SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 196
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका // 1-8-6-5 (235) 167 चारों प्रकार के आहारादि के त्याग स्वरूप अनशन का पच्चक्खाण करे... यहां पादपोपगमन अनशन की अपेक्षा से नियत प्रदेश में आवागमन की संभावना को देखकर वह साधु इंगितमरण स्वरूप अनशन का स्वीकार करता है... यहां इत्वर कालिक एवं आगारवाला अनशन नहि स्वीकारतें किंतु जीवन पर्यंत के आगार रहित हि अनशन का स्वीकार होता है... क्योंकिजिनकल्पादिवाले साधुओं को प्रतिदिन सामान्य से भी आगार रहित हि प्रत्याख्यान होता है... तो फिर जब जीवन पर्यंत का पच्चक्खाण करे तब तो आगार रहित हि पच्चक्खाण होवे... . इत्वर याने थोडे समय का पच्चक्खाण तो रोगवाले श्रावक करते हैं... जैसे कि- यदि मैं इस रोग से पांच-छह दिनो में मुक्त बनुं तो भोजन करुंगा... अन्यथा भोजन नहि करूंगा... अतः धृति एवं संघयणबलवाला तथा स्वयं हि शरीर को त्वगवर्तन याने थोडीसी हलनचलन क्रियावाला वह साधु जीवन पर्यंत का चतुर्विध आहार के नियम स्वरूप इंगितमरण नाम का अनशन स्वीकारता है... अन्य ग्रंथो में भी कहा है कि- साधु गुरुजी के समक्ष चारों प्रकार के आहारादि का नियम (त्याग) करता है एवं शरीर की चेष्टा को भी अल्प (नियमित) करके इंगित-प्रदेश में अनशन स्वीकारता है... तथा धृति बलवाला वह साधु शरीर की थोडी चेष्टा भी स्वयं हि करे... अन्य किसी की सहाय न ले... यह इंगितमरण सज्जनों को हितकारक होने के कारण से सत्य है... क्योंकि- इस इंगितमरण का उपदेश सर्वज्ञ प्रभु ने कहा है... तथा यह इंगितमरण सद्गति का अमोघ कारण है... अतः यह इंगितमरण सत्य एवं पथ्य है..... . तथा इस इंगितमरण को स्वीकारनेवाला साधु भी सत्यवादी है... अर्थात् शास्त्रोक्त महाव्रतों की प्रतिज्ञा का भार यावज्जीव वहन करनेवाला होता है... तथा राग एवं द्वेष रहित होता है, तथा इस संसार-समुद्र को अवश्यमेव तैरनेवाला होता है... तथा रागादि के कारणभूत विकथाओं का त्यागी होता है... अथवा तो- “मैं यह इंगितमरण स्वरूप प्रतिज्ञा का निर्वाह कैसे करूंगा” इत्यादि संशयवाली कथा-वार्तालाप से रहित होता है... और दुष्कर अनुष्ठान को निर्विवाद रूप से पूर्ण करनेवाला होता है... अत: वह साधु महापुरुष की गणना में प्रविष्ट होने के कारण से विषम स्थिति में भी आकुल-व्याकुल नहि होता है... तथा वह साधु जीव अजीव आदि पदार्थों को अच्छी तरह से जाननेवाला होता है.. तथा सभी बाह्य क्रिया-कलाप के प्रयोजन का त्यागी है... तथा अनादि अनंत स्थितिवाले इस संसार का त्याग करके अवश्य मोक्षगामी होता है... ऐसा यह साधु विनश्वर शरीर का यथाविधि त्याग करके इंगितमरण-अनशन का स्वीकार करता है...
SR No.004437
Book TitleAcharang Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages368
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy