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________________ 126 ॥१-८-२-५(२१९)卐 श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन महर्षि आगे के सूत्र से कहेंगे... V सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में प्रस्तुत अध्ययन के प्रथम उद्देशक के १६४वें सूत्र में उल्लेखित विषय को दोहराया गया है। इसका विवेचन उक्त स्थान पर किया जा चुका है, अत: हम यहां पुनः कहना उचित नहीं समझते अतः पाठक गण वहीं देख लें। समनोज्ञ साधु को समनोज्ञ साधु के साथ कैसा बर्ताव रखना चाहिए, इस बात को बताते हुए सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहते हैं... I सूत्र // 5 // // 219 // 1-8-2-5 धम्ममायाणह पवेइयं माहणेण मइमया समणुण्णे समणुण्णस्स असणं वा जाव कुजा वेयावडियं परं आढायमाणे तिबेमि // 219 // II संस्कृत-छाया : धर्मं जानीत प्रवेदितं माहणेन मतिमता समनोज्ञः समनोज्ञाय अशनं वा यावत् कुर्यात् वैयावृत्त्यं परं आद्रियमाणः इति ब्रवीमि // 219 // ' III सूत्रार्थ : द आर्य ! तू सर्वज्ञ भगवान महावीर द्वारा प्ररूपित धर्म को समझ। उन्हों ने कहा है कि- समनोज्ञ साधु समनोज्ञ साधु को आदरपूर्वक आहार आदि पदार्थ दें और उनकी सेवाशुश्रूषा भी करे। ऐसा मैं हे जम्बू ! तुम्हें कहता हूं। IV टीका-अनुवाद : मतिमता याने केवलज्ञानी श्री वर्धमानस्वामीजी ने कहे हुए दान-धर्म को आप जानों... जैसे कि- समनोज्ञ याने उद्यतविहारी साधु, दुसरे समनोज्ञ याने चारित्रशील संविग्न सांभोगिक एवं एक सामाचारीवाले साधु को आहारादि एवं वस्त्रादि दे तथा निमंत्रण करें या और भी सुंदर अंगमर्दनादि वैयावच्च करे... किंतु जो ऐसे गुणवान् नहि है ऐसे गृहस्थ या कुतीर्थिक या पासत्थादि... कि- जो असंविग्न है एवं असमनोज्ञ हैं... उनको आहारादि एवं वस्त्रादि न दें... यावत् वैयावच्च भी न करें, किंतु साधु अतिशय आदरवाला होकर अन्य समनोज्ञ साधुओं को क्रिया-अनुष्ठानादि में शिथिलता-मंदता आने पर उनकी सेवा-वैयावच्च करें... इस प्रकार गृहस्थादि एवं कुशीलादि का त्याग कहा... किंतु यहां इतना यह विशेष है कि-गृहस्थों के यहां से जो कुछ एषणीय आहारादि प्राप्त हो वह ग्रहण करें और अकल्पनीय का निषेध करें...
SR No.004437
Book TitleAcharang Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages368
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size8 MB
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