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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1 - 6 - 3 - 3 (200) 49 मोक्ष प्राप्ति में सहायक हैं" ऐसा माननेवाले उन साधुओं को थोडी भी मन:पीडा नहि होती... अन्यत्र भी कहते है कि- अन्य प्राणी- लोग आत्मा को नहि, किंतु मात्र शरीर को हि वेदनापीडा उत्पन्न करता है, क्योंकि- अन्य प्राणी, हमारे अपनी आत्मा को एवं हृदय को दुःख कभी भी नहिं दे शकतें क्यों कि- आत्मा एवं अंत:करण शरीर से सुरक्षित हैं...इत्यादि... तथापि शरीर को पीडा-कष्ट दे शकता है... यह बात सूत्र के पदों से अब दिखलाते हैं... जैसे कि- शरीर में मांस एवं लोही (रक्त) दोनों अतिशय अल्प हो जाते हैं... क्योंकि- साधुओं का आहार रूक्ष एवं अल्प होता है, अतः वह आहार प्रायः खल रूप हि परिणत होता है, रस नहिं बनता.... कहा है किकारण के अभाव में कार्य नहि बनता... अब, जब खुन (लोही) हि अति अल्प है, तो मांस भी अल्प हि होगा... और मेद आदि भी अल्प हि होंगे... अथवा रूक्ष आहार प्राय: वातवायु दोषवाला होता है, और वायु की प्रधानता होने से मांस एवं लोही अल्प होते हैं, तथा अचेलकत्व के कारण से तृणस्पर्शादि से शरीर में पीडा होती है, इस कारण से भी शरीर में मांस एवं लोही अल्प होते हैं... . * तथा राग, द्वेष एवं कषायों की संतति स्वरूप जो संसार-श्रेणी है, उसे क्षमा आदि से विश्रेणी करके तथा समत्व भावना से यह जाने कि- जो जिनकल्पित साधु होते हैं, उनमें से कितनेक साधु एक वस्त्रवाले होते हैं, तथा कितनेक दो या तीन वस्त्रवाले होते हैं, अथवा स्थविर कल्पवाले मासक्षपण या अर्धमासक्षपण तपश्चर्या करतें हैं, तथा विकृष्ट या अविकृष्ट तपश्चर्या करनेवाले साधु हो या नित्यभोजी कूरगडुक मुनी हो... वे सभी तीर्थंकर के वचनानुसार संयमानुष्ठान करतें हैं, अतः साधु परस्पर की निंदा नहिं करतें; किंतु समदृष्टिवाले होतें हैं... __कहा भी है कि- जो कोइ साधु, चाहे वह दो वस्त्रवाला हो या तीन वस्त्रवाला हो या एक वस्त्रवाला हो या अवस्त्र हो, वे सभी जिनाज्ञा के अनुसार हि हैं, अत: कोइ भी साधु की अवगणना-निंदा नहि करनी चाहिये... __तथा कोइक जिनकल्पिक या भिक्षु प्रतिमावाले साधु को कभी छह (6) महिने तक कल्प के अनुसार निर्दोष भिक्षा प्राप्त न हो तब भी कुरगडुक जैसे मुनि को ऐसा न कहे कि"तुं तो ओदनमुंड याने सारे दिन चावल खा खा करता है" इत्यादि... अर्थात् उनकी अवगणनानिंदा न करें... अत: इस प्रकार समभाववाली दृष्टि एवं प्रज्ञा से कर्मो का क्षय करके वह पूर्वोक्त लक्षणवाला मुनी संसार सागर को तैरता है, अर्थात् मोक्ष पद पाता है... क्योंकि- वह सभी प्रकार के पौद्गलिक संग से मुक्त है; एवं पापाचरण से विरत है... जो साधु ऐसे संयत-विरत नहि है, वे संसार सागर को तैर नहि शकते... “ब्रवीमि” पद का अर्थ पूर्ववत् जानीयेगा... इस प्रकार संसार की परंपरा का विसर्जन करके जो मुनी संसारसागर को तैरनेवालों
SR No.004437
Book TitleAcharang Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages368
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size8 MB
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