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________________ 66 1 -6-4-4 (204) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन साधु सामान्य मनुष्यों से भी निंदनीय बनते हैं... तथा बार बार जहां जन्म-मरण होता है; ऐसे (अरघट्ट-घटी-यंत्र के न्याय से) संसार-चक्र में घूमते रहते हैं... तथा अध: याने जघन्य संयमस्थान में रहे हुए वे विद्या के अभाव में भी “हम विद्यावाले हैं" इत्यादि प्रकार से अपना उत्कर्ष-अभिमान दिखातें हैं... अपने मुंह से हि अपने खुद की प्रशंसा करते हैं... तथा अत्यल्प श्रुतज्ञान को जानता हुआ वह साधु रसगारव, ऋद्धिगारव एवं साता गारव की बहुलता से कहता है कि- मैं हि यहां बहुश्रुत हुं, यह बात आचार्य भी जानते हैं... और वह श्रुत भी मैंने थोडे हि दिनो में पढा है... इत्यादि प्रकार से वह आत्मश्लाघा करता है... तथा मात्र आत्मश्लाघा से हि संतुष्ट नहि होता, किंतु अन्य साधुओं की निंदा भी करता है... जैसे कि- उदासीन याने राग-द्वेष रहित मध्यस्थ तथा बहुश्रुत एवं उपशांत ऐसे उत्तम साधुजन जब कभी उस साधु की स्खलना (गलती) होने पर कुछ हितशिक्षा देतें हैं; तब वह साधु उन उत्तम साधुओं को कठोर वचन से कहता है कि- पहले आप स्वयं हि कृत्य एवं अकृत्य को जानो, बाद में दुसरों को उपदेश देना... तथा ऐसा भी कहे कि- “तुम भी ऐसे हो, वैसे हो” इत्यादि निंदा करता है... अथवा अन्य प्रकार से कुंट मुंट आदि शब्दों-वचनों से या मुखविकारादि से अतथ्य याने जुठ हि दोषारोपण करता है... इत्यादि... . अब इस सूत्र का उपसंहार करते हुए सूत्रकार महर्षि कहते हैं कि- यह वाच्य है, या अवाच्य... इत्यादि का मुमुक्षु-साधु विवेक करे, एवं वह मर्यादास्थित मेधावी साधु श्रुतधर्म तथा चारित्र धर्म को अच्छी तरह से जाने... अब असभ्यवाद में प्रवृत्त उस बाल याने अज्ञानी पासत्थादि साधु को आचार्यादि गुरुजी जिस प्रकार अनुशासन करतें हैं, हितशिक्षा देतें हैं; वह बात सूत्रकार महर्षि आगे के सूत्र से कहेंगे... v सूत्रसार : यह हम देख चुके हैं कि- ज्ञान प्राप्ति के लिए विनय की आवश्यकता है। परन्तु, उसके साथ निष्ठा-श्रद्धा का होना भी आवश्यक है। कुछ साधक ज्ञान की प्राप्ति के लिए आचार्य एवं गुरू को यथाविधि वन्दन-नमस्कार करते हैं। परन्तु, गुरू के प्रति श्रद्धा भाव नहीं रखते। अत: उनका विनय या वन्दन केवल दिखावा मात्र होता है; परिणाम स्वरूप वे अपनी ज्ञान साधना में सफल नहीं होते हैं। उनके हृदय में श्रद्धा नहीं होने के कारण उनका मन साधना में नहीं लगता है। इस तरह वे संयम से भ्रमित हो जाते हैं। और अपने दोषों को छुपाने के लिए महापुरुषों की निन्दा करके पापकर्म का बन्ध करते हैं और जन्म-मरण के प्रवाह को बढ़ाते हैं। वे अज्ञानी व्यक्ति अपने आपको सब से श्रेष्ठ समझते हैं। वे अपने आप को सब
SR No.004437
Book TitleAcharang Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages368
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size8 MB
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