कही। ___ सहज योग कोई आगमिक प्रक्रिया का नाम नहीं है। आगम में योगों को या मन को वश में करने के लिए 5 समिति एवं 3 गुप्ति बताई हैं। इसका तात्पर्य इतना ही है कि- साधक जिस समय जो क्रिया करे उस समय तद्रूप बन जाए। यदि उसे चलना है तो उस समय अपने मन को चारों ओर के विचारों से हटाकर ईयासमिति के द्वारा चलने में लगा दे, यहां तक कि-चलते समय अन्य चिन्तन एवं स्वाध्याय आदि भी न करे। इस तरह अन्य क्रियाएं करते समय अपने योगों को पांच समिति एवं तीन गुप्ति में लगा दे। जिस समय हलन-चलन की क्रिया नहीं कर रहा हो, उस समय अपने योगों को स्वाध्याय या ध्यान में लगा दे। इस तरह मन को प्रति समय किसी न किसी काम में लगाए रखे, तो फिर उसे इधर-उधर भागने का अवकाश नहीं मिलेगा। वह सहज ही आत्म-चिन्तन में एकाग्र हो जाएगा। इसलिए इस साधना के लिए हमने सहज योग शब्द का प्रयोग किया है। क्योंकि- इससे योगों को सहज रूप से एकाग्र क्रिया जा सकता है। साधक के लिए बताया गया हे कि- वह निराहार होने के लिए तप के द्वारा आहार को कम करते हुए शरीर पर से ममत्व हटाते हुए, इन्द्रिय एवं मन को एकाग्र करते हुए मौन भाव को स्वीकार करके आत्म साधना में लीन रहे और समिति-गुप्ति के द्वारा योगों को अपने Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका // 1- 9 -4 -15 (332) 321 वश में रखने का प्रयत्न करे। यह प्रक्रिया आत्म विकास के लिए उपयुक्त है। इसमें योगों के साथ किसी तरह की जबरदस्ती न करके उन्हें सहज भाव से आत्म साधना में संलग्न किया जाता है। भगवान महावीर ने आत्म स्वरूप को पूर्णतया जानने के लिए अपने योगों को लोक के स्वरूप का चिन्तन करने में लगा दिया था। क्योंकि- किसी भी पदार्थ के यथार्थ स्वरूप को जानकर ही आत्मा लोकालोक के यथार्थ स्वरूप को जान सकता है। जो व्यक्ति एक पदार्थ के स्वरूप को यथार्थ रूप से नहीं जानता, वह संपूर्ण लोक के स्वरूप को भी नहीं जान सकता। अतः लोक के स्वरूप को जानने के लिए एक पदार्थ का संपूर्ण ज्ञान आवश्यक है। प्रत्येक पदार्थ गुण और पयार्य युक्त है और लोक भी द्रव्य है, अतः गुण और पर्याय युक्त है। अतः पदार्थ के सभी रूपों का ज्ञान करने का अर्थ है संपूर्ण लोक का ज्ञान करना और संपूर्ण लोक का ज्ञान करने का तात्पर्य है पदार्थ को पूरी तरह जानना। इस तरह एक के ज्ञान में समस्त लोक का परिज्ञान और समस्त लोक के ज्ञान में एक का परिबोध संबद्ध है। इसलिए भगवान महावीर सदा लोक एवं आत्मा के स्वरूप का परिज्ञान करने के लिए चिन्तन में संलग्न रहते थे। इसी विषय को और स्पष्ट करते हुए सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहते हैं... सूत्र // 15 // // 332 // 1-9-4-15 अकसाई विगय गेही य सद्दरूवेसु अमुच्छिए झाई। छउमत्थो वि परक्कममाणो, न पमायं सइंपि कुम्वित्था // 332 // II संस्कृत-छाया : अकषायी विगतगृद्धिश्च शब्दरूपेषु अमूर्छितो ध्यायति / छद्मस्थोऽपि पराक्रममाणः, न प्रमादं सकृदपि कृतवान् // 332 // III सूत्रार्थ : श्रमण भगवान महावीर, कषाय को छोडकर,रस गृद्धि को त्यागकर एवं शब्दादि में अमूर्छित होकर धर्म ध्यान करते थे। छद्मस्थ होने पर भी सदनुष्ठान में पराक्रम करते हुए उन्होंने एक बार भी प्रमाद नहीं किया। IV टीका-अनुवाद : मुख विकार एवं भूकुटी-भंग आदि से रहित होने के कारण से परमात्मा अकषायी Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 322 // 1- 9 - 4 - 16 (333) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन थे... तथा परमात्मा को गृद्धि याने पौद्गलिक पदार्थों के प्रति आसक्ति का अभाव था अतः परमात्मा मन को अनुकूल ऐसे मनोज्ञ शब्दादि विषयों में राग नहि करतें थे, और मन को प्रतिकूल ऐसे अमनोज्ञ विषयों में द्वेषभाव भी नहि रखतें थे... तथा छद्मस्थ याने ज्ञानावरणीयादि चार घातिकर्मों की परिस्थिति में रहे हुए होने पर भी श्रमण भगवान् महावीरस्वामीजी अनेक प्रकार के संयमानुष्ठान में हि पराक्रम याने परुषार्थ करतें थे... अर्थात् परमात्मा प्रमाद एवं कषायभाव कभी भी नहि करते थे... V सूत्रसार : मन एवं चित्तवृत्ति को स्थिर करने के लिए राग-द्वेष एवं कषायों का परित्याग करना आवश्यक है। जब तक जीवन में कषायों का अंघड चलता रहता है, तब तक मन. आत्म चिन्तन में एकाग्र नहि हो सकता। दीपक की लौ हवा के झोंकों से रहित स्थान में ही स्थिर रह सकती है। इसी तरह चिन्तन की ज्योति कषायों की उपशान्त स्थिति में ही स्थिर रहती है। इसके परिज्ञाता भगवान महावीर ने साधना काल में मन एवं चित्त वृत्ति को आत्म-चिन्तन में एकाग्र करने के लिए राग-द्वेष एवं कषायों