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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1 - 9 - 1 - 18 (282) // 257 I - सूत्र // 18 // // 282 // 1-9-1-18 अहाकडं न से सेवे, सव्वसो कम्मणा य अदक्खू। जं किंचि पावगं भगवं, तं अकुव्वं वियर्ड भुंजित्था // 282 // // संस्कृत-छाया : यथाकृतं न असौ सेवते, सर्वशः, कर्मणा च अद्राक्षीत् / यत्किंचित् पापकं भगवान् तदकुर्वन् विकटमभुंक्त // 282 // III सूत्रार्थ : आधाकर्म आहार को सभी तरह से कर्मबन्ध का कारण जान कर भगवान ने उसका सेवन नहीं किया। यह सदोष आहार भविष्य में दुःख का कारण होने से भगवान ने निर्दोष आहार ही ग्रहण किया। IV टीका-अनुवाद : ___ मूलगुणों का कथन कर के अब उत्तरगुणों के स्वरूप को कहते हैं... परमात्मा आधाकर्मादि दोषवाले आहार का सेवन नहिं करतें, क्योंकि- आधाकर्मादि दोषों के सेवन से जीव को आठ प्रकार के कर्मोका बंधन होता है, एसा ज्ञान में देखा है... अन्य भी ऐसे आहार संबंधि दोषों का सेवन, निश्चित हि पापाश्रव स्वरूप है, इस कारण से परमात्मा प्रासुक अर्थात् अचित्त एवं निर्दोष आहार का सेवन करते थे... V . . सूत्रसार : संयम साधना के लिए शरीर का स्वस्थ रहना आवश्यक है और शरीर को स्वस्थ रखने के लिए आहार आवश्यक है और आहार के बनने में हिंसा का होना भी प्रत्यक्ष दिखाई देता है। ऐसी स्थिति में पूर्ण अहिंसक साधक अपनी संयम साधना कैसे कर सकता है ? इसके लिए यह बताया गया है कि- साधु पाचन क्रिया से सर्वथा दूर रहे। वह न स्वयं आहार आदि बनाए और न अपने लिए किसी से बनवाए और अपने (साधु के) निमित्त बनाकर या खरीद कर लाया हुआ आहार आदि का स्वीकार भी न करे। परन्तु गृहस्थ के घर में गृहस्थ ने अपने परिवार के लिए जो भोजन बनाया है, उसमें से अनासक्त भाव से सभी दोषों को टालते हुए थोड़ा सा आहार ग्रहण करे, जिससे उस गृहस्थ को किसी तरह का कष्ट न हो एवं अपने खाने के लिए पुनः भोजन न बनाना पड़े। इस तरह कई घरों से निर्दोष आहार लेकर साधु अपने शरीर का निर्वाह करे। परन्तु जिव्हा के स्वाद के लिए या शारीरिक पुष्टि आदि के लिए
SR No.004437
Book TitleAcharang Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages368
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size8 MB
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