________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1 - 9 - 4 -11-12 (328-329) // 315 III सूत्रार्थ : भूख से बुभुक्षित वायसादि पक्षियों को मार्ग में गिरे हुए अन्न को खाते हुए देखकर उन्हें नहीं उडाते हुए प्रभुजी विवेक पूर्वक चलते थे... IV टीका-अनुवाद : आहार (भिक्षा) के लिये गवेषणा करते हुए श्री महावीरस्वामीजी मार्ग में भूख से पीडा पा रहे वायस याने कौवें आदि... तथा जलपान की इच्छावाले कपोत-पारापत (कबूतर) आदि अपने अपने आहार एवं जल को ढंढते हए यहां वहां बेठे हुए देखकर परमात्मा यह सोचतें कि- “इन प्राणीओं को अपने इष्ट आहार-पानी की प्राप्ति में मैं अंतराय करनेवाला न बचें" इत्यादि सोचकर प्रभुजी मंद गति से चलते हुए आहारादि की गवेषणा करते थे... अर्थात् परमात्मा संयमानुष्ठान में दृढ आदरवाले थे... V सूत्रसार : साधु सब जीवों का रक्षक है। वह स्वयं कष्ट सहन कर ले, किंतु अपने निमित्त से किसी भी प्राणी को कष्ट हो ऐसे उस कार्य को वह कदापि नहीं करता... साधु के लिए आदेश है कि- वह भिक्षा के लिए जाते समय भी यह ध्यान रखे कि- उसके कारण किसी भी प्राणी की वृत्ति में विघ्न न पडे। भगवान महावीर ने स्वयं इस नियम का पालन किया था वे उस घर में या उस मार्ग से आहार के लिये नहीं जाते थे कि- जिस घर के आगे या मार्ग में काग-कुत्ते एवं गरीब भिखारी रोटी की आशा से खडे होते थे। क्योंकि- वह दातार उन गरीब भिखारियों को अनदेखा करके भगवान को आहारादि देने लगता था... इससे भिक्षुकों के मन में द्वेष उत्पन्न होना स्वाभाविक था। इसलिए भगवान ऐसे घर में भिक्षा के लिये नहीं जाते थे कि- जहां अन्य प्राणी भोजन की अभिलाषा लिए हुए खडे हों। इसी विषय में सूत्रकार और भी विशेष बात आगे के सूत्र से बताते हैं... सूत्र // 11-12 // // 328-329 // 1-9-4-11/12 अदुवा माहणं च समणं च, गामपिंडोलगं च अतिहिं वा। सोवाग मूसियारिं वा, कुकुरं वावि विट्ठियं पुरओ // 328 / / वित्तिछेयं वज्जतो, तेसिमप्पत्तियं परिहरन्तो। मंदं परक्कमे भगवं, अहिंसमाणो घासमेसित्था // 329 //