का परित्याग कर दिया और प्रमाद का भी त्याग करके राग-द्वेष का समूलत: नाश करने के लिए प्रयत्नशील हो गए। प्रमाद शुभ कार्य में बाधक है, वह आत्मा को अभ्युदय के पथ पर बढने नहीं देता है। इसलिए भगवान महावीर ने उसका सर्वथा परित्याग कर दिया था। छद्मस्थ अवस्था में भगवान ने कभी भी प्रमाद का सेवन नहीं किया यह बात इसी अध्ययन के दूसरे उद्देशक की चौथी गाथा में भी बताया है कि- भगवान ने अप्रमत्त भाव से साधना की और यहां इस बात को और स्पष्ट कर दिया है कि- भगवान ने छदमस्थ काल में कभी भी प्रमाद का सेवन नहीं किया था। छद्म का अर्थ होता है- दोष। यहां इसका तात्पर्य द्रव्य दोषों से नहीं, किंतु भाव दोषों से है। ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय कर्म को भाव दोष कहा है। अतः ये भाव दोष जिस आत्मा में रहे हुए हैं, उन्हें छद्मस्थ कहते हैं। और इनका क्षय कर देने पर व्यक्ति सर्वज्ञ-सर्वदशी बन जाता है। साधना काल में भगवान भी छद्मस्थ थे, इनका नाश करने के लिए वे प्रमाद का त्याग करके सदा आत्म-चिन्तन एवं संयम-साधना में संलग्न रहते थे। इस विषय को और स्पष्ट करते हुए सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहते हैं... / सूत्र // 16 // // 333 // 1-9-4-16 सयमेव अभिसमागम्म आयतयोगमायसोहीए। अभिनिव्वुडे अमाइल्ले आवकहं भगवं समियासी // 333 // Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका // 1- 9 -4 -16 (333) // 323 II * संस्कृत-छाया : स्वयमेव अभिसमागम्य, आयतयोगमात्मशुद्धया। अभिनिर्वृत्तिः अमायावी यावत् कथं भगवान् समितः आसीत् // 333 // III सूत्रार्थ : . स्वतः तत्त्व को जानने वाले भगवान महावीर अपनी आत्मा को शुद्ध कर ने के लिये त्रियोग को वश में करके कषायों से निवृत्त हो गए थे और वे समिति एवं गुप्ति के परिपालक थे। IV टीका-अनुवाद : संसार के स्वभाव को जाननेवाले स्वयंबुद्ध श्रमण भगवान् श्री महावीरस्वामीजी स्वयमेव तत्त्व को जानकर तीर्थप्रवर्तन के लिये उद्यमवाले हुए थे... ___ अन्यत्र भी कहा है कि- हे भगवान् ! इस तीन लोक में सारभूत ऐसे अनुपम शिव पद को प्राप्त करनेवाले आपको आदित्यादि नव लोकांतिक देवताओं के समूह ने कहा किहे भगवन् ! संसार के भय को छेदनेवाले तीर्थ का शीघ्र ही प्रवर्तन करो !!! / यद्यपि आप स्वयंबुद्ध हो हि, तो भी हम देवता लोग आप को नम्र भाव से यह उपरोक्त - विनंती करते हैं... लोकभाव के शाश्वत-कल्प के अनुसार यह हमारी नम्र विनंती है... इत्यादि हे भगवन् ! आप पांच समिति से समित एवं तीन गुप्तिओं से गुप्त हो ! तथा आप अमायावी हो, अक्रोधी हो, ज्ञानावरणीयादी चार घातिकर्मो के क्षयोपशमादि स्वरूप आत्मशुद्धि से मन वचन एवं काययोग का प्रणिधान करके विषय एवं कषायादि के निग्रह के द्वारा आप संवर भाववाले हो !!! V सूत्रसार : प्रस्तुत गाथा में बताया है कि- भगवान ने किसी के उपदेश से दीक्षा नहीं ली थी किंतु वे स्वयंबुद्ध थे, अपने ही सम्यग् ज्ञान के द्वारा उन्होंने साधना पथ को स्वीकार किया और राग-द्वेष मोह एवं प्रमाद का त्याग करके आत्म-चिन्तन के द्वारा चार घातिकर्मों का सर्वथा नाश करके वे सर्वज्ञ एवं सर्वदर्शी बने। साधना पथ पर चलने वाले साधक के सामने कितनी कठिनाइयां आती हैं, यह भी उनके जीवन की साधना से स्पष्ट हो जाता है। उन्होंने कह कर ही नहीं, बल्कि स्वयं संयम साधना करके यह बता दिया कि- साधक को प्राणान्त कष्ट उत्पन्न होने पर भी अपने साधना Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 324 1 -9-4 - 17(334) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन मार्ग से विचलित नहीं होना चाहिए। उसे सदा उत्पन्न होने वाले परीषहों को समभाव से सहन करना चाहिए। इस तरह भगवान महावीर समिति-गप्ति से यक्त होकर साढे बारह वर्ष तक विचरे ओर अपनी साधना के द्वारा राग-द्वेष एवं घातिकर्मों का क्षय करके सर्वज्ञ बने ओर आयु कर्म के क्षय के साथ अवशेष अघातिकर्मों का क्षय करके सिद्ध-बुद्ध एवं मुक्त हो गए। प्रस्तुत उद्देशक का उपसंहार करते हुए सूत्रकार महर्षि अंतिम सूत्र कहते हैं... I सूत्र // 17 // // 334 // 1-9-4-17 एस विहि अणुक्कतो, माहणेण मईमया / बहुसो अपडिन्नेण, भगवया एवं रीयंति त्ति // 334 // त्तिबेमि II संस्कृत-छाया : एषः विधिः अनुक्रान्त: माहनेन मतिमता। बहुश: अप्रतिज्ञेन, भगवता एवं रीयन्ते // 334 // इति ब्रवीमि II सूत्रार्थ : निदान प्रतिज्ञा से रहित एवं ऐश्वर्य संपन्न, परम मेधावी भंगवान महावीर ने उक्त विधि का अनेक बार आचरण किया और उनके द्वारा आचरित एवं उपदिष्ट इस विधि का अपने आत्म विकास के