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________________ 801 - 6 - 5 - 2 (208) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन करते हैं। यहां तक कि- वे सन्त-पुरुषों को कष्ट पहुंचाने से भी नहीं चूकते हैं। मुनियों को देखते ही उनके मन में द्वेष की आग प्रज्वलित हो उठती है और वे उन्हें पीड़ा पहुंचाने का प्रयत्न करते हैं, उपाय सोचते हैं और अनेक तरह के कष्ट देते हैं। ऐसे समय में भी मुनि अपने स्वभाव का अर्थात् प्रशमभाव की साधना का त्याग न करे। उन कठोर स्पर्शों एवं दुःखों से घबराकर उन पर मन से भी द्वेष न करे, उन्हें कटु वचन न कहें और उन्हें अभिशाप भी न दे, किंतु शान्त भाव से उन्हें सहन करते हुए संयम का पालन करे। यदि उचित समझे तो उन्हें भी धर्म का, शान्ति का उपदेश देकर सन्मार्ग पर लाने का प्रयत्न करे। . . मुनि जीवन की उदारता एवं विराटता को बताते हुए प्रस्तुत सूत्र में यह महत्त्व पूर्ण बात कही गई है कि- मुनि सभी जीवों पर दया भाव रखे। वह उपकारी एवं अनुपकारी, अमीर एवं गरीब, धर्मनिष्ठ एवं पापी, ब्राह्मण एवं शूद्र आदि में किसी भी प्रकार का भेद भाव नहीं . करते हुए, सभी जीवों का कल्याण करने की तथा विश्वबन्धुत्व की भावना से सभी को सन्मार्ग दिखाने का प्रयत्न करे। उसके इस उपदेश का क्षेत्र कोई शहर विशेष या स्थान विशेष नहीं, किंतु सूत्रकार की भाषा में पूर्व-पश्चिम, उत्तर-दक्षिण आदि सभी दिशाएं-विदिशाएं हैं। वह किसी स्थान विशेष का आग्रह न रखते हुए, जहां भी आवश्यकता का अनुभव करता है, वहीं उपदेश की धारा बहाने लगता है। उसका उपदेश व्यक्ति विशेष एवं जाति विशेष के लिए नहीं, किंतु जीव मात्र के लिए होना चाहिए। तथा किसी जाति, धर्म, पंथ एवं सम्प्रदाय विशेष को नहिं किंतु अपने हित के साथ मानव मात्र का एवं प्राणी जगत का हित साधने कला वह साधु है। अत: वह सभी को समभावपूर्वक अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह और क्षमा, शान्ति, आर्जव आदि धर्मों का उपदेश देकर प्राणी जगत को कल्याण का मार्ग बताता है, सभी को जीओ और जीने दो का मन्त्र सिखा कर सुख-शान्ति से जीना सिखाता है। प्रस्तुत सूत्र में प्रयुक्त प्राणी, भूत, जीव, सत्त्व का अर्थ है- 10 प्राण धारण करने वाले संज्ञी पञ्चेन्द्रिय प्राणी तथा जिस भव्य जीव में मोक्ष जाने की योग्यता है, वे भूत कहलाते हैं, संयम-निष्ठ जीवन जीनेवाले जीव और तिर्यञ्च, मनुष्य एवं देव सत्त्व कहे गए हैं। इससे स्पष्ट हो जाता है कि- साधु संसार के सभी प्राणियों की रक्षा एवं दया के लिए प्रशमभाव से सभी को उपदेश दे। यहां यह प्रश्न हो सकता है कि- ऐसा उपदेष्टा किसी पंथ या सम्प्रदाय पर आक्षेप कर सकता है या नहीं ? इसका समाधान करते हुए सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहते हैं... / सूत्र // 2 // // 208 // 1-6-5-2 अणुवीइ भिक्खू धम्माइक्खमाणे नो अत्ताणं आसाइज्जा, नो परं आसाइज्जा, नो अण्णाइं पाणाइं भूयाइं जीवाई सत्ताइं आसाइज्जा, से अणासायए अणासायमाणे
SR No.004437
Book TitleAcharang Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages368
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size8 MB
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