________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1-6-4 - 3 (203) 63 मूर्खता करते हैं और फिर महापुरुषों पर झूठा दोषारोपण करके दूसरी मूर्खता करते है। इस प्रकार वे पतन के महागर्त में जा पड़ते हैं। अतः मुमुक्षु पुरुष को किसी भी संयम-निष्ठ पुरुष की अवहेलना नहीं करनी चाहिए। इस संबन्ध में सूत्रकार महर्षि सुधर्म स्वामी आगे का सूत्र कहते हैं... I सूत्र // 3 // // 203 // 1-6-4-3 नियट्टमाणा वेगे आयारगोयरमाइक्खंति, णाणभट्ठा सणलूसिणो // 203 / / II संस्कृत-छाया : .. निवर्तमानाः वा एके आचारगोचरं आचक्षते। ज्ञानभ्रष्टाः सम्यग्दर्शनध्वंसिनः // 203 // III सूत्रार्थ : कुछ साधक मुनि वेश का त्याग करने पर भी आचार संपन्न मुनियों का आदर करते हैं, वे संयम निष्ठ मुनियों की निन्दा नहीं करते। परन्तु, अज्ञानी पुरुष ज्ञान एवं दर्शन-श्रद्धा दोनों के विध्वंसक होते हैं। IV टीका-अनुवाद : कितनेक साधु विषम कर्मो के उदय से संयम से याने साधुवेश से निवृत्त होने पर भी, अथवा “वा” शब्द से साधुवेश में रहे हुए वे साधु यथावस्थित आचार-विधि कहतें हैं... और वे कहते हैं कि- हम यह आचार पालने में समर्थ नहि हैं... किंतु आचार तो यह हि है... इत्यादि कहनेवाले उन पासत्थादि साधुओं की दुसरी बालता याने अज्ञानता-मूर्खता प्रगट नही होती है... तथा वे ऐसा कभी भी नहिं कहतें कि- "हम जो आचार पालतें है, वह हि संयमाचरण है..." किंतु- दुःषम याने पांचवे आरे के प्रभाव से अब हमे बालता याने मूर्खता को छोडकर मध्यम ऐसा यह आचारानुष्ठान करना कल्याणकर है... क्योंकि- अभी हमारे लिये उत्सर्ग मार्ग का अवसर नहि है... अन्यत्र भी कहा है कि- वह सच्चा सारथी है कि- जो घोडों को न तो अति खींच के रखे या न तो अधिक शिथिल छोडे किंतु घोडे जिस प्रकार मार्ग में आसानी से चले, वह हि प्रकार इष्ट नगर में पहुंचने के लिये योग्य है... किंतु जो साधु, जहां आचार मार्ग में भग्न हुआ है, और वहां से निकलने का मार्ग न जानता हो, तथा प्राप्त साधुवेष को छोडना न चाहता हो, वह हि अपने तुटे-फुटे सातिचार मार्ग को हि श्रेष्ठ कहता है... तथा विवेक की विकलता एवं सम्यग्दर्शन के अभाव में वे