लिए अन्य साधक भी इसी प्रकार परिपालन करते हैं। इसी प्रकार मैं (सुधर्मस्वामी) हे जंबू ! तुम्हें कहता हूं। IV टीका-अनुवाद : - अब प्रथम श्रुतस्कंध के नव अध्ययन एवं उनके उद्देशकों के अर्थ का उपसंहार करते हुए ग्रंथकार महर्षि कहते हैं कि- प्रथम श्रुतस्कंध के शस्त्रपरिज्ञादि से लेकर यहां तक, जो कुछ संयमानुष्ठान का विधान कीया है, उन सभी संयमानुष्ठान को हे भगवन् ! आपने स्वयमेव ज्ञ परिज्ञा से जाना एवं आसेवनपरिज्ञा से आसेवित कीया हैं। आप मतिमान् हो, अथात् मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान एवं मन:पर्यवज्ञान स्वरूप चार ज्ञानवाले हो, अनिदान याने नियाण नहि करनेवाले हो, एवं ऐश्वर्यादि गुणवाले हो तथा इस जन्म में केवलज्ञान प्राप्त करके सकल कर्मो का क्षय कर के मोक्षपद पानेवाले हो... चरमशरीरी भगवान् श्री महावीरस्वामीजी भी स्वयमेव मोक्षमार्ग स्वरूप रत्नत्रयी की उपासना में आनेवाले परीषह एवं उपसर्गादि को जितकर संयमानुष्ठान में उद्यमवाले होते हैं, यह बात सुनकर अन्य मुमुक्षु साधु-श्रमण भी मोक्षमार्ग स्वरूप सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र में Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 3255 उद्यम करते हुए संयमानुष्ठान का आचरण कर के आत्महित करतें हैं... ___ यहां “इति" पद अधिकार की समाप्ति का सूचक है... एवं “ब्रवीमि” पद का अर्थ यह है कि- पंचम गणधर श्री सुधर्मस्वामीजी अपने अंतेवासी विनीत शिष्य जंबूस्वामीजी को कहते हैं कि- हे जंबू ! मैंने परमात्मा श्री वर्धमानस्वामीजी के मुखारविंद से श्रवण की हुइ यह सभी बातें आपके आत्महित के लिये मैं तुम्हें कहता हुं... अर्थात् इस आचारांगसूत्र में कही गइ सभी बातें सर्वज्ञकथित हैं... v सूत्रसार : प्रस्तुत गाथा का विवेचन प्रथम उद्देशक की अन्तिम गाथा में किया जा चुका है। यहां इतना ध्यान रखें कि- यह गाथा प्रस्तुत अध्ययन के चारों उद्देशकों के अंत में दोहराई गई है। इसमें 'माहणेण मईमया' विशेषण कुछ गम्भीरता को लिए हुए है। यह स्पष्ट है कि- भगवान महावीर क्षत्रिय थे, फिर भी उनको मतिमान माहण-ब्राह्मण कहा है। इससे यह ज्ञात होता है कि- उस समय ब्राह्मण शब्द विशेष प्रचलित रहा है। और इससे श्रमण संस्कृति के इस सिद्धान्त का भी स्पष्ट रूप से संकेत मिलता है कि- जन्म से कोई भी व्यक्ति ब्राह्मण नहीं होता, बल्कि कर्म से होता है। भगवान महावीर की साधना माहण की साधना थी। वे सदा अहिंसा एवं समता के झूले में झूलते रहे हैं। इसी कारण उन्हें मतिमान ब्राह्मण कहा है। कहां वैदिक यज्ञ अनुष्ठान में उलझा हुआ, हिंसक ब्राह्मण और कहा अहिंसा, दया एवं क्षमा का देवता सच्चा अहिंसक ब्राह्मण। दोनों की जीवन रेखा में आकाश-पाताल जितना अंतर है... अतः यही कारण है कि- सत्रकार ने वैदिक परम्परा में प्रचलित ब्राह्मण शब्द के सम्यग अर्थ को प्रकाशित करके घोर तपस्वी सकल जीव हितचिंतक भगवान महावीर को माहणब्राह्मण विशेषण दिया है। इसके अतिरिक्त आचारांग सूत्र में कई जगह आर्य, ब्राह्मण, मेधावी, वीर, बुद्ध, पंडित, वेदविद् आदि शब्दों का प्रयोग हुआ है। इससे यह फलित होता है किभगवान महावीर ने अहिंसक जीवन के द्वारा इन शब्दों को गौरवान्वित किया और आर्य एवं आर्यपथ को भी दिव्य-भव्य एवं उन्नत बनाया। 'त्तिबेमि' का विवेचन पूर्ववत् समझें। // इति नवमाध्ययने चतुर्थः उद्देशकः समाप्तः // सूत्रानुगम यहां पूर्ण हुआ, तथा सूत्रालापकनिष्पन्न निक्षेप एवं सूत्र स्पर्शिकनियुक्ति भी यहां समाप्त पूर्ण हुइ.... अब “नय' का कथन करते हैं... नय सात हैं... 1. नैगमनय, 2. संग्रहनय, 3. व्यवहारनय, 4. ऋजुसूत्रनय, 5. शब्दनय, 6. समभिरूढनय, एवं 7. एवंभूतनय... Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 326 श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन संमति तर्क आदि ग्रंथों में लक्षण से एवं विधान से सातों नयों के स्वरूप विस्तार से कहा गया है... अतः वहां से जानीयेगा... // इति नवमं अध्ययनं समाप्तम् // 卐卐卐 - : प्रशस्ति : मालव (मध्य प्रदेश) प्रांतके सिद्धाचल तीर्थ तुल्य शत्रुजयावतार श्री मोहनखेडा तीर्थमंडन श्री ऋषभदेव जिनेश्वर के सानिध्यमें एवं श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरिजी, श्रीमद् यतीन्द्रसूरिजी, एवं श्री विद्याचंद्रसूरिजी के समाधि मंदिर की शीतल छत्र छायामें शासननायक चौबीसवे तीर्थंकर परमात्मा श्री वर्धमान स्वामीजी की पाट-परंपरामें सौधर्म बृहत् तपागच्छ संस्थापक अभिधान राजेन्द्र कोष निर्माता भट्टारकाचार्य श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी