________________ 64 // 1-6-4 - 4 (204) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन पासत्थादि साधु स्वयं हि आचार मार्ग से भ्रमित हुए हैं, और अन्य को भी शंका उत्पन्न करने के द्वारा संयम-मार्ग से भ्रमित करतें हैं... इत्यादि... तथा अन्य कितनेक साधु बाह्य क्रिया अनुष्ठानवाले होते हुए भी विवेक के अभाव में अपने आपकी आत्मा का विनाश करतें हैं; यह बात आगे के सूत्र से कहते हैं... V सूत्रसार : ज्ञान, दर्शन, चारित्र की समन्वित पंचाचारात्मक संयम-साधना से मोक्ष की प्राप्ति होती है। अतः जीवन विकास के लिए रत्न-त्रय की साधना महत्त्वपूर्ण है। इनमें ज्ञान और दर्शन सहभावी हैं, दोनों एक साथ रहते हैं। सम्यग् ज्ञान के साथ सम्यग् दर्शन एवं सम्यग् दर्शन के साथ सम्यग् ज्ञान अवश्य होगा। परन्तु, ज्ञान और दर्शन के साथ चारित्र हो भी सकता है और कभी नहीं भी होता। किन्तु सम्यक् चारित्र के साथ सम्यग् ज्ञान और दर्शन अवश्य होगा। उनके अभाव में चारित्र सम्यक् नहीं रह सकता है। अतः सम्यग् ज्ञान के अभाव में वह चारित्र, मिथ्या चारित्र ही कहलाएगा। इससे स्पष्ट हो जाता है कि- सम्यग् ज्ञान युक्त चारित्र का ही महत्त्व है। अतः यदि कोई व्यक्ति चारित्र मोहकर्म के उदय से संयम का त्याग भी कर देता है। परन्तु, श्रद्धा-ज्ञान एवं दर्शन का त्याग नहीं करता है, तो वह संयम से गिरने पर भी 'मोक्ष मार्ग से सर्वथा भ्रमित नहीं होता है। वह साधु संयम का त्याग करने पर भी आचार एवं विचार निष्ठ मुनियों की निन्दा एवं अवहेलना नहीं करता है। वह उन्हें आदर की निगाह से देखता है। क्योंकि- उसकी विवेक दृष्टि पूरी तरह से अभी भी स्पष्ट हि है। परन्तु, जो अज्ञानी है अर्थात् ज्ञान एवं दर्शन का भी त्याग कर चुके हैं, वे धोबी के कुत्ते की तरह न घर के रहते हैं और न घाट के। वे अपने अवशिष्ट जीवन में आर्तध्यान के साथ साथ चारित्र-निष्ठ उत्तम पुरुषों की निन्दा करके अन्य लोगों की श्रद्धा-निष्ठा को भी भमित करते हैं। इसी बात को और स्पष्ट करते हुए सूत्रकार महर्षि सुधर्म स्वामी आगे का सूत्र कहतें हैं... I सूत्र // 4 // // 204 // 1-6-4-4 नममाणा वेगे जीवियं विप्परिणामंति, पुट्ठा वेगे नियटॅति जीवियस्सेव कारणा, निक्खंतं पि तेसिं दुण्णिक्खंतं भवइ, बालवयणिज्जा हु ते नरा, पुणो पुणो जाई पकप्पिंति, अहे संभवंता विद्दायमाणा अहमंसीति विउक्कसे उदासीणे फरुसं वयंति, पलियं पकत्थे अदुवा पकत्थे अतहेहिं, तं वा मेहावी जाणिज्जा धम्मं // 204 //