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________________ 46 1 -6-3-1(198)# श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन . होता है... अत: साधु सावधानी से परीषहों को सहन करता है... यहां सुधर्मस्वामीजी अपने शिष्य जंबूस्वामीजी को कहते हैं कि- यह बात मैं अपने मनोविकल्प से नहि कहता हुं, किंतु तीर्थंकर प्रभु श्री वर्धमान स्वामीजी ने यह बात स्पष्ट रूप से बारह पर्षया के समक्ष कही है... तथा वह उपकरणादि लाघवता चार प्रकार से है, द्रव्य, क्षेत्र, काल एवं भाव भेद से चार प्रकार... 1. द्रव्य से लाघवता - आहार एवं उपकरणादि में... 2. क्षेत्र से लाघवता - सर्वत्र गांव-नगरादि में 3. काल से लाघवता - दिन, रात्रि या सर्व प्रकार के दुर्भिक्षादि काल में 4. भाव से लाघवता - कृत्रिम कल्कादि के अभाव से... तथा सम्यक्त्व याने प्रशस्त, शुभ, एक या संगत ऐसा जो तत्त्व वह सम्यक्त्व है... अन्यत्र भी कहा है कि- प्रशस्त, शोभन, एक एवं संगत जो भाव वह सम्यक्त्व है... अतः इस प्रकार के सम्यक्त्व या समत्व को जानीयेगा... जैसे कि- अचेल साधु एकचेलादि साधुओं की अवगणना नहि करतें... अन्यत्र भी कहा है कि- जो कोइ साधु दो वस्त्र, तीन वस्त्र, एक वस्त्र या अवस्त्र से संयमानुष्ठान में दृढ हैं; उनका अन्य साधु अनादर न करें, तिरस्कार न करें क्यों कि- वे सभी जिनाज्ञानुसार हि हैं... तथा संघयणबल एवं धृति आदि कारणों से जो जो साधु विभिन्न आचारवाले हैं, वे परस्पर एक-दुसरों की अवगणना न करें, एवं अपने को अन्य से हीन-न्यून या अधिक न समझें... क्योंकि- वे सभी जिनाज्ञानुसार यथाविधि कर्मो के क्षय के लिये हि उद्यमशील हैं... अतः हे श्रमण ! आप यह बात निश्चित प्रकार से सम्यग् जानीयेगा... अथवा चारों और से द्रव्यादि भेद से लाघवता को प्राप्त करके, सर्व प्रकार के नामादि निक्षेपों से सम्यक्त्व को हि सम्यग् जानीयेगा... अर्थात् तीर्थंकर एवं गणधरादि के उपदेश से सम्यक् धर्मानुष्ठान करें... यह यहां सारांश है... - तथा यह कष्टसाध्य-अनुष्ठान आपके समक्ष हम नागमणी के उपदेश की तरह ऐसे हि व्यर्थ नहि कहते हैं, क्योंकि- अनेक साधुओं ने चिरकाल याने दीर्घ समय पर्यंत इन अनुष्ठानों का आचरण कीया है... जैसे कि- अचेल रूप से संयमाचरण करनेवाले तृणादि के स्पर्शों को सहन करनेवाले एवं सकल लोक में चमत्कार करनेवाले उन धीर वीर महावीरों ने चिररात्र याने प्रभूत काल अर्थात् जीवन पर्यंत यह धर्मानुष्ठान कीया हैं... तथा एक पूर्व वर्ष याने 84,00,000 x 84,00,000 = 7056,00,000, 00
SR No.004437
Book TitleAcharang Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages368
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size8 MB
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