________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका // 1-6-5-1(207) 77 3. विमर्श से... चाणक्य से प्रेरित चंद्रगुप्त राजा ने धर्म परीक्षा के लिये अंत:पुर की रानिओं के द्वारा धर्म-उपदेश दे रहे साधु को उपसर्ग करवाया; तब साधु ने उन रानिओं को दंडे से ताडन कीया और श्रीगृह उदाहरण से राजा चंद्रगुप्त को प्रतिबोधित कीया... 4. कुशील प्रतिसेवन... किसी गृहस्थ के घर में कोइ दिन किसी साधु ने उतारा (निवास) कीया तब ईर्यालु उस गृहस्थ ने प्रोषितभर्तृका याने जिनके पति परदेश गये है; ऐसी चार स्त्रीओं के द्वारा संपूर्ण रात्रि में एक एक प्रहर में एक एक स्त्री को भेजने के द्वारा अनुकूल उपसर्ग करवाया... तब वह साधु स्त्रिओं के अनुकूल उपसर्ग में काम-विकारों के आधीन न हुआ, किंतु मेरु पर्वत की तरह धर्मध्यान में अचल रहा... निष्प्रकंप याने स्थिर रहा... तथा तिर्यंच प्राणीओं के द्वारा भी चार प्रकार के उपसर्ग होते हैं... 1. भय, 2. प्रद्वेष, आहार, 4. अपत्यसंरक्षण... 1. भय से... सर्प आदि से... 2. प्रद्वेष से... श्री महावीर प्रभु को चंडकौशिक सर्प से.... 3. आहारादि कारण से... सिंह वाघ आदि से... 4. अपत्यसंरक्षण के कारण से... कौवे (कागडी) आदि से... इत्यादि... - इस प्रकार उपर कही गइ विधि से होनेवाले उपसर्गों से जन याने लोक लूषक होतें हैं... अथवा उन गांव-नगर आदि स्थानों में रहे हुए या विहार करते हुए साधुओं को कठोर स्पर्श के संवेदन स्वरूप स्पर्श होतें हैं और उनके चार प्रकार हैं... जैसे कि घट्टनता... आंख में कचरा-रज आदि से... 2. पतनता... भ्रमि याने चक्कर आना तथा मूर्छा आदि से गिर पडना... 3. स्तंभनता... वायु आदि से... 4. श्लेषणता... तालु पात से या अंगुली आदि से... अथवा वात-पित्त-श्लेष्म आदि के क्षोभ याने विषमता से साधुओं को कठोर स्पर्श का वेदन होता है... अथवा निष्किंचनता याने अपरिग्रहता के कारण से तृणस्पर्श, दंशमशक, शीत, उष्ण आदि के कठोर स्पर्श दुःख याने पीडा दायक होते हैं... ___ अत: इस प्रकार परीषह एवं उपसर्गों से होनेवाले कठोर स्पर्शों को धीर साधु प्रशमभाव से सहन करे... क्योंकि- साधु इस परिस्थिति में विचारता है कि- यह दु:ख (कष्ट) नरक की अपेक्षा से तो अल्प हि है... और यदि मैं कर्मो के विपाक से आये हुए इन कष्टों को