________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1-6- 4 - 2 (202) 61 अभिमान और विनय का परस्पर मेल नही बैठता है। अभिमानी व्यक्ति गुरु का, आचार्य का एवं वरिष्ठ पुरुषों का आदर-सत्कार एवं विनय नहीं कर सकता है। तथा आगम का ज्ञान प्राप्त करके भी वह ज्ञान के मद में गुरु के उपकार को भी भूल जाता है। वह उपशम का त्याग करके कठोरता को धारण कर लेता है। उपशम का अर्थ है विषय-विकारों को शान्त करना। यह उपशम द्रव्य और भाव से दो प्रकार का है। पानी में मिली हुई मिट्टी को उससे अलग करने के लिए उस में कतक-फल का चूर्ण डालते हैं; या फिटकरी फेरते हैं, जिससे मिट्टी नीचे बैठ जाती है और पानी साफ हो जाता है। यह द्रव्य उपशम है। तथा उदय में आये हुए कषायों को ज्ञान के द्वारा उपशांत करना यह भाव उपशम है। जैसे वायु के प्रबल झोंकों से शान्त पानी में लहरें उठने लगती हैं, उसी तरह मोह के उदय से आत्मा में भी विषमता एवं विषय-विकारों की तरंगें उछल-कूद मचाने लगती हैं तब वह साधु तीर्थंकर, आचार्य आदि महापुरुषों की अवज्ञा करने लगता है। वह साता-सुख; रस एवं ऋद्धि इन तीन गारवों के वश में होकर किसी की भी परवाह नहीं करता है और अपने आपको सब से अधिक योग्य समझने लगता है। वे गर्विष्ठ साधु आगमों का अध्ययन संयम में संभवित दोषों को दूर करके शुद्ध संयम का परिपालन करने की दृष्टि से नहीं, किंतु केवल अपनी प्रतिष्ठा बढ़ाने एवं दूसरों पर अपना प्रभाव डालने के लिए ही सत्राध्ययन करते हैं। अत: ज्यों ही उनका थोडा-सा अध्ययन होता है; त्यों ही वे एकदम मेंडकों की तरह उछल-कूद मचाने लगते हैं। ऐसे अभिमानी एवं अविनीत शिष्य अपने गुरु एवं अन्य वरिष्ठ पुरुषों की अवहेलना करने में भी संकोच नहीं करते हैं। वे गर्विष्ठ साधु अपने गच्छ के अन्य साधुओं के साथ भी शिष्टता का व्यवहार नहीं करते हैं। उन्हें भी वे कठोर शब्द बोलते रहते हैं। इसी बात को बताते हुए सूत्रकार महर्षि सुधर्म स्वामी आगे का सूत्र कहते हैं... सूत्र // 2 // // 202 // 1-6-4-2 सीलमंता उवसंता संखाए रीयमाणा असीला अणुवयमाणस्स बिइया मंदस्स बालया // 202 // II संस्कृत-छाया : शीलवन्त: उपशान्ता: सङ्ख्यया रीयमाणाः, अशीला: अनुवदत: द्वितीया मन्दस्य बालता // 202 //