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________________ 70 1 -6-4-6 (206).y श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन में प्रवृत्त हो जाते हैं। वह इस प्रकार कहता है कि- हे लोगो ! मुझे इन संबन्धि जनों से क्या प्रयोजन है ? ऐसा मानकर वह दीक्षित होता है, माता-पिता और सम्बन्धि जनों तथा अन्य प्रकार के परिग्रह को त्यागकर वीर पुरुष की भांति आचरण करते हुए सम्यक् प्रकार से संयमानुष्ठान में प्रवृत्त होकर अहिंसक वृत्ति से व्रतों का परिपालन करने और इन्द्रियों को दमन करने में सदा सावधान रहता है। परन्तु, पीछे से किसी पाप के उदय में दीक्षा को छोड़कर, संयम को त्यागकर वह दीनता को धारण कर लेता है। अपने त्यागे हुए विषय भोगों को फिर से ग्रहण करने लगता है। गुरु कहते हैं कि- हे शिष्य ! तू ऐसे पतित पुरुषों को देख, कि जो इन्द्रियजन्य विषय और कषायों के वश में होकर आर्त दुःखी बन गए हैं। वे परीषहों को सहन करने में कायर होने से व्रतों के विध्वंसक बन रहे हैं। वे श्रमण होकर तथा विरत एवं त्यागी बनकर भी यश के स्थान में अपयश को ही प्राप्त करते हैं। वे विनयशील साधकों के साथ रहकर भी अविनयी, विरतों के सहवास में रहकर भी अविरति, उद्यत विहारीयों के साथ रहकर भी शिथिल विहारी बन जाते हैं; एवं मुक्ति गमन योग्य व्यक्तियों के साथ बसकर भी वे मुक्तिगमन के योग्य नहीं रहते हैं। अत: मेधावी-विचारशील साधु इनको अच्छी तरह से देख कर वीर पुरुष की भांति विषय भोगों से सर्वथा विमुख होकर आगम के अनुरूप क्रियानुष्ठान-साधना का पालन करने में सदा संलग्न रहे। इस प्रकार में कहता हूं। IV टीका-अनुवाद : कितनेक मनुष्य विदितवेद्य याने सम्यग्दर्शन के साथ वीर की तरह पराक्रम करते हुए सम्यग् उत्थान के द्वारा संयम को स्वीकार करके पुनः प्रमाद वश होकर जीवों का वध करनेवाले होतें हैं... वह इस प्रकार- कोइक मनुष्य धर्मकथा सुनकर ऐसा सोचता है कि- स्वार्थ में परायण एवं परमार्थ से अनर्थ रूप ऐसे माता-पिता पुत्र एवं स्त्री आदि से क्या ? क्योंकि- वे लोग रोग एवं मरण आदि को निवारण करने में समर्थ तो नहि है, अत: इनका त्याग करके मैं प्रव्रज्या ग्रहण करूं... इत्यादि सोचनेवाले मनुष्य को अन्य कोइ मनुष्य कहे कि- सिकता याने रेत के कवल के समान इस चारित्र से भी आपको क्या लाभ होगा ? अतः अदृष्ट याने भाग्य से प्राप्त भोजन आदि को अभी भुगतो... इत्यादि सुनकर पुन: वह विरक्त मनुष्य कहता है किमुझे इन भोजन आदि से भी क्या प्रयोजन है ? क्योंकि- संसार में परिभ्रमण करते हुए मैंने यह भोजनादि अनेक बार भुगते है, तो भी मुझे तृप्ति तो हुइ नहि है... अत: इस जन्म में इन भोजन आदि को भुगतने से क्या मुझे तृप्ति होगी ? इत्यादि प्रकार से सोचनेवाले कितनेक मनुष्य संसार के अनित्य-अशरण स्वभाव को जानकर माता-पिता आदि की अनुमति लेकर तथा प्रथम के एवं बाद के संबंधि ज्ञातिजनो का त्याग करके, और धन, धान्य, हिरण्य, सुवर्ण, दास, दासी, गाय, बैल, हाथी, घोडे आदि परिग्रह का त्याग करके वीर पुरुष की तरह पराक्रम करता हुआ सम्यक् प्रकार से संयमानुष्ठान के द्वारा संसार का त्याग करके विविध प्रकार से
SR No.004437
Book TitleAcharang Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages368
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size8 MB
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