म. के शिष्यरत्न विद्वद्वरेण्य व्याख्यान वाचस्पति अभिधान राजेन्द्रकोषके संपादक श्रीमद् विजय यतीन्द्रसूरीश्वरजी म. के शिष्यरत्न, दिव्यकृपादृष्टिपात्र, मालवरत्न, आगम मर्मज्ञ, श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम प्रकाशन के लिये राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी हिंदी टीका के लेखक मुनिप्रवर ज्योतिषाचार्य श्री जयप्रभविजयजी म. "श्रमण'' के द्वारा लिखित एवं पंडितवर्य लीलाधरात्मज रमेशचंद्र हरिया के द्वारा संपादित सटीक आचारांग सूत्र के भावानुवाद स्वरूप श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी हिंदी टीका-ग्रंथ के अध्ययनसे विश्वके सभी जीव पंचाचारकी दिव्य सुवासको प्राप्त करके परमपदकी पात्रता को प्राप्त करें... यही मंगल भावना के साथ... "शिवमस्तु सर्वजगतः" वीर निर्वाण सं. 2528. राजेन्द्र सं. 96. ॐ विक्रम सं. 2058. Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 327 श्रुतस्कध - 1 卐 उपसंहार // - यहां नैगमादि सात नयों को ज्ञाननय एवं क्रियानय में समावेश कर के टीका-वृत्तिकार श्री शीलांकाचार्यजी म. संक्षेप से नयका स्वरूप कहतें हैं... प्रस्तुत आचारांग सूत्र ज्ञाननय एवं क्रियानय स्वरूप है, और मोक्षपद ज्ञाननय एवं क्रियानय से हि प्राप्तव्य है... अतः इस आचारांग सूत्र का कथन एवं श्रवण मोक्षपद की प्राप्ति के लिये हि है. इस आचारांगसूत्र में ज्ञाननय एवं क्रियानय परस्पर सापेक्षभाव से हि रहे हुए हैं, और विवक्षित ऐसे मोक्षपद की प्राप्ति के लिये समर्थ हैं, अत: इस महाग्रंथ में जहां कहिं ज्ञान का कथन दिखाइ दे, तब वह ज्ञान, क्रिया से सापेक्ष है, ऐसा समझीएगा... और जहां जहां संयमानुष्ठान का कथन दिखाइ दे, तब वह संयमानुष्ठान सम्यग्ज्ञान से सापेक्ष है ऐसा जानीएगा... अन्यत्र भी कहा है कि- ज्ञानक्रियाभ्यां मोक्षः, अर्थात् ज्ञान एवं क्रिया के समन्वय से हि मोक्षपद प्राप्त होता है... ___ज्ञाननय का अभिप्राय यह है कि- ज्ञान हि श्रेष्ठ है, क्रिया श्रेष्ठ नहि है, क्योंकि- सभी हेय का त्याग एवं उपादेय का स्वीकार सम्यग्ज्ञान से हि शक्य है... .. जैसे कि- सुनिश्चित ज्ञान के द्वारा प्रवृत्ति करनेवाले मनुष्य को अर्थक्रिया में विसंवाद नहि होता... अन्यत्र भी कहा है कि- पुरुष को इष्ट फल की प्राप्ति सम्यग्ज्ञान से हि होती है, क्रिया से नहि... क्योंकि- मिथ्याज्ञान से प्रवृत्ति करनेवाले मनुष्य को फल की प्राप्ति में विसंवाद देखा जाता है.. इत्यादि... विषय याने हेयोपादेय की व्यवस्था निश्चित हि सम्यग्ज्ञान में रही हुइ है, और हेयोपादेय की व्यवस्था से हि सकल दु:खों का क्षय होता है... यहां अन्वय एवं व्यतिरेक दोनों स्पष्ट हि देखा जाता है, अत: ज्ञान हि श्रेष्ठ है... अन्वय इस प्रकार है.. जैसे कि- सम्यग्ज्ञान होने पर हि अनर्थ एवं संशय का यथासंभव परिहार होता है. और व्यतिरेक इस प्रकार है, जैसे कि- ज्ञान के अभाव में यदि मनुष्य अनर्थों से बचने के लिये उद्यम करे तो भी वह मनुष्य दीपक की ज्योत में पडनेवाले पतंगीये की तरह अधिकाधिक अनर्थों को हि प्राप्त करता है... Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 328 श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन आगम सूत्र में भी कहा है, कि- पढमं नाणं तओ दया अर्थात् प्रथम ज्ञान और बादमें दया... यह बात क्षायोपशमिक ज्ञान के विषय की है, और क्षायिक ज्ञान के विषय में भी यह बात सुनिश्चित हि है... क्योंकि- जो महावीरस्वामीजी देव-देवेंद्रों को भी वंदनीय है, भव-समुद्र के किनारे पे रहे हुए हैं, तथा चारित्रानुष्ठान के हेतुभूत दीक्षा ली हुइ है, तथा तीनों लोक के जीवों के बंधु हैं और तपश्चर्या के साथ संयमानुष्ठान में दृढ हैं, ऐसे वे परमात्मा भी तब मोक्षपद प्राप्त करेंगे, कि- जब उन्हें जीवाजीवादि अखिल वस्तुओं के परिच्छेद (बोध) करनेवाला केवलज्ञान प्राप्त होगा... इसी कारण से कहते हैं कि- इहलोक के एवं परलोक के फल की प्राप्ति का कारण ज्ञान हि है... इत्यादि यह निरपेक्ष ज्ञाननय का कथन यहां संक्षेप में कहा... अब निरपेक्ष क्रियानय का अभिप्राय कहतें हैं... क्रियानय माननेवाले लोग कहते हैं कि- इस लोक के एवं परलोक के फलों की प्राप्ति का कारण क्रिया हि है.. यह बात निश्चित हि युक्तियुक्त है... क्योंकि- ज्ञान अर्थक्रिया में समर्थ ऐसे पदार्थ का दर्शन-बोध करावे, किंतु प्रमाता (मनुष्य) यदि हेय एवं उपादेय स्वरूप प्रवृत्ति-क्रिया नहि करता, तब वह निष्फल हि रहता है... क्योंकि- ज्ञान का प्रयोजन अर्थक्रिया हि है, किंतु यदि जिस