________________ 134 1-8-3 - 4 (२२3)卐 श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन है। वह परिग्रह में ममत्व न रखते हुए शुद्ध संयम का पालन करता है। अतः मुनि को निष्ठा पूर्वक स्वाध्याय एवं चिन्तन में संलग्न रहना चाहिए और परीषहों के उत्पन्न होने पर भी दया भाव का त्याग नहीं करना चाहिए। इससे संयम में निष्ठा बढती है और उसकी साधना में तेजस्विता आती है। इस संबन्ध में विशेष उल्लेख करते हुए सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहते हैं... I सूत्र // 4 // // 223 // 1-8-3-4 तं भिक्खुं सीयफास परिवेवमाणगायं उवसंकमित्ता गाहावई बूया - आउसंतो ! समणा ! नो खलु ते गामधम्मा उव्वाहंति ? आउसंतो ! गाहावई ! नो खलु मम गामधम्मा उव्वाहंति, सीयफासं च नो खलु अहं संचाएमि अहियासित्तए, नो खलु मे कप्पइ अगणिकायं उज्जालित्तए वा कायं आयावित्तए वा पयावित्तए वा अण्णेसिं वा वयणाओ, सिया स एवं वयंतस्स परो अगणिकायं उज्जालित्ता पज्जालित्ता कायं आयाविज्ज वा पयाविज्ज वा, तं च भिक्खू पडिलेहाए आगमित्ता आणविज्जा अणासेवणाए तिबेमि // 223 // II संस्कृत-छाया : तं भिखं शीतस्पर्श परिवेपमानगात्रं उपसङ्क्रम्य गृहपतिः ब्रूयात् - हे आयुष्मन् ! श्रमण ! न खलु त्वां (भवन्तं) ग्रामधर्माः उद्बाधन्ते ? हे आयुष्मन् ! गृहपते ! न खलु मां ग्रामधर्माः उद्बाधन्ते, शीतस्पर्शं च न खलु अहं शक्नोमि अधिसोढुं, न खलु मह्यं कल्पते अग्निकार्य उज्ज्वालयितुं वा कायं आतापयितुं वा प्रतापयितुं वा अन्येषां वा वचनतः, स्यात् तं एवं वदन्तं परः अग्निकार्य उज्ज्वालयित्वा उज्ज्वालय्य प्रज्वालय्य कायं आतापयेत् वा प्रतापयेत् वा, तं च भिक्षुः प्रत्युपेक्ष्य अवगम्य आज्ञापयेत् अनासेवनया इति ब्रवीमि // 223 // III सूत्रार्थ : जिसका शरीर शीत के स्पर्श से कम्प रहा है, ऐसे भिक्षु के समीप आकर यदि कोई गृहस्थ कहने लगे कि- हे आयुष्मन् श्रमण ! आप विषय विकार से पीडित तो नहीं हो रहे है ? उसके इस संशय का निराकरण करने के लिए मुनि उसे कहे कि- मुझे ग्रामधर्म पीडित नहीं कर रहा है। किन्तु, मैं शीत के स्पर्श को सहन नहि कर सकता। मुझे अग्निकाय (अग्नि को) उज्ज्वलित-प्रज्वलित करना नहिं कल्पता, अग्नि से शरीर को थोडा-सा गर्म करना या अधिक गर्म करना अथवा दूसरों से करवाना इत्यादि भी नहीं कल्पता है। यदि साधु के इस प्रकार बोलने से कभी कोई गृहस्थ अग्नि को उज्ज्वलित-प्रज्वलित करके उस साधु के शरीर