________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1 - 6 - 4 - 6 (206) 69 किमा रहने लगता है। अपनी भोगतृष्णा को पूरा करने के लिए वह हिंसा, झूठ आदि दोषों का सेवन करने लगता है। वह विषय-कषाय में आसक्त होकर धर्म से सर्वथा विमुख हो जाता है और इससे पाप कर्म का बन्ध करके संसार में परिभ्रमण करता है। ___गुरुजी अपने शिष्य को जागृत करते हुए कहते हैं कि- हे आर्य ! तुझे संयम पथ से भ्रमित व्यक्ति के दुःखद एवं अनिष्टकर परिणाम को जानकर सदा संयम साधना में संलग्न रहना चाहिए। संयम पथ से भ्रमित व्यक्ति को अधर्मी, स्वेच्छाचारी तथा भगवान की आज्ञा से बाहर एवं संसार में परिभ्रमण करने वाला कहा गया है। अतः मुमुक्षु पुरुष को सदा शुद्ध संयम का परिपालन करना चाहिए। ___ गुरुजी द्वारा दी जाने वाली विशेष शिक्षा का उल्लेख करते हुए सूत्रकार महर्षि सुधर्म स्वामी आगे का सूत्र कहते हैं... I सूत्र // 6 // // 206 // 1-6-4-6 किमणेण भो ! जणेण करिस्सामित्ति मण्णमाणे एवं एगे वइत्ता मायरं पियरं हिच्चा नायओ य परिग्गहं वीरायमाणा समुट्ठाए अविहिंसा सुव्वया दंता पस्स दीणे अप्पइए पडिवयंमाणे वसट्टा कायरा जणा लूसगा भवंति, अहगमेगेसिं सिलोए पावए भवइ, से समणो भवित्ता विन्भंते पासहेगे समण्णागएहिं सह असमण्णागए नममाणेहिं अनममाणे विरएहिं अविरए दविएहिं अदविए अभिसमिच्चा पंडिए मेहावी निट्ठिय? वीरे आगमेणं सया परक्कमिज्जासि त्तिबेमि // 206 // II संस्कृत-छाया : किं अनेन भोः ! जनेन करिष्यामि इति मन्यमानः, एवं एके उदित्वा मातरं पितरं हित्वा ज्ञातीन्ः च परिग्रहं वीरायमाणाः समुत्थाय अविहिंसाः सुव्रताः दान्ताः, पश्य दीनान् उत्पतितान् प्रतिपततः, वशार्ताः कातराः जनाः लूषकाः भवन्ति, अहं एकेषां श्लोकः पापकः भवति, सः श्रमणः भूत्वा विभ्रान्तः विभ्रान्तः, पश्यत एके समन्वागतैः सह असमन्वागताः नमद्भिः सह अनमन्तः, विरतैः सह अविरताः द्रव्यभूतैः सह अद्रव्यभूताः, अभिसमेत्य पण्डित: मेधावी निष्ठितार्थः वीरः आगमेन सदा परिक्रामयः इति ब्रवीमि // 206 // III सूत्रार्थ : सुधर्मा स्वामी कहते हैं कि- हे जम्बू ! कई पुरुष प्रथम संयम मार्ग की आराधना में सम्यक् प्रकार से उद्यत होकर पीछे से किस प्रकार उसका परित्याग करके प्राणियों के विनाश