ज्ञान में अर्थक्रिया का असंभव हो तब वह ज्ञान विफल हि माना जाता है... .. यहां यह न्याय प्रसिद्ध है कि- जिस किसी का होना, जिस किसी कार्य के लिये विहित कीया गया है, वह कार्य-क्रिया हि उस के लिये प्रधान है, शेष सभी अप्रधान है... ज्ञान से होनेवाली हेयोपादेय स्वरूप विषय व्यवस्था भी अर्थक्रिया स्वरूप है अतः क्रिया हि श्रेष्ठ है.. तथा अन्वय एवं व्यतिरेक भी क्रिया में उपलब्ध होता है... जैसे किचिकित्सा-विधि की क्रिया करने वाला मनुष्य अभिलषित आरोग्य को प्राप्त करता है... यह अन्वय... तथा जो मनुष्य चिकित्सा विधि जानता है, किंतु जब तक उस चिकित्सा विधि को करता नहि है, तब वह मनुष्य अभिलषित आरोग्य को प्राप्त नहि कर शकता... यह व्यतिरेक... अन्यत्र भी कहा है कि- शास्त्रों का पठन करने के बाद भी मनुष्य क्रियानुष्ठान के अभाव में मूर्ख माना गया है. और क्रियानुष्ठान करनेवाला मनुष्य विद्वान माना गया है... क्यों कि- औषध का ज्ञान होने मात्र से रोगी मनुष्य आरोग्य प्राप्त नहि करता... तथा अन्यत्र लोकनीति में भी कहा गया है कि- पुरुष को क्रिया हि फल देती है... . अकेला ज्ञान सफल नहि है, जैसे कि- भोजन आदि के रस को जाननेवाला मनुष्य जब तक भोजन की क्रिया नहि करता तब तक उसे भोजन का सुख नहि मीलता... यह कैसे ? ऐसा यदि प्रश्न हो, तब कहते हैं कि- वस्तु-पदार्थ को देखने मात्र से Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 329 % 3D हि वह वस्तु-पदार्थ प्राप्त नहि होता... यह बात आबालगोपाल सभी लोगों को प्रत्यक्ष सिद्ध है, अत: यहां अन्य प्रमाण की भी आवश्यकता नहि है... तथा जन्मांतर के शुभ फल की प्राप्ति को चाहनेवाले मनुष्य को भी तपश्चर्यादि क्रिया अवश्य करनी चाहिये... . जिनेश्वरों के प्रवचन याने शासन में भी यह बात इसी प्रकार हि मानी गई है... जैसे कि- चैत्य, कुल, गण, संघ, आचार्यों के प्रवचन एवं श्रुत इत्यादि सर्वत्र, तपश्चर्या एवं संयमानुष्ठान में उद्यम करनेवाले को हि सफल माना गया है... यहां सारांश यह है कि- तीर्थंकरादि आप्त पुरुषों ने क्रिया के अभाववाले ज्ञान को अफल याने निष्फल कहा है... अन्यत्र भी कहा है कि- यद्यपि किसी मनुष्य ने बहोत सारा श्रुतज्ञान (शास्त्र) पढा है, किंतु यदि वह मनुष्य (साधु) आचार (क्रिया) से रहित है, तब उस साधु को मोक्षपद कैसे प्राप्त होगा ? जैसे कि- अंधे मनुष्य के सामने लाखों-करोडों दीपक जलाएं तब भी क्या वह अंध मनुष्य इष्टार्थ की प्राप्ति कर शकता है ? अर्थात् उसे इष्टार्थ की प्राप्ति नहि होगी... यहां सारांश यह है कि- ज्ञान के साथ क्रिया अवश्य होनी चाहिये... क्रिया के अभाव में ज्ञान सर्वथा निष्फल हि है... यह क्रियानुष्ठान मात्र क्षायोपशमिक ज्ञान से हि श्रेष्ठ है, इतना हि नहि किंतु क्षायिक भाव के ज्ञान से भी क्रियानुष्ठान बढकर श्रेष्ठ है... जैसे कि- तेरहवे गुणस्थानक में जीवाजीवादि सकल पदार्थों के स्वरूप को प्रगट करनेवाला केवलज्ञान प्राप्त होने पर भी शुक्लध्यान के व्युपरतक्रियानिवर्ति स्वरूप चतुर्थ भेद की क्रिया के अभाव में भवोपग्राहि अघातिकर्मों का विच्छेद नहि होता... और जब तक चार अघातिकर्मो का विच्छेद न हो, तब तक आत्मा को मोक्षपद की प्राप्ति नहि होती... इसीलिये हम कहते हैं कि- अकेला ज्ञान श्रेष्ठ नहि है, किंतु क्रिया हि श्रेष्ठ है... क्योंकि- क्रिया से हि इस लोक के एवं परलोक के इष्टार्थ फल की प्राप्ति होती है... अतः क्रिया हि श्रेष्ठ माननी चाहिये... . इति निरपेक्ष ज्ञाननय एवं क्रियानय का संवाद... अब सापेक्ष नयवाद कहते है... यहां सारांश यह है कि- सम्यग्ज्ञान के बिना सम्यक् क्रिया का अभाव होता है, और सम्यक्रिया के अभाव में सम्यग्ज्ञान निष्फल हि है... इत्यादि युक्तिओं को निरपेक्ष ज्ञाननय एवं निरपेक्ष क्रियानय के विधान को सुनकर मुग्धशिष्य प्रश्न करता है कि- हे गुरुजी ! यहां तत्त्व कया है ? तब गुरुजी कहते हैं कि- हे विनीत शिष्य ! आप मुग्ध है, अतः विस्मरणशील Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 330 श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन हैं... जरा याद करो, कि- आप को हम पहले हि कह चूकें हैं कि- ज्ञाननय एवं क्रियानय परस्पर सापेक्ष होते हैं, तब हि सकल कर्मो के मूल का विच्छेद कर के मोक्षपद प्राप्ति का हेतु बनतें हैं... जिस प्रकार चारों तरफ अग्नि की ज्वालाओं से प्रदीप्त नगर में एक अंध मनुष्य एवं एक पंगु (लंगडा) मनुष्य दुःखी हो रहे थे, किंतु जब उन दोनों ने परस्पर एक-दुसरे का सहयोग लिया तब उस नगर से बाहर निकल कर निराबाध अर्थात् सुरक्षित स्थान