________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1-6-5- 1 (207) 79 कि- जो धर्म का स्वरूप सुनने की इच्छावाले हो, और गुरुजनों की सेवा करतें हो, उनको संसार समुद्र तैरने के लिये रत्नत्रय स्वरूप मोक्षमार्ग का उपदेश दे... वह इस प्रकार... शमनं याने शांति अर्थात् अहिंसा, तथा विरति याने मृषावाद विरमणादि शेष व्रतों का स्वरूप कहे... तथा क्रोध के निग्रह से उपशम भाव... इस उपशम पद से उत्तरगुणों का संग्रह कीया गया है... तथा निर्वृत्ति याने निर्वाण-मोक्षपद... मूल एवं उत्तर गुणों से इस जन्म में एवं जन्मांतर में होनेवाले मोक्ष पर्यंत के फलों का वर्णन करें... तथा शौच याने सभी प्रकार से विशुद्ध अर्थात् निर्दोष प्रकार से व्रतों का समाचरण... आर्जव याने माया एवं कपट का त्याग... मार्दव याने मान-अभिमान एवं अक्कडता का त्याग... लाघव याने बाह्य एवं अभ्यंतर परिग्रह का त्याग... इत्यादि धर्म... का स्वरूप आगमसूत्र की मर्यादा में रहकर हि सभी प्राणी-जीवों को अनुग्रह बुद्धि से कहें.... दश प्रकार के द्रव्य प्राणों को धारण करे वे प्राणी... यहां प्राणी शब्द से संज्ञी पंचेंद्रिय जीवों का ग्रहण कीया है... तथा भूत याने मुक्ति में जाने के लिये जो योग्य हैं; वे भूत... तथा जीव.याने संयम जीवन से हि जीने की इच्छावाले हैं वे जीव... तथा सत्त्व याने मोक्ष के लिये सत्त्व-पराक्रमवाले... अर्थात् तिर्यंच मनुष्य एवं देव इस संसार में अनेक प्रकार के कष्टों से पीडित हैं, अत: करुणा भावना से उन जीवों को क्षमा आदि दशविध धर्म का यथायोग्य स्वरूप स्व-परोपकार में तत्पर कथालब्धिवाला भिक्षु याने साधु कहते हैं... अब सूत्रकार महर्षि आगे के सूत्र से धर्मोपदेश की विधि कहेंगे... v सूत्रसार : ... चतुर्थ उद्देशक में गौरव (रस, साता और ऋद्धि) के त्याग का उपदेश दिया गया है।' परन्तु, इन पर विजय पाने के लिए कष्ट सहिष्णु होना आवश्यक है। परीषहों के उपस्थित होने पर भी जो समभाव पूर्वक अपने मार्ग पर बढ़ता रहता है, वही गौरवों का त्याग कर सकता है। अतः प्रस्तुत उद्देशक में परीषहों पर विजय पाने का या शीत-उष्ण, भूख-प्यास आदि के कष्ट उपस्थित होने पर भी संयम में स्थिर रहने का उपदेश देते है... ___ संसार में विभिन्न प्रकृतियों के प्राणी हैं। क्योंकि- सब प्राणियों के कर्म भिन्न हैं और कर्मों के अनुसार स्वभाव बनता-बिगड़ता है। कषाय के उदय भाव से जीवन में क्रोध, लोभ आदि की भावना उद्बुद्ध होती है इससे स्पष्ट है कि- अपने कृत कर्म के अनुसार प्राणी संसार में प्रवृत्त होता है। सभी प्राणियों के कर्म भिन्न भिन्न है, इसलिए उनके स्वभाव एवं कार्य में भी भिन्नता दिखाई देती है। हम देखते हैं कि- कुछ मनुष्य दूसरे को परेशान करने एवं दुःख देने में आनन्द अनुभव