________________ 316 // 1-9-4 -14 (338) // श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन II संस्कृत-छाया : अथवा माहनं च श्रमणं वा ग्रामपिंडोलकं च अतिथिं वा। श्वपाकं मूषिकारिं वा कुकुरं वापि उपस्थितं पुरतः // 328 // वृत्तिच्छेदं वर्जयन् तेषामप्रत्ययं परिहरन् / मंदं पराक्रमते, भगवान् अहिंसन् ग्रासमेषितवान् // 329 // III सूत्रार्थ : श्रमण भगवान महावीर प्रभु ब्राह्मण, श्रमण, गांव के भिखारी, अतिथि, चांडाल, श्वान और विविध प्रकार के अन्यजीव यदि खडे हों तो उनकी वृत्ति का भंग न हो इस कारण से वहां भिक्षा के लिए नहीं जाते थे। भगवान महावीरस्वामीजी उन जीवों की वृत्ति का छेद न हो, एवं उनको अप्रीति भी न हो, इस प्रकार शनैः 2 चलते थे, एवं किसी भी जीव की हिंसा न हो, इस प्रकार आहारपानी आदि की गवेषणा करते थे। IV टीका-अनुवाद : अथवा आहारादि के लिये आये हुए शाक्य या आजीवक या परिव्राजक या तापस या निग्रंथ इत्यादि में से किसी को भी आहारादि में अंतराय न हो, यह बात ध्यान में रखकर परमात्मा गोचरी की गवेषणा करते थे... अथवा भिक्षा से पेट भरनेवाले द्रमक, या तो कोइ अभ्यागत-अतिथि, तथा चांडाल, एवं बील्ली, कुत्ते इत्यादि आगे रहे हुए हो, तब उनको आहारादि की प्राप्ति में अंतराय न हो, एवं उनके मन में द्वेषभाव उत्पन्न न हो, उन को कोइ भी प्रकार का त्रास-कष्ट न हो, इस बात को ध्यान में रखते थे... तथा अन्य कुंथुवे इत्यादि क्षुद्र जंतुओं की हिंसा न हो, उस प्रकार से परमात्मा आहार की गवेषणा करते थे... V सूत्रसार : इन दो गाथा में पूर्व गाथा की बात को पूरी करते हुए बताया गया है कि- किसी गृहस्थ के द्वार पर यदि कोई ब्राह्मण, बौद्ध भिक्षु; परिव्राजक, संन्यासी, शूद्र आदि खडे हो या बिल्ली, कुत्ता आदि खडे हो तब भगवान उनको उल्लंघकर के उस घर में प्रवेश नहीं करते थे। क्योंकि- इससे उनकी वृत्ति का व्यवच्छेद होता था। उनके मन में अनेक संकल्पविकल्प उठते और द्वेष-भाव पैदा होता। इसलिए भगवान इन सभी दोषों को टालते हुए आहार / के लिए गृहस्थों के घरों में प्रवेश करते थे।