को प्राप्त कीया... __अन्यत्र भी कहा है कि- ज्ञान एवं क्रिया के समन्वय में हि सफलता देखी जाती है... स्वतंत्र ज्ञान एवं स्वतंत्र क्रिया कहिं पर भी सफलता को प्राप्त नहि करतें, यह बात हर जगह प्रसिद्ध हि है... कहा भी है कि- अकेला ज्ञान निष्फल है, और अकेली क्रिया भी निष्फल है, किंतु जब ज्ञान एवं क्रिया का समन्वय होता है, तब हि विश्व में सफलता प्राप्त होती है... जैसे कि- अंध मनुष्य एवं पंगु मनुष्य परस्पर एक-दुसरे के सहकार से हि नगर की आग में अकाल मरण से बचकर दीर्घकाल तक जीवित रहे... आगमग्रंथों में भी सभी नयों के उपसंहार में यह हि बात कही है कि- परस्पर सापेक्षभाववाले नय हि सफल है... सभी नयों की अनेक प्रकार की वक्तव्यता को सुनकर जो साधु सम्यग्ज्ञान के द्वारा में स्थिर होता है, वह हि साधु सर्वनयविशुद्ध मोक्षमार्ग में उत्तरोत्तर आगे बढता हुआ क्रमशः परमपद-मोक्षपद को प्राप्त करता है... सम्यग्ज्ञान एवं सम्यक्रिया के समन्वय स्वरूप यह आचारांग सूत्र निश्चित हि मोक्षमार्ग को अच्छी तरह से जाननेवाले गीतार्थ साधुओंको भव-समुद्र तैरने के लिये समर्थ अखंड यानपात्र याने जहाज के समान श्रेष्ठ मानागया यह भव-समुद्र कैसा है ? इस प्रश्न के उत्तर में कहते हैं कि- जहां मिथ्या-श्रुत स्वरूप नदीओं का अवतरण है, तथा क्रोधादि कषाय स्वरूप जलचर जीवों का समूह यत्र तत्र सर्वत्र आवागमन करतें हैं, तथा इष्ट वियोग एवं अनिष्ट संयोगादि स्वरूप अनेक कष्टों के आगमन स्वरूप महावत है, तथा मिथ्यात्व स्वरूप पवन से भय, शोक, हास्य, रति एवं अरति इत्यादि तरंग उत्पन्न होते हैं... तथा विश्रसा परिणाम स्वरूप वेला याने भरती-ओट से युक्त है... तथा सेंकडों व्याधि स्वरूप मगरमच्छ जीवों से व्याप्त है... तथा भय को उत्पन्न करनेवाले महागंभीर ध्वनि (आवाज) वाला है, और देखने मात्र से हि त्रास देनेवाला यह भव-समुद्र अत्यधिक भयानक है... अतः आत्यंतिक एवं ऐकांतिक अनाबाध अर्थात् निश्चित हि सभी प्रकार की पीडाओं Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 331 से रहित, शाश्वत, अनंत, अजर, अमर, अक्षय, अव्याबाध एवं राग-द्वेषादि सभी द्वन्द्वों से रहित, परमार्थ से परमकार्य स्वरूप एवं अनुत्तम इत्यादि अनंत गुणगण वाले मोक्षपद को चाहनेवाले एवं सम्यग्-दर्शन-ज्ञान-व्रतचरणक्रिया-कलापवाले साधुओं को यह आचारांग सूत्र सदा आलंबन करने योग्य है... सम्यग्ज्ञान एवं सम्यक्रिया स्वरूप ब्रह्मचर्य नामवाले इस प्रथम श्रुतस्कंध की टीका स्वरूप व्याख्या निर्वृत्तिकुल के शीलाचार्यजी (शीलांकाचार्यजी) ने वाहरि नाम के मुनिपुंगव की सहायता से परिपूर्ण की है... श्री शीलाकांचार्यजी का दुसरा नाम तत्त्वादित्य था... गुप्त संवत्सर 772 वर्ष में भादरवा सुदी पंचमी गंभूता (गांभू) गांव में श्री शीलांकाचार्यजी ने यह टीका बनाइ है... श्री शीलांकाचार्यजी सज्जनों से नम्र निवेदन करते हुए कहते हैं कि- मात्सर्यादि दोष नहि करनेवाले आर्य सज्जन लोगों को मैं नम्र निवेदन करता हूं कि- इस महाग्रंथ की व्याख्याटीका में जहां कहिं क्षति-त्रुटि रही हो, तो उस क्षति का संशोधन कर के पढीएगा... श्री शीलांकाचार्यजी कहते हैं कि- आचारांग सूत्र की टीका-व्याख्या बनाकर जो कुछ पुण्य प्राप्त हुआ हो, उस पुण्य से यह संपूर्ण जगत (विश्व) पंचाचार स्वरूप सदाचार के द्वारा अतुल निर्वाण पद को प्राप्त करें... इस आचारांगसूत्र की टीका-व्याख्या बनाते हुए मैंने जहां कहि वर्ण, पद, वाक्य एवं पद्य आदि की टीका-व्याख्या न की हो, तो उन वर्णादि को सज्जन लोग स्वयं या अन्य गीतार्थ गुरूजी से समझ लें... क्योंकि- छद्मस्थ ऐसा मैं संपूर्ण ज्ञानी तो नहि हुं... इत्यादि... // इति ब्रह्मचर्य-श्रुतस्कन्धः // राजेन्द्र सुबोधनी “आहोरी” हिन्दी-टीकायाः लेखन-कर्ता ज्योतिषाचार्य श्री जयप्रभविजयजित् “श्रमण' : प्रशस्ति : सुधर्मस्वामिनः पट्टे सप्त षष्टितमे शुभे। सुधर्मस्वामी श्रीमद् विजयराजेन्द्र - सूरीश्वरः समभवत् . // 1 // राजेन्द्रसूरि विद्वद्वर्योऽस्ति तच्छिष्यः श्रीयतीन्द्रसूरीश्वरः / श्रमण" "श्रमण'' इत्युपनाम्नाऽस्ति तच्छिष्यश्च जयप्रभः // 2 // जयप्रभः "दादावाडी'ति सुस्थाने जावरा-नगरेऽन्यदा / दादावाडी स्फु रितं चेतसि श्रेयस्करं आगमचिन्तनम् // 3 // जावरा. म.प्र. Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 332 श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन "हिन्दी''ति राष्ट्र भाषायां सटीक श्चेत् जिनागमः / राष्ट्रभाषा लभ्यते क्रियते वा चेत् तदा स्यादपकारकः // 4 // "हिन्दी" साम्प्रतकालीनाः . जीवाः दु:षमारानुभावतः / मन्दमेधाविनः सन्ति तथाऽपि मुक्तिकाङ्क्षिणः / / 5 / / अतस्तदुपकाराय देवगुरुप्रसादतः / मोहनखेडा-तीर्थ मोहनखेट के तीर्थे विजया-दशमी-दिने // 6 // आसो सुद-१० निस रस-बाण-शून्य-नेत्रतमेऽब्दके / वि.