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________________ 62 // 1-6-4-2(202) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन III सूत्रार्थ : आचार निष्ठ, उपशांत कषाय वाले और ज्ञान पूर्वक संयम में संलग्न साधक को दुराचारी कहना यह उस मन्द बुद्धि एवं बाल अज्ञानी साधक की दूसरी मूर्खता है। IV टीका-अनुवाद : . शील याने अट्ठारह हजार शीलांग रथ, अथवा महाव्रतों की आचरणा, इंद्रियजय, कषायनिग्रह एवं तीन गुप्ति से गुप्त इत्यादि सत्तरह (17) प्रकार के संयमाचरण स्वरूप शीलवाले, तथा कषायों के उपशम से उपशांत... यहां शीलवंत कहने से हि उपशांत पद का अर्थ आ जाता है, फिर भी कषायों के निग्रह की प्रधानता कहने के लिये उपशांत पद का प्रयोग कीया गया है... अतः ऐसी संख्या याने प्रज्ञा से संयमानुष्ठान में पराक्रम करनेवाले वे साधु होतें हैं, उनमें से कोइ साधु यदि विहारादि श्रम या वृद्धत्व या रोगादि कारणों से मंद हो, तब वे गर्व से अंध बने हुए दुर्विदग्ध पार्श्वस्थादि साधु कहते हैं कि- यह साधु कुशील है... अथवा कोइ मिथ्यादृष्टि मनुष्य, उन शीलवंत साधुओं को कुशील कहे; तब वे पसत्यादि भी उनकी हा में हा मीलाते हुए कहे कि- हां ! यह सभी साधु कुशील है... इस प्रकार उन पासत्थाओं की यह दुसरी अज्ञानता है... मूर्खता है... अथवा कोई अन्य मनुष्य कहे कि- यह साधुलोग शीलवंत हैं... यह उपशांत हैं.. इत्यादि... तब वे मूर्ख-अज्ञानी पासत्थादि साधु कहे कि- बहोत सारे पुस्तक-वस्त्र आदि उपकरणवाले इन साधुओं की शीलवत्ता कहां है ? या उपशांतता भी कहां है ? इत्यादि प्रकार से निंदा करनेवाले उन पासत्थाओं की यह दुसरी अज्ञता-मूर्खता है... तथा अन्य कितनेक साधु ऐसे भी होते हैं कि- स्वयं वीर्यांतराय के उदय से संयमाचरण में शिथिल हो, किंतु अन्य संयमी साधुओं की प्रशंसा करते हुए यथावस्थित आचार को कहतें हैं... यह बात अब सूत्रकार महर्षि आगे के सूत्र से कहेंगे... V सूत्रसार : जीवन का अभ्युदय ज्ञान, आचार एवं कषायों की उपशांतता पर आधारित है। ज्ञान एवं आचार संपन्न पुरुष विषय-विकारों पर विजय पा सकते हैं। वे उदय में आये हुह कषायों को भी उपशांत कर सकते हैं। अत: ऐसे साधक ही आत्म विकास कर सकते हैं। किंतु कुछ व्यक्ति संयम-साधना के पथ को स्वीकार करते हैं, परन्तु मोहोदय के करण वे संयम से गिर जाते हैं। वे साधक अपने दोषों को न देखकर शुद्ध संयम में संलग्न अन्य मुमुक्षु साधकों की अवहेलना करते हैं। वे पासत्थादि साधु उन्हें दुराचारी, पाखण्डी, मायाचारी एवं कपटी आदि बताकर उनका तिरस्कार करते हैं। इस तरह वे अज्ञानी साधु संयम का त्याग करके पहली
SR No.004437
Book TitleAcharang Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages368
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size8 MB
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