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________________ 258 // 1- 9 -1 - 19 (२८3)卐 श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन वह साधु आधाकर्म आदि सदोष आहार न ले। जो आहार साधु के लिए बनाया जाता है, उसे आधाकर्म कहते हैं। उस आहार को ग्रहण करने से उसमें हुई हिंसा का पाप साधु को भी लगता है। अतः साधु अनासक्त भाव से निर्दोष आहार की हि गवेषणा करे। भगवान महावीर ने केवल यह उपदेश ही नहीं दिया, किंतु उनहोंने स्वयं इस नियम का परिपालन किया। उन्होंने कभी भी आधाकर्म आदि दोषों से युक्त आहार को स्वीकार नहीं किया। इस तरह भगवान सदा निर्दोष आहार की गवेषणा करते और संयम की मर्यादा के अनुसार निर्दोष आहार उपलब्ध होने पर उसे स्वीकार करते थे। इसी तरह भगवान ने अन्य सावध सदोष व्यापार का भी सर्वथा त्याग कर दिया था। वे सारे पाप कर्मों से निवृत्त होकर सदा निर्दोष सयंम साधना में संलग्न रहते थे। उनकी साधना के संबन्ध में उल्लेख करते हुए सूत्रकार महर्षि आगे का सुत्र कहते हैं.... I सूत्र // 19 // // 283 // 1-9-1-19 णो सेवइ य परवत्थे परपाएवि से न भुंजित्था / परिवज्जियाणं ओमाणं गच्छइ संखडिं असरणायाए // 283 // II संस्कृत-छाया : नो सेवते च परवस्त्रं, परपात्रेऽपि स न भुक्ते / परिवाऽपमानं गच्छति, संखडिं अशरणाय // 283 // III सूत्रार्थ : भगवान ने दूसरे व्यक्ति के वस्त्र का सेवन नहीं किया, और दूसरे व्यक्ति के पात्र में भोजन भी नहि किया, वे मान अपमान को छोडकर बिना किसी के सहारे निर्दोष भिक्षा के लिए यथाकाल गृहस्थों के घर जाते थे। IV टीका-अनुवाद : परमात्मा पर याने अन्य के वस्त्र का आसेवन नहि करतें, अथवा पर याने प्रधान, श्रेष्ठ वस्त्र का आसेवन नहि करतें... तथा अन्य के पात्र (बरतन) में परमात्मा आहार (भोजन) नहि लेतें... तथा संखडि याने जहां प्राणीओं का खंडन-विनाश होता है वह संखडी... अर्थात् अहार के पाकगृह (रसोडा) का परित्याग कर के, अदीनमनवाले परमात्मा अशरण याने संयम के लिये उद्यम करते हुए परीषहों को जीतने के लिये विहार करते हैं...
SR No.004437
Book TitleAcharang Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages368
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size8 MB
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