________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1-6-4 - 5 (205) 67 में अधिक ज्ञानी, ईमानदार एवं चरित्रवान समझते हैं। वे आचार निष्ठ महापुरुषों की सदा आलोचना करते रहते हैं। उनके जीवन में से दोषों का अन्वेषण करने में ही संलग्न रहते हैं। सदा गुरुजनों पर व्यंग करते हैं तथा शारीरिक इशारों के द्वारा उनका उपहास करते हैं। इस प्रकार महापुरुषों की निन्दा करके वे संसार में परिभ्रमण करते रहते हैं। __ अतः साधक को ऐसे पासत्थाओं का त्याग करके श्रद्धापूर्वक ज्ञान एवं क्रिया तथा आचार एवं विचार की साधना करनी चाहिए। आचार एवं विचार से संपन्न साधक ही आत्मा का विकास कर सकता है। ज्ञान से रहित केवल आचार का पालन करने वाले तथा क्रियाकाण्ड से शून्य केवल (मात्र) ज्ञान की साधना में संलग्न साधक यथार्थ रूप से आत्मा का विकास नहीं कर सकते हैं। ज्ञान और क्रिया की समन्वित साधना के अभाव में साधक भ्रमित हो सकता है और वह भगवदाज्ञा के विपरीत चलकर संसार को भी बढ़ा सकता है। इसी बात को दिखाते हुए सूत्रकार महर्षि सुधर्म स्वामी आगे का सूत्र कहतें हैं... I सूत्र // 5 // // 205 // 1-6-4-5 अहम्मट्ठी तुमंसी नाम बाले आरंभट्ठी अनुवयमाणे हण पाणे घायमाणे हणओ यावि समणुजाणमांणे, घोरे धम्मे, उदीरिए उवेहए णं अणाणाए, एस विसण्णे वियद्दे वियाहिए त्तिबेमि // 205 // .. // संस्कृत-छाया : अधर्मार्थी त्वं असि नाम बाल: आरम्भार्थी अनुवदन्-जहि प्राणिनः, घातयन् प्रतच अपि समनुजानासि, घोरः धर्मः उदीरितः उपेक्षते अनाज्ञया, एषः विषण्णः वितर्दः व्याख्यातः इति ब्रवीमि // 205 // // सूत्रार्थ : __संयम से पतित होते हुए शिष्य के प्रति गुरु कहते हैं- हे शिष्य ! तू अधर्मार्थी है, बाल है और आरम्भ में प्रवृत्त हो रहा है। हिंसक पुरुषों के वचनों का अनुसरण करके तू भी कहता है कि- प्राणियों का अवहनन-घात करो और तू दूसरों से हनन करवाता है तथा हिंसा करने वालों को अच्छा भी समझता है, अत: तू बाल है। आश्रवों का निरोधक होने के कारण से ही भगवान ने धर्म को घोर-दुरनुचर कहा है। किन्तु, तू उस धर्म की उपेक्षा करता है, भगवान की आज्ञा के विरुद्ध आचरण करने से तू स्वेच्छाचारी बन गया है। इन पूर्वोक्त कारणों से तथा काम-भोगों में आसक्त और संयम से प्रतिकूल आचरण करने के कारण तू हिंसक कहा गया है। इस प्रकार मैं कहता हूं।