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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1- 8 - 2 - 5 (219) 127 तथा जो असमनोज्ञ हैं उनके पास से तो कुछ भी नहि लेना चाहिये... इति और ब्रवीमि शब्दों के अर्थ पूर्ववत् जानीयेगा... V सूत्रसार : ___ पूर्व सूत्र में अमनोज्ञ-शिथिलाचारी या अपने से असम्बद्ध साधु को आहार आदि देने का निषेध किया गया है। इस सूत्र में अपने समान आचार वाले समनोज्ञ साधु को आदर पूर्वक आहार आदि देने एवं उसकी वैयावृत्त्य करने का विधान किया गया है। - अपने समानधर्मी मुनि का स्वागत करना मुनि का धर्म है। इससे पारस्परिक धर्मस्नेह बढ़ता है और एक-दूसरे के संपर्क से ज्ञान, दर्शन एवं चारित्र में अभिवृद्धि होती है, संयम में भी तेजस्विता आती है। अतः साधक को समनोज्ञ मुनि का आहार-पानी से आदरसम्मान पूर्वकं सत्कार करना चाहिए। उसकी सेवा-वैयावृत्त्य करनी चाहिए। क्योंकि- सेवाशुश्रूषा से कर्मों की निर्जरा होती है और उत्कट भाव आने पर तीर्थंकर गोत्र का भी बन्ध हो सकता है। अतः साधक को सदा संयम-निष्ठ पुरुषों का स्वागत करना चाहिए। 'त्तिबेमि' की व्याख्या पूर्ववत् समझें। // इति अष्टमाध्ययने द्वितीयः उद्देशकः समाप्तः // ज卐ज : प्रशस्ति : ___ मालव (मध्य प्रदेश) प्रांतके सिद्धाचल तीर्थ तुल्य शत्रुजयावतार श्री मोहनखेडा तीर्थमंडन श्री ऋषभदेव जिनेश्वर के सांनिध्यमें एवं श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरिजी, श्रीमद् यतीन्द्रसूरिजी, एवं श्री विद्याचंद्रसूरिजी के समाधि मंदिर की शीतल छत्र छायामें शासननायक चौबीसवे तीर्थंकर परमात्मा श्री वर्धमान स्वामीजी की पाट-परंपरामें सौधर्म बृहत् तपागच्छ संस्थापक अभिधान राजेन्द्र कोष निर्माता भट्टारकाचार्य श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी म. के शिष्यरत्न विद्वद्वरेण्य व्याख्यान वाचस्पति अभिधान राजेन्द्रकोषके संपादक श्रीमद् विजय यतीन्द्रसूरीश्वरजी म. के शिष्यरत्न, दिव्यकृपादृष्टिपात्र, मालवरत्न, आगम मर्मज्ञ, श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम प्रकाशन के लिये राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी हिंदी टीका के लेखक मुनिप्रवर ज्योतिषाचार्य श्री जयप्रभविजयजी म. “श्रमण' के द्वारा लिखित एवं पंडितवर्य लीलाधरात्मज रमेशचंद्र हरिया के द्वारा संपादित सटीक आचारांग सूत्र के भावानुवाद स्वरूप श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी हिंदी टीका-ग्रंथ के अध्ययनसे विश्वके सभी जीव पंचाचारकी दिव्य सुवासको प्राप्त करके परमपदकी पात्रता को प्राप्त करें... यही मंगल भावना के साथ... "शिवमस्तु सर्वजगतः" वीर निर्वाण सं. 2528. म राजेन्द्र सं. 96. 7 विक्रम सं. 2058.
SR No.004437
Book TitleAcharang Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages368
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size8 MB
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