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________________ 2301 -9-1-2(266) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन घोर तपश्चर्या के द्वारा चार घातिकर्मों को सर्वथा क्षय करके केवलज्ञान और केवलदर्शन को प्राप्त किया। इससे स्पष्ट होता है कि- साधक को अपने स्नेही सम्बन्धियों के साथ अधिक समय तक नहीं रहना चाहिए। इससे अनुराग एवं मोह की जागृति होती है और मोह साधक के जीवन में अतिचार लगानेवाला है। अतः भगवान ने केवल उपदेश देकर ही नहीं, किंतु स्वयं उसका आचरण करके बताया कि- साधना के क्षेत्र में प्रविष्ट साधक को किस तरह ग्रामानुग्राम विचरना चाहिए। भगवान महावीर ने इन्द्र द्वारा प्रदत्त देवदूष्य वस्त्र का स्वीकार क्यों किया ? इसका विवेचन करते हुए सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहते हैं... I सूत्र // 2 // // 266 // 1-9-1-2 णो चेविमेण वत्थेण पिहिस्सामि तंसि हेमन्ते / से पारए आवकहाए, एवं खु अणुधम्मियं तस्स // 266 // संस्कृत-छाया : नो चैवानेन वस्त्रेण, पिधास्यामि तस्मिन् हेमन्ते / सः पारगः यावत्कथं, एतत् खलु अनुधार्मिकं तस्य // 266 // III सूत्रार्थ : मैं इस वस्त्र से हेमन्त काल में शरीर को शीत से बचाऊंगा इस आशय से भगवान ने वस्त्र ग्रहण नहीं किया। किन्तु पूर्व कालीन तीर्थंकरों ने इसे ग्रहण किया है, इसलिए भगवान ने भी स्वीकार किया अर्थात् एवं आचरित होने से इन्द्र प्रदत्त देवदूष्य वस्त्र को भगवान ने ग्रहण किया। II IV टीका-अनुवाद : ग्रहण की हुइ सामायिक की प्रतिज्ञा को पार पानेवाले पारग भगवान्, अथवा तो परीषहों को जितने वाले पारग भगवान्, अथवा तो चार गति स्वरूप संसार को पार उतरने में समर्थ ऐसा पारग भगवान् श्री महावीर स्वामीजी ने इंद्र द्वारा खंधे पे रखे हुए देवदूष्यवस्त्र से मैं अपने शरीर को ढांक के रखूगा ऐसा नहि सोचा था, अथवा तो हेमंत ऋतु की ठंडी से मैं इस देवदुष्य के द्वारा शरीर की रक्षा करूंगा ऐसा भी नहि सोचा था, अथवा तो लज्जा की सुरक्षा के भाव से भी उस देवदूष्य वस्त्र को धारण नहि कीया था, किंतु अन्य
SR No.004437
Book TitleAcharang Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages368
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size8 MB
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