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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1 - 9 -1 - 2 (266) 231 तीर्थंकरों ने देवदुष्य धारण कीया था, वर्तमानकाल में धारण करते हैं, और भविष्यकाल में धारण करेंगे इस अभिप्राय से हि परमात्मा ने उस देवदूष्य को अपने खंधे पे रहने दीया था... ____ आगम सूत्र में भी कहा है कि- हे जंबू ! मैं (सुधर्मस्वामीजी) तुम्हे यह कहता हूं कि- मैंने परमात्मा के मुख से सुना है, कि- अतीतकाल के वर्तमानकाल के एवं भविष्यत्काल के जो कोइ अरिहंत भगवान् प्रव्रजित हुए हैं, होतें हैं, और होएंगे, वे सभी सोपकरण धर्म कहतें हैं... इस अभिप्राय से तीर्थधर्म के प्रवर्तन के लिये अनुधार्मिकता याने परंपरागत त्रैकालिक यह आचरण है, कि- एक देवदुष्य लेकर सभी तीर्थंकर परमात्मा प्रव्रजित हुए हैं, होते हैं, और प्रव्रजित होएंगे... इत्यादि... ___ अन्यत्र भी कहा है कि- सवस्त्र याने उपकरणवाला धर्म महान् है, इस बात की प्रतीति शिष्य को हो, इस अभिप्राय से हि श्रमण भगवान् महावीर स्वामीजीने देवदूष्य-वस्त्र को धारण कीया था... अन्य कोइ लज्जा आदि कारणों से नहि... v सूत्रसार : प्रस्तुत गाथा में बताया गया है कि- दीक्षा लेते समय इंद्रप्रद्रत देवदूष्य को धारण करने में प्रयोजन क्या है ? सामन्य से वस्त्र स्वीकार करने के प्राय: तीन कारण होते हैं- 1. हेमन्त, सर्दी में शीत से बचने के लिए, 2. लज्जा ढकने के लिए और 3. जुगुप्सा को जीतने का सामर्थ्य न हो तो। किंतु भगवान ने इन तीनों कारणों से वस्त्र को स्वीकार नहीं किया था क्योंकिवे समस्त परीषहों को जीतने में समर्थ थे परन्तु पूर्व कालीन तीर्थंकरों द्वारा आचरित परम्परा को निभाने के लिए या अपने संघ में होने वाले साधु-साध्वियों के लिए सोपकरण मार्ग स्पष्ट करने के लिए उन्होंने देवदूष्य को स्वीकार करके अपने कन्धे पर रहने दीया...। ____ सभी साधकों की बाहरी सहिष्णुता एक समान नहीं होती। सभी साधक महावीर नहीं बन सकते। इसलिए स्थविर कल्प मार्ग की आचार परम्परा को स्पष्ट करने के लिए उन्होंने वस्त्र ग्रहण किया। क्योंकि- साधना का सम्बन्ध आत्मा के विशुद्ध भावों से है, राग-द्वेष को क्षय करने से है। वस्त्र रखने एवं नहीं रखने से उसमें कोई अन्तर नहीं पड़ता। इसलिए भगवान महावीर ने न तो वस्त्र रखने का निषेध किया और न वस्त्र त्याग का ही निषेध किया। किंतु उन्होंने तीर्थपरम्परा को अनवरत चालू रखने के लिए वस्त्र को ग्रहण किया। इससे स्पष्ट होता है कि- भगवान ने अभिनव धर्म की स्थापना नहीं की, किंतु पूर्व से चले आ रहे धर्म को आगे बढ़ाया। पूर्व के समस्त तीर्थंकरों द्वारा प्ररू पित त्रैकालिक सत्य का उपदेश दिया, जनता को धर्म का यथार्थ मार्ग बताया। इस प्रकार “अणुधम्मियं' पद से स्पष्ट होता है कि- भगवान महावीर ने पूर्व परम्परा के अनुसार आचरण किया। वृत्तिकार
SR No.004437
Book TitleAcharang Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages368
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size8 MB
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