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________________ 卐१ - 8 - 0-0卐 श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन चोंटती है, उसी प्रकार राग-द्वेष से स्निग्ध जीव में कर्मो का बंध होता है... इत्यादि... आठ प्रकार के इन कर्मो का वियोग (विनाश) आश्रव के निरोध से एवं तपश्चर्या के द्वारा या क्षपकश्रेणी के क्रम से शैलेशी अवस्था में होता है, उसे मोक्ष कहते हैं... और चार पुरुषार्थ में यह मोक्ष हि प्रधान पुरुषार्थ है... और यह मोक्ष खड्गधारा-तुल्य व्रतानुष्ठान का फल है... अन्य मतवालों ने मोक्ष का विकृत स्वरूप विभिन्न प्रकार का दिखलाया है; अत: यथावस्थित निर्दोष मोक्ष का स्वरूप तो आठ कर्म के वियोग से हि होता है; ऐसा आप्तपुरुषों ने कहा है... अब जीव का कर्मो के वियोग के उद्देश से होनेवाले मोक्ष का स्वरूप नियुक्तिकार कहतें हैं... नि. 262 सहज हि अनंतज्ञान स्वभाववाले असंख्येय प्रदेशी जीव ने अपने आप हि मिथ्यात्व अविरति प्रमाद कषाय एवं योगों के द्वारा बांधे हुए और प्रवाह से अनादिकाल के सत्तागत कर्मो का जो विवेक याने सर्व प्रकार से आत्मप्रदेशों में से विनाश हो, उसे हि मोक्ष कहतें हैं... इससे भिन्न दीपक के बुझ जाने जैसा निर्वाण इत्यादि जो अन्य मतवालों ने मोक्ष माना है; वह मोक्ष का वास्तविक स्वरूप नहि है... इस प्रकार यहां भाव-विमोक्ष का स्वरूप कहा... और वह भावविमोक्ष भक्तपरिज्ञा आदि तीन प्रकार में से कोई भी एक प्रकार से हि संभवित है... यहां कार्य में कारण का उपचार करने से भक्तपरिज्ञादि मरण हि भाव-विमोक्ष है... यह बात अब आगे की गाथा से नियुक्तिकार स्वयं कहतें हैं... नि. 263 (1) भक्त की परिज्ञा याने आहारादि का त्याग... अनशन... और वह त्रिविधाहार या चतुर्विधाहार के त्याग स्वरूप है... भक्तपरिज्ञा-अनशन स्वीकार करनेवाला साधु सप्रतिकर्म शरीरवाला एवं धृति-संहननवाला होता है... अतः जिस प्रकार समाधि हो, उस प्रकार अनशन स्वीकारतें हैं... तथा इंगित प्रदेश में जो मरण उसे इंगितमरण कहतें हैं... और वह चतुर्विध आहारादि के त्याग स्वरूप है, और यह इंगितमरण विशिष्ट संहननवाले साधु को हि होता है... तथा जो अन्य के सहकार बिना स्वयं हि देह के अंगोपांगों की उद्वर्तनादि क्रिया कर शके ऐसे साधु हि इंगितमरण-अनशन स्वीकारतें हैं... (3) पादपोपगमन - अनशन में... चर्तुविधाहार का त्याग होता है तथा अधिकृत चेष्टा (क्रिया) के सिवा अन्य उद्वर्तनादि क्रियाओं का त्याग... शरीर की कोई भी सेवाशुश्रुषा का त्याग... अर्थात् वृक्ष की तरह निष्क्रिय स्थिर रहना होता है... '
SR No.004437
Book TitleAcharang Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages368
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size8 MB
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