सं. 2056 प्रारब्धोऽयमनुवादः स्वपरहितकाम्यया // 7 // युग्मम् अविघ्मे च तत्रैव गुरुसप्तमी-पर्वणि / पोष सुद-७ सप्तविंशतिमासाऽन्ते परिपूर्णोऽभवत् शुभः // 8 // वि.सं. 2058 आहोर-ग्राम-वास्तव्यः श्राद्धः श्रद्धालुभिः जनैः / सम्मील्य दत्तद्रव्येण ग्रन्थः प्रकाश्यते महान् / / 9 / / तेम "आहोरी''ति सज्ञा टीकायाः दीयते मुदा / दो, श्रूयतां पठ्यतां भव्यैः गम्यतां मुक्ति-धाम च // 10 // सम्पादितश्च ग्रन्थोऽयं “हरिया' गोत्रजन्मना / “हरिया" विदुष्या साधनादेव्या प्रदत्तसहयोगतः // 11 // रमेशचंद्र सात्मजेन निमेषेण ऋषभेणाऽभयेन च / विज्ञ-रमेशचन्द्रेण लीलाधरात्मजेन भोः ! // 12 // युग्मम् ग्रन्थप्रकाशने चाऽत्र वक्तावरमलात्मजः / “मुथा" आहोर-ग्राम-वास्तव्यः “मुथा" श्री शान्तिलालजित् // 13 // शांतिलालजी मन्त्री च योऽस्ति भूपेन्द्र-सूरि साहित्य-मण्डले / आर्थिक व्यवस्था तेन कृता सद्गुरुसेविना // 14 // युग्मम् .. ग्रन्थमुद्रणकार्यं च "दीप-ओफ्सेट' स्वामिना / नीलेश-सहयोगेन हितेशेन कृतं मुदा // 15 // पाटण अक्षराणां विनिवेशः देवनागरी-लिपिषु / उ. गुजरात “मून-कम्प्यूटर'' स्वामि-मनोजेन कृतः हृदा // 16 // युग्मम् आचाराङ्गाऽभिधे ग्रन्थे भावानुवादकर्मणि / आचारांगसूत्र चेत् क्षतिः स्यात् तदा भोः ! भोः ! शुद्धीकुर्वन्तु सजनाः // 17 // Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 333 श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका "आहोरी" नाम-टीकायाः लेखनकार्यकुर्वता / अर्जितं चेत् मया पुण्यं सुखीस्युः तेन जन्तवः // 18 / / ग्रन्थेऽत्र यैः सहयोगः प्रदत्तोऽस्ति सुसजनैः / तान् तान् कृतज्ञभावेन स्मराम्यहं जयप्रभः // 19 / / : अन्तिम-मङ्गल : जुन वर्धमानाद्याः अर्हन्तः परमेश्वराः / जयन्तु गुरु-राजेन्द्र-सूरीश्वराः गुरुवराः // 20 // जयन्तु गुरुदेवाः हे ! श्रीयतीन्द्रसूरीश्वराः ! / जयन्तु साधवः ! साध्व्यः ! श्रावकाः ! श्राविकाश भोः ! // 21 // सर्वेऽपि सुखिनः सन्तु सर्वे सन्तु निरामयाः / __ सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चित् दुःखभाग् भवेत् // 22 // : : प्रशस्ति : मालव (मध्य प्रदेश) प्रांतके सिद्धाचल तीर्थ तुल्य शत्रुजयावतार श्री मोहनखेडा तीर्थमंडन श्री ऋषभदेव जिनेश्वर के सांनिध्यमें एवं श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरिजी, श्रीमद् यतीन्द्रसूरिजी, एवं श्री विद्याचंद्रसूरिजी के समाधि मंदिर की शीतल छत्र छायामें शासननायक चौबीसवे तीर्थंकर परमात्मा श्री वर्धमान स्वामीजी की पाट-परंपरामें सौधर्म बृहत् तपागच्छ संस्थापक अभिधान राजेन्द्र कोष निर्माता भट्टारकाचार्य श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी म. के शिष्यरत्न विद्वद्वरेण्य व्याख्यान वाचस्पति अभिधान राजेन्द्रकोषके संपादक श्रीमद् विजय यतीन्द्रसूरीश्वरजी म. के शिष्यरत्न, दिव्यकृपादृष्टिपात्र, मालवरत्न, आगम मर्मज्ञ, श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम प्रकाशन के लिये राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी हिंदी टीका के लेखक मुनिप्रवर ज्योतिषाचार्य श्री जयप्रभविजयजी म. “श्रमण' के द्वारा लिखित एवं पंडितवर्य लीलाधरात्मज रमेशचंद्र हरिया के द्वारा संपादित सटीक आचारांग सूत्र के भावानुवाद स्वरूप श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी हिंदी टीका-ग्रंथ के अध्ययनसे विश्वके सभी जीव पंचाचारकी दिव्य सुवासको प्राप्त करके परमपदकी पात्रता को प्राप्त करें... यही मंगल भावना के साथ... "शिवमस्तु सर्वजगत:" . वीर निर्वाण सं. 2528. // राजेन्द्र सं. 96. विक्रम सं. 2058. Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 334 श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन % 3D श्री आचाराङ्गसूत्रस्य प्रथमश्रुतस्कन्धान्तर्गत 6-7-8-1 अध्ययनानां निर्युक्तयः 240 (अध्ययन-६) पढमे नियगविहुणणा कम्माणं बितियए तइयगंमि / उवगरणसरीराणं चउत्थए गारवतिगस्स // 241 उवसग्गा सम्माणयविहूआणि पंचमंमि उद्देसे। दव्वधूयं वत्थाई भावधूयं कम्म अट्ठविहं / / 242 अहियासित्तुवसग्गे दिव्वे माणुस्सए तिरिच्छे य। जो विहूणइ कम्माई भावधूयं तं वियाणाहि // (सप्तममध्ययनं व्युच्छिन्नम्) यहां गाथांक 350 से 356 तक है... अतः वहां देखें... 243 (अध्ययन-८) असमणुन्नस्स विमुक्खो पढमे बिइए अकप्पियविमुक्खो। पडिसेहणा य रुट्ठस्स चेव सब्भावकहणा य॥ 