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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1-6-4-4 (204) 65 II - संस्कृत-छाया : नमन्तः वा एके जीवितं विपरिणामयन्ति स्पृष्टाः वा एके निवर्तन्ते, जीवतस्यैव कारणात्, निष्क्रान्तमपि तेषां दुनिष्क्रान्तं भवति, बालवचनीयाः खलु ते नराः, पुनः पुनः जाति प्रकल्पयन्ति, अधः सम्भवन्तः विद्रायमाणाः वयं स्मः इति व्युत्कर्षयेयुः, उदासीनाः परुषं वदन्ति, पलितं प्रकथयेत् अन्यथा प्रकथयेत्, अतथ्यैः तं वा मेधावी जानीयात् धर्मम् // 204 // III. सूत्रार्थ : श्री सुधर्मा स्वामी कहते हैं कि- हे जम्बू ! कई एक साधक पुरुष श्रुतज्ञान के लिए आचार्यादि को भाव रहित नमस्कार करते हुए परीषहों से स्पर्शित होने पर केवल असंयमअसंयत जीवन के लिए संयममय जीवन का परित्याग कर देते हैं। अतः उनका संसार से निकलना श्रेष्ठ नहीं कहलाता है। वे बाल अर्थात् प्राकृत जनों द्वारा भी निन्दा के पात्र बनते हैं और चार गति रूप संसार में परिभ्रमण करते हैं। संयम स्थान से नीचे गिरते हुए अथवा अविद्या के वशीभूत होकर वे अपने आप को परम विद्वान् मानते हुए तथा मैं परम शास्त्रज्ञ अथवा बहुश्रुत हूं, इस प्रकार आत्मश्लाघा में प्रवृत्त हुए अभिमानी जीव, मध्यस्थ पुरुषों को भी कठोर वचन कहते हैं एवं निन्दा करते हैं, तथा गुरुजनों की अवहेलना भी करते हैं। अत: बुद्धिमान पुरुष, श्रुत और चारित्र रूप धर्म को एवं वाच्य और अवाच्य भावों को भी भलीभांति जानने का प्रयत्न करे। IV टीका-अनुवाद : श्रुतज्ञानादि प्राप्ति के लिये आचार्यादि गुरुजी को नमस्कार करते हैं, किंतु अशुभ कर्मो के उदयमें वे सभी पासत्थादि साधु अपने आत्मा को संयम जीवन से भ्रमित करतें हैं, अर्थात् वे सच्चारित्र से रहित होकर अपने आत्मा का विनाश करतें हैं... तथा कितनेक साधु अपरिकर्मित मतिवाले होने के कारण से तीन गारव में आसक्त रहते हैं, और परीषह-उपसर्ग आने पर संयम जीवन से निवृत्त होते हैं अर्थात् साधुवेश का विसर्जन करतें हैं, क्योंकि- अब उन्हे असंयमवाला जीवन पसंद है, वे सोचते हैं कि- असंयमाचरण याने गृहस्थ जीवन में हम सुख से रहेंगे... तथा चारित्रभाव से रहित जो साधु वेश में रहे हुए हैं उनकी स्थिति ऐसी होती है कि- साधु होते हुए भी असाधु हैं... क्योंकि- वे सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र स्वरूप मोक्षमार्ग के लिये हि गृहवास से निकले थे; किंतु मोक्षमार्ग में सही ढंग से चल न पाने के कारण से उनका गृहवास का त्याग निष्फल हि रहा... इस विषम स्थिति में रहे हुए वे पासत्थादि
SR No.004437
Book TitleAcharang Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages368
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size8 MB
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