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________________ 481 -6- 3 - 2 (199) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन है। वह साधु अपने मन में सोचता-विचारता है कि- “भगवान महावीर ने इसी दशविध श्रमण धर्म का या सप्तदशविध संयम-साधना करने का उपदेश दिया है और अनेक महापुरुषों ने वर्षों एवं पूर्वो तक इस शुद्ध धर्म एवं संयम का परिपालन करके आत्मा को कर्मों से सर्वथा अनावृत्त कर लिया है। अत: मुझे भी इसी धर्म का पालन करके निष्कर्म बनाना चाहिए। “इस प्रकार साधक को समभाव पूर्वक परीषहों को सहन करते हुए संयम में संलग्न रहना चाहिए।" प्रस्तुत सूत्र में 'अचेलक' शब्द का तात्पर्य यह है कि- अल्प वस्त्र रखने वाला मुनि। यह हम स्पष्ट कर चुके हैं कि- स्वल्प वस्त्र भी संयम-साधना के साधन हैं, साध्य नहीं। अतः साधक इन वस्त्रादि में आसक्त नहीं रहता। इन सभी उपकरणों में अनासक्त रहते हुए वह साधु सदा संयम में संलग्न रहता हैं और आने वाले परीषहों को समभाव पूर्वक सहन करता है। ___ परीषहों को सहन करने से आत्मा में किस गुण का विकास होता है, इस बात को बताते हुए सूत्रकार महर्षि सुधर्म स्वामी आगे का सूत्र कहतें हैं... I सूत्र // 2 // // 199 // 1-6-3-2 आगयपण्णाणाणं किसा बाहवो भवंति, पयणुए य मंससोणिए विस्सेणिं कटु परिण्णाय, एस तिण्णे मुत्ते विरए वियाहिए तिबेमि॥ 199 // // संस्कृत-छाया : आगतप्रज्ञानानां कृशाः बाहवः भवन्ति, प्रतनुके च मांस-शोणिते विश्रेणी कृत्वा परिज्ञाय, एषः तीर्णः मुक्तः विरत: व्याख्यातः इति ब्रवीमिः // 199 // III सूत्रार्थ : परीषहों को सहन करने से प्रज्ञावान मुनि की भुजाएं कृश हो जाती हैं, मांस और रुधिर अल्प हो जाता है। वह संसार परिभ्रमण को बढ़ाने वाली रागद्वेष की सन्तति को नष्ट करके और समत्व भाव एवं पूर्वोक्त गुणों से युक्त होकर संसार समुद्र को पार कर जाता है। वह सर्वं संसर्ग से छूट जाता है। इस प्रकार मैं कहता हूं। IV टीका-अनुवाद : पदार्थों के स्वरूप को प्रगट करनेवाला ज्ञान जिन्हें प्राप्त हुआ है; वे आगतप्रज्ञान, ऐसे आगतप्रज्ञानवालों की भुजाएं तपश्चर्या से एवं परीषहों को सहने से कृश याने दुर्बल हुइ हैं... अथवा महान् उपसर्ग एवं परीषह होने पर भी आगतप्रज्ञानवाले साधुओं को पीडा कृश याने अल्प हो जाती है... क्योंकि- कर्मो के क्षय के लिये हि उठे हुए वे साधुजन सदा सावधान होते हैं; अत: मात्र शरीर को हि पीडा देनेवाले उन परीषह एवं उपसर्गों को “यह तो हमें
SR No.004437
Book TitleAcharang Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages368
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size8 MB
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