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________________ 1681 -8-6-5 (235) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन इस इंगितमरण-अनशन की कालावधि में होनेवाले विभिन्न प्रकार के परीषह एवं उपसर्ग को सम भावसे सहन करता है तथा सर्वज्ञ परमात्माने कहे हुए विश्वासपात्र आगमशास्त्र के उपर परिपूर्ण विश्वास होने से निर्मल अध्यवसाय के द्वारा दुष्कर ऐसा भी यह इंगितमरण नाम का अनशन प्रसन्नता के साथ स्वीकारता है... यद्यपि उस साधु ने अभी रोग की पीडा के कारण से यह इंगितमरण-अनशन कीया है, तो भी उस पर्याय (परिस्थिति) के अनुरूप होने के कारण से यह इंगितमरण-अनशन संपूर्ण फल देनेवाला कहा गया है... क्योंकि- वह साधु कर्मक्षय स्वरूप कालपर्याय को अच्छी तरह से जानता है... जीवन के अंतिम क्षण स्वरूप कालपर्याय में एवं रोग की विषम परिस्थिति में यह इंगितमरण अनशन का स्वीकार सकल कर्मो के क्षय में समान रूप से कारण बनता है... यह बात पंचम गणधरश्री सुधर्मस्वामीजी अपने अंतेवासी शिष्य जंबूस्वामीजी को कहतें हैं... कि- हे जंबू ! अंतिम तीर्थंकर श्री वर्धमान स्वामीजी के मुखारविंद से मैंने जो सुना है.... वह मैं तुम्हें कहता हुं... v सूत्रसार : जीवन के साथ मृत्यु का सम्बन्ध जुडा हुआ है। मरण का आना निश्चित है। इसलिए साधक मृत्यु से घबराता नहीं। साधु को यह आदेश दिया गया है कि- ज्ञान, दर्शन, चारित्र एवं तप की साधना से वह अपने आपको पंडितमरण प्राप्त करने के योग्य बनाए। साधना करते हुए जब उसका शरीर सूख जाए, इन्द्रियां शिथिल पड जाएं शारीरिक शक्ति का ह्रास होने लगे, उस समय वह साधक जीवन पर्यन्त के लिए आहार आदि का त्याग करके समभाव पूर्वक आत्मचिन्तन में संलग्न होकर समाधिमरण की प्रतीक्षा करे। ग्राम, खेट, कोट, पत्तन, द्रोणमुख, आकर खान, सन्निवेश, राजधानी आदि स्थानों में से वह जिस किसी भी स्थान पर स्थित हो, वहां की भूमि की प्रतिलेखना कर लेनी चाहिए। भूमि प्रमार्जन के साथ पेशाब आदि का त्याग करने का स्थान भी भली-भांति देख लेना चाहिए। जहां पर जीव-जन्तु, हरी घास आदि न हों। ऐसे निर्दोष स्थान में तृण की शय्या बिछाकर और 'नमोऽत्थु णं' के पाठ से परमात्मा नो नमन करके इंगितमरण अनशन को स्वीकार करे। ___ इस तरह समभाव पूर्वक प्राप्त की गई मृत्यु हि आत्मा का विकास करने वाली है। . इससे कर्मों का क्षय होता है और आत्मा शुद्ध एवं निर्मल बनती है। इस मृत्यु को वही व्यक्ति स्वीकार कर सकता है; जिस को आगम पर श्रद्धा-निष्ठा है। क्योंकि- श्रद्धा-निष्ठ व्यक्ति ही परीषहों के उत्पन्न होने पर उन्हें समभाव पूर्वक सह सकता है और राग-द्वेष पर विजय पाने
SR No.004437
Book TitleAcharang Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages368
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size8 MB
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