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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1 - 9 - 4 - 0 303 % 3D श्रुतस्कंध - 1 अध्ययन - 9 उद्देशक - 4 / ___ रोगातङ्क: तृतीय उद्देशक कहा, अब चौथे उद्देशक का प्रारंभ करतें हैं, इसका यहां यह अभिसंबंध हैं कि- तीसरे उद्देशक में कहा गया है, कि- श्रमण भगवान् महावीरस्वामीजी ने परीषह एवं उपसर्गों के कष्टों को समता भाव से सहन कीया था... अब यहां चौथे उद्देशक में यह कहना है कि- परमात्मा रोगातंक की पीडा होने पर चिकित्सा न करते हुए समता भाव से सहन करते थे... अर्थात् रोगातंकादि परीषहा के समय में परमात्मा विशेष प्रकार से तपश्चर्या में हि उद्यम करतें थे... . भगवान महावीर ने बीमारी के समय कभी भी चिकित्सा नहीं की। उन्होंने शारीरिक एवं आत्मिक दोनों व्याधियों को दूर करने के लिए तप का आचरण किया। तप सारे विकारों को नष्ट कर देता है। जैसे साबुन वस्त्र के मैल को दूर हटाकर वस्त्र को स्वच्छ करता है, उसी तरह तप से शरीर एवं मन शुद्ध हो जाता है। जिनशासन में आत्म-शुद्धि एवं शरीर-शुद्धि के लिए तप को महत्त्वपूर्ण स्थान दिया गया है। इससे बाह्य एवं अभ्यन्तर विकार नष्ट हो जाते हैं और आत्मा शुद्ध बन जाती है। आगम में बताया है कि- ज्ञान से आत्मा पदार्थ के यथार्थ स्वरूप को जानता है, दर्शन से उस पर श्रद्धा करता है, चारित्र से अभिनव कर्म के आगमन को रोकता है और तप से आत्मा पूर्वकर्मों को क्षय करके शुद्ध बनता है। नाणेण जाणइ भावे, दंसणेण य सद्दहे। चरित्तेण निगिण्हाइ, तवेण परिसुज्झइ॥ 1 // श्रमण भगवान् महावीरस्वामीजी ने छद्मस्थ काल के साधिक साढे बारह वर्ष में की हुइ तपश्चर्या का संक्षिप्त दिग्दर्शन... संख्या उसके दिन वर्ष मास दिन (1) छ: मास 1 653041=180, 0 - 6 - 0 (2) पांच दिन कम छ: मास- 1 6430-5=175, 0 - 5 - 25 (3) चौमासी 9 443049=1080, 3 - 0 - 0 (4) तीन मासी 353042-180, 0 - 6 - 0 तपनाम
SR No.004437
Book TitleAcharang Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages368
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size8 MB
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