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________________ 166 // 1-8-6-5 (235) // श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन न हो, उस स्थान को अपनी आंखो से देखकर, रजोहरण से प्रमार्जन करके उस प्रासुक घास को बिछावे और उसे बिछाकर उचित अवसर में इंगित मरण स्वीकार करे। यह मृत्यु सत्य है। मृत्यु को प्राप्त करने वाला साधक सत्यवादी है, राग-द्वेष को क्षय करने में प्रयत्नशील है। अत: वह संसार सागर से तैरने वाला है। उस ने विकथा आदि को छोड दिया है। वह जीवाजीवादि पदार्थों का ज्ञाता है और संसार का पारगामी है। वह सर्वज्ञप्रणीत आगम में विश्वास रखता है, इसलिए वह इस नाशवान शरीर को छोडकर, नाना प्रकार के परीषहोपसर्ग को सहन करके इस इंगितमरण को स्वीकार करता है। अत: रोगादि के होने पर भी उसका काल पर्याय पुण्योपार्जक होता है। अतः वह पंडितमरण भवान्तर में साथ जाने वाला है। इस प्रकार मैं कहता हूं। IV टीका-अनुवाद : बुद्धि आदि गुणो को जहां त्रास हो उसे ग्राम-गांव कहते है... अथवा अट्ठारह कर (टेक्ष) जहां लगते हो वह गांव... तथा जहां कोइ भी प्रकार का कर (टेक्ष) न लगता हो वह नकर (नगर)... तथा धूली से बने प्राकार = किल्ले से युक्त हो वह खेट... तथा जहां छोटा सा किल्ला चारों और से होवे वह कर्बट... तथा जहां अढी गाउ के अंतर पर गांव हो वह मडंब... तथा पत्तन (पाटण) दो प्रकार के होते हैं 1. जलपत्तन, 2. स्थलपत्तन... जैसे कि- काननद्वीप आदि जलपत्तन हैं, और मथुरा आदि स्थलपत्तन हैं... तथा जहां जलमार्ग एवं स्थलमार्ग होवे वह द्रोणमुख... जैसे कि- भरुच या तामलिप्ती नगरी इत्यादि... तथा सोनेलोहे आदि खदान हो वह आकर... तथा तापसों के निवास स्वरूप आश्रम... तथा यात्रा के कारण से आये हए लोगों के निवास को संनिवेश कहतें हैं... तथा जहां बहोत सारे वणिगव्यापारी लोगों का निवास हो वह नैगम... तथा राजा का जहां निवास हो वह राजधानी... इत्यादि पूर्वोक्त स्थानो में साधु जब प्रवेश करे तब संथारे के लिये प्रासुक तृण आदि जो छिद्रवाले न हो, ऐसे तृण आदि की तृण के स्वामी के पास याचना करके उन तृण आदि को लेकर निर्जन ऐसे गिरि-गुका आदि में जाकर जहां जीव-जंतु न हो ऐसी निर्जीव भूमी की पडिलेहणा (शोध) करे... अर्थात् जहां बेइंद्रियादि प्राणी न हो, नीवार श्यामाक आदि बीज न हो, दूर्वा प्रवाल आदि हरित (वनस्पति) न हो, तथा अवश्याय याने ठार के जलबिंदु न हो, तथा भूमि संबंधित या वरसाद (मेघ) संबंधित जल जहां न हो, तथा कीडीयारा, लीलफूल (निगोद) सचित्त जलवाली सचित्त मीट्टी एवं करोडीये के जाले न हो ऐसे निर्जीव महास्थंडिल भूमी को आंखो से देखकर एवं रजोहरण से प्रमार्जना करके तृण-घास का संथारा करे... तथा उच्चार याने मल एवं प्रस्रवण याने मूत्र विसर्जन करने की भूमी की भी पडिलेहणा करके पूर्वाभिमुख आसन से संथारे में बैठे... बाद में रजोहरण को दोनो हाथ में लेकर मस्तक-भाल स्थल के उपर हाथ जोडकर सिद्ध परमात्मा को नमस्कार करे... पांच बार नमस्कार करके
SR No.004437
Book TitleAcharang Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages368
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size8 MB
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