244 . तइयंमि अंगचिट्ठाभासिय आसंकिए य कहणा य। सेसेसु अहिगारो उवगरणसरीरमुक्खेसु॥ 245 उद्देसंमि चउत्थे वेहाणसगिद्धपिट्ठमरणं च। पंचमए गेलन्नं भत्तपरिन्ना च होइ बोद्धव्वं / 246 छटुंमि उ एगत्तं इंगिणिमरणं च होइ बोद्धव्वं / सत्तमए पडिमाओ पायवगमणं च नायव्वं / / . 247 अणुपुत्विविहारीणं भत्तपरिन्ना य इंगिणीमरणं / पायवगमणं च तहा अहिगारो होइ अट्ठमए।। Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 335 248 नामंठवणविमुक्खो दव्वे खित्ते य काल-भावे य। एसो उ विमुक्खस्स निक्खेवो छव्विहो होइ। 249 दुविहो भावविमुक्खो देसविमुक्खो य सव्वमुक्खो य। देसविमुक्खा साहू सव्वविमुक्खा भवे सिद्धा / / 250 कम्मयदव्वेहिं समं संजोगो होइ जो उ जीवस्स। सो बंधो नायव्वो तस्स विओगो भवे मुक्खो। 251 जीवस्स अत्तजणिएहिं चेव कम्मेहिं पुव्वबद्धस्स। सव्वविवेगो जो तेण तस्स अह इत्तिओ मुक्खो। 252 भत्तपरिन्ना इंगिणि पायवगमणं च होइ नायव्वं / जो मरइ. चरिममरणं भावविमुक्खं वियाणाहि / / 253 सपरिक्कमे य अपरिक्कमए य वाघाय आणुपुव्वीए। सुत्तत्थजाणएण समाहिमरणं तु कायव्वं / / 254 सपरक्कममाएसो जह मरणं होइ अज्जवइराणं / पायवगमणं च तहा एवं सपरक्कमं मरणं / / 255 अपरक्कममाएसो जह मरणं होइ उदहिनामाणं / पाओवगमेऽवि तहा एयं अपरक्कम मरणं / / 256 वाघाइयमाएसो अवरद्धो हुज अन्नतरेण जं। तोसलि महिसीइ हओ एयं वाघाइयं मरणं / / 257 आनुपब्विगमाएसो पव्वजासुत्तअत्थकरणं च। वासोजओ(य)निन्तो मुक्को तिविहस्स नीयस्स / / Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 336 श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन 258 पडिचोइओ य कुविओ रण्णो जह तिक्ख सीयला आणा। तंबोले य विवेगो घट्टणया जा पसाओ च। 259 निप्फाईया य सीसा सउणी जह अंडगं पयत्तेणं / बारससंवच्छरियं सो संलेहं अह करेइ / / 260 चत्तारि विचित्ताई विगईनिजूहियाइं चत्तारि। संवच्छरे य दुन्नि उ एगंतरियं तु आयामं / / 261 नाइविगिट्ठो उ तवो छम्मासे परिमियं तु आयामं / अन्नेऽपि य छम्मासे होइ विगि तवोकम्मं / / 262 वासं कोडीसहियं आयाम काउ आनुपुव्वीए। गिरिकंदरंमि गंतुं पायवगमणं अह करेइ॥ 263 कह नाम सो तवोकम्मपंडिओ जो न निच्चुज्जुत्तप्पा। लहुवित्तीपरिक्खेवं न वच्चइ जेमंतओ चेव ? // 264 आहारेण विरहिओ अप्पाहारो य संवरनिमित्तं। हासंतो हासंतो एवाहारं निरंभिज्जा। 265 (अध्ययन-९) जो जइया तित्थयरो सो तइया अप्पणो य तित्थंमि। वण्णेइ तवोकम्म ओहाणसुयंमि अज्झयणे। 266 सव्वेसि तवोकम्मं निरुवसगं तु वण्णियं जिणाणं। नवरं तु वद्धमाणस्स सोवसग्गं मुणेयव्वं // 267 तित्थयरो चउनाणी सुरमहिओ सिज्झियव्वो य धुवम्मि। अणिगूहियबलविरिओ तवोविहाणंमि उज्जमइ॥ Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 337 268 किं पुण अवसेसेहिं दुक्खक्खयकारणा सुविहिएहिं। होइ न उज्जमियव्वं सपच्चवायंमि माणुस्से ? // 269 चरिया 1 सिज्जा 2 य परीसहा 3 य आयंकियाए चिगिच्छा 4 य। तवचरणेणाऽहिगारो चउसुद्देसेसु नायव्वो। 270 नामंठवणुवहाणं दव्वे भावे य होइ नायव्वं / एमेव य सुत्तस्सवि निक्खेवो चउव्विहो होइ।। 271 . दव्वुवहाणं सयणे भावुवहाणं तवो चरित्तस्स। तम्हा उ नाणदंसणतवचरणेहिं इहाहिगयं / 272 जह खलु मइलं वत्थं सुज्झइ उदगाइएहिं दव्वेहिं। एवं भावुवंहाणेण सुज्झइ से कम्ममट्ठविहं / / 273 ओधूणण धूणण नासण विणासणं झवण खवण सोहिकरं। छेयण भेयण फेडण डहणं धुवणं च कम्माणं / / .274 एवं तु समणुचिन्नं वीरवरेणं महानुभावेणं। जं अणुचरित्तु धीरा सिवमचलं जन्ति निव्वाणं / / 275 'सव्वेसिपि नयाणं बहुविहं वत्तवयं निसामेत्ता। तं सव्वणयविसुद्धं जं चरणगुणट्ठिओ साहु॥ त्ति' // इति प्रथमश्रुतस्कंधस्य नियुक्तिः // Page #367 -------------------------------------------------------------------------- _ Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आचाराङ्ग सूत्रम् श्री राजेन्द्र सुबोधनी “आहोरी" हिन्दी टीका द्वितीय वाचना:- उडीसा, श्रमण भगवान् महावीर निर्वाण के 300 वर्ष पश्चात् तृतीय वाचना:- मथुरा, श्रमण भगवान महावीर निर्वाण के 827 वर्ष पश्चात् / प्रथम वाचना:- पाटलीपुत्र, श्रमण भगवान् महावीर निर्वाण के 160 वर्ष पश्चात् do चतुर्थ वाचना:- वल्लभीपुर में पंचम वाचना:- वल्लभीपुर में भगवान तृतीय वाचना के समकालीन महावीर के निर्वाण के 980 वर्ष बाद -: प्रकाशक:श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी हिन्दी टीका, श्रीभूपेन्द्रसूरि साहित्य समिति मंत्री शान्तिलाल वक्तावरमलजी मुथा मु. पो. आहोर, वाया जवाईबाँध, जालोर (राज.)