________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1 - 6 - 3 - 2 (199) 47 000 = सित्तेर लाख छप्पन हजार क्रोड वर्ष.. ऐसे अनेक पूर्व वर्ष पर्यंत उन धीर वीर गंभीर महावीरों ने संयमानुष्ठान का आचरण कीया है... जैसे कि- नाभेय याने ऋषभदेव प्रभु से लेकर दशवें तीर्थंकर श्री शीतलनाथ पर्यंत “पूर्व" संख्या का व्यवहार था, इसलिये यहां “पूर्व" शब्द का प्रयोग कीया गया है... तथा श्रेयांसनाथ प्रभु से वर्ष-संख्या का व्यवहार हुआ; अत: “वर्ष" शब्द का उल्लेख कीया है... तथा हे श्रमण ! आप देखीये कि- मुक्ति में जाने के लिये योग्य ऐसे भव्य जीवों को पूर्व कहे गये तृणस्पर्शादि परिषह समभाव से सहन करने चाहिये... तथा यहां सम्यक्करण का मतलब यह है कि- हे श्रमण ! आप यह भी जानो कि- मैंने भी श्रमण जीवन में यह स्पर्शादि परीषहों को सम्यक् सहन कीये हैं। ____‘इन परीषहों को सम्यक् सहन करनेवालों को जो कुछ आत्मगुणों का लाभ होता है; वह बात सूत्रकार महर्षि आगेके सूत्र से कहेंगे... V. सूत्रसार : यह हम देख चुके हैं कि- मुनि को साधक अवस्था में कुछ उपकरण रखने पड़ते हैं। जैसे कि- जिनकल्पी मुनि-जो जंगल एवं पर्वतों की गुफाओं में रहते हैं, उनको जघन्य से मुखवत्रिका और रजोहरण दो उपकरण एवं उत्कृष्ट से बारह उपकरण होते हैं, जब किस्थविरकल्पी साधुओं के लिए 14 उपकरण बताए गए हैं। इन उपकरणों में न्यूनता करना वह विशेष तपश्चर्या हि है। इससे कर्मों की निर्जरा होती है। अतः साधक को कषायों के त्याग के साथ-साथ यथाशक्य यथाविधि उपकरणों में भी न्यूनता करने के लिए भी प्रयत्नशील रहना चाहिए। मुनि का मूल उद्देश्य आत्म विकास है। आत्मा विकास के लिए ही वह आहार-पानी एवं वस्त्र-पात्र आदि उपकरणों को स्वीकार करता है। ये उपकरण केवल संयम साधना के साधन हैं, साध्य नहिं / अतः साधु उपकरणों को रखते हुए भी उनमें आसक्त नहि रहता है। उसका मन एवं उसका चिन्तन सदा-सर्वदा संयम परिपालन में ही संलग्न रहता है। क्योंकिवह इस बात को जानता है कि- संयम से ही कर्मों का नाश होगा और कर्म क्षय होने पर ही आत्मा का विकास हो सकेगा। अतः साधु सदा संयम पालन में ही जागरुक रहता है। कभी वस्त्र आदि के फट जाने पर तथा समय पर शुद्ध-एषणीय वस्त्र के न मिलने पर वह उसके लिए चिन्ता नहीं करता, आर्त-रौद्र ध्यान नहीं करता। किंतु ऐसे समय में भी वह साधु समभाव पूर्वक अपनी साधना में संलग्न रहता है। वह वस्त्र की न्यूनता के कारण होने वाले शीत, दंश-मशक एवं तृण स्पर्श के परीषहों को विना किसी खेद से सहन करता