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________________ 781 -6-5-1(207) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन अभी प्रशमभाव से सहन नहि करुंगा तो, कभी न कभी नरकादि गति में जाकर मुझे इन कर्मो के फलों को भुगतना तो पडेगा हि... ऐसा सोचकर मुनी उपस्थित परीषह एवं उपसर्गों के कष्टों को प्रशमभाव से सहन करतें हैं... तथा वह साधु केवल (मात्र) स्वयं हि उन परीषहादि के कष्टों को सहन नहि करतें, किंतु धर्मोपदेश देने के द्वारा अन्य साधुओं को भी परीषहादि कष्ट सहन करने के लिये उत्साहित करतें हैं... जैसे कि- रागादि के अभाव से कोई एक साध शमितदर्शन याने सम्यगदष्टि याने उपशांत अध्यवसाय वाला होकर उपसर्गादि के कठोर स्पर्शों को सहन करता है, और अन्य जीवों के प्रति करुणा-दया-भाववाला होकर धर्म का स्वरूप भी कहता है... जैसे कि- द्रव्य से जीवों की विभिन्न परिस्थिति को देखकर... क्षेत्र से... पूर्व पश्चिम उत्तर दक्षिण आदि दिशाओं के विभाग से विभिन्न क्षेत्रों को जानकर, सभी जीवों के उपर दया-भाववाला होकर धर्मोपदेश देता है... तथा काल से... जीवन पर्यंत... और भाव से... राग-द्वेष का त्याग करके साधु इस प्रकार कहे कि- इस विश्व में सभी जीव दु:खों से बचकर सुखों को हि प्राप्त करना चाहते हैं, अतः अपने आपके आत्मा की समान सभी जीवों को देखीयेगा... कहा भी है कि- जो आचरण अपने आपको प्रतिकूल हो, वह आचरण अन्य जीवों के प्रति न करें... यह हि सभी धर्मो का सार है... इत्यादि... तथा धर्म का उपदेश देने के वख्त साधु द्रव्य, क्षेत्र, काल एवं भाव की विवक्षा करके विभिन्न प्रकार से धर्मोपदेश दें... तथा आक्षेपणी विक्षेपणी संवेदनी एवं निर्वेदनी प्रकार से धर्मकथा कहें... अथवा प्राणातिपातविरमण, मृषावादविरमण, अदत्तादानविरमण मैथुन विरमण, परिग्रहविरमण एवं रात्रिभोजनविरमण इत्यादि प्रकार से धर्म का उपदेश दें... अथवा आगमशास्त्र को जाननेवाला वह साधु यह सोचे कि- यह श्रोता पुरुष कौन है ? कौन से देवता को मानता है ? तथा अभिगृहीत याने अपने माने हुए विचार में कदाग्रहवाला है; या अनभिगृहीत याने आग्रह के अभाववाला हैं ? इत्यादि प्रकार से श्रोता को विभक्त करे... तथा व्रतानुष्ठान का स्वरूप एवं फल कहे... __ यहां नागार्जुनीय-मतवाले कहते हैं कि- जो यह बहुश्रुत साधु (श्रमण) उदाहरण एवं हेतु कहने में कुशल है तथा धर्मकथा की लब्धि से संपन्न है, वह साधु क्षेत्र, काल, भाव एवं पुरुष को प्राप्त करके सोचे कि- यह पुरुष कौन है ? अथवा कौन से दर्शन-मत को माननेवाला है...? इत्यादि तथा उस पुरुष के गुण, जाति, कुल, वंश आदि को अच्छी तरह से जान-पहचार कर धर्मोपदेश देने के लिये तत्पर हो... तथा जिनमत एवं अन्य मत के शास्त्रो को जानने वाला वह साधु यह देखे कि- यह साधुजन पार्श्वनाथ प्रभु के संतानीय साधु हैं; अतः चार यामवाले धर्माचरण में तत्पर है, तब उन्हे श्री महावीर प्रभु के तीर्थ में होनेवाले पांच याम (महाव्रत)वाला धर्म कहे... अथवा अपने शिष्यों को अज्ञात-शास्त्रों के बोध के लिये धर्मोपदेश दे... तथा अनुत्थित याने श्रावकों को,
SR No.004437
Book TitleAcharang Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages368
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size8 MB
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