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________________ 68 1 -6-4-5(205) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन - IV टीका-अनुवाद : हे श्रमण ! आप अधर्म की कामना करते हो; अतः हम आपको हितशिक्षा देते हैं, अनुशासन करतें हैं... जैसे कि- आप अधर्म के अर्थी हो, अतः आप बाल (अज्ञानी) हो, एवं बाल हो; इस कारण से हि आप सावद्यारंभ याने पापाचरण की कामना करते हो... और सावद्यारंभ के अर्थी हो, इस कारण से आप प्राणीओं के मर्दन याने वध की बातें करते हो... जैसे कि- इन प्राणी-जीवों को मारो... और अन्य लोग यदि जीवों को मारतें हो, तब आप उनकी अनुमोदना करते हो... तथा तीन गारव में आपको आसक्ति होने के कारण से आप पचन-पाचनादि याने रसोइ बनाने की क्रिया में प्रवृत्त लोगों के समक्ष कहते हो कि- “इस में क्या दोष है ?" क्योंकि- शरीर के सिवा धर्मानुष्ठान कर नहि शकतें, अत: इस कारण से धर्माचरण के आधारभूत इस शरीर का यत्न से पालन-रक्षण करना चाहिये... इत्यादि... अन्यत्र भी कहा है कि- धर्माचरण करनेवाले शरीर का प्रयत्न के साथ रक्षण करना चाहिये... क्योंकि- जिस प्रकार बीज से अंकुर उत्पन्न होता है; वैसे हि शरीर से धर्म होता है... इत्यादि... ___अब गुरुजी कहते हैं कि- हे श्रमण ! यह धर्म घोर याने दुर्गम है, अर्थात् सभी आश्रवों के निरोध से धर्म होता है; अत: धर्म दुरनुचर याने दुर्लभ है... यह बात तीर्थंकर एवं गणधर आदिने कही है... इत्यादि ऐसे अशुभ अध्यवसाय (विचार) वाले होकर यदि तुम धर्मानुष्ठान की उपेक्षा करते हो और तीर्थंकर एवं गणधरादि की आज्ञा का उल्लंघन करके अपनी इच्छानुसार चलते हो, यह ठीक नहि है... यह यहां कहे गये स्वरूपवाला वह अधर्मार्थी बाल एवं आरंभार्थी साधु प्राणीओं का वध करता है, अन्य के द्वारा प्राणीओं का वध करवाता है, तथा प्राणीओं का वध करनेवालों की अनुमोदना करता है तथा धर्मानुष्ठान की उपेक्षा करनेवाला वह साधु काम-भोगादि में खेद पाता है, और विविध प्रकार से प्राणीओं की हिंसा करता हुआ, संयम से सर्वथा प्रतिकूल है अर्थात् संयमाचरण के लिये योग्य नहि है... इत्यादि यह मैंने जो कुछ यहां कहा उसको हे श्रमण ! आप जानो. समझो... आप समझदार हो. अतः मैं पनः पनः कहता है कि- मेधावी ऐसे आप धर्म को अच्छी तरह से जानो और संयमाचरण का आदर करो... यह बात सूत्रकार महर्षि आगे के सूत्र से विशेष प्रकार से कहेंगे... v सूत्रसार : जब साधक साधना पथ से एक बार फिसलने लगता है, तो बीच में उचित सहयोग न मिलने पर या मोहकर्म के उदय के कारण फिर वह पुनः पुनः फिसलता हि जाता है। उसका पतन यहां तक हो जाता है कि- वह अन्य हिंसक प्राणियों की तरह आरम्भ-समारम्भ में संलग्न यह भ
SR No.004437
Book TitleAcharang Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages368
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size8 MB
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